बलवंतराव : निर्माता ने जानवरों-पंछियों आदि में और मानव प्राणी में कुछ भेद किया है या नहीं?
जोतीराव : निर्माणकर्ता ने जानवरों-पंछियों आदि प्राणियों को एक कुदरती इल्लत दी है। वह हमेशा जैसी की तैसी कायम रहती आई है। वे उसके कारण अपने में कुछ भी परिवर्तन नहीं ला सकते। किंतु निर्माणकर्ता ने मानव प्राणी को पूरी तरह से सोच-विचार करने की बुद्धि दी है। उसी के द्वारा वे अपने-अपमें ज्यादा से ज्यादा सुधार कर सकते हैं।
बलवंतराव : आपने इल्लत और बुद्धि के बारे में कहा है। लेकिन उसके बारे में मुझे सही बोध नहीं हुआ है। इसलिए इन शब्दों के बारे में यदि आप विस्तार से स्पष्टीकरण दे सकें तो बहुत ही अच्छा हो।
जोतीराव : हजारों साल पहले चमगादड़ नाम की चिड़िया घोंसला बनाकर या पेड़ की डालियों में अपने को लटकाकर या जैसे भी रहती थी या उसकी जाति की अन्य चिड़ियाँ तब जैसे रहती थीं आज भी वे वैसे ही रह रही हैं, उसमें कोई भी सुधार या परिवर्तन नहीं दिखाई देता। इसका मतलब है कि निर्माणकर्ता ने जानवरों-चिड़ियों आदि प्राणियों को मानव प्राणी की तरह सार-असार जानने, पूरी तरह विचार करने की बुद्धि बिलकुल ही नहीं दी है। लेकिन दूसरी तरफ हजारों साल पहले पेड़ों पर, पत्थरों की गुफाओं में रहने वाले, घुटनों के बल चलने वाले, जानवरों की तरह पानी पीने वाले मानव प्राणी में और आल के विकसित युग में बड़े-बड़े मकानों, महलों, कोटियों में रहने वाले मानव-प्राणी में कितना भारी सुधार हुआ है। प्राचीन मानव, इतिहास-पूर्व मानव और आज के मानव में तुलना ही नहीं हो सकती। इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि निर्माता ने मानव प्राणी को सबसे श्रेष्ठ बुद्धि दी है जिसके द्वारा हम सार और असार को जान सकते हैं। इसी बुद्धि के द्वारा हम कम से कम दिनों में और कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा सुधार कर सकते हैं।
बलवंतराव : इसका मतलब जानवर-पंछी आदि में अच्छे गुण बिलकुल ही नहीं हैं?
जोतीराव : ऐसा कैसे कहा जा सकता है? सभी जानवरों-पंछियों आदि को अपने पेट की चिंता तो होती ही है, लेकिन वे मानव प्राणियों की तरह स्वयं श्रम किये बगैर दूसरों का शोषण नहीं करते। एक समय की बात है, युद्ध में अश्वत्थमा हाथी या अश्वत्थमा मनुष्य मारा गया, इस तरह की विवादपूर्ण अफवाह फैली। उस समय द्रोणाचार्य को लगा कि अश्वत्थामा नाम का उसी का बेटा युद्ध में मारा गया है। वह सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर को पूछने के लिए गया। उस समय कृष्ण ने उसकी ओर से झूठ बोला, (कि अश्वत्थामा नामक हाथी नहीं इस नाम का मनुष्य मारा गया है-जो द्रोणाचार्य का पुत्र था), और इस तरह आचार्य की इस शोक में मृत्यु हो गई। इस तरह के सदा सत्यवादी व्यक्ति (युधिष्ठिर) को पाप की खाई में ढकेलने वाले काले कृष्ण को ईश्वर कहा जाता है। ये लोग अज्ञानी-दुर्बलों के हितचिंतक मानव बंधु के प्रति तरह-तरह से श्रद्धा-भक्ति के भाव दिखाकर स्वयं खुद साधु-संतों का स्वांग रचाते हैं और उन (दुर्बल-अज्ञानियों) को दिन-दहाड़े धर्म के नाम पर खुलेआम लूटते हैं। ये लोग उनकी मेहनत पर ऐशो-आराम करते हैं और उनको चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए मजबूर करते हैं। जानवरों, पंछियों आदि मानव समाज के आर्य ऋषियों की तरह ईश्वर के नाम पर धर्म की किताबें नहीं लिखी गई हैं, न वे बड़े धार्मिकता का स्वांग दिखाकर अपने जाति भाइयों को लूटते हैं, न दूसरों की मेहनत को हड़पकर अपना पेट पालते हैं। क्या उनमें झूठा इंसाफ, झूठी किताबें, झूठे कागल, नकली नोट, झूठी गवाह देने वाले लोग मिलेंगे? सारांश, जानवरों, पंछियों आदि में मानव समाज के नाना पेश्वा और वासुदेव बलवंतराव फड़के जैसे आतंकवादी और चोर नहीं मिलेंगे? यह बात सही है कि निर्माता ने मानव प्राणियों को पूरी तरह विचार करने की बुद्धि दी है और उनको सभी जीव प्राणियों में श्रेष्ठ बनाया है, लेकिन उन्होंने उस अनमोल पवित्र बुद्धि को किसी भी तरह सार्थक नहीं किया है। इसलिए बुद्धिहीन जानवर, चिड़िया आदि जीव प्राणी इस लोभी मानव से भी बहुत ही श्रेष्ठ हैं, ऐसा मुझे लगता है।
धर्म
यशवंत : मजदूरी के रूप में अपने सभी ग्राहकों के कपड़े-धोकर उस पर अपना निर्वाह करना यह धोबी का धर्म है या नहीं?
जोतीराव : मजदूरी के लिए हम सभी के कपड़े धोकर उस पर यदि धोबी अपना निर्वाह करता है तो हम लोग भी कभी-कभार अपने कपड़े धोते हैं या नहीं? इस तरह मजदूरी लेकर दूसरों के कपड़े धोना, यह एक तरह से धंधा हो गया, इसको किसी को क्यों धर्म कहना चाहिए? उसी प्रकार कोई आर्य-भट्ट ब्राह्मण दूसरे का शागिर्द बनकर उनके कपड़े धोकर अपना गुजारा करने लगा तो क्या उसको आप लोग धोबी कहेंगे? और उस शागिर्द ब्राह्मण का धोबी जैसा वह धंधा उसका धर्म होगा?
यशवंत : उसी प्रकार मजदूरी के लिए सभी लोगों की हजामत करके उस पर अपना गुजर-बसर करना यह हज्जाम का धर्म है या नहीं?
जोतीराव : मजदूरी के लिए हम सभी के बाल काटना, यह यदि हज्जाम का धर्म है, तो हम लोग हमेशा अपने नाजुक जगह के बाल एक ओर जाकर काटते हैं या नहीं? इसके अलावा किन्हीं धूर्त हज्जामों की बहत ही धूर्त ब्राह्मणों से किसी मामूली कारण से तू-तू, मैं-मैं हो गई तो कई ब्राह्मण पैसा कमाने के उद्देश्य से बेझिझक बगल में नाइयों वाला झोला दबाकर दूसरों की हजामत करने का धंधा करते हैं। इस आधार पर आर्यभट्ट ब्राह्मणों का धर्म हज्जाम का धर्म हो गया, क्या यह कहा जाएगा?
यशवंत : क्या मजदूरी के लिए हम सभी लोगों का पाखाना साफ करके उस पर अपना निर्वाह करना यह भंगी का (हलालखोर) धर्म है या नहीं?
जोतीराव : मजदूरी के लिए हम सभी लोगों का पाखाना साफ करना यह यदि भंगी का धर्म है तो हम लोग भी तो कभी घर की खटिया पर पड़े हुए अपने किसी बीमार आदमी का पाखाना साफ करते हैं या नहीं? मतलब मजदूरी लेकर दूसरों का पाखाना साफ करना यह एक प्रकार का धंधा है, उसको कौन आदमी धर्म कहेगा? उसी प्रकार किसी मूर्ख ब्राह्मण ने दूसरे का शागिर्द होकर उसका पाखाना साफ किया तो क्या आप उसको भंगी कहेंगे? धनगरों द्वारा भेड़े पालकर उनको चराना यह उसका धर्म नहीं है, बल्कि यह उसका एक धंधा है। खेती का काम करना कुनबी का धर्म नहीं है, बल्कि वह उसका धंधा है। बाग का काम करना माली का धर्म नहीं है, बल्कि वह उसका एक धंधा है। मेहनताना लेकर लोगों की सेवा करना नौकर का धर्म नहीं है, बल्कि वह उसका धंधा है। मकान का काम करना बढ़ई का धर्म नहीं है, बल्कि वह उसका एक धंधा है। जूता बनाना चमार का धर्म नहीं है, बल्कि वह उसका एक धंधा है। रखवाली करना रामोशी का धर्म नहीं है, बल्कि वह उसका एक धंधा है। दुर्बल, पराजित, सर्वारा लोगों द्वारा अपने क्रूर, विजयी मालिक लोगों की सेवा करना यह उनका धर्म नहीं है, बल्कि यह उनकी लाचारी और मजबूरी है। धूर्त चोरों द्वारा सोए हुए लोगों के मकान तोड़ना यह उनका धर्म नहीं है, बल्कि यह उनके हाथ की सफाई है। विजयी आर्यभट्ट ब्राह्मणों द्वारा अतिशूद्रों को पढ़ाई-लिखाई का अधिकार न देना यह उनका धर्म नहीं है, बल्कि यह उनका बदला लेने का षड्यंत्र है। पराजित अज्ञानी लोगों को छलकर खाना यह उनका धर्म नहीं है बल्कि यह उनकी धूर्तता है। सरकारी काम पर रहने वाले का अनपढ़ लोगों से रिश्वत लेना यह वैसे कर्मचारी का धर्म नहीं, बल्कि यह उसका सरकार से दगाबाजी करने की चालाकी है। बिना मेहनत के धर्म के नाम पर अज्ञानी लोगों को लूटकर खाना यह जानकार-समझदार ब्राह्मण का धर्म नहीं है, बल्कि यह उसकी खुल्लमखुल्ला धोखेबाजी है। मूर्ख-अनपढ शूद्रों के द्वारा यहाँ के अंग्रेज सरकार के विरोध में विद्रोह करवाकर अज्ञानी शूद्रादि-अतिशूद्रों को विपदा में डालना यह धूर्त पेशवा और फड़के इनका धर्म नहीं है, बल्कि यह उनकी राजद्रोह करने की बदमाशी है। अन्य सभी लोगों को नीच मानना और केवल अपने-आपको पवित्र मानकर शुद्धि आदि कर्मकांड करना यह ब्राह्मणों का धर्म नहीं है, बल्कि यह उनकी सारी अब्राह्मण दुनिया को अपवित्र मानने की जातिगत चालाकी है। वेश्या के साथ एक शय्या पर सोने के बाद घर में आने पर शुद्धिकर्म करना यह सज्जन मानव का धर्म नहीं है, बल्कि यह उसकी अपवित्रता है। अपने निर्वाह के लिए मरे हुए जानवरों का मांस खाना यह मातंगमहारों का धर्म नहीं है, बल्कि यह उनकी लाचारी और मजबूरी है। यज्ञ के और श्राद्ध के बहाने तदुरुस्त गौ-आदि जानवरों की हत्या करके खाना यह ब्राह्मणों का धर्म नहीं है, बल्कि यह उनकी मांस खाने की प्रवृत्ति है।
यशवंत : रैयत से लगान लेना यह भी क्या राजा का धर्म नहीं है?
जोतीराव : चोर, विद्रोही और कई प्राकर के धर्मठग, धूर्त, लुच्चे लोगों के द्वारा खड़ी की गई परेशानी से प्रजा का और अपना बचाव करने के लिए रैयत से कर लेना, यह राजा का कर्तव्य कर्म है, इसको धर्म क्यों कहना चाहिए?
यशवंत : राजा द्वारा वसूल किए गए कर, चंदे की रकम रैयत के सुख के लिए खर्च न करके सिर्फ निकम्मे, धूर्त ब्राह्मणों के पालन-पोषण पर खर्च करने और अपने खुद के ऐशो-आराम के लिए उसका उपयोग करने से उसका परिणाम क्या होगा?
जोतीराव : इस तरह करने से कई राजा-रजवाड़ों का बुरा हाल हो गया। एक समय ऐसा आया कि उनको मिट्टी फाँकनी पड़ी - और आगे भी उनके हाल इसी तरह होंगे, उनका निश्चित रूप से विनाश होगा।
यशवंत : लड़के-बच्चों का अपने माँ-बाप की आज्ञा का पालन करना क्या यह भी उनका धर्म नहीं है?
जोतीराव : जब हम पैदा हुए उस समय हम बहुत छोटे थे, बच्चे थे, बहुत दुर्बल थे, अबोध नन्हे-मुन्ने थे - उस समय हमारे जन्मदाता माँ-बाप ने हमें पाला-पोसा, हमें अच्छी शिक्षा दिलवाई - ये उनके हम पर अनंत, अमर्यादित उपकार हैं। उसी प्रकार जब हमारे माँ-बाप बुढ़ापे की वजह से दुर्बल अपाहिज बन जाते हैं, तब हम सभी बाल-बच्चों को बड़ी कृतज्ञता के साथ, बड़ी लगन से उनकी सेवा पालन-पोषण करना चाहिए। इस तरह उनके उपकारों से मुक्त हुए बगैर बच्चे और माँ-बाप में देन-लेन का व्यवहार समाप्त नहीं होता।
यशवंत : फिर दुर्बल और निराधार माँ-बाप का पालन-पोषण करके उनके उपकारों से मुक्त हुए बगैर औरत का त्याग करके बाल ब्रह्मचारी और ताबूत में रखे शव का-सा स्वाँग रचकर बदन को भभूत लगाकर फोकट के खाने-वाले वैरागी कैसे बनते हैं? इसके बारे में आपका क्या कहना है?
जोतीराव : इसके बारे में औरत का त्याग करने वाले बाल ब्रह्मचारी को और वैरागी को नौ माह तक अपने पेट में रखकर जो उसका पालन-पोषण करते हैं उसके उन माँ-बाप से पूछो तो आपको इसका सही जवाब मिल जाएगा। लेकिन जब कभी इस धरती के सभी नर-नारी मुक्ति पाने की इच्छा से बाल ब्रह्मचारी, बाल ब्रह्मचारिणी, वैरागी और वैरागन आदि सीधे साधु-साधुनियों का स्वाँग रचाकर रात और दिन काल्पनिक सनातन शेषशायी का नाम-स्मरण करने लगें तो उन सभी लोगों के प्रयत्न दो-चार महीने के अंदर-अंदर भूख-प्यास से बेकार हो जाएँगे या नहीं? क्योंकि वे सभी लोग किसी की मेहनत पर अपना निर्वाह कर लें, इतनी गुंजाइश ही नहीं रहती। सारांश, नौकर के मालिक के पास नौकरी करने को नौकर का धर्म कहा जाता है, वेश्या का किसी नौजवान को अपना आशिक बनाने का काम करना यह आशिक का धर्म कहा जाता है, आर्यभट्ट ब्राह्मणों का शूद्रादि-अतिशूद्रों को नीच मानना इसको आर्य ब्राह्मणों का धर्म कहा जाता है। इस प्रकार धर्म शब्द के कई प्रकार के अर्थ होते हैं। धूर्त भट्ट ब्राह्मण अपना स्वार्थ हासिल करने के लिए जैसा मौका आता है वैसा उसका अर्थ करके अपना हित साधन कर लेते हैं।
यशवंत : हम सभी के निर्माता और उसके द्वारा निर्मित मानव प्राणियों में संबंध दिखाने वाले धर्म शब्द का सही-स्वाभाविक-पवित्र अर्थ यदि और हो तो उसके बारे में या निर्माता की महानता के बारे में हमको समझायें तो बहत ही अच्छा हो।
जोतीराव : हम पहले ही आपको बता चुके हैं कि हमारे दयालु निर्माता ने इस विशाल, गूढ़, कल्पनातीत अवकाश के अनंत सूर्यमंडलों के साथ उनके ग्रहों-उपग्रहों को बनाया है। उसमें सिर्फ इस अपने सूर्यमंडल के बारे में सोचा जाए तो भी हम जैसा सामान्य जनों की बुद्धि और तर्क पर्याप्त नहीं है। जैसे, गुरुत्वाकर्षण की वजह से पृथ्वी को सूर्य के चारों ओर फेरी समाप्त करने से पहले वह अपने-आप अपनी धुरी पर चक्कर लगाती तीन सौ पैंसठ (365) बार घूमती है। इसी की वजह से इस धरती पर दिन और रात ऐसे दो भेद होते हैं, इसी से सभी प्राणी दिन-भर अपने पेट के लिए मेहनत करते रहते हैं और थक जाने की वजह से रात में सुख से आराम करते हैं। इस धरती के सभी जीव-प्राणियों को पानी की उचित पूर्ति हो, इसलिए निर्माता ने उसी धरती के धरातल पर जगह-जगह महासागरों का निर्माण किया है और उन महासागरों का पानी गंदा होकर सड़ न जाए, इसलिए उसमें खारापन पैदा करने के लिए नमक मिलाया है। और चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण की वजह से उसको दिन में एक बार चढ़ने-उतरने (ज्वार-भाटे के रूप में) की योजना बनाई है। उसी तरह निर्माता ने जिन जीव प्राणियों को पैदा किया है उन तमाम जीव प्राणियों में से केवल मानव प्राणी के शरीर की ग्रंथियों के संकलन के बारे में विचार करने पर आपको यह दिखाई देगा कि उसमें निर्माता की अथाह ममता और अथाह कुशलता दिखती है। जैसे, मनुष्य के पाँव में टखना, घुटना। इनकी और कमर में जोड़ की योजना न बनाई होती तो उसको ढंग से न चलना आया होता और न दौड़ना। बल्कि इस तरह की व्यवस्था न होती तो उसको चिमनियों की तरह दोनों पाँव एक साथ उठाकर छने हुए-से कूदकर चलना पड़ता। हाथ की पाँच उँगलियों के पोर को, हथेली को, कलाई को, कुहनी को और भुजाओं के जोड़ की यदि योजना न होती तो बेचारे मानव प्राणी को तरह-तरह के श्रम करने व उसी हाथ से भोजन करना असंभव हो जाता। उसकी गरदन में यदि जोड़ न होते तो उसको ऊपर-नीचे, दायीं ओर या बायीं ओर मुड़ने के लिए कितनी परेशानी उठानी पड़ती, यह तो आप भी जानते हैं। यदि निर्माता ने मनुष्य को कान नहीं दिए होते तो उनकी मदद से उसको सारी दुनिया को सुनने का जो मौका मिला है वह उससे वंचित रहता और इसी तरह दूसरों के शब्दों को सुनकर उनका उत्तर देने का मौका भी न मिला होता। मधुर भाषण करने वाली और तरह-तरह के स्वाद का मजा लेने वाली जीह्वा को मुँह में दाढ़ों और दाँतों आदि के बिना महीन चबाए हुए पदार्थ को गले के भीतर निगलना बिलकल संभव नहीं होता और जबड़े के ऊपर-नीचे दो होंठों का मजबूत और बार-बार खुलने-बंद होनेवाला डिब्ब यदि नहीं बनाया गया होता तो उसको सभी प्रकार के तरल और भारी पदार्थ ढंग से खाना-पीना असंभव हो गया होता और उसके बुरे हाल होते। और वे पदार्थ सरलता से खाते समय मनुष्य के गले में दम घुटकर वह घबराए नहीं, इसलिए उसके गले में साँस लेने के लिए निर्माता ने नाम अर्थात नल रूप इंद्रिय की व्यवस्था की है। उस इंद्रिय को और भी एक काम सौंप दिया गया है कि उसे अच्छे और गंदे पदार्थों के बीच फर्क और इच्छित वस्तु के चयन की तमीज होनी चाहिए। सबसे ऊॅंचे भाग में सुविधायुक्त् उचित किंतु कुछ गहरी जगह बनाकर उसमें बहुत बारीक तरीके से नेत्रों की रचना की गई है। उन कोमल नेत्रों का बचाव करने के लिए प्रति पल पलक गिरने और खुलने का काम करने वाले डिबिया जैसे ब्रश के समान दो पलकें बनाई गई हैं। इसके अलावा मानव प्राणी का जन्म होने के बाद उसके बचपन का निर्वाह करने के लिए उसकी माँ के स्तनों में तीन दिन के भीतर उस मानव बालक को दूध पिलाने की व्यवस्था की गई है और उस मानवीय दुधमुँहे बच्चे के नाजुक होंठ होने की वजह से उसको दूध पीते समय किसी भी तरह के जख्म या चोट न लगे, इसलिए निर्माता ने उसके माँ के दोनों स्तनों को बहुत ही मुलायम और गुलगुल छोटे-छोटे रेशमी कोये की तरह कुछ ऊँचे बनाए हैं। वह दुधमुँही बच्चा अपने स्वभाव के अनुसार उनको मुँह में लेकर उनसे आसानी से दूध चूस सके, इसलिए माँ के स्तनों पर बहुत ही कोमल और उसके मुँह में आसानी से समा जाने योग्य स्तर चूचुक बनाए हैं। दूध पीते समय बच्चे के मुँह में ज्यादा दूध आकर वह घबराए नहीं, इसलिए हर स्तर चूचुक को बहुत ही बारीक जाली जैसे छेद बना करके उनमें से दूध के तकरी बन अठारह धाराओं की रचना की गई है। उसी प्रकार मानवीय प्राणियों की माँ के स्तन का दूध समाप्त होते ही उनका निर्वाह करने के लिए हमारे दयालु निर्माना ने अंगूर, अनार, अनन्नास, नारियल, जायफल, बेर, आँवला, काजू, जामुन, मौलसरी, सीताफल, केला, नारंगी अमरूद, अंजीर, कटहल, आम, रामफल आदि तरह-तरह के फलों के पेड़ पैदा किए हैं। वैसे ही ज्वार, हरअर, तिल, मसूर, मटर और सेम की फली, उड़द, मूँग, राली, बाजरा, चना, गेहूँ, चावल आदि तरह-तरह के अनाज पैदा किए हैं। मरखा, कल्ला, आबीलोना, बथुआ, मेथी, चौलाई, गोभी, कद्दू, तोरई, पालक, बैंगन, ग्वार, परवल, भिंडी आदि तरह-तरह की सब्जी-भाजियाँ पैदा की हैं। उसी प्रकार आलू, प्याज, लहसुन, गाजर, मूली, शकरकंद, अदरक, आदि तरह-तरह के कंद-मूल व वनस्पति पैदा की है। और उन सभी चीजों में बढ़कर उनके सोने-बिछाने की सुविधा के लिए कपड़ों-लत्तों की मदद हो, इसलिए कपास, जूट आदि के पौधों को पैदा किया है। इन सभी चीजों को पैदा करने के लिए जब आदमी दिन और रात मेहनत-मजदूरी करता है, उनकी हर तरह से हिफाजत करके जब स्वयं थक जाता है तब उसको अपनी थकान दूर करने के लिए चंपा, पारिजात, कचनार, कदंब, केवड़ा, केलकी, गुलच्छबू, पन्ना, मरुआ, चमेली, मोतिया, गुलाब, मधुमालती, गुलदाउदी, मदनबाग, मोगरा, जूही आदि तरह-तरह के फूलों की सुगंध लेकर इस महाविशाल बाग में मानव नर-नारी बागवान हमेशा-हमेशा के लिए आराम और खुशी से रह सकें, इसलिए इन चीजों को पैदा किया गया है।
यशवंत : यदि निर्माता ने दयावान होकर उक्त प्रकार की सारी व्यवस्था मानव नर-नारियों के सुख के लिए की है तो सारी दुनिया में असंतोष प्रकट होकर दुख कैसे पैदा हुआ है?
जोतीराव : इसका कारण यह है कि हम सभी मानव समाज के लोगों ने अपने निर्माण्कर्ता के डर को अपने मन में हमेशा कायम नहीं रखा। उसी प्रकार उसके द्वारा निर्मित मानव नर-नारियों ने बहन-भाइयों की पवित्र भावना को भी कायम नहीं रखा, इसलिए इस दुनिया से पूरी तरह सत्य का नाश हुआ है, यहाँ असंतोष पैदा हुआ है और दुख का वर्चस्व बढ़ा है।
यशवंत : इन तमाम बातों का यदि अच्छी तरह से स्पष्टीकरण दें तो बहुत ही अच्छा हो।
जोतीराव : हम अपने-आपको ही सबसे बड़े होशियार समझते हैं। ज्ञान की अकड़ में सभी मानवीय नर-नारी अपनी माँ के प्रति, जिसने अपने पेट में नौ माह तक उनका भार वहन किया और जन्म दिया, गैर जिम्मेदार होकर अनादर व्यक्त करते हैं। उसी तरह पुरुष अपनी माँ की कोख से अपने से पहले या बाद में पैदा हुए अपनी सगी बहन की भी बेशरमी से उपेक्षा करते हैं। वैसे ही मानव पुरुष अपने पैदा की हुई लड़कियों, बहू-बेटियों की किसी भी प्रकार की परवाह किए बगैर उन पर यह झूठा आरोप लगाने लगे हैं कि सभी माताएँ, बहनें, बेटियाँ और सभी बहू-बेटियाँ नकली और बहुत ही धूर्त-चालाक औरतों की जाति हैं। मानव पुरुष नारियों के साथ लूट में प्राप्त हुए उपभोग्य दासी के समान व्यवहार करते हैं। इसी की वहज से सारी दुनिया में सत्य का विनाश हुआ और असंतोष की भावना जागी और दुख का निर्माण हुआ।
यशवंत : यदि सभी मानव पुरुषों ने सत्य को स्वीकार करके सभी नारियों को उनके सभी मानवी अधिकार लौटा दिए तो इस दुनिया में निर्माता के राज्य की स्थापना होगी और नर-नारियों में संतोष की भावना जागेगी और सभी लोग सुखी होंगे या नहीं?
जोतीराव : वैसा करने से मतलब केवल निर्माता के राज की स्थापना होकर हम सभी लोग सुखी होने वाले नहीं हैं। क्योंकि, सभी पुरुषों द्वारा सत्य का पालन करके आपस में एक-दूसरे से निर्मल और पवित्र मन से आचरण किए बगैर उन सभी में निर्मल भाईचारा जाग्रत नहीं होगा, इसलिए अपने इस अभागी दुनिया में फिलहाल निर्माता के राज्य का निर्माण होना संभव नहीं है।
यशवंत : यदि इसके बारे में आप कोई महत्त्वपूर्ण उदाहरण देंगे तो बहुत ही अच्छा होगा।
जोतीराव : यशवंत, इसके लिए मैं यहाँ महान पुरुष के वाक्य को उद्धत कर रहा हूँ और उस महावाक्य की पवित्रता से आप सभी लोगों का निश्चित रूप में समाधान होगा। वह महावाक्य है :
"यदि तुम चाहते हो कि लोगों को हमसे अमुक तरह का व्यवहार करना चाहिए तो तुम्हें भी उसी तरह का उनसे व्यवहार करना चाहिए।"
नीति
यशवंत : आर्यों के धर्म में ब्राह्मणों के अलावा बाकी सभी लोगों को नीति का समान उपभोग करने की आजादी है या नहीं?
जोतीराव : आर्यों के धर्म में ब्राह्मणों के अलावा बाकी सभी लोगों को नीति का समान उपभोग करने की बिलकुल स्वतंत्रता नहीं है, क्योंकि, आर्यों के मूल ग्रंथ वेदों में यह साफ लिखा हुआ है कि आर्यों ने साने के लालच में जब-जब इस धनवान बलिस्थान पर हमले किए, तब-तब उन्होंने यहाँ के मूल निवासी आस्तिक, किकाटस, पिशाच, अहीर, राक्षस, भील, कोली, वैदू, मातंग, शूद्रादि-अतिशूद्र आदि क्षत्रिय लोगों के साथ तीर-कमान आदि शस्त्रों से लड़कर उनको कई बार लूट लिया और उन्हें मटियामेट कर दिया गया। फिर आर्य ब्राह्मणों ने उन पर अपना वर्चस्व कायम करते ही निर्माता के डर को अपने दिलो-दिमाग से हटा दिया। उन्होंने सभी पराजितों को नीच मानना शुरू कर दिया और उनको पशु से भी नीच मानने की परंपरा शुरू कर दी। आर्यों ने उन पराजितों की संतान को भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने गुलाम बनाकर रखा और हर तरह से उनका शोषण किया और आज भी उनकी वही शोषण की परंपरा कायम है। इसके संबंध में उनके वेदों के सही इतिहास और श्रुति-संहिता आदि संस्कृत ग्रंथों के बदमाशी-भरे और स्वार्थी लेख बलिस्थान के क्षत्रियों को समझ में न आए, इसलिए आर्यों ने अपने स्वार्थी चूल्हे के पीछे रसोईखाने में उन्हें छुपाकर के रखा है। इतना ही नहीं, बलिस्थान के अनपढ़ क्षत्रियों को आर्यों के नकली और सत्सर-भरे ग्रंथों का बिलकुल पता न चले, इसलिए आर्यों ने धूर्तता से पराजित किए लाचार क्षत्रियों को संस्कृत भाषा का बिलकुल ही ज्ञान न होने देने के उद्देश्य से उनको वेदों के बारे में ज्ञान हासिल करने पर कड़ी पाबंदी लगा दी। सबसे प्राचीन आर्य ब्राह्मणों की नीति का यह एक नमूना देखिए।
यशवंत : रामायण और भागवत के संपूर्ण इतिहास की नीति सही और विश्वसनीय है या नहीं?
जोतीराव : रामायण और भागवत ग्रंथ के इतिहास में सारी नीति सच और विश्वसनीय है, तो ऐसा कौन कह सकता है? क्योंकि, रामायण की कई बातों का ब्राह्मणों की ओर झुकाव है, वे असंभवनीय हैं। उसी प्रकार भागवत ग्रंथ की सारी बातें असंभवनीय हैं, हम सभी के निर्माता के नाम को कलंकित करने वाली हैं।
यशवंत : तो इसी आधार पर रामायण में कौन-सी बातें असंभवनीय हैं, इसके बारे में यदि आप हमको कुछ बता देंगे, तो अच्छा होगा।
जोतीराव : काल्पनिक रामायण में लोभी रावन के दस मुख, दस नाक, बीस आँखें, बीस कान, और बीस हाथ थे, लेकिन उसके केवल एक गुदाछार था और दो पाँव थे, फिर उसके अपने दस मुखों से खाई हुई चीजों को हजम करने के बाद एक ही गुदाद्वार से बाहर निकालने का क्या तरीका रहा होगा। इस बारे में सारे सृष्टि क्रम की छान-बीन करने के बाद रावण के शरीर की रचना के बारे में सोचकर बड़ा आश्चर्य होता है। उसी प्रकार एक समय परशुराम जनक राजा को मिलने के लिए गया था। वहाँ उसने अपना तीर-कमान उसके महल के बाहर के एक कोने में रख दिया था और खूद दीवानखाने में उसको मिलने के लिए गया था। कुछ देर तक उन दिनों की बातचीत चलती रही थी, उस समय महल के सभी लड़के-लड़कियाँ लकड़ी के घोड़े बनाकर खेल रहे थे, लेकिन जानकी को लकड़ी नहीं मिली, इसलिए वह वहाँ रखे हुए धनुष का घोड़ा बनाकर खुद भी उन बच्चों के साथ खेलने लगी। परशुराम अपनी बातचीत समाप्त करके जब बाहर आकर देखता है, तो उसको वहाँ धनुष दिखाई नहीं देता। पूछताछ करने के बाद उसको उस धनुष का घोड़ा बनाकर लड़के-बच्चों में टनाटन कूदकर खेलते हुए जानकी दिखाई दी। उस समय (भूदेव) परशुराम को ऐसा लगा कि अब मेरा अवतार समाप्त हुआ, क्योंकि इस संसार के निर्माता ने मुझसे भी बलवान मनुष्य को बनाकर इस दुनिया में भेजा है, तभी तो यह अज्ञान लड़की मेरे धनुष को लकड़ी की तरह समझकर उसका घोड़ा बनाकर खेल रही है। अब मेरे अवतार की तूंबी बंद हो गई है, ऐसा समझकर उसने उसके बारे में सत्य-असत्य जानने का संकल्प किया। उसने अपने धनुष को जनक राजा के पास रखा और अकेले में उसको कहा कि इस धनुष पर जो तीर चढ़ाएगा उसको ही इस लड़की को देना और वैसा न करके लड़की को यदि उचित सौहर न मिला तो इसका जीवन तबाह हो जाएगा, मटियामेट हो जाएगा। आगे परशुराम की सलाह के अनुसार उसके ब्याह के समय जनक राजा ने बलिस्थान के सभी प्रदेशों के राजा-महाराजाओं को धनुष-बाण की प्रतिज्ञा के बारे में औपचारिक निमंत्रण दिया। फिर वहाँ इकट्ठे सभी भूपतियों में सबसे पहले रावण ने आगे आकर हाथ में धनुष और बाण लेकर धनुष पर बाण चढ़ाया लेकिन बड़ी ताकत से उस धनुष को कान तक ले जाने के पहले ही उसकी साँस फूल गई और धनुष-बाण को छाती पर लिए उसने उस सभा में मुँह की खाई। बाद में राम, लक्ष्मण और सीता जब वनवास को गए तब वहाँ उनको शूर्पणखा नाम की नारी का अपमान करने की वजह से उसके भाई (रावण) को गुस्सा आया और उसने उसका बदला चुकान के इरादे से अपने पास के किसी एक को सुनहरे रंग का हरिण बनाकर पंचवटी में जहाँ सीता थी उसे भेजा। सीता उस हरिण के सौंदर्य पर आसक्त हुई और उसने बड़ी जिद से राम को उस हरिण को पकड़ने के लिए भेजा। कुछ देर के बाद उस हरणि वेशधारी राक्षस ने राम की तरह आवाज निकालनी शुरू की और उस आवाज को राम की आवाज समझकर सीता ने रामचंद्र की खोज करने के लिए लछमन को भेजा। ऐसे समय उसको अकेली देखकर रावण ने संन्यासी का स्वाँग रचाकर भिक्षा माँगने सीता के निवास स्थान के पास गया। भिखारी का स्वाँग भरे उस रावण को सीता जैसे ही भिक्षा देने के लिए अपनी कुटी से बाहर आई वैसे ही उसको भेड़िये की तरह कंधों पर उठाकर बहुत तेज
रफ्तार से वह निकल गया। यहाँ धनुष यज्ञ में रावण की छाती पर पड़े हुए भूदेव परशुराम के धनुष को कभी घोड़ा बना कर खेलने वाली जानकी को भेड़िये की तरह आसानी से कंधे पर डालकर भागने में रावण उस समय कैसे सफल हो गया? दूसरी बात यह कि यदि रावण की मानव के अलावा एक अलग जाति थी तो जनक राजा ने इस दूसरी जाति के रावण को अपनी लड़की के स्वयंवर के समारंभ में आने का निमंत्रण कैसे दिया? क्योंकि, यदि रावण ने धनुष पर बाण चढ़ाकर चलाने की प्रतिज्ञा पूरी की होती तो जानकी को रावण के साथ ब्याह करके उसके साथ संसार बसाने की नौबत आ सकती थी, इसलिए राम और रावण की जाति अलग-अलग थी, एसे कहना ठीक नहीं लगता है। लेकिन इससे यह सिद्ध होता है कि रामायण का इतिहास उस काल के गप हाकने वाले नाटकवालों ने केवल लोगों के दिलों को बहलाने के लिए कल्पना के आधार पर लिखा होगा। इस सारे इतिहास में नीति का कहीं स्पर्श भी नहीं है, ऐसा मुझे लगता है।
यशवंत : रामायण के लोभी रावण की बातों को अब जरा दूर रखिए लेकिन सात्त्विक-एक पत्नीव्रती, अपने वचन का पालन करने वाले, रामचंद्र के बारे में यदि कोई असंभवनीय बात रामायण में हो तो वह बताइए।
जोतीराव : एक पत्नीव्रती, अपने वचन का पालन करने वाले, एक वाणी का व्यवहार करने वाले रामचंद्र ने जन्मजात वैरी नारी को मर्कट के द्वारा शब्दों से विषयसुख की बात बनाकर उसके शौहर से दगाबाजी करवाई। किंतु रामचंद्र ने अपना वचन पूरा करने के पहले ही उसका पलंग भौरों के द्वारा कुरेदकर खोखला करवा दिया और उस विधवा भोली-भाली औरत को दिए हुए वचन को भंग करके घर चला गया। उसी तरह फल-पत्ती खाकर दुम हिलाकर हरकत करने वाले बंदरों की फौज को रामचंद्र ने किस तरह बनाया? और उनमें से मारुति नाम के बंदर ने सीता के साथ बातचीत करके अठारह अक्षौहिणी बड़ी फौज के साथ रावण के बाग की रखवाली करने वाले जंबुमाली सरदार को युद्ध में हराया और उसने अपनी दुम ऊपर करके उसको अपने पाँवों तले तुड़वाया, यह समयानुकूल था, कहा जा सकता है। लेकिन आज जंबुमाली मानव सरदार के हाथों में नंगी तलवार देने की बजाय खुरपी देकर जगह-जगह मर्कटों की पत्थरों, धातु की मूर्तियाँ बनाकर उस पर तेल-सिंदूर पोतकर उसकी पूजा करते हैं। उसी प्रकार कुंभकर्ण के खाने की मात्रा और नींद के बारे में इतिहासकारों ने बहुत सारी गलत-सलत बातें बढ़ा-चढ़ाकर लिखी हैं। लेकिन कभी रावण की छाती पर पड़कर उसकी छाती को दबोच देने वाले धनुष को आसानी से हाथ में पकड़कर युद्ध करने वाला ब्राह्म रावण परशुराम क्या-क्या खाता था, इसके बारे में कुछ भी लिखा नहीं गया। यह सब कुछ देखकर इतिहासकर्ताओं की जालसाजी पर बड़ा आश्चर्य होता है। उसी तरह इंद्रजीत का सिर सुलोचना के ही हाथ पर कैसे गिर पड़ा? इन तमाम बातों से रामायण का सारा इतिहास केवल बेहूदी बातों का पिटारा लगता है और किसी भँगेड़ी मनुष्य ने यह सारा ग्रंथ कल्पना से लिखा है, यह बड़ी आसानी से सिद्ध किया जा सकता है। इस ग्रंथ में कोई नीतितत्व है, ऐसा कोई भी व्यक्ति सिद्ध नहीं कर सकता।
यशवंत : अब भागवत ग्रंथ की सभी बातें असंभवनीय हैं, यह यहाँ मामूली विश्लेषण करके दिखाएँगे तो बहुत ही अच्छा होगा।
जोतीराव : भागवत ग्रंथ की सभी बातें असंभवनीय हैं। उनमें से कुछ बातों को आपकी जानकारी के लिए विश्लेषण करके बता रहा हूँ। बहुत ही क्रोधी, गले में मुंडमाला पहननेवाले शिव की कृपा से दुंदुभी नाम के राक्षस के सौ मनुष्य के, सौ हाथी के, और सौ घोड़े के इस प्रकार तीन सौ मुँह थे। उसके हजार हाथ और केवल दो पाँव थे। इस आधार पर दुंदुभी नाम के राक्षस के शरीर की रचना के बारे में सोचा जाए तो उसके आगे रावण के षरीर के बारे में किसी को कोई आश्चर्य नहीं होगा। एक बार गोकुल में बहुत ही बारिश होने की वजह से सारे गोकुल और गाँव के लोग त्रस्त होकर घबरा गए थे। उस समय उन सभी को अद्भुत चमत्कार करके दिखाने के लिए अवतारी भगवान कृष्ण जी ने (मारुति बंदर की तरह द्रोण गिरि) गोवर्धन पर्वत को उठाकर उसको अपने हाथ की कानी उँगली पर ले लिया और सभी लोगों का रक्षण किया। उसी प्रकार जमुना के गहरे पानी में डुबकी लगाकर उसने कालिया नाग को पराजित किया और युद्ध में सफल होकर उसकी पीठ पर खड़ा होकर बड़ी शेखी में बांसुरी बजाते हुए पानी के बाहर आया। इस तरह की बातें उसमें लिखी गई हैं, जो परी तरह से असंभवनीय हैं, इसलिए इन बातों पर कौन भरोसा करेगा?
यशवंत : भागवत ग्रंथ की सारी बातें हम सभी के निर्माता के नाम को कलंकित करनेवाली हैं। इसलिए इन तमाम बातों का पूरी तरह से विश्लेषण किया गया तो सभी लोगों की आँखें खुल जाएँगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
जोतीराव : पहली बात, दुंदुभी नाम के राक्षस के घर में घुसकर कृष्ण ने (बौने वामन की तरह) एकदम ब्राह्मण का स्वाँग भरकर धोखेबाजी से और बड़ी बेरहमी से उसकी हत्या की, यह बात हम सभी के परम दयालु निर्माता के नाम को क्या शोभा देगी? इसके आधार पर यह कह सकते हैं कि अन्य मानवीय धर्म के लोगों की अपेक्षा सभी आर्यों के धर्म के ब्राह्मण लोग अपने धर्मेतर अन्य अज्ञानी जनों के साथ धोखेबाजी करना अच्छा या बुरा नहीं मानते, उसको वे लोग एक तरह से अपना धर्म मानते हैं। दूसरी बात यह कि कृष्ण जी ने अपने पास-पड़ौस के घर के लोगों के यहाँ से दूध, दही और मक्खन चुराकर खाया है। अब आप ही बताइए कि यह चोरी करने का धंधा अपने परम न्यायी निर्माता के नाम को शोभा देगा? इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि अन्य धर्मों के लोगों की अपेक्षा आर्यभट्ट ब्राह्मणों को चोरी-लूट-खसोट करके रिश्वत लेने में अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं लगता। तीसरी बात यह कि उस काल के रिवाज के अनुसार ग्वालों की औरतें नग्न होकर नदी में नहाती थीं-उस समय बहुत ही वाहियात कृष्ण जी किसी उचक्के की तरह उन सभी औरतों की साड़ियाँ और चोलियाँ (ब्लाउज) उठा करके बगल में दबाकर कदंब के पेड़ पर उन सभी औरतों की बेशरमी में बड़ी रसिकता से मजा लेते हुए बैठा था। अब आप ही बतलाइए कि यह बेशर्मी अपने परम पवित्र निर्माता के नाम को शोभा दे सकती है? इसका मतलब यह है कि अन्य धर्मों के लोगों की अपेक्षा सभी आर्यभट्ट ब्राह्मण स्त्रियों के साथ मक्कारी करके उनकी मर्यादाओं को भंग करने में अच्छा-बुरा नहीं मानते (वे इसे सहज बात मानते हैं।) चौथी बात यह कि कृष्ण जी के जबकि सोलह सहस्र एक सौ आठ औरतें थी तब भी ग्वाले की राधा नाम की औरत पर कामुक होकर उसने उसके मन को भ्रष्ट किया। फिर उसका यह व्यभिचारी आचरण परम नीतिमान निर्माता के नाम को शोभा दे सकता है? ऐसे ही अन्य धर्मों के लोगों की अपेक्षा सभी आर्यभट्ट ब्राह्मणों के वेदज्ञ शास्त्रज्ञानी पंडितों को वेश्याओं का नाचगान देखने-सुनने में और व्यभिचार के बारे में सभी बातें सहज लगती हैं। इसके अलावा हर तरह के दुर्गुणसंपन्न अष्ट पहलू देवता अवतारी कृष्ण जी ने कई बार धूर्तता से तरह-तरह की धोखेबाजी करके कई लोगों की जानें बर्बाद कीं और उसने अपने सगे मामा कंस दैत्य की हत्या की। इन तमाम बातों से हमारे ध्यान में आता है कि हर तरह से काले कृष्ण जी ने अर्जुन को गीता में जो उपदेश दिया उसमें उसने नीति का कौन-सा दीया जलाया होगा! खैर, जैसे कहा जाता है, वही बात लगती है, 'मुँह में राम और बगल में छुरी'।
यशवंत : यदि कृष्ण जी देव की जाति का था तो फिर उसके सगे मामा दैत्य जाति की औलाद कैसे बने? इन सारे ग्रंथों से तो मेरी दृष्टि में 'ईसप-नीति' (यूनान के लेखक ईसप की जावरों को पात्र बाकर लिखी नीति कथाएँ) बहुत अच्छी है। इसके बारे में आपका क्या कहना है?
जोतीराव : धूर्त आर्य ब्राह्मणों के बोलने में और लिखने में कुछ भी संगति नहीं है। वे लोग अपने मतलब के लिए चाहे जो करेंगे और समय आने पर हम सभी के निर्माता की भी निर्भत्र्स्ना करके वे स्वयं वेदांती अहंब्रह्म होकर खास भूदेव होने में चूक नहीं करेंगे। 'ईसप-नीति' में जानवरों के बारे में जो काल्पनिक कथाएँ आई हैं उनको पढ़कर या सुनकर मानव प्राणी सुनीतिवान होता है, लेकिन रामायण और भागवत ग्रंथ के काल्पनिक बंदरों के बारे में, दुंदुभी जैसे बेढंगे प्राणी के बारे में कथाएँ सुनकर भी मानव प्राणी कुनीति के रास्ते पर चलने में व्यस्त दिखाई पड़ते हैं और अपने अनपढ़ शूद्रादि-अशिूद्रों के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए पाठशालाएँ बनाने के लिए पैसा खर्च करने के बजाय वाई (सतारा), बनारस, प्रयाग, नासिक आदि जगहों पर राम और कृष्ण के मंदिर बनवाने में बेहिसाब खर्च करते हैं। क्या इसको कोई भी आदमी नीति कह सकता है? वे शूद्रों से और अतिशूद्रों से कर का पैसा लेते थे और वह पैसा जनहित के लिए खर्च करने के बजाय अपने स्वार्थ के लिए और राम-कृष्ण के मंदिर बनवाने के लिए खर्च करते थे। अब यह इतना जो अनर्थ हो रहा है वह किस वजह से? इस सवाल का जवाब है-इन रामायण और भागवत ग्रंथों की वजह से। यह बात आपको गहराई से सोचाने के बाद समझ में आ जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं।
यशवंत : क्या इसका मतलब यह तो नहीं कि इस दुनिया में नीति के अनुसार आचरण करनेवाला कोई भी नहीं है?
जोतीराव : यह कैसे कहा जा सकता है? मुहम्मदी धर्म के नीति के अनुसार आचरण करके अपने निर्माता को संतुष्ट करनेवाले कई लोग हैं।
यशवंत : मुसलिम लोगों ने तो कई मूर्तिपूजक लोगों को जबर्दस्ती के जवाब में 'सुन्नत' करवाकर उनको भ्रष्ट किया, इसलिए धूर्त आर्य ब्राह्मणों के ईर्षालु ग्रंथों में इसके बारे में लिखा गया है। उन्होंने लिखा है कि, "न नीचो यवनात्पर:" और यह भी कि मुसलिम लोगों के कुरान को नहीं पढ़ना चाहिए। इसलिए उन्होंने उसको एक शास्त्र मानकर एक नियम बना दिया कि, "न वेदद्यावनी भाषां कष्टे प्राणगते अपि।"
जोतीराव : नकली आर्य भूदेव मसखरे ब्राह्मणों के मतलबी बनावटी धर्म के जाल में फँसे हुए अधिकांश अज्ञानी मूर्ति पूजक लोगों का कल्याण हो, इसलिए कई धार्मिक जवाँमर्द मुसलिमों ने अपनी जान की बाजी लगाकर तलवार के बल पर अपनी तरह उनकी सुन्नत करवाकर उनको 'बिसमिल्ला उर रहमाने रहीम' इस तरह के महापवित्र कलमे पढ़वाते हैं। और उनको सभी के लिए सीधे-सरल अपने धर्म में ले जाते हैं। क्योंकि मुहम्मदी लोगों के पवित्र कुरान में सभी प्राणियों का निर्माता स्वयं एक ही है। और इसी की वजह से उसको खुदा कहते हैं। और उस खुदा द्वारा पैदा किए हुए सभी मनुष्य एक-दूसरे को भाई के समान मानते हैं। इसी प्रकार सभी मनुष्यों को उनका पवित्र कुरान पढ़ने की तथा उसके अनुसार आचरण करने की पूरी आजादी है। वे सभी को बराबरी के अधिकार देकर आपस में रोटी और बेटी का व्यवहार शुरू करने की आजादी देते हैं। वे सभी को अपने निर्माता के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए मस्जिद में अपने साथ लेकर जाते हैं। पढ़ने की तथा उसके अनुसार आचरण करने की पूरी आजादी है। वे सभी को बराबरी के अधिकार देकर आपस में रोटी और बेटी का व्यवहार शुरू करने की आजादी देते हैं। वे सभी को अपने निर्माता के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए मस्जिद में अपने साथ लेकर जाते हैं।
यशवंत : जिस प्रकार सभी मानवों को एक-दूसरे को भाई-भाई के समान मानना चाहिए, उसी प्रकार का आचरण भी करना चाहिए, यही उनके पवित्र कुरान में लिखा हुआ मिलता है। उसी प्रकार आर्यों के अथर्ववेद में भी उसी प्रकार के श्लोक हैं, उनको भी देखिए :
श्लोक
सहृदयं संमनस्य अविद्वेष कृणोमिव:
अन्योन्यं अभिहर्यंत वत्सजातं इवाघ्नया।
अनुव्रत: पितु:पुत्रो माता भवतु सम्मन:
जायापत्ये मधुमतिं वाचं वदतु शांतिवान्।
मा भ्राता भ्रातरं द्विषद् मास्वसारं उतस्वसा
संम्यंच: सव्रत: भूत्वा वाचं वदत भद्रया।
अर्थ : तुम लोगों को एक मन से और एक दिल से रहना चाहिए, किसी को किसी से भी नफरत नहीं करनी चाहिए। जिस तरह गौ को अपने नवजात बच्चे को देखकर खुशी होती है, उसी प्रकार तुम लोगों को एक-दूसरे से प्यार करना चाहिए। पुत्र को पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। माँ से सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहिए। पत्नी को अपने पति के साथ अपनत्व की भावना से रहना चाहिए और उसके साथ हमेशा मधुर शब्दों में बोलना चाहिए। भाई-बहनों में किसी भी प्रकार से नफरत की भावना नहीं होनी चाहिए। इस तरह मधुर वाणी से एकता का रक्षण करना चाहिए।
जोतीराव : उनके उस काल में लिखे हुए अथर्ववेद में यदि उस प्रकार के श्लोक थे तो निर्दयी आर्यों के कार्यकाल में शूद्रादि-अतिशूद्रों और म्लेच्छ लोगों को एकदम अलग जाति के लोग समझ करके उनका उत्पीड़न, शोषण करने की परंपरा क्या अपने-आप पैदा हुई होगी?
यशवंत : प्राचीन काल से आज तक धृर्त आर्यों ने अपने नापाक वस्त्रों में वेदों को छुपाकर रखा था, इसलिए इस प्रकार का अनर्थ हुआ है।
जोतीराव : प्राचीन काल में-आर्यभट्ट ब्राह्मणों के कार्यकाल में-दासों के दास बनाए हुए शूद्रादि-अतिशूद्रों को वे अपने वेदों का एक शब्द भी सुनने नहीं देते थे, लेकिन उन पक्षपात रहित अंग्रेज बहादुरों के राज में धूर्त ब्राह्मणों ने वेदों के वचनों को बेचारे लोटन कबूतर की तरह तुच्छ समझे गए शूद्रादि-अतिशूद्रों के चरणों के पास लोटने के लिए लगाया है। अब उनकी वेदरूपी काली चिंदी हम शूद्रादि-अतिशूद्रों के बीच नहीं होनी चाहिए।
यशवंत : यह सब कुछ ठीक है, लेकिन अपने धर्मशील जवाँमर्द मुसलिमों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को धूर्त ब्राह्मणों की बनावटी दासता से क्यों मुक्त नहीं किया?
जोतीराव : मुसलमानों को धूर्त ब्राह्मणों द्वारा अपने नापाक वस्त्रों में छुपाकर रखे हुए वेदों की खोज करनी चाहिए थी। फिर उन्हें उन वेदों के दोषों की जाँच करके शूद्रादि-अतिशूद्रों को मुसलिम बनाकर के सभी को अपनी तरह पवित्र मानवी अधिकारों का उपभोग लेने की प्रेरणा देनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने वैसे नहीं किया। इसलिए इस प्रकार का अनर्थ हुआ है। यह सब गैर-जिम्मेदार मुसलिमों की गलती है, इस बात को मैं कबूल करता हूँ।
यशवंत : धूर्त आर्य ब्राह्मणों के मुट्ठी-भर होने के बावजूद उनके वेदों की जाँच-पड़ताल करने के लिए आपके जवाँमर्द मुसलिम लोग आर्यों के धर्म के भयंकर कोप प्रवृत्ति वाले ऋषियों के शाप से डर गए होंगे, मुझे ऐसा लगता है।
जोतीराव : यदि मुसलिम लोग इनके धूर्त आर्य ब्राह्मण ऋषियों के शाप से डरने वाले होते तो उन्होंने इनके सोरठी सामनाथ की मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े नहीं किए होते। लेकिन वे समृद्धि तथा प्रभुत्व के उन्माद में बेफिक्र हुए पड़े थे, उस समय बहुत ही चतुर मुकुंदराज, ज्ञानेश्वर, रामदास आदि ब्राह्मण महाधूर्त संतों के काल्पनिक भगवत ग्रंथ के धोखेबाज अस्पष्ट पहलू काले कृष्ण ने कुतर्क से भरी गीता में पार्थ को जो उपदेश दिया था, उसी का विश्लेषण किया और उस उपदेश का समथर्न करने के लिए उन्होंने प्राकृत भाषा में विवेकसिंधु, ज्ञानेश्वरी, दाबोध आदि जैसे कई पाखंडी ग्रंथों की रचना की और उन सभी ग्रंथों की कारस्तानी के जाल में अनपढ़ शिवाजी जैसे महावीरों को फँसाकर उसको मुसलिमों के पीछे लगने के लिए मजबूर किया। इसी की वहज से मुसलिम लोगों को सभी महाधूर्त ब्राह्मणों के बारे में समझने-सोचने का समय ही नहीं मिला। यदि ऐसा न कहा जाए तो मुसलिम लोगों के इस देश में आने के संक्रातिकाल में धूर्त ब्राह्मण मुकुंदराज को शूद्रादि-अतिशूद्रों पर दया क्यों आई और उसने उनके लिए विवेकसिंधु नाम का ग्रंथ उसी समय क्यों लिखा? इसके पीछे धोखेबाजी यह है कि अनपढ़ शूद्रादि-अति-शूद्रों के मुसलिम हो जाने का डर था और तब धूर्त ब्राह्मणों के मतलबी धर्म की बेइज्जती होनी थी। इसी के बचाव का यह सब था। सारांश, मुसलिम लोगों को यदि इन धूर्त ब्राह्मणों के इस इरादे को भाँप लेने का मौका मिला होता तो उन्होंने इनके वेद और अन्य सभी ग्रंथों की धुनिया के रुई धुनने की तरह धज्जियाँ उड़ाकर उनका सत्यानाश कर दिया होता।
यशवंत : आर्यभट्ट ब्राह्मण लोग अपने पवित्र वेदों को अपवित्र वस्त्रों से बाहर निकालकर सभी मानवी प्राणियों को मुसलिमों की तरह अपनाने से इंकार क्यों करते हैं? इसका राज क्या है, इसके बारे में यदि आप हमको समझाएँगें तो बहुत अच्छा होगा।
जोतीराव : धूर्त आर्य ब्राह्मणों ने आज तक बड़ी चालबाजी करके अपने भुक्खड़ सड़े-गले वेदों को बाहर नहीं निकाला। इसलिए उनको शूद्रादि-अतिशूद्रों के साथ बड़े गर्व से निकम्मी अकड़ दिखाने में मजा आता है। धूर्त आर्यों ने यदि वेदों के अनुवाद करके सभी लोगों में उनका प्रचार किया होता तो सभी शूद्रादि-अतिशूद्र और म्लेच्छ आदि लोग धूर्त ब्राह्मणों को हुर्रा-हुर्रा करके उनको मातंग-महारों के काम खुशी से करने के लिए मजबूर कर देते। क्योंकि धूर्त आर्य ब्राह्मणों ने इस बलिस्थान में जब-जब हमले किए, तब-तब उन्होंने यहाँ के मूल क्षत्रियों को किस-किस तरह से रसातल को पहुँचाया और उन सभी को किस-किस तरह से परेशान किया, इसके बारे में उनके वेदों में ही कहीं-कहीं पर कुछ-कुछ सुराग मिलते हैं। असी आधार पर सभी शूद्रादि-अतिशूद्रों को यदि आर्यों के छल-कपट समझ में आ गए तो ये लोग उनके साथ चोरी-छिपे भी रोटी व्यवहार नहीं करेंगे और उनकी छाया को भी अपने बदन को छूने नहीं देंगे, इस तरह की मैं भविष्यवाणी करता हूँ। धूर्त ब्राह्मण जल में वेद समान भैंस और उसका मोल किस तरह करते हैं! इसको किस गाँव की नीति कहना चाहिए?
यशवंत : सारांश, इस आधार पर आपके मतानुसार नीति किसको कहा जाना चाहिए?
जोतीराव : हम सभी को निर्माता को संतुष्टि देने के लिए सार्वजनिक सत्य के प्रति अपने मन में डर रखना चाहिए और इसी आधार पर जो भी कोई अन्य लोगों के साथ आचरण करेगा, उसी को नीति कहना चाहिए, फिर वह ईसाई हो, मुसलिम हो, सत्यशोधक समाज का हो या कोई सामान्य आदमी ही क्यों न हो।