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(कुछ भी इतना नहीं चुँधियाता जितनी अत्याधिक स्पष्टता
-रवींद्रनाथ ठाकुर।)
हुक्म हुआ - खड़े हो जाओ एक पंक्ति में!
बात साफ थी :
गुसलखाने से निकाल बाहर फेंकी गई
मेहनत से प्रशिक्षित अप्सराओं के
सम्मान को ठेस पहुँचाई गई थी।
यह अंत था एक जीवनी का।
नकली अंग आसानी से अलग हुआ
अलग हुआ बिना किसी तकलीफ के
(जैसे पुराना तिल)
यही ठीक वक्त है
मचान पर बैठ जाने का
गोलाबारी की गड़गड़ाहट के बीच!
भालू बाहर निकल आये
उदास और उमंगहीन,
प्लाईवुड के बैनर पकड़ रखे थे उन्होंने।
पर किसे संदेह होगा
कि मनोविज्ञान के एक दिवसीय पाठ्यक्रम में
गड़बड़ फैली थी -
सिद्धहस्त भेड़िया
साफ निकल आया था
(गवाहों की जरूरत नहीं।)
किसी काम नहीं आया जाल का बिछाना।
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