तैयारी
नम्बुल नदी की टेढ़ी-मेढ़ी जल-धारा दक्षिण दिशा की ओर बहते हुए काँची पर्वत की तलहटी में जहाँ क्षण-भर को विश्राम करती है, वहाँ से पश्चिमी दिशा में एक साफ-सुथरा छोटा-सा घर था। सन्ध्या के सयम एक विद्यार्थी दीया जलाकर बरामदे के एक कोने में अध्ययन कर रहा था। ''राजकुमार विरेन्द्र सिंह वारुणी (वारुणी : एक स्थानीय धार्मिक पर्व। यह पर्व मणिपुरी वर्ष के अन्तिम माह 'लम्दा' के कृष्ण-पक्ष की त्रयोदशी को मणिपुर के मैदानी क्षेत्र के पूर्व में स्थित नोङ् माइजिङ् नामक पहाड़ पर मनाया जाता है। इस दिन लोग नोङ माइजिङ् पर्वत पर स्थित महादेव के मन्दिर और गुफा में देव-दर्शन को जाते हैं।) दर्शन को चलें!'' कहते-कहते एक अनपढ़ युवक उस विद्यार्थी के समीप आकर बगल में बैठने को हुआ। वह, सन्ध्या को कोलाहल बीत जाने और पढ़ने वाले बच्चों का ध्यान रसोईघर की ओर खींचने का समय था। विद्यार्थी ध्यानपूर्वक पढ़ रहा था, किन्तु उस कर्कश आवाज को सुनकर उसने आँखें उठाकर देखा पास में उसका मित्र शशि बैठा दिखाई दिया; शशि के अलावा अन्य चार-पाँच युवक भी उसे घेरे बैठे थे। ''वारुणी-दर्शन को चलने के लिए पूछा था, शायद जाना नहीं चाहते, उत्तर तक नहीं दिया'' कहते हुए शशि ने वीरेन् के सामने खुली पड़ी किताब उठाकर उसके पन्ने पलटने शुरू किए और यह कहते हुए कि इसमें तो एक भी चित्र नहीं है, दूर फेंक दी। वीरेन् सिंह निरुपाय होकर गुद्धी खुजलाते हुए बोला, ''मित्र! हमारी परीक्षा नजदीक आ रही है, इस बार देव-दर्शन को नहीं जा सकूँगा।'' शशि ने कहा, ''तुम तो सदा ही बोलते रहते हो 'परखा होनेवाली है', घूमने-फिरने में साथ नहीं देते हो, पर्व-त्योहारों में भी भाग नहीं लेते हो।' देखो, परखा भी होगी, देव-दर्शन को भी जाओगे, घूमने-फिरने में भी साथ दोगे; संसार के इन पर्वों-त्योहारों में शामिल हुए बिना तुम्हारा फूल-सा जीवन व्यर्थ में ही कुम्हला जाएगा।'' दूसरे युवकों ने भी शशि का समर्थन करते हुए बक-बक करना शुरू किया-किसी युवक ने उसके हाथ से पेंसिल छीनकर उसकी साफ-सुथरी नोट-बुक पर लकीरें खींच दीं, किसी ने 'अंग्रेजी की है' कहते हुए अनपढ़ होने के कारण किताब को उलट-पलटकर गलत-सलत पढ़ना शुरू कर दिया। वीरेन्द्र ने सोचा, ''अगर मैं न जाने की जिद पर अड़ा रहूँगा, तो इन अनपढ़ लोगों से जान नहीं छूटेगी।'' यह सोचते हुए बोला, ''ठीक है, मैं भी देव-दर्शन् को चलूँगा, अब तो मुझे भूख लगी है, खाने चलता हूँ, तुम लोग भी जाओ, परसों जाते समय मुझे भी जरूर बुला लेना।'' यह कहते हुए वह किताबें और दीया उठाकर घर के अन्दर चला आया। वे भी 'हुक्का पीना है' कहते हुए वीरेन् के पीछे-पीछे आ गए। दरवाजा खुलते ही, अलाव के पास चार-पाँच बुजुर्गों को बैठा देख वे 'वापस चलते हैं' कहकर चुपचाप चले गए। वीरेन् को मुश्किल से छुट्टी मिली। खाना खाने गया तो खाना तैयार नहीं था। छोटी बहन थम्बाल्सना खाना पका रही थी। वह धीरे-धीरे आग जलाते हुए बरामदे में होनेवाली देव-दर्शन की बातें ध्यानपूर्वक सुन रही थी और अपनी माँ शिज (शिज : राज-घराने या राजवंश में ब्याही औरतों के लिए आदरसूचक सम्बोधन-शब्द) से देव-दर्शन को जाने की अनुमति माँग रही थी। माँ शिज ने कहा-''तुम्हारा बड़ा भैया जाएगा, तो तुम भी चली जाना।" यह सुनते ही वह खुश होकर चूल्हे की आग तेज करने लगी, ताकि खाना जल्दी पका सके। वीरेन् यह सोचकर कि खाने की प्रतीक्षा करते हुए किताब ही पढ़े, बिस्तर पर चित लेटकर चुपचाप 'फोक-टेल्स ऑफ बंगाल' पलटने लगा। अलाव के पास बैठे बुजुर्गों के बीच से एक ने अंग्रेजी पढ़ने की आवाज सुनने की इच्छा से कहा, ''किताब चुपचाप पढ़ी जाती है क्या? जोर से, जोर से पढ़ो।'' यह कहते हुए प्रोक्-प्रोक् (प्रोक्-प्रोक् : हुक्का पीने की गुड़गुड़ाहट का ध्वन्यात्मक शब्द) हुक्का पीने लगा। वीरेन् ने देखा, ''बाघ के डर से भागा तो भालू से जा टकराया।'' बुजुर्ग की बात न मानी तो कहेगा, ''चिलम की आगे ठंडी पड़ गई, भर कर लाओ।'' इसलिए मजबूरीवश जोर से अंग्रेजी पढ़ने लगा, किन्तु मन-ही-मन हँसी भी आ रही थी। थोड़ी देर तक सुनने के बाद वह बुजुर्ग खुश होते हुए बोला, ''भाषा तो काफी आ गई है, लेकिन नौकरी नहीं मिलती, इससे कुछ होगा नहीं, पढ़ाई छोड़ दो, कहीं के नहीं रह जाओगे। हमने अपने तोमाल् को भी काम-वाम छुड़वाकर पूरे तीन साल तक स्कूल में पढ़ने भेजा, किन्तु एक पैसा तक नहीं मिलता, हारकर अब तो पढ़ाई छुड़वा दी।'' उसके बाद, स्कूली बच्चों के मुँहजोरी करने, कामचोर होने, छल-फरेब आदि की बातें चलने लगीं। चाहे जहाँ जाए, किसी भी जगह वीरेन् का कोई पक्षधर नहीं मिलता। बस, उसका पक्षधर है तो मात्र उसका पिता।
वीरेन्द्र सिंह के पिता सनाख्या (सनाख्या : राज-परिवार तथा राजवंश में जन्मे पुरुषों के लिए आदर सूचक सम्बोधन-शब्द) गाँव में पैदा होते हुए भी उतने बुद्धू नहीं थे, दूसरों की भाँति फालतू बातें नहीं करते थे, हमेशा यही सोचते रहते थे कि बेटे की शिक्षा कैसे आगे बढ़ाई जाए। इसलिए इतनी सारी बाधाओं को पार करके वीरेन् शिक्षा पा सका। उस दिन सनाख्या किसी काम से बाहर गए थे, उसी अवसर का फायदा उठाते हुए सभी लोग मिलकर वीरेन् की पढ़ाई छुड़वाने का प्रयास कर रहे थे। उन लोगों की बातों से वीरेन् का सिर चकरा गया और वह रसोई में चला गया। खाना परोसना पूरा भी नहीं हुआ कि थाली अपनी ओर खींची और गरम भात को फू-फा फू-फा फूँकते हुए खाना शुरू कर दिया। थम्बालसना थोड़ी-थोड़ी सब्जी परोसते हुए कहने लगी, ''भैया, मुझे भी देव-दर्शन को ले जाइए ना!'' वीरेन् ने थोड़ा-सा क्रोधित होकर, बड़े से कौर से मुँह भरे-भरे उत्तर दिया, ''मुझे जाना ही नहीं, तुम व्यर्थ में क्यों हल्ला करती हो?'' दूसरे लोगों की बक-बक का गुस्सा अपनी निर्दोष छोटी बहन पर उतार दिया। छोटी बहन का भोर के कमल-सा प्रफुल्लित चेहरा पल-भर में ही कुम्हला गया।
तलहटीवाला उद्यान
शजिबु (शजिबु : मणिपुरी वर्ष का प्रथम माह) प्रारम्भ होने को था और हैबोक पर्वत का दृश्य बड़ा मनोरम था। पश्चिमी दिशा में नम्बुल् नदी वक्रगति से बह रही थी| पूर्वी दिशा की ओर एक छोटी सी झील थी। इस झील में सदा निर्मल जल भरा रहता था। कमल, कुमुदिनी और थारिक्था (थारिक्था : कुमुदिनी की प्रजाति का मसृण डंठल वाला जल-पुष्प विशेष) के नए पत्तों से झील पर हरियाली छा गई थी। तलहटी तरह-तरह की हरी-भरी, छोटी-बड़ी, समान लम्बाई वाली घास से ढँकी थी और धीरे-धीरे ढलान पर फैले झील के पानी तक पहुँच गई थी। तलहटी की हरी घास और झील के कमल, कुमुदिनी तथा मखाने के पत्तों की हरियाली का यह मिलन-पर्वत के ऊपर से देखने पर ऐसा मनोहर लगता था मानों, तलहटी से झील तक हरी रेशमी चादर बिछा दी गई हो। पहाड़ी-कन्दरा से बहनेवाले छोटे-छोटे झरने सदा झील को पानी से भरे रखते थे। तलहटी में, झील के किनारे और पहाड़ी-कन्दरा में दूर-दूर आम और कटहल के पेड़ थे। गाय, घोड़ा, बकरी आदि घरेलू पशु जगह-जगह झुंडों में घास चर रहे थे, कुछ घने पत्तों की छाया में विश्राम कर रहे थे। झील के जल-कणों, कमल के पत्तों तथा तलहटी के फल-फूलों की सुगन्ध से लदे पवन ने सारे पहाड़ी-ढलान को अत्यधिक सुवासित कर दिया था। पहाड़ के ऊपर से ङानुथङ्गोङ् (ङानुथङ्गोङ् : बतख की प्रजाति का, छोटे आकार का जल-पक्षी विशेष) पंक्तियों में दाना चुगने उड़े आ रहे थे। बीच-बीच में चरवाहे पहाड़ पर उगे हैजाम्पेत् (हैजाम्पेत् : एक कँटीला झाड़ीदार पौधा और उसका फल) तोड़कर खा रहे थे। एक युवक हाथ में किताब पकड़े छतनार आम के पेड़ के नीचे बैठा इस भरे-पूरे मनोरम दृश्य को देख रहा था, बीच-बीच में किताब पर नजर भी डाल रहा था। उसी समय किसी ने पीछे से अचानक दोनों हथेलियों से उस युवक की आँखों को कसकर दबा लिया। युवक ने उसका सिर छू कर पहचानने की कोशिश की, किन्तु वह हिलडुल नहीं सका; बाद में उसके हाथ टटोलते हुए सामने के लम्बे केशों तक पहुँच गए ओर बोला, ''शशि! समझ गया हूँ, व्यर्थ है, छोड़ दो।'' यह सुनकर दूसरे व्यक्ति ने उसे छोड़ दिया और ''राजकुमार, तुम बहुत चतुर हो'' कहते-कहते सफेद दाँत चमका कर खिलखिलाते हुए वीरेन् के सामने लोट-पोट हो गया। फिर वह बोला, ''इस एकान्त में किस सोच में डूबे हो? कहीं प्रेम-वियोग तो नहीं? यहाँ किसकी राह देख रहे हो?'' ''मेरे कान पक गए, ऐसी बातें मत करो'' कहते हुए वीरेन् किताब उठाकर चलने को हुआ। यह देखते ही शशि ने ''अरे, मजाक कर रहा हूँ'' कहकर वीरेन् के हाथ पकड़ लिए। ''कल भोर के पहले ही उठकर देव-दर्शन को चलना है, देवता पर चढ़ाने के लिए फूल चुन लिए? चलो, चुन लेते हैं।'' कहते हुए वीरेन् का हाथ पकड़कर ले गया। दोनों ईशान कोण की दिशा में काँची के लैरेन्-चम्पा (लैरेन्-चम्पा : स्थानीय चम्पा विशेष, जिसका फूल आकार में बड़ा होता है और अत्याधिक सुगन्धित भी होता है) के नीचे पहुँच गए। ''इस लैरेन्-चम्पा पर शायद लैरोन् (लैरोन् : खिलने का मौसम समाप्त हो जाने के बाद खिलनेवाला एकाध फूल) खिला है, खुशबू आ रही है। मैं चढ़कर तोड़ता हूँ। तुम्हें तो चढ़ना नहीं आता, इसलिए दूसरी जगह खिले फूल, जो अपने हाथों से तोड़ सकते हो, तोड़ लो।'' कहकर पहाड़ी चोटी के बराबर ऊँचे, चार लोगों की कौली में भी न समा सकने वाले उस चम्पा के पेड़ पर चढ़ गया। उसकी बात मानकर वीरेन् उत्तर की तरफ चला गया।
थोड़ी सी दूर जाने के बाद एक उरीलै-लता (उरीरै-लता : बेल पर खिलनेवाला सुगन्धित पुष्प विशेष) कोई सहयोगी पेड़ न मिलने के कारण जमीन पर ही आगे बढ़ते हुए अपने ही चारों ओर लिपटती दिखाई दी। उरीलै-लता के बीच माधवी-लता के भी लिपट जाने से वह जगह पर्णकुटी-सी बहुत सुन्दर लगने लगी। ''खुशबू आ रही है, शायद फूल खिले हैं'' सोचकर वह तुरन्त उसी ओर बढ़ा, लेकिन पूर्ण प्रफुल्लित कोई भी स्तबक नहीं मिला। हर गुच्छे में कुछ खिले फूल थे, तो कुछ कलियाँ थीं। ''कलियों को नहीं तोड़ना चाहिए'' मन में कहते हुए पूरा खिला गुच्छा ढूँढ़ने लगा। अन्त में कहीं न मिलने पर ''कलियाँ भी होने दो, यह सामने वाला गुच्छा ही तोड़ लूँगा'' सोचकर हाथ बढ़ाया कि तभी दूर कहीं वीणा के स्वर-सा एक अस्पष्ट कोमल नारी-स्वर सुनाई पड़ा। आश्चर्यचकित होकर चारों ओर देखा, किन्तु कोई भी नहीं दिखा। मन में आया, ''फूल तोड़ते समय भँवरों के गुनगुनाकर उड़ने के स्वर को शायद मैंने नारी-स्वर समझ लिया है'', किन्तु पुनः फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो इस बार भी वही स्वर सुनाई पड़ा; मानो स्वर-ध्वनि कह रही है-''निराश होकर अविकसित कलियाँ तोड़ने के बजाय अधखिली हमें ही तोड़ लीजिए।'' ऐसी निर्जन जगह पर यह नारी-स्वर किस ओर से आ रहा है! वीरेन् पूरी तरह आश्चर्यचकित हो गया, उसने सोचा, ''मुझे कलियाँ तोड़ने को उद्यत देख शायद वन-देवी दुखी होकर मुझे रोक रही है! या वारुणी-दर्शन को जाने हेतु कोई कुँआरी लड़की फूल तोड़ रही है?'' वह घने पत्तों को हाथों से हटाते हुए उस लता-कुँज के भीतर प्रवेश कर गया| जैसे समुद्र के मध्य लक्ष्मी-सरस्वती, दोनों विराजमान हों, उस लता-कुञ्ज में दो युवतियाँ एक ही चँगेरी से फूल उठा-उठाकर मालाएँ बनाती दिखाई दीं। दोनों युवतियों के सौन्दर्य और रूप-रंग की आभा घने पत्तों के बीच ऐसे बिखर रही थी, मानो चन्द्रमा बँसवाड़े के बीच अपना प्रकाश बिखेर रहा हो। वीरेन् आश्चर्यचकित हो, टकटकी बाँधे देखता रहा, उसके मन में आया, ''शायद यह स्वप्न-लोक है।'' थोड़ी देर तक उसी तरह देखने के बाद निस्तब्धता भंग करते हुए बोला, ''एक ही डंठल पर उरीरै और माधवी दोनों एक साथ खिले हैं। कितना अच्छा हुआ। पुष्प-वाटिका में पूर्ण प्रफुल्लित उरीरै-माधवी तो मिले नहीं, इसलिए गृह-वाटिका में खिलने वाली इन उरीरै-माधवी को ही वारुणी महादेव पर चढ़ाऊँगा।'' कहते-कहते वह लताओं और पत्तों को तोड़ अन्दर आ गया। ''वरूणी महादेव पर फूल चढ़ाने से पहले स्वामी की आज्ञा के बिना पुष्प-वाटिका में घुस आने और अबलाओं के आश्रय-कुँज के लता-पत्रों को तोड़ डालने के अपराध में तुम्हें बन्दी बनाती हूँ।'' कहते हुए दानों युवतियों में से एक ने जल्दी से उठ कर फूल-माला वीरेन्द्र सिंह के गले में लपेट दी। वीरेन् मन्त्र-मुग्ध व्यक्ति की भाँति, कपड़े की गुड़िया-सा कुछ भी नहीं बोल पाया, चुपचाप खड़ा रह गया। कोई और फूल-माला होती, तो आसानी से तोड़ी जा सकती थी, लेकिन वीरेन् उस माला को नहीं तोड़ सका। तन ही नहीं, शायद मन को भी बाँध दिया गया था! ''इस जगह से हिलना नहीं'' कहते हुए उस युवती ने चँगेरी से फूल उठाकर वीरेन् के सिर पर बिखेरने शुरू कर दिए। वीरेन् बिना हिले-डुले पत्थर की मूर्ति-सा चुपचाप खड़ा रह गया।
युवतियों को कैसे अबला पुकारा जाता है! कैसे उन्हें अबोध कहा जाता है! देखो, चतुर, शिक्षित और बलवान वीरेन् अपनी चतुराई का प्रयोग नहीं कर पाया, अपनी शक्ति नहीं दिखा सका। उसका बल, शिक्षा, ज्ञान-सब उन युवतियों के सामने धूप में बर्फ के पिघलने जैसा हो गया। पलकें झपकीं नहीं, हिल-डुल सका नहीं, कुछ भी बोल सका नहीं, सचमुच पत्थर की मूर्ति-सा बन गया।
वीरेन् को पाषाण-प्रतिमा-सा खड़ा देख दूसरी युवती बोली, ''सखी उरीरै! कल तुम्हें वारुणी-दर्शन कराने ले जानेवाला कोई नहीं था, इसलिए तुम बहुत दुखी थी। तुम्हारे मन का दुख जानकर महादेव स्वयं पत्थर की मूर्ति के रूप में अवतरित हुए हैं, उन्हें पूजकर मनचाहा वर माँग लो।'' यह बात सुनते ही, ''हाँ, सही है सखी माधवी'' कहते हुए उस युवती ने अभी-अभी अवतरित महादेव के चरणों पर फूल चढ़ाए, किन्तु वह वर माँगने की इच्छा होते हुए भी मुँह से बोल नहीं सकी। और, दाता महादेव भी बहुत देर तक पत्थर की मूर्ति नहीं बने रहे, ''तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हो'' कह कर वर प्रदान कर दिया। उरीरै ने मन में सोचा, ''वर प्रदान करनेवाले महादेव भी तुम हो, माँगा हुआ वर भी तुम ही हो।''
माधवी बोली, ''सखी उरीरै! महादेव ने स्वयं ही तुम्हें वर प्रदान किया है, तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हो जाएगी; आओ, अब तो चलें।'' यह कहकर वे दोनों चँगेरी उठाकर कुटिया-कुँज से बाहर निकल आईं। उसके हृदय को प्रेम-पाश में बाँध उरीरै द्वारा खींच लिए जाने पर वीरेन् अकेला उस कुटिया-कुँज में महादेव बनकर नहीं रह सका; इसीलिए पुकारते हुए बोला, ''फूल चुनने वालियो! महादेव ने तुम पर कृपा की है, अब मुझे इस बन्धन से मुक्त कर दो।'' उरीरै नाम वाली युवती ने उत्तर दिया, ''प्रतिज्ञा कीजिए कि हमारी एक प्रार्थना मान लेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ सकूँगी।'' ''क्या बात है, पहले मुझे बताओ।'' ''कल मुझे देव-दर्शन को ले जानेवाला कोई भी भाई नहीं है, इसलिए मुझे ले चलने का वादा करेंगे तो छोड़ दूँगी।'' ''उसके लिए चिन्ता मत करो, किन्तु एक सन्देह है, तुम्हारे माँ-बाप मुझ अजनबी ओर पराए के साथ जाने की अनुमति तुम्हें कैसे देंगे, यह तो सोचो।''
शशि पहले से ही चम्पा के पेड़ पर चुपचाप यह नजारा बहुत मजे से देख रहा था, जैसे थिएटर देख रहा हो, लेकिन वीरेन् का 'हाँ, ले चलूँगा' न कहकर घुमा-फिराकर कहते रहना सुनकर उसे बहुत गुस्सा आ गया और चुपचाप बर्दाश्त न कर सकने के कारण पेड़ पर से ही चिल्ला उठा, जैसे बादल गरजा हो, ''अरे ओ संन्यासी बिल्ले! 'हाँ, ले चलूँगा' बोलो, क्यों फालतू बातें कर रहे हो?'' यह जानकर कि वहाँ कोई और भी छिपा हुआ मौजूद था, उरीरै और माधवी, दोनों शर्म के मारे बात पूरी किए बिना ही झटपट चली गईं। शशि ने सोचा कि उसके उतरने से पहले दोनों निकल जाएँगी, इसलिए एक चालाकी करनी चाहिए। वह बोला, ''फूल चुननेवालियों! दुर्लभ लैरेन्-चम्पा चँगेरी भरकर ले जाओ।'' उरीरै ने उत्तर दिया, ''शजिबु में खिलनेवाला चम्पा साधारण चम्पा नहीं होता, उसे चँगेरी में नहीं, हृदय में ही रखा जा सकता है।'' यह कहकर शीघ्रता से चली गईं। कुद दूर चलने के बाद माधवी बोली, ''सखी उरीरै, मेरा यह शरीर किसी व्यक्ति के प्रति अर्पित किया जा चुका है, इसलिए मैं स्वछन्द होकर नहीं निकल सकूँगी, आज से तुम मुझसे नहीं मिल सकोगी, कहीं अगर मुसीबत में फँस जाती हैं, तभी मिलेंगी।'' यह कहकर वह घर की ओर चली गई। उरीरै भी आश्चर्यचकित होकर प्रेम और लज्जा से भरी घर लौट आई। उस दिन से माधवी फिर कहीं नहीं दिखाई दी।
चीड़्गोई वारुणी ( चीड्गोइ वारुणी : नोड्माइजिड् पर्वत के समीप बहनेवाली एक छोटी सी नदी है। वारुणी पर्व के दिन देव-दर्शन को आए सभी लोग इस नदी में स्नान करके चावल, तिल, फूल आदि का तर्पण करते हैं। अतः वारुणी-पर्व से सम्बन्धित इस अनुष्ठान को चीड्गोइ वारुणी नाम से जाना जाता है)।
कृष्ण-पक्ष की रात थी। स्वभाव से कृष्ण-पक्ष की रात बहुत गहरी होती है और सन्नाटे भरी भी, किन्तु आज की रात बहुत जल्दी ही बीत गई, शायद भोर की देवी ने पहले ही जागकर वारुणी महादेव का स्तुति-गान शुरू कर दिया था। रात के सन्नाटे को चीरकर पूर्वी आकाश में थबा (थबा : भोर के समय पूर्वी दिशा में स्पष्ट दिखाई देनेवाला एक तारा विशेष) नाम के तारे ने अन्धकार का कुछ हिस्सा मिटाना शुरू कर दिया, गली-गलियारों में जल्दी जागनेवाली उचिन्नाओं (उचिन्नाओ : बया की प्रजाति की स्थानीय चिड़िया विशेष) आदि चिड़ियों के चहचहाने का स्वर फैल गया। सभी लोग देव-दर्शन को जाने की तैयारियाँ करने लगे। कोई-कोई अपने मित्र को बुला रहा था। सभी लोगों के शोरगुल से नींद टूट जाने के कारण छोटे-छोटे बच्चे भी जाग गए और 'मैं भी चलूँगा' कह-कहकर रोने लगे। इस तरह सब जगह कोलाहल छा गया। सड़कों पर लोगों की भीड़ लग गई। इसी समय शशि हड़बड़ाते हुए नींद से उठकर 'देर हो गई' बड़बड़ाते हुए वीरेन् के घर की ओर भागा। उस समय भी वीरेन् खर्राटे लेकर सो रहा था। शशि ने दरवाजे पर बार-बार दस्तक दी। सभी लोग उठे और नहाए। वीरेन्, शशि और थम्बाल्सना-तीनों नोड्माइजिड़ पर्वत की ओर चले। उसी समय पूर्वी दिशा में सूर्य नोड्माइजिड् के पीछे से चमकता हुआ निकला। रास्ते पर चलते समय सभी लोगों के मन बहुत आनन्दित थे, किन्तु वीरेन् के मन को आनन्द नहीं हुआ; उसे ऐसा लगा, जैसे कोई चीज छूट गई हो, गिर गई हो या किसी चीज का अभाव महसूस हुआ हो, मन बहुत व्याकुल हुआ। उधर शशि उसे डाँटते हुए कह रहा था कि ''चलने में बहुत फिसड्डी हो, जल्दी भाग आओ।'' ऐसा करते-करते नोड्माइजिड्. पर्वत नजदीक आ गया। हरी-भरी घास से ढँकी झील, पहाड़ी कन्दराओं से सीढ़ियों की भाँति बहती जलधाराएँ, जगह-जगह वसन्त आगमन के कारण कटहल, आम आदि के नव-पल्लवित-नवांकुरित पेड़ जमीन पर उगी छोटी-छोटी लैपाक्लै (लैपाक्लै : ग्रीष्म ऋतु में कड़ी जमीन को तोड़कर खिलनेवाला नाजुक पंखुड़ियोंवाला (बैंगनी प्रभा लिए श्वेत) एक स्थानीय फूल विशेष। इसका डंठल नहीं होता। खिलने का मौसम समाप्त हो जाने के बाद इस फूल के स्थान पर केवल पत्ते निकल आते हैं। मणिपुरी साहित्य में यह फूल सहनशीलता का प्रतीक माना जाता है), कोम्बीरै (कोम्बीरै : कम गहरे पानी या नमीवाले स्थान पर उगनेवाला बैंगनी रंग का एक स्थानीय फूल विशेष, जो मणिपुरी नव वर्ष के त्योहार की पूजा में देवताओं पर अक्सर चढ़ाया जाता है), दावाग्नि के बाद उगनेवाले नए-नए हरे पत्तों के बीच उथुम् (उथुम : छोटे आकार का स्थानीय पक्षी विशेष, जो धान के खेतों या घास के बीच देखा जाता है) का 'तुम-तुम्' स्वर, मन्द पवन के झोकों से धीरे-धीरे दोलायमान पहाड़ी ढलान पर उगे हाओना (हाओना : सरपत की प्रजाति की चौड़ी पत्तेवाली एक स्थानीय घास विशेष) के लहलहाते पत्ते, इन सब दृश्यों ने वीरेन् के मन को आनन्द देने के बजाय और दुखी कर दिया। वह बुझा चेहरा लिए चुपचाप चल रहा था, अचानक उसकी धोती का पल्लू काँटे में अटक गया। पीछे मुड़ा तो काक्येल्-खुजिल् (काक्येल्-खुजिल् : एक कँटीला झाड़ीदार पौधा विशेष) की झाड़ियों के बीच खिलते जाति-पुष्प को देखा। आश्रय लेना ही लता का स्वभाव है, ऐसा सोचकर बिना भाई वाली, लता जैसी उरीरै के लिए मन-ही-मन बहुत दुखी हुआ। ''काँटेदार पौधे तक जाति-पुष्प को अपने से लिपटाकर आश्रय देते हैं और मैं मानव-जाति में पैदा होते हुए भी शरण में आई एक लड़की की इच्छा पूर्ण नहीं कर सका'' यह सोचते हुए वह अपने आप को कोसने लगा। सच कहा जाए तो वीरेन् के फूल-से कोमल हृदय में प्रेम-कीट घुस गया था और उसने काटना शुरू कर दिया था। वीरेन् ने सोचा, ''शर्मीलियों के बीच जन्मी, भोर में खिलनेवाले मल्लिका-पुष्प जैसी कोमल उरीरै देव-दर्शन के लिए आई होगी या नहीं, उसे अपने साथ ले जानेवाला कोई न होने के कारण अपनी डार से बिछुड़े धनेष की भाँति अकेली रोती रह गई होगी, या संशय के कारण साहस न जुटा सकने वाले, मेरी प्रतीक्षा करती रही होगी! मार्ग में इतने सारे युवक-युवतियों के होते हुए भी आँखों को शून्य-सा ही दिखाई दे रहा है और युवक-युवतियाँ बाजार में बेचे जानेवाले गुड्डे-गुड़ियों से दिखाई दे रहे हैं, किन्तु इन्हीं में यदि उरीरै भी होती तो यह मार्ग एकदम भरा-भरा लगता!'' यही सोचते-सोचते चीड्.गोइ नदी तक आ पहुँचा। देव-दर्शन हेतु जाने वाले सभी लोग चीड्गोइ में डुबकी लगा रहे थे। कोई-कोई स्नान के बाद चावल, तिल आदि से तर्पण कर रहा था। कंकड़-पत्थरों के मध्य वा-वा करते हुए बहनेवाला चीड्.गोइ का निर्मल जल गँदला हो गया था। लोगों द्वारा तर्पण किए चावल-तिल-फूल जगह-जगह भर गए थे। चीड्गोइ की पतली-सी जलधारा पुष्प-धारा बन गई थी। किनारे पर उगे शिड्नाड् (शिड्नाड् : झाड़ी के रूप में उगनेवाली लम्बे डंठलवाली घास विशेष) आदि का सफाया हो गया था। टेढ़ी-मेढ़ी बहती चीड्.गोइ के दोनों किनारों पर लोगों की भीड़ छा गई। वीरेन् और उसके दल के लोगों ने भी नहाकर तर्पण किया। उस जगह से अग्नि-कोण की ओर एक सँकरा रास्ता जाता था। सभी लोग उस रास्ते पर चल पड़े। वीरेन् के दल के पहाड़ की चढ़ाई के बीच पहुँचते-पहुँचते दोपहरी चढ़ आई। यहाँ तक आते-आते धूप और लम्बे सफर की थकान के कारण अधिकांश कमजोर नारियाँ आग में झुलस गए कोमल पत्तों की भाँति मुर्झाने लगीं। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद यात्रीगण 'बम्-बम्' का घोष करने लगे। वीरेन् ने आँखें ऊपर की तरफ दौड़ाईं, तो देखा कि वह रास्ता पहाड़ की चढ़ाई पर था और सभी लोग लताओं का सहारा ले-लेकर चल रहे थे। रास्ता कठिन था, क्षणिक विश्रान्ति के लिए भी कहीं स्थान नहीं था। जब लोग आधी चढ़ाई पर पहुँचे, तो पहाड़ी चढ़ाई पर चढ़ने से थकी कमजोर रमणियाँ लज्जा त्यागकर, यह विचारे बिना कि ये उनके अपने छोटे या बड़े भाई नहीं हैं-जैसे लता अपने निकटवर्ती वृक्ष पर लिपट जाती है, वैसे ही अपने-अपने पासवाले युवकों के पल्लू पकड़ने लगीं।
जब वीरेन् और शशि थम्बाल्सना की एक-एक कलाई पकड़े चढ़ाई चढ़ रहे थे, तभी किसी युवती ने पीछे से वीरेन् का पल्लू पकड़ा। पीछे मुड़ा तो देखा कि चादर से चेहरा ढाँपे एक युवती थी। वीरेन् को मुड़ते देख, स्वभाव से लजालू उस युवती ने थकान से चूर होते हुए भी पल्लू छोड़ दिया। उसे देखकर वीरेन् बोला, ''स्वभाव से ही आश्रिता हो, तब फिर सहारा लेने में क्यों शर्माती हो? समीप आओ, तुम्हारी कलाई पकड़कर जितना हो सकेगा, इस चढ़ाईवाले रास्त पर ले चलूँगा।'' उस युवती ने उत्तर दिया, ''अचल पेड़ चलने लगे हैं और आश्रित लताएँ खड़ी हैं। आश्रिता होते हुए भी वे हमेशा आश्रित नहीं रहतीं। देखिए, चढ़ाई पर उगी लताओं के सहारे इतने यात्री महादेव के दर्शन पाने वाले हैं।'' यह कह कर वह युवती भीड़ में कहीं खो गई। वीरेन् ने उसका चेहरा ठीक से नहीं देखा, फिर भी आवाज से पहचानकर वह उसे ढूँढ़ने के लिए थोड़ी देर खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा। इस बीच लोगों के अनेक समूहों के आगे बढ़ जाने के कारण शशि और थम्बाल्सना भी ओझल हो गए और वह युवती भी नहीं दिखाई दी; वह अकेला खड़ा रह गया।
काँचीपुर
'' देखो , काँची देवी की ये सन्तानें ,
उनके ये मुर्झाए चेहरे!
माँ के अश्रु-जल के प्रभाव से ,
बहुकाल से पितृ-परित्यक्त होने के कारण! ''
बर्मा रोड पर दक्षिण की ओर जाते समय, बीच में अर्धचन्द्राकार-सा खड़ा एक पर्वत, नम्बुल् नदी की वक्राकार जल-धारा के तट, तलहटी में चन्द्रनदी, कालियदमन की छोटी धाराओं का मन्द प्रवाह और पूर्वी सीमा पर पुरानी परिखावाला एक स्थान दिखाई देता है - यह काँचीपुर है। यहीं कभी स्वर्णभूमि मणिपुर का राजमहल था। किसी काल में राजमहल होते हुए भी अब यह स्थान घने जंगल में पारिवर्तित हो गया है; बड़े लोगों और धनिकों का निवास-स्थान था, पर अब वन्य पशु-पक्षियों की आश्रय-स्थली बन गया है; निरन्तर शोरगुल भरा नगर था, अब टिड्डियों और झींगुरों के स्वरों से भरा मैदान हो गया है; मन्दिर, मंडप और भवनों की वह जगह अब घास से ढँका टीला बन गई है; बड़े-बड़े जलाशयों और कुँओं वाला वह स्थान अब तालाबों और खोहों से भरे ऊबड़-खाबड़ मैदान में बदल गया है।
बहुत सार-सँभाल करके उगाए हुए फल-फूलों के पौधे अब पक्षियों के बैठने और चरवाहों के विश्राम-स्थल बन गए हैं। कहीं-कहीं भवनों के ढह जाने के अवशेषों और जगह-जगह बिखरी ईंटों के ढेर देखकर, बस इतना ही अनुमान होता है कि किसी समय यहाँ राजमहल था। निर्माण के आरम्भ के बारे में सोचना आनन्दमय होता है, लेकिन ढह जाने और पुराना पड़ जाने का विचार बहुत दुखमय होता है। पहले जहाँ जंगल था, उस जगह का विशाल प्रासाद में परिवर्तित होना, किसी दरिद्र का कुबरे की भाँति धनवान बन जाना-इससे कहीं कुछ भी हानि नहीं होती; किन्तु राजमहल का जंगल में परिवर्तित हो जाना, राजा का पद्च्युत होकर जंगलों में खो जाना, धनवान का दरिद्र हो जाना-कितना हृदयविदारक होता है!
इस प्रकार वीरान हुए, ढहे पड़े, जंगल में परिवर्तित काँचीपुर में वारुणी के दिन सुबह एक निराश युवती मल्लिका के पौधे के समीप बैठी अपने कमल-नयनों से आँसू बहा रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अभी-अभी खिला मल्लिका-पुष्प बिखरकर नीचे गिर पड़ा हो। हे पाठक! उरीरै को भुला दिया? यह युवती किसी निर्जन-स्थान पर सरोवर में अकेले खिले कमल के समान काँची की भूमि पर एकाकी खिलनेवाली उरीरै ही थी। ''वारुणी-दर्शन को नहीं जा पाई'' यह सोचकर दुखी थी, उसका कोई बड़ा या छोटा भाई नहीं है, वह अकेली है, ऐसा सोचने के कारण निराश थी उरीरै। मन का दुख यदि बाहर न आ पाए, तो उसकी मात्रा प्रति पल बढ़ती जाती है। हे पाठक! अपने अधीन किसी को कड़े शब्दों में डाटने पर अगर वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता तो कभी मत सोचना कि उसके हृदय पर दुख का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। यह भी मत सोचो कि चीख-चीखकर रोनेवाला आदमी ही अकेला दुखी होता है। आग की गर्मी से मुर्झाया पत्ता ओस की बूँदें पड़ने पर पुनः ताजा हो उठेगा, दूसरी ओर, नष्ट-अंकुर, हरे-भरे पेड़ के पत्ते जिस दिन मुर्झा जाएँगे, उस दिन उसका अन्त हो जाएगा। मनुष्य की विडम्बना है कि उसका अव्यक्त दुख कोई नहीं जान पाता-हम सोचते हैं कि ऐसा मनुष्य पत्थर की भाँति दुख का अनुभव ही नहीं करता।
उरीरै जब इसी प्रकार अपना दुख एकाकी ही सह रही थी, तब भुवन नाम का काँची, का एक युवक देव-दर्शन के लिए कुछ साथियों के साथ उरीरै के घर के प्रवेश-द्वार तक आया और वहीं खड़े होकर बरामदे में कपड़े बुन रही उरीरै की माँ को पुकारते हुए बोला, ''चाची! उरीरै को देव-दर्शन के लिए नहीं भेजोगी? उसे भेजना है तो हम साथ ले जाएँगे।'' थम्बाल (उरीरै की माँ) ने सोचा, ''भुवन स्वभाव से दुश्चरित्र है, कैसे बेटी उसके साथ कर दे! दूसरी ओर देव-दर्शन को जाने के लिए व्याकुल आँखे से आँसू बहा रही बेटी को भी कैसे देखती रह जाए!'' यही सब सोचते हुए बेटी के मन को टटोलने के लिए पूछा, ''बेटी! तुम भुवन के साथ देव-दर्शन को जाओगी?'' उरीरै को भी आशंका हुई कि भुवन बुरा आदमी है और कभी पहले भी उसने भुवन का देव-दर्शन को जाने के लिए कहना नहीं माना था। फिर भी, यह अवसर निकल गया तो वह वारुणी-दर्शन को कभी नहीं जा पाएगी, ऐसा सोचते हुए भला-बुरा सब ईश्वर पर छोड़कर उसने उत्तर दिया, ''हाँ, जाऊँगी।'' माँ ने बेटी को जाने की आज्ञा देकर भुवन के साथ कर दिया। चावल-तिल-फूल आदि पूजा की सामग्री पहले से तैयार कर रखनेवाली उरीरै पुनः मन में उत्साहित होकर भुवन के दल के साथ नोड्.माइजिड् की ओर चल पड़ी।
भुवन का मन फूला नहीं समाया। अपनी मनोकामना पूरी हो जाने के कारण कभी वह चलते-चलते गीत गाता था, तो कभी मृदंग बजाता था, सारे वातावरण में कोलाहल छा गया। रास्ते में एक सहेली द्वारा चुपचाप बताए जाने पर उरीरै को मालूम हो गया कि देव-दर्शन से लौटते समय भुवन उसे उठा ले जाएगा। शिकारी का जाल देख जैसे हिरणी टुकुर-टुकुर देखती है, वैसे ही निरुपाय उरीरै उस सम्भावित दुर्घटना के त्रासद विचार से अत्यधिक घबरा गई। चीड्.गोइ नदी में नहाकर इधर-उधर चलने-फिरने के शोर-शराबे के बीच उरीरै भुवन को छोड़कर तुरन्त पहाड़ पर चढ़ गई और घबराहट के मारे-जीवन में कभी भी न चढ़े पहाड़ की उस चढ़ाईवाले रास्ते पर, भागती चली गई। चढ़ाई के बीच वीरेन् का पल्लू पकड़कर पहाड़ पर चढ़नेवाली वह युवती उरीरै ही थी।
दावाग्नि
'' कुछ कलियाँ
तोड़े जाने के भय से
घने पत्तें की ओट से
देख रही हैं टुकुर-टुकुर! ''
पहाड़ पर चढ़ते समय वीरेन्द्र सिंह ने देखा-बड़े-बड़े कई पेड़ सूखकर गिरे पड़े थे; पूर्व की ओर लम्बी-लम्बी घनी घास खड़ी थी, घनी झाड़ियों के बीच एक सँकरा मार्ग था। उस मार्ग से थोड़ा हटकर ही पश्चिमी दिशा में एक पहाड़ी ढलान था। वह स्थान दावाग्नि के कारण एकदम साफ ओर नंगा पड़ा था। वीरेन् अपने दल से बिछड़ जाने के कारण मन में व्याकुलता लिए पहाड़ की ऊँचाई से नीचे तराई की ओर देखने लगा-पीपल और आम के बड़े-बड़े पेड़ घने पत्तोंवाले तुलसी के पौधे जैसे दिखाई दे रहे थे, सीधी सड़कें ऐसी सुन्दर लग रही थीं, मानो कपड़े के थान बिछे पड़े हों, कभी-कभी वे सड़कें पेड़-पौधों के बीच गायब हो जाती थीं-किसी ओर पहाड़ी ढलान दृष्टि की सीमा बन जाता था। पहाड़ पर से कल-कल ध्वनि के साथ प्रवाहित नदियों की टेढ़ी-मेढ़ी धाराएँ ऐसी दिखाई दे रही थीं, मानो चीड्.लाइ (चीड्.लाइ : ड्रेगन जैसा काल्पनिक प्राणी, जो मंगोलियन सभ्यता से सम्बन्ध रखता है। मैतै लेक-विश्वास के अनुसार यह पर्वतीय गुफाओं में रहता है, इसीलिए इसे चीड्.लाइ (चीड्-पर्वत, लाइ-देवता) कहा जाता है। मैतै राजाओं के राज-चिन्ह के रूप में इसकी उपस्थिति रही है) पहाड़ी गुफा में से निकलकर नीचे समतल भूमि की ओर अपने शिकार की तलाश में भागे आ रहे हों। हरे-भरे पेड़-पौधों के बीच भवन और इमारतें चमक रही थीं, हरी घास से ढँकी झीलें ऐसी मनोरम दिखाई दे रही थीं, मानो हरा गलीचा बिछा दिया गया हो, मेड़ों से घिरे खेत ऐसे शोभायमान थे कि जैसे बिसात पर कै-यैन् (कै-येन् : लकीरें खींची हुई जमीन य कागज को बिसात के रूप में प्रयुक्त करके खेला जानेवाला एक स्थानीय खेल विशेष। यह दो व्यक्तियों द्वारा खेला जाता है। एक व्यक्ति के पास कै, अर्थात् बाघ मानी जानेवाली दो गाटियाँ रहती हैं अैर दूसरे व्यक्ति के पास येन्, अर्थात् मुर्गी मानी जाने वाली बीस गोटियाँ। कै वाली गोटी चाल और छलाँग के जरिए येन् वाली गोटी को मारती है ओर येन् वाली गोटियाँ यदि कै के चलने का मार्ग पूरी तरह रोक लेती हैं तो जीत येन् की मानी जाती है। और यदि कै वाली गोटियाँ येन् वाली गोटियों को मात देती रहती हैं तथा उनकी चाल को रोकने में येन् असमर्थ रहती हैं, तो कै की जीत मानी जाती है) की चाल के लिए लकीरें खींची हुई हों। जब इन सारे मनोहर दृश्यों को देखकर उसके मन में अनेक कल्पनाएँ जनम ले रही थीं, तब एकाएक एक कोने की घनी झाड़ियों में धू-धू की आवाज के साथ आग की लपटें उठने लगीं। हवा तेज चलने लगी, हवा के झोंकों से भड़की चिनगारियाँ उड़ने लगीं और आसपास के पेड़-पौधे, घास-तृण सब राख के ढेर में बदलने लगे। सारा आकाश धुएँ से भर गया-जो पशु-पक्षी आग से निकलकर नहीं भाग सके, वे सब जल गए-समस्त चिड़ियाँ चीं-चीं करके इधर-उधर उड़ने लगीं। शीघ्र ही वह दावाग्नि भीड़ की ओर लपकने लगी। सभी लोग अपनी जान हथेली पर रखकर भाग खड़े हुए; निर्बल और कमजोर लोग भी सबल और साहसी युवकों के सहारे उस पहाड़ी कन्दरा की ओर भागने लगे, जो बहुत पहले दावाग्नि के कारण साफ हो चुकी थी। उसी समय वीरेन् ने दूर से देखा कि पहाड़ी मार्ग की कष्टमय यात्रा से थकी-माँदी, तेज धूप के कारण नव विकसित गुलमेहँदी-सी कुम्हलाई एक यवुती कहीं कुछ आगे भागने पर ठोकर खाकर गिर पड़ती, तो कहीं लताओं में उलझती पीछे रह जाती,-पीछे की प्रचंड दावाग्नि भयंकर ध्वनि करती हुई आगे बढ़ी चली आ रही थी। उतने सारे लोगों में से किसी ने भी अपने को बचाने की चिन्ता में किसी और को बचाने का विचार तक नहीं किया। वीरेन् यह सोचकर कि कोई उपाय करके शायद उसे बचा सके, तुरन्त उस ओर दौड़ पड़ा।
पाठक! यह युवती और कोई नहीं, असहाय उरीरै ही थी। अपनी ओर भागकर आते वीरेन् को देख वह समझ बैठी कि भुवन उसका पीछा कर रहा है, पीछे शिकारी और सामने जाल के बीच फँसी हिरणी की भाँति हाँफते हुए वह चुपचाप खड़ी हो गई और दावाग्नि की ओर मुख करके तिल और चावल थामे कहने लगी, ''लगता है, आज मेरा वह दिन आ गया; हे दावाग्नि, पीछे से तुम मेरा पीछा कर रही हो और सामने से दुष्ट भुवन मेरा रास्ता रोक रहा है; ठीक है, भुवन के हाथों पड़ने के बजाय दावाग्नि तुम ही मुझे जला दो, अगले जनम में मेरी इच्छा की पूर्ति हो।'' यह कहते हुए आँखें बन्द कर लीं। वीरेन् के पहुँचने तक दावाग्नि उसके पास आ गई थी- अग्नि के ताप से दोनेां युवक-युवती पके फल-से हो गए। वीरेन ''हाय! सर्वनाश हो गया'' कहते हुए उस युवती को खींचकर भागा, तो उसका एक पैर कहीं धँस गया था| देखा तो एक-दूसरे से उलझे हुए घास-तृण आदि के बड़े ढेर से ढँकी एक पोखरी के बीच पानी साफ नजर आया। वीरेन् ने तुरन्त उस युवती को अपने बाहुपाश में लेकर उस ओर छलाँग मारी और डुबकी लगाई।
यह सब कुछ ही पलों में घटित हो गया। दावाग्नि भी दूसरी ओर खिसक गई। थोड़ी देर बाद दोनों युवक-युवती भी पानी से बाहर निकले। पहले तो कोई किसी को नहीं पहचान सका, किन्तु जब पानी से बाहर निकलर दोनों आमने-सामने हुए तो एक-दूसरे को पहचानने लगे। पहले उरीरै वीरेन् केा भुवन समझकर मरना चाहती थी, लेकिन अब नहीं चाहती; सोचने लगी कि अगर वह मर गई होती तो हाथ में आए मणि को व्यर्थ में गवाँ बैठती और पुष्प-डोली पर बैठने के अवसर को शत्रु का जाल समझ कर मर जाती तो...; वह लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगी। पल-भर भी विलम्ब होता तो उसके हृदय की सम्पत्ति जलकर खाक हो जाती, यह सोचकर वीरेन् भी लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा। थोड़ी देर तक बिना कुछ बोले एक-दूसरे को ताकते रहे। दोनेां की आँखों में आँसू छलकने लगे। दोनों मन में सोचने लगे कि जैसे यह पोखरी पहले से वर्तमान सामान्य पोखरी न होकर उन दोनों को बचाने के लिए वारुणी महादेव द्वारा अवतरित कोई आकस्मिक पोखरी हो। ईश्वर के प्रति उनकी भक्ति पहले से थी, अब और बढ़ गई और दोनों युवक-युवती पोखरी के किनारे पर घुटने टेककर बार-बार महादेव की स्तुति करने लगे। आगे चलकर यह स्थान एक पवित्र तीर्थ बन गया।
थोड़ी देर बाद वीरेन् बोला, ''वारुणी-दर्शन की आकांक्षा से पिंजरे से छूटकर आए तोते की भाँति, अकेली आनेवाली! दावाग्नि में जलने का भी भय न करनेवाली प्रिये! अब उठो, कुछ देरन बाद हमारे जले हुए शरीर को ढूँढ़ने बहुत से लोग यहाँ आ जाएँगे। लोगों के आने से पहले यहाँ से निकल चलें, अपनी रक्षा करनेवाले महादेव के दर्शन करने जाएँ, पुष्प स्वरूप भक्ति उसके चरणों पर अर्पित करें। आँसू रूपी दूध उस पर चढ़ाएँ।'' उरीरै ने उत्तर दिया, ''अपने स्वार्थ की ही सोचने वाले इस संसार को पुनः अपना मुँह दिखाने से कोई लाभ नहीं। आज से मैं तुम्हारी अनुगामिनी बन जाऊँगी, निर्जन वन-वन में इधर-उधर फिरें, ईश्वर का नाम स्मरण कर यह जीवन व्यतीत करें, धूल-धूसर को ही अपना अलंकार बनाएँ। दावाग्नि से जलकर नष्ट होनेवाला अपना यह शरीर आज से तुम्हारे चरणों पर अर्पित करती हूँ।''
वीरेन् ने कहा, ''प्रिये, तुम्हारे प्राण और शरीर को बचानेवाला मैं नहीं हूँ, वारुणी-महादेव ने हम दोनों को बचाया है; चलें, हम पर कृपा करनेवाले उस ईश्वर के चरणों में जाकर जीवन की सुख-शान्ति का वरदान माँगें।''
उरीरै, ''मैं अपने स्वार्थ हेतु ईश्वर-दर्शन को नहीं आई हूँ, अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए ईश्वर की खुशामद करने भी नहीं आई, महादेव के चरणों में जाकर कोई विशेष वर नहीं माँगूँगी, सिर्फ दर्शन करने आई हूँ। अपना मनचाहा वरदान तो-हृदय के किसी कोने में अंकित करके रख लिया है, कहीं हाथ से खिसक भी गया तो हृदय में अंकित यह चित्र कभी नहीं मिट पाएगा।'' इस प्रकार दो टूक बातें करते दोनेां युवक-युवती महादेव की ओर चल पड़े और उन्होंने देखा-वहाँ कोई मनिदर-मंडप नहीं था, केवल एक विशाल वृक्ष की फैली हुई शाखाएँ और मंडप की भँति घने पत्ते और उनमें इधर-उधर उलझी हुई बेलें मन्दिर की भाँति लग रही थीं और उस प्रकृति निर्मित मंडप-मन्दिर के नीचे ही प्रसन्नचित्त शिवलिंग विराजमान था। शायद वह, मनुष्य निर्मित मलिन अट्टालिका को न चाहने के कारण लोगों की पहुँच से परे उस सुनसान स्थान पर विराजमान हो। लेकिन कितनी देर तक निर्जन रहता? उसके अप्राप्य चरणों की टोह में वहाँ भीड़ लग गई।
दोनों युवक-युवती महादेव के चरणों में लोटकर प्रार्थना करने लगे, सिन्दूर लेकर माथे पर लगाया और उरीरै वर माँगने लगी-
'' अगर जन्म लें पुष्प-जाति में
खिलें एक ही डंठल पर ,
अगर जन्म लें पक्षी के रूप में
बैठें संग-संग हर डाली पर ,
अगर उगें पौधों के रूप में
लिपट जाऊँ बनकर लता। ''
विपत्ति
वारुणी पर्व की सन्ध्या का समय था। टिमटिमाते तारों के कारण विशाल और खुले आकाश में थोड़ा-बहुत उजाला बिखरा हुआ था। मायावी अन्धकार संसार को निगलने हेतु जल्दी से उड़ आया। नोड्माइजिड् पर्वत पर बड़े-बड़े पेड़ काले-काले होकर भयंकर राक्षस की भाँति चुपचाप खड़ें थे। दिन में पहाड़ी पर इतनी भीड़ थी, लेकिन अब बिल्कुल शान्त ओर सुनसान। उस समय हिंस्त्र जानवरों का आंतक था, इसलिए सारे लोग तुरन्त लौट गए।
अचानक तेज हवा चलने लगी। खासकर पहाड़ पर हवा और भी तीव्र होती है। बगूलेदार हवा के एक-एक झोंके से पेड़-पौधों की चोटियाँ जैसे जमीन छूने को झुकी पड़ रही थीं, डालियों के आपस में टकराने और घने पत्तों के बीच हवा के बहने से जगह-जगह मर्मर की आवाजें निकलने लगीं। सूखी शाखाएँ टूटकर गिरने लगीं। पेड़ों पर बने नीड़ हवा द्वारा उड़ा दिए जाने के कारण पक्षीगण भयंकर स्वर में जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। आश्रय के अभाव में हिरण इधर-उधर भाग-दौड़ मचाने लगे। सारी कन्दराएँ 'प्रोक्-प्रोक्', 'स्वाइ-स्वाइ' की सनसनाहट से भर गईं।
ऐसी कठिन विपत्ति के समय राजकुमार वीरेन्द्र सिंह उरीरै का हाथ थामें अँधेरे में पहाड़ से नीचे उतर रहा था। बवंडर के एक-एक वेगवान झोंके की मार से साँसें अवरूद्ध हो जाने के कारण बीच में दोनों एकाएक खड़े हो जाते थे, फिर टटोलते-फिसलते आगे बढ़ते थे। कहीं सी रास्ता नहीं था, एक कदम आगे बढ़ाते ही किसी पत्थर से ठोकर खाते थे, तो थोड़ा आगे बढ़ने पर किसी पेड़ से टकरा जाते थे। पर्वत-श्रेणियों से घिरा स्थान, कृष्ण-पक्ष की रात, जगह-जगह घने पत्तों वाले पेड़ों की कतारों और बेल-लताओं से उलझी जगह होने के कारण ऐसा लगा कि आँखें बन्द करके चल रहे हों। अलग-बगल दीवार-से खड़े सघन पहाड़ी ढलान थे। एक पैर फिसल कर कन्दरा में गिर जाते तो पल-भर में प्राणों का पता न चलता। पहाड़ी जमीन के छोटे-छोटे कंकड़ों और कटी हुई नुकीली खूबों द्वारा खरोंचे जाने के कारण पैरों में दर्द हो रहा था। इतने में आस-पास जंगली जानवरों के दहाड़ने की आवाज सुनाई पड़ने लगी; निकट ही नर-भक्षकों की बदबू आने लगी, जिधर भी देखो, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था, सारा संसार अन्धकार के जाल से पूरी तरह ढँक गया था; पौधे, लताएँ, चट्टानें, पशु, पक्षी-सब अँधेरे में विलीन हो गए थे।
वीरेन् के माथे से पसीने की बूँदें चूने लगीं, घबराहट के कारण सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। क्या उसके मन में डर पैदा हो गया था? नहीं, कोई डर नहीं, लेकिन व्याकुलता अवश्य थी। वह अकेला होता तो किसी भी साधन से घर पहुँच सकता था, लेकिन उसे उरीरै की अत्यधिक चिन्ता थी, जिसे वह हाथ थामे ले जा रहा था। सोचने लगा, ''अँधेरे में कहीं किसी जानवर ने मुझे छोड़ कर उरीरै के प्राण ले लिए तो, या कहीं कदम फिसल कर वह नीचे गिर गई तो क्या होगा। खैर, नियति को जो भी मंजूर हो, जहाँ उरीरै मरेगी, वहीं मैं भी मरूँगा।'' ऐसा सोचकर धीरे-धीरे उतरने लगा। बिना खाए पहाड़ पर चढ़ने के कारण दिन चढ़े से ही उरीरै को काफी थकान महसूस हो रही थी और वह हर पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करती थी, लेकिन अब इस विपत्ति के समय पहाड़ी ढलान पर उतरते-उतरते उसे बेहोशी आने लगी। जब भुवन से भयभीत होकर, आगे जाने वाले सभी से आगे बढ़कर चढ़ाई वाले पहाड़ी रास्ते पर कड़ी धूप का सामना करते हुए दौड़ी आई थी, उस समय घबराहट के कारण उसे कष्ट महसूस नहीं हुआ था, लेकिन अब प्रियतम का सानिध्य पाने के बाद सौ गुना कष्ट अनुभव होने लगा। जैसे अबोध शिशु अपनी माँ की गोद में रहता है, तब उसे अपने सामने आने वाले भालू, बाघ, हाथी आदि जानवारों से किसी प्रकार का भय नहीं होता, उसी प्रकार वीरेन् के पास पहुँचते ही उसे जग में किसी प्रकार का भय नहीं रहा, दूसरी ओर उसमें ताकत नहीं रही, इसलिए वीरेन् कठिनाई में पड़ गया। उसकी कलाई पकड़कर वह दो-तीन कदम आगे बढ़ा कि फिर वह बेहोश हो गई। वीरेन् असमंजस में पड़ गया। तराई अभी कितनी दूर है, अँधेरे में कुछ भी नहीं समझ पा रहा था।
बड़ी मुश्किल से तराई पहुँचने के बाद वीरेन् ने चैन की हलकी सी साँस तो ली, लेकिन पूरी तरह पसीना भी नहीं पोंछ पाया था कि ''पानी, पानी, थोड़ा-सा पानी दो, हलक सूख रहा है, प्यास के मारे मर जाऊँगी'' कहते हुए उरीरै पुनः बेहोश हो गई। घनी झाड़ियों से घिरे निर्जन और पीछे भी कुछ न दिखाई पड़ने वाले उस स्थान पर जब उरीरै बेहोश हो गई, तो वीरेन् के दुख की सीमा न रही। ऐसी विपत्ति के समय उस खतरनाक जगह वह कहाँ से पानी खोजेगा, खोजने के लिए बेहोश पड़ी उरीरै को छोड़कर कैसे इधर-उधर जाएगा! वह उरीरै के सिर पर पंखा झलने लगा। उसी समय दखना-हवा के संग किसी पहाड़ी झरने से उठती कल-कल की ध्वनि बहुत नजदीक ही सुनाई पड़ी। उस ध्वनि को सुनकर यह अनुमान करते हुए कि किसी झरने का पानी बह रहा है, उरीरै को धीरे से पुकारते हुए कहा, ''प्रिये, पास में पानी है, भरकर लाता हूँ, थोड़ी देर उठकर बैठो।'' यह सुनकर उरीरै प्यास के ताप के कारण बहुत मुश्किल से उठी और वीरेन् के चार-पाँच कदम आगे बढ़ते ही ''पीछे मुड़-मुड़ कर देखते रहना, हिंस्र जानवरों से भरे इस घने जंगल में मुझ अबला को अकेली छोड़कर जा रहे हो; तुम्हारी सूरत देखे बिना मरने के बजाय पानी के बिना मरना कहीं बेहतर है'' कहते हुए वह फिर जमीन पर लुढ़क गई। वीरेन् ने सोचा, ''समय गँवाने से कोई फायदा नहीं, जितनी जल्दी हो सके, पानी भरकर ले आऊँ, जितनी अधिक देर होगी, मुसीबत और अधिक बढ़ती जाएगी!'' यह सोचते हुए वह तुरन्त कल-कल ध्वनि की ओर आगे बढ़ा, सोचा कि थोड़ी दूर जाकर वह जगह मिल जाएगी, किन्तु उसका कहीं अता-पता नहीं चला; पहले हवा के झोंके द्वारा ले आने के कारण वह ध्वनि बहुत नजदीक सुनाई पड़ी थी - लेकिन अब लग रहा था कि वह दूर होती जा रही है। जैसे मरुभूमि के बीच मरीचिका द्वारा प्यासे लोगों की आँखों को पानी का सरोवर दिखाते हुए उन्हें असीम विपत्ति में डाला जाता है, वैसे ही कल-कल का स्वर वीरेन् को सम्मोहित करके कुछ दूर ले गया। स्वप्न था या जागरण, नहीं समझ पाया। लौट जाए या आगे बढ़े, इसी उधेड़बुन में पड़कर थोड़ी देर जड़वत खड़ा रहा, आखिर उरीरै की उन बातों की बार-बार याद आने लगी। यह सोचकर कि इस सुनसान जगह पर इस प्रकार मूढ़ होकर नहीं रहना चाहिए, वह फिर आगे बढ़ा। आह! इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ते-बढ़ते अरीरै को बहुत पीछे छोड़ आया। एक ओर तो, पानी के बहने की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ रही थी, दूसरी ओर, उरीरै की दिशा में हिंस्र जानवर के दहाड़ने की आवाज सुनाई पड़ी। फिर भी वीरेन् निरन्तर आगे बढ़ता गया। थोड़ी दूर आगे बढ़ने के बाद उसने पाया कि पेड़-पौधों और बाँसों से घिरी एक अति सघन जगह है। पर्वत से बहते एक छोटे से झरने की ध्वनि ने दूर से सुनाई पड़ने वाले वीणा के स्वर की भाँति उस गहन रात्रि में वीरेन् के व्यथित हृदय को ''दुखी मत होओ, दुखी मत होओ'' कहकर मनाना शुरू किया और वह ध्वनि अँधेरे में, उस वन में, आकाश में विलीन हो गई। यह जानकर कि पानी अवश्य है, उस ध्वनि को लक्ष्य करके टटोलते हुए अन्धकार में आगे बढ़ा और बढ़ा और बड़ी मुश्किल से उस झरने के पास पहुँचा। उस झरने के किनारे किसी जानवर के पानी पीने की आवाज सुनाई पड़ती। मुड़कर देखा तो आग के गोले सी चमकती दो आँखें दिखाई दीं। वह समझ गया कि बाघ के सिवाय कोई और नहीं है। उसे देखते ही वीरेन् धक् से रह गया, उसके सिर के बाल खड़े हो गए। वह निर्णय नहीं कर पाया कि पानी भरे या न भरे!
''पानी के अभाव में उरीरै के मर जाने के बदले यह बाघ ही मुझे खाए'' ऐसा सोचकर पानी भरने के लिए नीचे उतरा, लेकिन उसके पास बर्तन ही कहाँ था? उरीरै की तड़पन देखते ही पानी भरने के लिए यूँ ही उठा चला आया था, उसके पास बर्तन है या नहीं इसका ख्याल नहीं किया था, अब पानी में उतरने पर पता चला कि उसके पास कोई भी बर्तन नहीं था। सामने एक बड़ा-सा बाघ बिना पलकें झपकाए खड़ा था, अब वह बर्तन के बारे में सोचता रहेगा? एकाएक उसकी अक्लमन्दी ने काम किया, धोती का गुँजा पानी में डुबोया और दोनों हाथों में उसे सँभाले चलने के लिए मुड़ा। दोनों हाथ गुँजा सँभाले हुए थे, कुछ दूर चला तो पत्थर से ठोकर खाई, थोड़ा आगे बढ़ा तो काँटों में उलझ गया, जहाँ चुपचाप चलना चाहता था, वहाँ घबराहट के कारण आशंकित हो उठा। चलते-चलते पीछे से बाघ के पीछा करने की सरसराहट सुनाई पड़ी, वह भागते-भगाते कभी ठोकर खाकर गिर पड़ा तो कभी उठा, इस प्रकार किसी तरह आया, किन्तु राह भटक गया। आह! वह, वह जगह नहीं मिल पाई, जहाँ उरीरै रह गई थी। कुछ देर तक इधर-उधर भटकने के बाद वह पेड़ एकदम स्याह रूप में दिखाई पड़ा, जिसके नीचे उरीरै से वंचित वह पेड़ भंयकर रूपवाला बन गया और ऐसा संदेह होने लगा जैसे कोई राक्षस उरीरै को खा जाने के बाद वृक्ष का रूप धरण करके स्याह रंग में खड़ा हो। गहरा अन्धकार था। कहीं गलत जगह न आ पहुँचा हो, ऐसा सोचकर इधर-उधर देखते समय वह बड़ा-सा पत्थर भी पेड़ के नीचे ही पड़ा मिला, जिस पर सिर रखकर उरीरै लेटी थी। अपने आप पर विश्वास न करते हुए पेड़ के चारों ओर इधर-से-उधर चक्कर काटने लगा, तभी किसी चिकनी वस्तु पर उसका पैर पड़ गया। उठाकर देखा तो बगैर म्यान की एक तलवार मिली। पास ही एक बाघ भी एकदम काले रूप में बैठा देखा। ''इस बाघ ने ही उरीरै के प्राण लिए होंगे, मानव-खून से मस्त होकर वह मेरी भी प्रतीक्षा कर रहा होगा, ठीक है, मुझे भी मार डालने दो, किन्तु राजवंश में पैदा हुआ मैं, हाथ में तलवार होते हुए भी इतनी आसानी से कैसे मर जाऊँ, मर्द भी हूँ, अपनी हिम्मत तो दिखाऊँ'' यह कहते हुए उसने धोती अपनी जाँघ तक लपेट ली और वही बड़ा-सा पत्थर उठाकर बाघ की तरफ उछाल दिया। बाघ ने अपनी गरज से पहाड़ी-कन्दरा को कँपाते हुए अपने पंजे से उस पत्थर को आसानी से परे ढकेल दिया। वीरेन्द्र सिंह ने तुरन्त अपनी तलवारबाजी से अपने सारे शरीर को ढँक लिया; अत्यधिक क्रोध के कारण उस बाघ को मामूली-सी लोमड़ी समझ मन से डर हटा दिया। उस वक्त क्यों डर पैदा होता? मैतै जाति में उत्पन्न पुरुष जब दुश्मन से मुकाबला करता है तो कभी भी डरकर नहीं भाग जाता। और वीरेन्द्र तो राजवंश में जन्मा था। भारत में श्रेष्ठ राजवंश में जन्मे, उसकी रग-रग में राजवंश का खून था और उस खून से बड़े हुए वीरेन् के मन में कोई डर नहीं था। मुसीबत में पड़ने और दुश्मनों का मुकाबला करने में ही सन्तुष्टि पाना राजवंश का स्वभाव होता है। साहसी और वीर राजवंश में जन्मा वीरेन् हाथ में तलवार लिए और तलवारबाजी की कला से अपने शरीर को आच्छादित कर आग के गोले की भाँति बाघ पर टूट पड़ा। वहा! कैसे असफल होता, देखो-उस बड़े से बाघ का सिर धड़ से अलग हो गया।
पाठक! देखिए तो, जब पहाड़ पर दावाग्नि के पीछा करने पर एक आश्रयहीन युवती के मरने की नौबत आई, तब वीरेन् ने शारीरिक शक्ति का प्रयोग न कर सकने की परिस्थिति में अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग किया था, और अब शक्ति-प्रयोग का समय आते ही अपनी तलवारबाजी के कौशल का प्रयोग करते हुए उस बाघ को आसानी से मार डाला।
बाघ को मारने के बाद वीरेन् ने थोड़ी देर तक विश्राम किया। तब तक आकाश में फैले बादल छँट गए थे और तारों की झिलमिलाहट से कुछ-कुछ उजाला छा गया था।
मरना है तो साथ-साथ मरेंगे, ऐसा सोचकर साथ आई उरीरै के अचानक खो जाने से उस निर्जन स्थान पर अकेले बैठे वीरेन् को अत्यधिक दुख हुआ। जैसे एक ही डाली पर बैठे दो पक्षियों में से एक पकड़ लिया गया हो, एक ही डंठल पर साथ खिले दो फूलों में से एक को तोड़ दिया गया हो, अभी कुछ देर पहले प्यास से तड़पती उरीरै के अचानक गायब हो जाने से निराश होकर कहने लगा, ''बाघ के द्वारा मुझे मारे जाने के बदले मैंने ही बाघ को मार डाला; हे तलवार, तू मामूली तलवार नहीं है, भगवान का वरदान है, मैंने तेरे सहारे बाघ को मार गिराया है। तुझे अर्पित करने हेतु मेरे पास कुछ भी नहीं है, इसलिए तू मेरे खून में डूबकर सन्तुष्ट हो जा। घबराई हुई अबला उरीरै स्वर्ग के रास्ते में हम-सफर के अभाव में अकेली ही तड़प रही होगी; मैं उसके पास चला जाऊँगा, आश्रय में आई किसी को बचा न सकनेवाला यह जीवन ही व्यर्थ है।'' यह कहते हुए उसने अपनी गर्दन को लक्ष्य करके तलवार उठाई और जब गर्दन काटने को हुआ, तभी दक्षिण की तरफ से आती हवा के झोंकों के साथ सन्नाटा भंग करता एक नारी-स्वर, ''मार डाला, मार डाला, मुझे बचाओ'' बार-बार सुनाई पड़ा। वह नारी-स्वर वीरेन् के हृदय को नुकीले भाले की भाँति बेधने लगा। ''पहले उसे बचाना चाहिए'' सोचकर वीरेन् तलवार को बगल में छिपाकर उस ओर भागा, जहाँ से वह स्वर आ रहा था। कुछ दूर जाते ही चार-पाँच पुरुषों द्वारा एक युवती को पकड़कर ले जाते हुए देखा। वीरेन् तुरन्त उनका रास्ता रोककर दहाड़ा, ''कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता, अगर किसी ने मनमानी की तो उसका सिर इस तलवार से काटकर रख दूँगा। सही सलामत लौटना चाहो तो इस लड़की को छोड़ दो।'' यह बात सुनते ही वह युवती उन लोगों के चंगुल से निकलकर भाग आई और वीरेन् से लिपटकर बोली, ''प्रियतम! जब तुम पानी लेने गए थे, तब ये निर्दय लोग मुझे पकड़कर यहाँ ले आए।'' यह कहते हुए वह जल्दी-जल्दी साँसें लेने लगी। उरीरै को-जिसे मरा हुआ सोच लिया था, पुनः पा लेने से वीरेन् की खुशी का ठिकाना न रहा। तभी उन चार-पाँच पुरुषों ने 'नारी-चोर आ गया' कहते हुए साजिश के तहत लाई गई तलवार ढूँढ़ी, लेकिन वह वीरेन् के हाथ में थी। तलवार न मिलने से हाथ में एक-एक डंडा लेकर वीरेन् को घेर लिया। उरीरै की रक्षा करते हुए वीरेन् अपनी तलवारबाजी के बल पर चारों ओर घूमता रहा ओर उरीरै ने भी अपना दुख-दर्द भूलकर, यह सोचते हुए कि ''प्रियतम की मदद करूँगी'' कमर में फेंटा बाँध लिया। उसी वक्त हाथों में डंडे लिए लगभग दस लोगों का एक दल हाँफते हुए वहाँ आ पहुँचा। उनमें से एक अधेड़ पुरुष भागते हुए समीप आकर उरीरै का हाथ पकड़ते हुए बोला, ''बेटी, एक लड़की के दावाग्नि में जल जाने की खबर से मेरा कलेजा मुँह को आ गया था कि मेरी बेटी ही जलकर मर गई! महादेव ने मेरी बेटी को बचा लिया।'' और उसके बाद वे उरीरै को लेकर चले गए। जिस चीज की छीना-झपटी हो रही थी, उसी को किसी के द्वारा लेकर चले जाने के बाद वीरेन् और युवती को उठाने वाले उस दल में ही भुवन था। बाप के उरीरै को लेकर चले जाने के कारण जब वीरेन् हक्का-बक्का था, तभी भुवन ने उसके हाथ से तलवार छीन ली और बोला, ''मेरे रास्ते में काँटे बोने वाले इस आदमी के प्राण ले लो।'' यह कहते ही सबने वीरेन् को घेर लिया। वीरेन् किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनके बीच खड़ा रह गया। उसी समय ''मित्र, घबराओ नहीं, हम सब यहाँ हैं'' कहते हुए झाड़ियों में से दो पुरुष आ निकले। उन्हें देखते ही भुवन का दल इस डर से कि बहुत से लोग आ गए हैं, अँधेरे में ही तितर-बितर हो गया। वीरेन् ने सामने अपने मित्र शशि को देखा। उसने पूछा, ''शशि! इतनी देर तक तुम कहाँ थे? तुम्हारे साथ यह कौन है? मेरी छोटी बहन साथ नहीं आई, वह कहाँ चली गई?'' शशि ने उत्तर दिया, ''राजकुमार! जैसे मैं तुम्हारे लिए अपने प्राण तक देने को तैयार हूँ, वैसे ही यह मित्र मेरे लिए अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार है। तुमने छोटी बहन के बारे में पूछा, मैं उसका क्या उत्तर दूँ। हमें छोड़कर चले जाने के बाद मैंने तुम्हें बहुत खोजा, किन्तु कहीं नहीं मिलने से तुरन्त देव-दर्शन करके पहाड़ से नीचे उतरते समय रास्ते में पाँच-छह युवकों ने मेरी पिटाई करके तुम्हारी छोटी बहन को पकड़ा और कहीं ले गए। जब मैं अचेतावस्था में पड़ा था, तब इसी मित्र ने मेरी सेवा-सुश्रूषा की और मैं उसी के सहारे नीचे उतर सका। मैं तुम्हारा स्वभाव अच्छी तरह जानता हूँ - उधर तुम पल्लू पकड़ने वाली उस युवती के पीछे छौड़ते रहे और इधर तुम्हारी छोटी बहन खो गई। पीछे छूट गई अपनी छोटी बहन तक का ख्याल किए बगैर तुम जब एक युवती के साथ अभिमान में डूबे जा रहे थे, तब एक डाकू-दल से भिड़कर कितनी मुसीबत में पड़ गए थे। समय पर हम नहीं पहुँचते तो तुम अपने प्राणों से हाथ धो बैठते। बाघ से मुकाबला कर उसे मार डालना, उसके बाद आत्महत्या का प्रयास हम सब कुछ छिपकर देखते आए हैं, उतने कायर तो नहीं हो, तुम्हारा तमाशा देखना काफी मनोरंजक रहा। राजवंश में पैदा हुए हो न, कुछ-न-कुछ कर ही दिखाते हो। जब तुम उठकर भाग गए, तब हम भी तुम्हारे पीछै दौड़े चले आए। तुम कहीं भी मुसीबत में पड़ो, तो हम तुम्हें बचाएँ, इसके लिए तुम्हारे पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। जिस समय तुम बाघ से भिड़ने को तैयार थे, उस समय हम पहाड़ के नीचे पहुँचे थे; उसके पहले क्या-क्या घटित हुआ, हम नहीं जानते।
''इन सबका विवरण पिताजी को विस्तार से बताऊँगा और तुम्हें उचित दंड दिलाऊँगा।'' यह सुनते ही वीरेन् (आँखों से आँसू छलकाते हुए) बोला, ''मित्र, मैं तुम्हारे पाँव पकड़ता हूँ, सब कुछ वैसा ही बताओगे तो पिताजी मुझे घर में नहीं घुसने देंगे; बताना कि हम दोनों की पिटाई करके ले गए हैं। अब तो मैं अपनी छोटी बहन का पता लगाकर ही रहूँगा। जब तक छोटी बहन का निश्चित अता-पता नहीं लग जाता, मैं घर वापस नहीं जाऊँगा। हे ईश्वर, कैसी विडम्बना है? लाड़-दुलार में पली मेरी छोटी बहन कितना दुख पा रही होगी।'' यह कहते हुए वीरेन् की आँखों से आँसू की बूँदें गिरने लगीं। शशि बोला, ''राजकुमार, शायद तुम बहुत दुखी हो, ज्यादा दुखी मत होओ, यह सब होनी है। रोने-धोने से कुछ भी लाभ नहीं होगा। घर चलें। संयोगवश तुम्हारी छोटी बहन को उठानेवाले कहीं रास्ते पर ही मिल जाएँ तो तुम्हें कितनी खुशी होगी!'' वीरेन् ने उत्तर दिया, ''मित्र, वह असम्भव है, फिर भी अगर कहीं मिल जाएँ तो मैं इतना खुश हूँगा कि अकेला ही उन सब लोगों के सिर फोड़ डालूँगा और उसी खुशी में अपनी बहन भी तुम्हें दे दूँगा।'' यह बात सुनते ही शशि वीरेन् को दंडवत् प्रणाम करते हुए बोला, ''मित्र के रूप में यहाँ जो खड़ी है, वह कोई पुरुष नहीं है, तुम्हारी छोटी बहन थम्बालसना ही है। शाम होने पर पहाड़ से नीचे उतरते समय जब भुवन के लोगों ने थम्बालसना को पकड़ने की कोशिश की तो आसपास के कुछ युवकों की मदद से मैंने उन्हें मार भगाया, और देर हो जाने पर-यह सोचकर कि अकेले एक लड़की को साथ ले चलना मुसीबत है, थम्बालसना को पुरुष की पोशाक पहनवाई। अब तो अपनी छोटी बहन को अपनी आँखों से देख लिया है! राजवंश में जन्मे हो, तुम्हें अपनी बात से मुकरना नहीं चाहिए।'' पल-भर में दुख, सुख, लज्जा और हँसी के विलय से तिलमिलाकर गुद्धी खुजलाते हुए वीरेन् ने कहा, ''अगर चोर ही चोर को पकड़े तो कौन करेगा न्याय?''