शिलङ्
एम.ए. की परीक्षा के पश्चात् वीरेन् ओर धीरेन्, दोनों मित्र कलकत्ता से शिलङ् का सौन्दर्य देखने के लिए वहाँ पहुँच गए। शिलङ् की अच्छी जलवायु और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेने के बाद वहाँ कुछ दिन और ठहरने का निश्चय किया।
शिलङ् एक छोटा सा, बड़ा सुन्दर शहर है। देखते ही लगता है कि विशाल भारत के किसी प्रान्तर के विरल जनसंख्यावाले पर्वतीय प्रदेश में एक लघु नगर छिपाकर रख दिया गया है। यहाँ शहर का कोलाहल और निर्जन वन का सन्नाटा परस्पर मिलता है, दूर पहाड़ से आए ताम्ना के स्वर और गिरजा-घर से निकलते खासी बालिकाओं के समवेत् गान का विलय होता है - कृत्रिम सौन्दर्य की ओट में प्राकृतिक सौन्दर्य छिपा हुआ है। भारत में उन्नत और धनी शहरों की कमी नहीं है, वन्य पशुओं से भरी भीम तमसाकर पहाड़ी कन्दराओं तथा बर्फ से ढँके ऊँचे पर्वत असंख्य हैं, किन्तु शहर के कोलाहल और वन के सन्नाटे, दोनों को अपनी गोद में बिठानेवाले शहरों की संख्या कम है, क्योंकि प्रकृति और कृत्रिमता, दोनों में पहले से ही शत्रुता है। बड़ी कठिनाई से निर्मित शहर, इमारतें, घर-मकान आदि को बीच-बीच में बाढ़ पूरी तरह नष्ट कर देती है, और बड़ी कठिनाई से प्रकृति द्वारा पोषित वन, घनी झाड़ियाँ आदि सबके सब काटकर बड़े शहरों का निर्माण होता है, सुनसान मैदानों में शोर करती रेलगाड़ियाँ दौड़ाई जाती हैं। इस प्रकार एक-दूसरे को नष्ट करने को तत्पर रहते हैं। लेकिन इस छोटे से नगर में तो ऐसा लगता है कि प्रकृति ओर कृत्रिमता, दोनों बड़े प्रेम से खुशी-खुशी साथ रहती हैं। राजपथ के दोनों किनारों पर दुकानों की पंक्तियाँ, हर दुकान में तरह-तरह के सजाकर रखे गए साफ-सुथरे सामान, सड़क के किनारे-किनारे बिजली की रोशनी-कितना सुन्दर दृश्य है! राजपथ से जरा-सा हटकर दूर तक दृष्टिपात करें तो दिखाई देंगी-चीड़ के पेड़ों की पंक्तियाँ-निकट, दूर, ऊपर, नीचे, पर्वत पर हर जगह चीड़ ही चीड़। दृष्टि के अन्तिम छोर तक चीड़ के पेड़, बीच-बीच में एक-दो कुटियाँ, दूर-दूर, चीड़ के पेड़ों के नीचे; दूर तक फैले समतल मैदान में बैल, घोड़े, बकरे आदि घरेलू पशु घास चर रहे थे। जगह-जगह ऊपर से नीचे की ओर सीढ़ीनुमा बहनेवाले झरनों का मधुर स्वर मन को मोह रहा था। और दूसरी और दिखाई दे रही थीं, घर-मकानों, इमारतों, विद्यालयों, नाट्य मन्दिरों आदि की पंक्तियाँ। प्राकृतिक सौन्दर्य और कृत्रिम सौन्दर्य, दोनों को एक साथ देखना चाहें, तो उसके लिए एक सटीक जगह, यह शिलङ् ही है। शहर के मध्य में स्थित एक छोटी सी झील कृत्रिम सौन्दर्य का उत्कर्ष दिखाती है। निर्मल जल से लबालव इस झील के किनारे अनेक प्रकार के पुष्प अपने मौसम का ख्याल किए बिना साथ-साथ खिलते रहते हैं, तरह-तरह की लताएँ चीड़ वृक्षों को नीचे से ऊपर तक लपेटे हैं, जगह-जगह लताओं और घने पत्तों से घिरी झोंपड़ियों के भीतर बतखें और हंस बेचे जा रहे हैं, झील के मध्य कहीं-कहीं दूर दिखाई देने वाले खिले हुए फूलों से सुसज्जित कुछ टीले, समुद्र के मध्य द्वीप समूह की भाँति सुन्दर लग रहे हैं; चाँदनी रात में किनारे पर उगनेवाले पेड़े-पौधों, फल-फूलों आदि की परछाइयाँ झील के पानी में पड़ रही हैं, हवा के मन्द-मन्द झोंकों से तरंगित पानी में परछाइयाँ हलकी सी हिलती दिखाई दे रही हैं। विश्वास नहीं होता कि भारत का कोई भी ख्यात चित्रकार अपनी कल्पना से झील का कोई सुन्दर-से-सुन्दर चित्र बनाए, तो वह इस झील के दृश्य से अधिक सुन्दर होगा।
दूसरी ओर पहाड़ की ऊँची चोटी से पिघलते काँच की तरह बहने वाला बिदन जल-प्रपात भी प्राकृतिक सौन्दर्य के श्रेष्ठ उदाहरणों में एक है। भारत का कोई श्रेष्ठ कवि अपनी कल्पना के सहारे मन के नीरव फलक पर जल-प्रपात का कोई अति सुन्दर चित्र उतार भी ले, तो बिदन का यह दृश्य उससे कम नहीं होगा। अपने मनोद्यान में कल्पना के बल पर लगाए सुन्दर फूल, बेल-लता आदि के चित्र वह कवि स्वयं चित्रकार बनकर तूलिका के सहारे उतने सुन्दर नहीं बना सकता, जितने कि वे उसके मन में थे। इसलिए विश्व के श्रेष्ठ कवि द्वारा अपने उद्यान में निर्मित जल-प्रपात से किसी चित्रकार के बने चित्र की तुलना नहीं की जा सकती।
एक दिन वीरेन् और धीरेन्, दोनों मित्र तड़के उठकर सुबह का दृश्य देखने के लिए पैदल टहलने निकले। प्राकृतिक दृश्य देखने की अपनी तीव्र जिज्ञासा के कारण वीरेन् आगे-आगे जा रहा था। वे पश्चिम दिशा में चले। कुछ दूर चलकर एक ऊँची चोटी दिखाई दी। जगह बहुत साफ-सुथरी थी और ऊँची होने के नाते वहाँ धूप भी थी। वे दोनों उस ऊँची जगह पर चढ़े। वहाँ से उत्तर की ओर देखने पर बहुत दूर चाँद की तरह धवल, एक बहुत ऊँची पर्वत-श्रृंखला दिखाई दी। उन्होंने अनुमान किया कि वह हिमालय है। बर्फ से ढँका हिमालय सुबह के सूर्य का प्रकाश पड़ने से चाँदी के पर्वत की भाँति झिलमिला उठा है; यह दृश्य दोनों मित्रों के मन पर अंकित हो गया। उसके बाद दोनों उत्तर की ओर बढ़ गए। वहाँ एकान्त का साम्राज्य था। अचानक बादल छा जाने से धूप विलीन हो गई और छाँव के कारण वातावरण धुँधला हो गया। कुछ दूर चलने के बाद एक चौराहा दिखाई दिया। वहाँ से वे पश्चिमवाले रास्ते पर आगे बढ़ गए। वह रास्ता एक घने जंगल के बीचोंबीच रूक गया। शायद उस जगह के डरावने रूप को देखकर डर के मारे वह रास्ता स्वयं छिप गया था! जहाँ रास्ता बन्द हो गया था, वह दो पहाड़ों के बीच स्थित एक मरघट था। जगह-जगह हड्डियों के ढेर दिखाई दिए, किसी कोने में गिद्ध आदमी की टूटी टाँग घसीट रहा था, कहीं लोमड़ी बैल या घोड़े की लाश जमीन से बाहर खींच रही थी। इस भयावह दृश्य को देखकर धीरेन् लौट जाने के लिए कहने लगा। वीरेन् उत्तर दिए बिना आगे बढ़ गया। विवश धीरेन् भी उसके पीछे-पीछे चला आया। कहीं पैर रखने की जगह नहीं बची थी, सब हड्डियों और अँतड़ियों से भरी थी। दुर्गन्ध के मारे साँस लेना दूभर हो गया। थोड़ा आगे चलने के बाद किसी के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। जब वीरेन् ने आश्चर्यचकित होकर इधर-उधर देखा, तो उसे कमर तक जमीन में दफनाया एक जीवित व्यक्ति दिखाई दिया। दोनों मित्र तुरन्त वहाँ गए और उन्होंने जमीन खोदकर उस व्यक्ति को बाहर निकाला। पूछने पर पता चला कि वह एक मैतै व्यापारी था, बीच राह में डाकू उसके सारे पैसे छीनकर ले गए थे और उसे वहीं कमर तक दफना कर छोड़ दिया था। ''आज के भ्रमण में व्यायाम ही नहीं किया, किसी व्यक्ति की जान भी बचाई है'', यह सोचकर दोनों मित्रों के मन में अत्यधिक हर्ष हुआ। विशेष रूप से वीरेन् तो इतना आनन्दित हुआ कि जैसे उसने किसी निकट व्यक्ति का ही जीवन बचाया हो।
अंतिम मिलन
ग्रीष्म ऋतु के अन्तिम चरण में एक दिन शाम को दाढ़ी-मूँछवाला एक पथिक धीरे-धीरे काँचीपुर के रास्ते पर जा रहा था। मैली धोती, मैले कुर्ते के सिवाय कोई विशेष पोशाक नहीं थी, पीठ पर एक गठरी और हाथ में एक तलवार के अलावा उसके पास कोई विशेष सामान भी नहीं था। रास्ते के दोनों ओर उगे अनाज के हरे-भरे पौधों और नाले में बह रहे स्वच्छ जल को वह पथिक ध्यान से देख रहा था। उसके चेहरे को देखकर लगता था कि वह वर्षों बाद अपनी जन्मभूमि को देखकर प्रसन्न है। चलते-चलते वह काँची के मध्य पश्चिम की ओर जाने वाले मार्ग पर मुड़ गया। गाँव जितना समीप आता जाता था, उसका मन उतना ही व्याकुल होकर धैर्य खोता जा रहा था। पता नहीं क्यों, उसका हृदय बार-बार धड़कने लगा और मन बेचैन होने लगा। कुछ और आगे बढ़ने पर चारों और इधर-उधर देखते समय एक बड़ा-सा जलाशय, उसके पश्चिम में चम्पा का वृक्ष और उस वृक्ष से नैऋत-कोण की ओर एक जीर्ण झोंपड़ी दिखाई दी। लगता था कि वह झोंपड़ी वर्षों से बिना किसी बाशिन्दे के यूँ ही छोड़ दी गई है - उसे देखते ही उस व्यक्ति से अपने आँसू नहीं रोके जा सके, अपने आप गिरने लगे। आँगन तक आया तो उसने देखा-अर्से से सफाई न होने के कारण आँगन घास से भरा हुआ था और साँपों तथा मेंढकों की क्रीड़ा-स्थली बन गया था। झोंपड़ी की दीवार पर बड़ी-बड़ी दरारें थीं, जगह-जगह छेद भी थे और तुरई तथा कद्दू की बेलें दीवार के सहारे छप्पर पर चढ़ी हुई थीं। बरामदे पर चढ़ते ही जगह-जगह पत्ते, घास, कूड़ा-करकट आदि के ढ़ेर दिखाई दिए। द्वार बन्द था। उस व्यक्ति ने व्याकुल मन और धक्-धक् करते हृदय से काँपते स्वर में पूछा, ''घर में कोई है?'' किसी ने भी उत्तर नहीं दिया, जैसे खुले मैदान में बात कर रहा हो। उस व्यक्ति ने फिर 'उरीरै' कहकर पुकारा; इस बार भी किसी ने उत्तर नहीं दिया। मात्र उस खाली झोंपड़ी ने उसका अनुकरण कर प्रतिध्वनित किया, 'उरीरै'। वह व्यक्ति घबराते हुए द्वार पर लात मारकर घर के अन्दर चला आया। वहाँ की हालत देखकर वह और घबरा गया, सिर्फ चमड़ी से ढँके कंकाल की भाँति बहुत ही दुबली-पतली एक स्त्री अलाव की ओर पीठ किए लेटी थी, उस व्यक्ति ने सोचा कि कोई शव है। समीप जाकर देखा तो पता चला कि उस समय तक उसमें साँसें थीं। व्यक्ति ने उसे 'थम्बाल्' कहकर बार-बार पुकारा। बार-बार की पुकार सुनकर रोगिणी ने अपनी आँखें खोलीं ओर बहुत कष्ट से करवट बदलने का प्रयास किया, लेकिन नहीं बदल सकी। धीमे स्वर में टुकड़े-टुकड़े शब्दों में बोली, ''कौन है यहाँ? थोड़ा-सा पानी दो, प्यास से गला सूख गया है, मैं मरी जा रही हूँ, थोड़ा-सा पानी देकर मेरे जलते हृदय को शान्त करो।'' वह कष्ट भरी ध्वनि उस व्यक्ति के हृदय में तेज धारदार भाले की भाँति चुभ गई। इधर-उधर देखा, तो उस घर में एक भी बर्तन नहीं था। व्यक्ति ने तुरन्त बाहर निकल कर कमल के पत्ते में पानी भरा और रोगिणी के मुँह में धीरे-धीरे डाला। तब भी वह अपना मुँह खोले रही। उस व्यक्ति ने फिर पानी भरकर उसे पिलाया। रोगिणी ने पी लिया। फिर मन को थोड़ा शान्त करके बोली, ''मेरे गले में एक भी बूँद पानी पड़े एक सप्ताह होने को है; मेरे पास कोई भी नहीं, मैं किससे पानी माँगूँ? कहीं तुम कोई काँचीवासी तो नहीं हो। दिन-रात का कर्ता विधाता तुम्हारा भला करे।'' वह व्यक्ति समझ गया कि खाना न मिलने के कारण रोगिणी बहुत ही निर्बल हो गई है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उस व्यक्ति ने पूछा, ''तुम मुझे पहचानती हो?''
रोगिणी - ''हाँ, पहचानती हूँ।''
पथिक - ''तो मैं कौन हूँ?''
रोगिणी - ''तुम स्वर्ग के दूत हो।''
पथिक - ''मैं स्वर्ग का दूत नहीं हूँ। बहुत दिनों से निर्बल हो, इसलिए तुम्हारी बुद्धि भी निर्बल पड़ गई है। ध्यान से सोचो।''
रोगिणी - ''सौ बार सोच लिया, तुम देव-दूत ही हो।
पथिक - ''कैसे समझा?''
रोगिणी - ''देव-दूत के अलावा यहाँ कौन आता। काँचीवासियों की बात तो छोड़ दो, कुत्ते-बिल्ली तक भी क्या भटकते हुए मेरे पास आ सकते हैं? भुवन का बाप अभी तक जीवित है।''
अन्तिम कुछ शब्द रोगिणी के मुँह से इतनी मार्मिकता से निकले कि सुनते ही पथिक सीधा होकर बैठा नहीं रह सका, उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। वह पल-भर में समझ गया कि इन सारे दुखों की जड़ भुवन का बाप ही है। वह जानता था कि एक-दो सवाल और करेगा, तो रोगिणी की अवस्था और बिगड़ जाएगी, किन्तु वह अपनी जिज्ञासा को देर तक रोक कर नहीं रख सका। उसने फिर पूछा, ''भुवन के बाप ने क्या किया है?'' रोगिणी ने उत्तर दिया, ''भुवन के बाप ने मुझे इतना सताया है कि मैं कैसे बताऊँ! पहले उसने अपने बेटे के लिए हमारी बेटी का हाथ माँगा, हमने नहीं माना। उसका प्रतिशोध लेने के लिए उसने हमारा घर जलवा दिया। तब से हम निर्धन होते गए, पति निर्धनता मिटाने के लिए पैसे कमाने परदेस चले गए और वहीं चल बसे।'' इसके बाद वह आगे कुछ भी नहीं बोल सकी, आँसुओं से दोनों सूखे गाल भीग गए, साँसें रुक गईं, नाड़ी की धड़कन शिथिल पड़ गई।
पथिक का सन्देह सच निकला। इतने दिनों तक उसने सारा दुख अपने मन में छिपा कर रखा; कोई भी व्यक्ति उसके पास नहीं था, जिससे वह अपना दुख प्रकट कर सकती। अब पथिक को अपने पास पाया, तो निर्बल और बोलने में अशक्त होते हुए भी उसने एक-एक करके अनेक बातें कह डालीं और सहसा उसकी साँसें बन्द हो गईं|
उस व्यक्ति ने दौड़ कर जलाशय से पानी लाकर उसके सिर पर धीरे-धीरे डालना शुरू किया। रोगिणी को धीरे-धीरे होश आया। अन्तिम बात पूरी तरह प्रकट करते ही रोगिणी अपने प्राण त्याग देगी, उन कुछ शब्दों में शायद उसके जीवन की सारी आशा छिपी है, और शायद वे चन्द शब्द रोगिणी का मृत्यु-शर भी हों! उस व्यक्ति की जिज्ञासा भी वही थी। अनुमान से वह जान गया कि प्रकट किए जाने वाली बात बहुत ही खतरनाक होगी, और यह भी जान गया कि वह बात सिर्फ रोगिणी की ही मृत्यु-शर नहीं, उसका भी मुत्यृ-शर होगा। फिर भी वह जानना चाहता था। फाँसी पर लटका कर मार दिए जाने वाला व्यक्ति, जो सिर्फ रस्सी खींचने की प्रतीक्षा कर रहा हो, उसी की भाँति वह व्यकित उस बात की प्रतीक्षा करने लगा। एक ओर रोगिणी की अवस्था देखकर उसका हृदय टूटने को हुआ। उसके सामने यह संसार चक्कर काटने लगा, दिन को तारे दिखाई पड़ने लगे, थोड़ी देर के लिए ठीक से नहीं बैठ सका। तीव्र जिज्ञासा के चलते पागल-सा पूछ बैठा, ''उसके बाद क्या हुआ?''
रोगिणी ने उत्तर दिया, ''हे जगबन्धु! कैसे बताऊँ! हे स्वर्गदूत! तुम तो सब कुछ जानते हो। मेरे हृदय में छिपाकर रखी उरीरै को पकड़कर ले गए और उन्होंने उसकी जान ले ली। अब मेरी बेटी नहीं रही, मैं अकेली इस झोंपड़ी में - '' यह कहते हुए उरीरै को पुकार कर बिलखने लगी। उस व्यक्ति का शरीर थर-थर काँपने लगा, वह कीड़े-मकोड़े से लेकर संसार के समस्त जीवों को अपना शत्रु मानने लगा। अब वह अपने को छिपाकर नहीं रख सका, रोते-राते कहने लगा, ''हे अभागिनी थम्बाल्! दुखभोगिनी! विरहिणी! सन्तान-वियोगिनी! मैं स्वर्ग का दूत नहीं हूँ, तुम्हारा पति, नवीनचन्द्र सिंह हूँ। तुम्हारी इस अवस्था को देखकर मैं बहुत व्यथित हूँ, अपनी बेटी उरीरै के बारे में सुनकर मेरे प्राण निकले जा रहे हैं, तुम और मैं एक साथ एक ही चिता पर मरेंगे। इतने पक्षपात भरे संसार में जीने का अर्थ नहीं रहा। एक बार उठकर बैठो, तुम्हारा सूखा मुख अन्तिम बार देख लूँ। जीवन की इस महाविदाई के समय एक बार अपनी छाती से चिपटा लूँ।''
जिसके मरने की खबर आ चुकी थी, बहुत दिनों बाद उसी पति का स्वर सुना तो मृत्यु के सामने पहुँची थम्बाल् रोमांचित हो उठी; वह समझ नहीं पाई कि यह स्वप्न है या जागरण; मन्द बुद्धि, मरणासन्न अवस्था के चलते कुछ भी निश्चय नहीं कर सकी। मन में सोचा, ''मेरा अन्तिम समय निकट आ जाने के कारण मृत पति की आत्मा मुझे लेने आई है।'' और वह बोली, ''मेरे पति को मरे बहुत दिन हो गए, श्राद्ध-कर्म सम्पन्न हो चुका है। मेरी मृत्यु का समय आ जाने के कारण पति की प्रेत-मूर्ति मुझे लेने आई है! ठीक है, मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।'' तब नवीन बोला, ''थम्बाल्! मेरे हृदय में बसी थम्बाल! मेरी प्रेत-मूर्ति के धोखे में मत पड़ो। मैं सचमुच नवीन हूँ। परदेस में पैसा कमाने जाते समय रास्ते में डाकुओं ने मुझे पकड़कर पहाड़ों के बीच एक मरघट में कमर तक दफना दिया था और मेरे सारे पैसे छीनकर ले गए थे। वह सब भुवन के बाप की साजिश थी। डाकुओं के बीच एक जाना-पहचाना व्यक्ति था। मेरी मृत्यु का समाचार भी भुवन के बाप की ही चाल होगी।''
सोचते-सोचते नवीन अपना क्रोध नहीं दबा सका, पास पड़ी तलवार उठाकर दाँत किटकिटाए और प्रतिज्ञा की, ''मुझे दुख पहुँचाने वाले, मेरी पत्नी को इतने सारे संकटों में डालने वाले, मेरी बेटी उरीरै की हत्या कराने वाले, भुवन के बाप के त्रिकोणी सिर के तीन टुकड़े करके प्रतिशोध लूँगा।'' यह देख व्याकुल थम्बाल् भय से त्रस्त होकर बहुत घबराई, व्यग्र होकर गिरते-गिरते उठी और काँपते स्वर में बोली, ''इतनी कठोर प्रतिज्ञा क्यों? ईश्वर के रहते मनुष्य, मनुष्य से क्यों प्रतिशोध लेगा? क्षमा और रक्षा के समान कोई और श्रेष्ठ धर्म नहीं होता।'' यह कहते हुए वह पति के पाँवों पर गिर पड़ी। साँसें रूक गईं, आँखें बन्द हो गईं, नाड़ी की धड़कन भी रूक गई। आह! इस दुख-भरे संसार को त्यागकर शायद किसी आनन्दमय लोक में चली गई! पल-भर में उसके जीवन के दुख का अन्त हो गया।
अचानक हुई थम्बाल् की मृत्यु से नवीन पत्थर की मूर्ति के समान जहाँ बैठा था, वहीं बैठा रह गया। उसे लगा कि यह संसार सूर्य और चन्द्र की रोशनी से वंचित एक अन्धकारपूर्ण संसार है। अचानक आकाश के टूटकर नीचे गिरने और उससे उसका सिर दब जाने से भी अधिक कष्ट का अनुभव हुआ। थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहने के बाद वह उठा और झोंपड़ी को उजाड़कर सूखी लकड़ी और बाँस से एक अर्थी बनाई। उस अर्थी पर सती के पुण्य शरीर को रखा और उसे चिता पर चढ़ा दिया। मृत शरीर को ढँकने हेतु कोई कपड़ा न मिला तो उसने अपना कुर्ता उतारकर ढँक दिया। अग्नि को दान करते हुए उसने चिता को आग लगा दी। आग लगाने के बाद वह जलाशय के पास आ गया। इस संसार में कोई भी ऐसी चीज नहीं बची, जिसकी उसे चाह हो। जलाशय के किनारे बैठकर अपने कमाए हुए सारे पैसे उसमें फेंक दिए और बोला, ''हे पैसे! तेरे लिए मैंने कितना कष्ट उठाया! तुझे पाने के लिए परदेस में रहा, पत्नी-वियोग पाया, बेटी बिछुड़ गई, अब तुझे रखना बेकार है। सौन्दर्य ही व्यर्थ है। सौन्दर्य के चलते बेटी उरीरै प्राण गवाँ बैठी।'' यह कहते हुए वह जलाशय में कूद पड़ा और अपना सारा शरीर कीचड़ से पोत लिया। उसके बाद संन्यासी बनकर वहाँ से चला गया। चलते समय एक बार मुड़कर चिता की ओर देखा, चिता से निकला धुआँ सीधे स्वर्ग की ओर जा रहा था; कई दिनों के दुख-दर्द के पश्चात्, वह जगह श्मशान बन गई।
चोरी पकड़ना
''यदि सूख जाए
फेंक दिया जाएगा विस्तृत मैदान में
परिमल और सुषमा
होगी व्यर्थ नष्ट। ''
वीरेन् जब शिलङ् में ही था, तो एक दिन अकेला टहलने निकला। कल रात उसने स्वप्न में उरीरै को देखा था, वह एक फटी चादर ओढ़े पर्वतीय घाटी में अकेली रो रही थी, अचानक भुवन आकर उरीरै को पीटते हुए खींच कर ले जाने की कोशिश करने लगा, उरीरै वीरेन् को पुकार कर रोने लगी और शक्ति-भर अपने को छुड़ाने की कोशिश करने लगी। वीरेन् दौड़ते हुए पीछा करने का प्रयास कर रहा था, लेकिन उसमें स्फूर्ति नहीं थी। भुवन उरीरै को रुई के रोएँ की तरह ऊँचे शिखर की ओर ले जा रहा था। ऊँचे शिखर पर पहुँचने के बाद भुवन उरीरै को हाथ से पकड़कर ''लो, अपनी यह प्रेमिका"- कहते हुए ऐसे फेंकने को हुआ, जैसे कोई कपड़ा फेंक रहा हो। उसी पल धीरेन् के ''देर हो गई, उठो'' कहते हुए जगाने से स्वप्न भंग हो गया। कल रात के इस स्वप्न की याद करके आज वीरेन् का मन बहुत व्याकुल था, उसने बार-बार सारे बीते हुए कार्यों के बारे में सोचना शुरू किया। निर्जन स्थान के सौन्दर्य को देखकर मन की व्यग्रता शान्त करने की इच्छा से पश्चिम दिशा में बिदन जल-प्रपात की ओर चला गया। थोड़े ऊँचे स्थान पर बैठ कर पहाड़ी झरने की तेज धारा का ऊँचे शिखर से नीचे वा-वा ध्वनि के साथ गिरना, तेज धारा के चट्टान पर पड़ते ही पानी की उड़ती बूँदों का पर्वत के नीचे कुहरे-सा दिखाई देना, उड़ती बूँदों द्वारा आस-पास के पहाड़ी क्षेत्र में उगनेवाली लता-बेलों, घास-पत्तों आदि को चमकाया जाना यह सब एकटक देखना शुरू किया, किन्तु ये दृश्य उसके मन की व्यग्रता शान्त नहीं कर सके। उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ और सोचने लगा, ''इस समय मेरे पास उरीरै बैठी होती, प्रेमालाप करते हुए साथ-साथ यह दृश्य देखते तो इसका सौन्दर्य सौ गुना बढ़ जाता! मेरे मन को मथ रहा अभाव और शून्यता उरीरै के अलावा कोई भी दूर नहीं कर सकता।'' हमने सोचा था, वीरेन् उरीरै को भुला चुका है - वह कैसे भूल पाएगा? विदाई के समय उरीरै के प्रति उसका क्रोध छोटे बच्चे की खाना न खाने की जिद जैसा था। बिना झगड़ा किए प्रेम की चरम सीमा कभी नहीं आती, झगड़ा करके जिद, हठ और मान के बाद प्रेम अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है। उरीरै के प्रति उसका क्रोध उसे विदा देकर भाग गया था। इसलिए वह उरीरै को कभी नहीं भुला सका। हे प्रणय! अफसोस! किसी के हृदय में अगर तुम प्रविष्ट हो गए, तो लाखों सुन्दर वस्तुएँ या दृश्य देखने पर भी उसके मन को कभी पूर्ण रूप से आनन्द नहीं होता। सदा अभाव का अनुभव होता रहता है। वीरेन् उरीरै के बारे में सोचते-सोचते शाम होने पर अपने आवास पर लौटा। तब तक धीरेन् टहल कर नहीं आया था। दीपक जला कर कमरे में अकेले बैठे हुए वीरेन् ने दूर रह गई उरीरै के बारे में बहुत सोचा चुपचाप बैठना शायद उसे अच्छा नहीं लगा, हाथ में कलम उठाई, चित्रकारी के तरह-तरह के रंग उठा लाया और कागज के एक ताव पर उरीरै को छोड़कर चले आने की उस रात का चित्र बनाना शुरू किया। पहले जलाशय और उसके पास वाले चम्पा का वृक्ष बनाया, उसके बाद आँगन के कोने में उगा हुआ मल्लिका का पौधा-खिले हुए सफेद पुष्प, एक-दो भ्रमरों का राग-पान, पूर्वी आकाश में शीतल चन्द्रमा का उदय--इन सबका चित्र बनाया, उसके बाद क्रोधित होकर शाशि के साथ मुँह मोड़कर उसका निकल आना अंकित हुआ| मल्लिका के पौधे के समीप उरीरै की चित्रित आकृति पर आँसू की एक बूँद गिर पड़ी। सोखता से आँसू पोंछ दिया, पोंछना पूरा भी नहीं हुआ, दो-एक बूँदें और गिर गईं, वह आँसू नहीं रोक सका। अपने आपको धिक्कारने लगा कि उसने उस निर्दोष लड़की पर क्यों क्रोध जताया था और शशि पर भी कि यह उस दिन इतना बुद्धू कैसे हो गया था। उसी समय ''मित्र, किसका चित्र बना रहे हो'' कहते हुए धीरेन् चुपचाप आकर पीछे से चित्रवाला कागज खींच ले गया। तब वीरेन् ने चौंकते हुए ''शिलङ् का चित्र है, पूरा नहीं हुआ, अधूरा है'' कहकर उस कागज के लिए छीना-झपटी की। जब धीरेन् ने उसे छोड़ा ही नहीं, तब लज्जित होने की आशंका से कागज को मूसकर फाड़ डाला। एक टुकड़ा धीरेन् लेकर भाग गया; दूर भागकर दियासलाई जलाकर देखा, तो उसमें एक लड़की का चेहरा पाया, जिस पर तिल था। शरीर का हिस्सा फाड़े हुए दूसरे हिस्से में चला गया था। उसके बाद धीरेन् ने पास आकर कहा, ''तिल देखकर सारी बात समझ गया हूँ। मनुष्य विश्वसनीय नहीं होता, इतने दिनों से मित्र हूँ, अपने मन की बात मुझसे कभी नहीं बताई। जैसे पके आम के अन्दर छिपा कीड़ा सारे मीठे रस को चूस लेता है, वैसे ही प्रेम अन्दर छिपाकर रखने से तुम्हारा यह शरीर दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा है। छिपाने से कोई लाभ नहीं, अपना इतिहास सुनाओ।'' तब वीरेन् ने लज्जावश, ''मित्र, तुम तो इस प्रकार की बात कभी नहीं करते, कभी मैंने कहना शुरू किया भी तो तुमने आँखें फेर लीं, इसलिाए कभी नहीं बताया, बुरा मत मानो।'' धीरेन् बोला, ''आँखें फेरी हों या न फेरी हों, दिखाई दे या न दे, युवा हो तो मन में प्रेम की बात छुपाकर रखना स्वाभाविक है। व्यर्थ में बात लम्बी न करो, अपना इतिहास जल्दी सुनाओ।'' वीरेन् ने विवश होकर ''उधर एक शशि था तो इधर एक और शशि आ गया'' कहते हुए अपना इतिहास रामायण बाँचने की भाँति सुनाना शुरू किया। पहली भेंट से लेकर देव-दर्शन के समय आए संकट, विदाई के समय की घटना आदि एक को भी छोड़े बिना एक-एक कर सुनाया। धीरेन् ने ध्यानपूर्वक सारी कहानी सुनी और कहानी का अन्त होने के पश्चात् कहा, ''यदि समीक्षा की जाए तो तुम्हारा चरित्र मैतै साहित्य के पुराने जमाने के नोङ्बान् (नोङ्बान् : मणिपुरी लोक-गाथा 'खम्बा-थोइबी' का खलनायक! वह नायिका थोइबी को बहुत पसन्द करता था, लेकिन थोइबी उसे नफरत करती थी) से करीब-करीब मिलता है और उरीरै के चरित्र के साथ तुलना करने लायक कोई भी नारी मैतै साहित्य में नहीं मिलती; हाँ, बंग साहित्य की जुमेलिया (जुमेलिया : बंगला-साहित्य में जासूसी साहित्य सम्राट माने जानेवाले उपन्यासकार पाँचकड़ि दे के, 'मायावी,' 'मनोरमा' और 'मायाविनी' शीर्षक तीनों उपन्यासों की एक प्रमुख स्त्री-पात्र, जो उसके पति की मृत्यु के बाद उसे पकड़ने के लिए आए पुलिस अफसर के साथ एक बार सहवास करना चाहती है) से उसकी तुलना की जा सकती है।'' तब वीरेन् ने हँसते हुए कहा, ''एम.ए. पास हो न, समीक्षा में भी पारंगत हो गए हो। कहानी पूरी भी नहीं हुई और समीक्षा पहले ही आ गई। कहीं एक-दो पुस्तकें छप कर आ जाएँगी, तो खाना-पीना छोड़कर समीक्षा ही करते रहोगे।'' धीरेन् बोला, ''गुस्सा मत करो। हम पुरुष बिना प्रमाण बात नहीं कहते। अपनी समीक्षा का अचूक प्रमाण दे रहा हूँ।'' यह कहते हुए एक चिट्ठी वीरेन् के हाथ में दे दी। वीरेन् ने पढ़ना शुरू किया, विवरण इस प्रकार था -
काँचीपुर
इङे्न् माह, दिनांक...........
(इङे्न् माह : मणिपुरी वर्ष का चौथा माह)
प्रिय मित्र,
उरीरै के लिए दुखी होना और उसे प्यार करना छोड़ दो। उरीरै ने तुम्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया और उसके द्वारा मेरे प्रति प्रेम प्रकट करने के कारण मैंने उससे शादी करके उसे अपनी पत्नी बना लिया। मुझ पर बुरा मत मानना। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि तुम परीक्षा पास करके जल्दी लौट आओ। इति -
तुम्हारा प्रिय मित्र
श्री शशि कुमार सिंह
विश्वास न करके कि वह चिट्ठी सचमुच शशि ने भेजी है या किसी और ने, वीरेन् ने उस चिट्ठी को बार-बार पढ़ा; अन्ततः टेढ़े अक्षरों में लिखा शशि का नाम देखा तो क्रोधित होकर चिट्ठी को टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया। धीरेन् ''मेरी बात सही है कि नहीं'' कहकर खिलखिलाने लगा।
प्रतिशोध
चन्द्रनदी के किनारे एक सुन्दर उद्यान था। हैबोक् पर्वत का स्पर्श करती सूर्य-रश्मियों से उद्यान के पुष्प और सरिता-तट के वृक्ष स्वर्णिम आभा में रँग गए थे। उद्यान के ही समीप चन्द्रनदी की तन्वंगी-धारा कल-कल करती दक्षिण की ओर बह रही थी। सन्ध्या समय सफेद वस्त्र पहने एक गंजा व्यक्ति अपने एक दास के साथ उद्यान की दिशा में आ रहा था।
आकाश में पश्चिम की ओर से बादलों का एक समूह उड़ आया। उस समूह के धीरे-धीरे फैलकर आकाश की पूरी पश्चिमी दिशा को ढँक लेले से वहाँ अँधेरा छा गया। चन्द्रनदी के दोनों किनारों पर घना जंगल था और बड़े-बड़े पीपल के वृक्ष भी थे। हवा तीव्र वेग से चलने लगी। तेज हवा के झोंकों से पीपल के पत्तों से सर-सर की आवाज आने लगी और उसी आवाज के कारण डरावना वातावरण उत्पन्न हो गया। उस पार के किनारेवाले घने जंगल में लोमड़ी हुआँ-हुआँ करने लगी। निकट वाले पीपल के वृक्ष पर उल्लू बोल रहा था। नदी के किनारे की मिट्टी ढह कर झम् से पानी में गिर पड़ी। सारा शरीर कीचड़ में सना एक आदमी किनारे के एक गड्ढे में छिपा दूर से आने वाले दो व्यक्तियों की ओर छुप-छुपकर देखते हुए एक शिला पर अपनी तलवार की धार तेज करने लगा।
निकट और दूर कोई भी नहीं दिख रहा था। उस गंजे व्यक्ति ने अपने दास से पूछा, ''उस रोगी का क्या हुआ?''
दास - ''रोगी कल मर गई।''
स्वामी - ''बहुत अच्छा हुआ, उसे लर्म्श-मृत्यु (लर्म्श-मृत्यु : घर से दूर, कहीं परदेस या जंगल आदि में आने वाली मृत्यु) मिल गई। शव का दाह-संस्कार हो गया या ऐसे ही सड़ रहा है?''
दास - ''दाह-संस्कार हो गया।''
स्वामी - ''क्या? काँची में कौन हिम्मतवाला था, जिसने उसका दाह संस्कार किया? तुमने देखा और मुझे बताया नहीं?''
दास - ''इस मोहल्ले के किसी भी व्यक्ति ने उसका दाह-संस्कार नहीं किया। कीचड़ में सना एक पागल आया था, उसने ही दाह-संस्कार किया। वह पागल कौन था, वह मैं नहीं जानता स्वामी।''
स्वामी - (मुस्कुराते हुए) ''उसका कोई दूसरा प्रेमी होगा। उसके असली पति की हत्या तो मैंने परदेस में ही करवा दी थी।''
यह कहते हुए स्वामी और दास, दोनों अट्टहास करने लगे। उसी समय बादल जोर से गर्जा, तो स्वामी और दास दोनों चौंक पड़े। तभी कीचड़ में सना आदमी झूमते हुए उस ओर आया।
दास - (उँगली से इशारा करते हुए) ''देखिए, वह पागल इधर आ रहा है।''
स्वामी - ''उसे यहाँ बुलाओ।''
दास - (ऊँची आवाज में) ''अरे ओ पगले! यहाँ आओ, जल्दी।''
उस आदमी के नजदीक आ जाने पर स्वामी ने पूछा - ''तुम कौन हो? शव ढूँढ़ते हुए इधर-उधर क्यों भटक रहे हो? तुम किसी के भूत हो क्या? तुमने कल मरी उस औरत का दाह-संस्कार क्यों किया?''
पागल - ''वह औरत मेरी पत्नी थी। मुझे मालमू था, कोई भी उसका दाह-संस्कार नहीं करेगा, इसलिए मैंने कर दिया।''
स्वामी - ''उसके पति को मरे बहुत दिन बीत गए। क्या तुम उसके श्मशान की रखवाली करनेवाले उसके दूसरे पति हो?''
हृदय विदीर्ण करने वाली वह बात सुनते ही उस आदमी का शरीर क्रोध के कारण थर-थर काँपने लगा, उसकी दोनों आँखें एकदम लाल हो गईं। गरजते हुए बोला, ''भुवन के बाप! तुम अपने पापों के चलते स्वयं अपनी मौत ढूँढ़ते हुए यहाँ आ पहुँचे हो। मेरी बेटी की हत्या कर दी, मेरी पत्नी को घोर यातनाएँ दीं, मुझे श्मशान में कमर तक गड़वा दिया और इन सबके अलावा एक निर्दोष सती पर लांछन लगाया - मैं इसका प्रतिशोध लूँगा, मैं तुम्हारे प्राण ले लूँगा।'' यह कहते हुए कपड़ों के भीतर छिपाई तेज तलवार भुवन के बात की छाती में भोंक दी। भुवन का पापी बाप पीठ के बल गिर गया।
अकस्मात भुवन के बाप की हत्या हो जाने पर दास डर के मारे अपने प्राण बचाकर घर की ओर भाग गया।
पाठक! जान गए होंगे कि यह पागल नवीन था। उसने सोचा, यहीं यूँ ही रहकर अपने को पकड़वा दूँ। मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई है। मैं स्वयं चल कर अपने को पकड़वा दूँगा, किंतु अभी वह समय नहीं आया, एक दिन इसका अवसर अवश्य आएगा।'' यह सोचते हुए वह उस पार वाले किनारे के जंगल में खो गया।
दास ने भागकर घरवालों को सूचना दी। परिवार में कोहराम मच गया। कई दास हाथों में कुछ-न-कुछ लिए उद्यान की ओर भागे। भुवन के बाप को वहाँ पड़ा देखा। लेकिन हत्यारा वहाँ नहीं था। पुलिस को खबर दी गई।
विस्मयपूर्ण समाचार
नवीन द्वारा थम्बाल् के शव को चिता पर रख अग्नि-दान करके चले जाने के थोड़ी देर बाद भारी वर्षा हुई थी। जलनी शुरू होते ही वर्षा के पानी से चिता की आग बुझ गई। आग थम्बाल् के शरीर के छू नहीं सकी, बदले में भीगे हुए कपड़ों और आग के ताप से हलकी सी गर्मी होने के कारण उसके शरीर को भाप की सिकाई जैसा लाभ मिला। दैवयोग से राजेन्द्र सिंह नाम का मैतै-भूमि का प्रसिद्ध कविराज किसी काम से श्मशान के पास से गुजर रहा था। एक भी व्यक्ति को दाह-संस्कार में शामिल न देख उसने आश्चर्यचकित होकर चिता की ओर दृष्टि डाली, तो अर्थी पर एक व्यक्ति देखा, जो कुछ-कुछ हिल रहा था। अगर कोई और होता, तो बादल छा जाने के कारण अँधेरापन भी था - "किसी का शव हियाङ् अथौबा बन गया है'' ऐसा सोचकर डर के मारे बेहोश हो जाता या दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से उसकी मौत भी हो जाती, लेकिन धैर्यवान राजेन् कविराज ने निश्शंक उस व्यक्ति के पास जाकर नाड़ी टटोली, तो उसमें स्पन्दन था; उसे पूरा विश्वास हो गया कि व्यक्ति में अभी तक प्राण हैं। रोगी की देह को ध्यान से देखने पर यह भी पता चला कि वह अचानक भयभीत हो जाने या घबराहट के कारण अचेत हो जाने से मृतावस्था की स्थिति में थी। उसने यह भी समझ लिया कि ध्यान से इलाज किया जाए तो भली-चंगी हो जाएगी। इसलिए राजेन् ने मन-ही-मन उस रोगी का इलाज करने का निश्चय किया। मैतै कविराजों में अधिकांश में यही गुण पाया जाता है। दीन-दुखियों के परिवार में अगर कोई बीमार पड़ जाए, तो वे बहुत कम पैसे लेकर उसका इलाज करते हैं, रात-भर रोगी के पास रहकर देखभाल करते हैं। इस प्रकार की दया दूसरी जाति के कविराजों में बहुत ही कम मिलती हैं।
राजेन् गहन रात्रि में उस मृत-प्राय शरीर को किसी गाड़ी में उठाकर अपने घर ले आया। दवा-दारू करने और हाथ के संचालन से पेट के नाड़ी-संचार को ठीक करने से वह रोगी कुछ ही दिनों में कुछ-कुछ स्वस्थ हो गई। राजेन् और थम्बाल्, दोनों ने थम्बाल् के जीवित होने की बात गुप्त ही रखी, किसी को नहीं बताया। कोई पूछता तो राजेन् उत्तर देता, ''हमारे खानदान की कोई है; इलाज के लिए ले आया हूँ।'' कुछ स्वस्थ हो जाने के बाद एक दिन भुवन के बाप की मृत्यु की खबर सुनकर थम्बाल् के मन को कुछ सान्त्वना मिली, किन्तु पति का कोई समाचार न पाने से वह अक्सर दिन-भर दुखी रहने लगी। राजेन् ने गुपचुप नवीन को ढूँढ़ने का प्रयास शुरू किया।
विवाह की तैयारी
वीरेन् और धीरेन्, दोनों मित्र कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त करके मातृभूमि लौट आए। उन दोनों की कीर्ति जल्दी ही संपूर्ण मैतै भूमि में फैल गई। स्वभाव से ही मनुष्य पढ़े-लिखे शिक्षित युवकों के साथ अपनी बेटियों का विवाह करना चाहते हैं या संपन्न और बड़े घर की लड़की को अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं। संपन्न राजेन् कविराज की दोनों बेटियों में से बड़ी का विवाह वीरेन् के साथ और छोटी का धीरेन् के साथ करने की बात पक्की हो गई। अभिभावकों के स्तर पर बात पक्की हुई थी। लड़के और लड़कियों को, जिनका विवाह होने जा रहा था, केवल इतनी जानकारी थी कि लडकियाँ किसी संपन्न परिवार की हैं और लड़कियों को भी इतनी ही जानकारी थी कि लड़के पढ़े-लिखे हैं। कैसा चरित्र है, कैसा स्वभाव है, क्या-क्या गुण हैं - इसके बारे में किसी को भी कोई विशेष जानकारी नहीं थी। अगले दिन को ही वीरेन् के विवाह का दिन निश्चित कर दिया गया था।
धनवान राजेंद्र सिंह कविराज अपनी बेटियों के लिए योग्य वर मिल जाने से मन-ही-मन बहुत आनंदित हुआ और बहुत सारे रुपए खर्च करके विवाह की तैयारियाँ शुरू की गईं। अच्छी तरह मंडप बनवाया गया। बेटियों को दहेज में देने के लिए बहुत-सारा सामान खरीद कर इकट्ठा किया गया। बड़े-बड़े अधिकारियों, रिश्तेदारों, परिचितों और मोहल्लेवालों के यहाँ निमन्त्रण पहुँचाए गए।
क्या वीरेन् और धीरेन् ने खुशी-खुशी विवाह की स्वीकृति दे दी थी! धीरेन् ने यह सुनकर कि माधवी बहुत दिन पहले ही घर छोड़कर चली गई है और यह सोचकर कि उसकी प्रतीक्षा करना व्यर्थ होगा, विवाह की स्वीकृति दी थी।
कल विवाह का दिन है। वीरेन् क्या सोच रहा था? विवाह के लिए उसका मन तैयार था? उसने कभी उरीरै की याद नहीं की? ऐसी बात नहीं कि याद न की हो - किंतु शशि से उसके विवाह की चिट्ठी मिलने के बाद मन में उरीरै के प्रति इतना तिरस्कार जागा कि उसके बारे में पूछा तक नहीं, और क्रोध के मारे अपने लिए जेल चले गए प्रिय मित्र शशि के बारे में भी कुछ नहीं पूछा।
लोगों का कहना था कि वीरेन् बचपन से ही होनहार लड़का था, इसलिए विवाह के बारे में वह हाँ भी नहीं बोला, ना भी नहीं बोला, बस चुप ही रहा।
भारत के बड़े-बड़े प्रसिद्ध लोगों का जीवन-चरित पढ़ा जाए, तो पता चलता है कि उनमें से अधिकांश बचपन में बहुत उद्यमी थे। बचपन में 'सदाचारी है', 'आज्ञाकारी है' ऐसी प्रशंसा का पात्र लड़का बड़ा होने पर अपने सदाचारी और आज्ञाकारी होने का यश बचाए रखने की इच्छा से कोई भी कार्य स्वेच्छापूर्वक नहीं कर सकता, यानी किसी भी कार्य में अपने पुरुषार्थ का प्रयोग नहीं कर सकता। 'आज्ञाकारी है', 'होनहार है', 'कई परीक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं', 'कई प्रमाण-पत्र प्राप्त हुए हैं' - ऐसा कहना नौकरी पाने के लिए तो बहुत अच्छा है, क्योंकि उसे किसी के अधीन काम करना है, लेकिन ऐसा व्यक्ति समाज के लिए उतना लाभदायक नहीं होता, क्योंकि भविष्य में समाज का भला करने वाला, किंतु तत्काल लोगों की दृष्टि में अनुचित प्रतीत होनेवाला कोई भी काम यश चाहने वाला व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। विधवा-विवाह का कार्य शुरू करते समय ईश्वरचंद्र को लोगों ने कितना बदनाम किया और कितना फटकारा! लेकिन ईश्वरचंद्र यश चाहनेवाले व्यक्ति नहीं थे, उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया था कि भविष्य में समाज का कुछ भला होता है तो वह जीवन-भर कष्ट सहेंगे! अपयश न चाहनेवाले लोगों के मन का सुविचार अंदर ही मर जाता है, बदनामी के डर से जीवन के कर्तव्य का नवांकुर अंदर ही सूखकर नष्ट हो जाता है - लोगों की बात मानकर चलने से वह कपड़े की गुड़िया बन जाता है, अवातील् (अवातील् : (PUPAE) अंडे से तितली तक के विकास के बीच का एक स्तर, जिसका सिर मनुष्य अपने हाथ के इशारे से घुमा सकता है। इस सन्दर्भ में इसका अर्थ है, 'किसी के हाथों में नाचना' या 'कठपुतली बनना') की तरह लोगों की इच्छानुसार अपनी गर्दन मोड़ता है। वीरेन् 'आज्ञाकारी' उपाधि प्राप्त लड़का था, अच्छी हो या बुरी, हर बात पर हामी भरता था, लेकिन एम.ए. की परीक्षा के बाद उसके स्वभाव में बदलाव आ गया - बड़े-बड़े लोगों के जीवन-चरित पढ़ने और आलोचना के ज्ञान से उसमें साहस आ गया, सही काम करने में संकोच का भाव चला गया, किसी की चापलूसी का प्रभाव पड़ना बंद हो गया, लोगों के उपहास पर लज्जा की परवाह नहीं रही और अच्छे कार्य के लिए प्राण तक न्योछावर करने का निश्चय करने लगा।
राजकुमार वीरेन् की ओर से किसी विरोध के बिना ही विवाह की स्वीकृति दिए जाने की बात सुनकर शशि के एक मित्र ने वीरेन् को एक निर्जन स्थान पर बुलाकर कहा, ''राजकुमार! अंग्रेजी शिक्षा के चलते मित्र के प्रति कृतज्ञता, प्रेम, दुख-सब कुछ भुला बैठे हो! तुम्हारे लिए शशि का बंदीगृह पहुँचना, तुम्हारा विरह सहन न कर सकने के कारण उरीरै का कहीं खो जाना - इस सबके बारे में तुमने कुछ भी नहीं सोचा।'' वीरेन् ने आश्चर्यचकित होकर उसके पीछे घटी सारी घटनाओं का विवरण विस्तार से कहलावाया और सुना। उस व्यक्ति ने यह भी बताया कि वीरेन् के पास भेजी गई चिट्ठी भुवन की एक साजिश थी और वह चाल थी, ताकि लज्जा के कारण वीरेन् स्वदेश न लौट जाए। इतना ही नहीं, उस मित्र से यह भी सुना कि भुवन वीरेन् को एक बेहद शर्मिन्दगीपूर्ण कार्य में फँसाने जा रहा है। उरीरै का निश्चित अता-पता न जान सकने से वीरेन् के मन को बेहद दुख पहुँचा। वह वहाँ बैठा नहीं रह सका, अकेला कहीं चला गया।
वन में उरीरै
कोचिन् काँची का एक घना वन था। इस वन में उरीरै वन देवी बनकर गोपनीय रूप से रह गयी थी। कभी-कभी शिकारी द्वारा पीछा करनेवाली हिरणी की भाँति घबराती हुई पीछे मुड़-मुड़कर देखती, तो कभी विरहाग्नि का ताप सहन न कर सकने के कारण धरती पर लोट-पोट होकर रोती, कभी जाल से छूटकर उड़ आए तोते की तरह हाँफती, कभी पर्वतीय ताम्ना जैसी अकेली पेड़-पौधों के नीचे, रास-मंडल के समीप, लैरेन्-चम्पा के पेड़ के नीचे बैठकर धीमे स्वर में गाती -
जलती दावाग्नि दूर पर्वत पर
बुझ जाएगी अपने आप!
अधिक गहरी होते ही रात्रि
गिरने से आकाश से ओस।
अग्नि जलती है अंतर में
भड़कने लगती अधिक और!
रात्रि होते ही कुछ अधिक गहरी
बरसने से आकाश से ओस
विशाल रास-मंडल की पोखरी में
निर्मल न होते हुए भी पहले की भाँति
आती रहीं ङानुथङ्गोङ् दाना चुगने।
शाम की बेला आई मानकर
प्रेम की विरहाग्नि से सूख चुकी
मेरे मन की इस पोखरी पर
उड़ आएगी क्या ङानु-थङ्गोङ्
चुगने के लिए दाना पुनः ?
विरहाग्नि से सूखने जा रहे
मेरे इस मन-उद्यान में
विकसित होगा क्या नव-किसलय ,
वसन्त के आगमन पर ?
आंखों में देखने की लालसा मात्र
देख नहीं सकती सुख-कमल।
प्रतीक्षातुर हैं , कान
आता नहीं प्रियतम का संदेश!
थोड़ी देर तक गीत गाते रहने के बाद उरीरै लेरेन-चम्पा के पेड़ के नीचे चली आई और बोली, ''हे लैरेन-चम्पा! तुम ऊँचे हो, क्या तुमने मेरे प्रियतम को देखा है? तुम भी मेरी तरह अभागे हो; जैसे मैं लोगों का अत्याचार न सह सकने के कारण इस वन में भाग आई हूँ, वैसे ही तुम भी लोगों द्वारा डालियाँ तोड़ दिए जाने के डर से पर्वत के समीप इस निर्जन में आकर खिलते हो। तुम छिपने की कितनी भी कोशिश करो, कैसे बच पाओगे, रूप ही तुम्हारा जाल है, सुगंध तुम्हारी शत्रु है। पवन भी तुम्हारा शत्रु है। मेरा सन्देश मेरे प्रियतम तक पहुँचाने की बात ध्यान से कोई नहीं सुनता, किन्तु छिपकर-छिपकर रहने वाली तुम्हारी सुगन्ध ले जाकर हर व्यक्ति को तुम्हारा पता बता देता है। सुगन्ध को चाहने वाले, लेकिन मन की प्रेम भरी बातों के महत्व को न पहचानने वाले काँची के युवक यहाँ आकर तुम्हारी डालियाँ तोड़ डालेंगे, वे तुम्हारी कलियाँ भी तोड देंगे।''
उसके बाद रास-मंडल के किनारे तक आई, रोते-रोते बोली, ''हे रास-मंडल! एक समय तुम कितने निर्मल थे, किन्तु अब इतने मैले क्यों हो? काँची की देवी के दुख-दर्द को देखकर तुमने भी क्या दुख-सूचक वस्त्र धारण कर लिए हैं? मेरे अन्तर में जलती अग्नि के इस ताप को अपने शीतल जल से एक बार तो शान्त करो!'' यह कहकर अपने तन पर अंजलि भर-भर जल छिड़कने लगी।
उसी समय उसने मार्ग के किनारे निमन्त्रण-पत्र लेकर जानेवाला एक लड़का देखा। उस लड़के को बुलाकर कहा ''ओ पथिक भैया! थके-माँदे काँची की ओर मुँह करके क्या सोच रहे हो? आओ, तनिक काँची का प्राकृतिक सौन्दर्य तो देखो, यह सोचकर मन में न घबराना कि एक समय का राजमहल अब घने जंगल में बदल गया है। एक बार आकर देखो, पता चलेगा कि निर्जन में ही शान्ति का वास है। पहले रास-मंडल के निर्मल जल में कटहल, आम और हैजाङ् (हैजाङ् : स्थानीय फल विशेष या उसका काँटेदार वृक्ष।) के वृक्षों से भरे पर्वत का प्रतिबिम्ब देखो, फिर आगे जाकर घने पत्तोंवाले आम के वृक्ष के नीचे बैठो हरे-भरे तृणों पर बैठकर थोड़ी देर विश्राम करो। रास-मंडल के शीतल जल की बूँदों से भीगा, काँची के श्रेष्ठ चम्पा से मिलकर दक्षिण दिशा से आया सुगन्धवाही पवन तुम्हारी तपन को मिटा देगा। घने पत्तों के बीच बैठकर बोलने वाले पक्षी का मधुर स्वर सुनकर तुम्हारा सारा कष्ट दूर हो जाएगा। पोखरी में भ्रमरों के आघात से बिखरी कमल की पँखुडियों से अपनी दृष्टि नहीं हटा सकोगे, यह सब देखकर मान लेना कि यह वही पहले वाला काँचीपुर ही है।''
इतनी सारी बातें करने के बाद उसने लड़के से पूछा, ''भैया, तुम कहाँ जा रहे हो? काँची का कोई नया समाचार लाए हो? लड़के ने उत्तर दिया, ''परदेश में शिक्षा प्राप्त करके हाल ही में लौटे राजकुमार वीरेन् के साथ कल राजेन् कविराज की पुत्री का विवाह होगा, मैं उसी का निमन्त्रण बाँटने जा रहा हूँ। इसके सिवाय काँची का कोई खास समाचार नहीं सुना। उरीरै नाम की एक युवती को डाकू उठाकर ले गए, और उसकी चिन्ता में उसकी माँ भी मर गई। धनवान भुवन के बाप की भी एक पागल व्यक्ति ने हत्या कर दी। बस, इतना ही है।'' यह बताने के बाद, ''देर हो गई है'' कहते हुए वह लड़का तुरन्त चला गया, ''उरीरै जड़ से उखाड़ दिए गए केले के पौधे की भाँति बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ी।
उरीरै सहनशीलता में धरती के समान थी। बिना खाए-पिए रहना सहन कर सकती थी, खान-पान और वस्त्रादि का अभाव झेल सकती थी, किन्तु दो विषय ऐसे हैं, जिन्हें वह सहन नहीं कर सकती - पहला, कुटिया में रहने वाली अकेली माँ की मौत की खबर, और दूसरा, वीरेन् द्वारा उसे छोड़ किसी और के साथ विवाह का समाचार। यही दो समाचार एक साथ सुनने से वह एकदम मूर्छित हो गई, जैसे उसके सिर पर वज्रपात हो गया हो।
थोड़ी देर तक मूर्छित रहने के बाद चेतना लौटने पर वह उठने लगी। दुख, शंका, मन की पीड़ा, चिन्ता, ईर्ष्या आदि के एकत्र होने से उसका हृदय अन्दर ही अन्दर जलने लगा। इतने बड़े संसार में उसे पल-भर के लिए चैन से रहने की जगह नहीं मिली। वह सोचने लगी कि बालू-कण से लेकर संसार की समस्त वस्तुओं, जीव-जन्तुओं तक में कोई भी उसका हितू नहीं रहा। उसने सोचा, ''पुरुष जात! कितनी निष्ठुर होती है। इतने दिनों तक उसके चरणों का ही स्मरण करके जीती आई हूँ, खान-पान सोना त्याग चुकी हूँ, दिन-रात, हर पल उसके चेहरे का स्मरण ही मेरी शक्ति बना रहा। इसी प्रतीक्षा में हूँ कि कब मैं उसका मुख कमल देख पाऊँगी किन्तु वही मुझे छोड़कर किसी और लड़की को ब्याहने का निश्चय कर चुका है। उसकी विरहाग्नि सहन करने के लिए माँ तक को छोड़ आई, मेरे बिछोह के कारण माँ भी प्राण त्याग चुकी है।
जब तक आशा जीवित है, तब तक मनुष्य अकेला कभी नहीं मर सकता। अगर आशा नहीं रहती तो अकेला मरने में कोई बाधा नहीं होती। पहले उरीरै आशा के सहारे जी सकती थी, अब उसकी आशा केवल कोंपल-सी ही नहीं टूटी, जड़ से उखड़ गई, इसलिए उरीरै मरने को सोचने लगी, ''अपने माँ-बाप से बिछुड़ी, अपने मन-देवता की करुणा से वंचित अपने इस पापी शरीर को ढोकर इस संसार में जीने से क्या फायदा। हे रास-मंडल! तुम्हारे शीतल गर्भ में कूदकर अपने जलते हृदय का यह ताप शांत करुँगी। यह कहते हुए वह रास-मंडल में उतरने लगी। बीचोंबीच की गहराई तक उतरकर अपने को गर्दन तक जल में डुबो दिया और उसका मुख-कमल वहाँ खिले कमलों में मिल गया। ''इस जन्म में उनके चरण नहीं पा सकी, अगले जन्म में पाने का वरदान दो" कहकर आँखें बन्द करके सूर्य देवता की स्तुति करने लगी।
पाठक! बहुत दिनों से दुख-सागर में डूबी उरीरै का एक बार स्मरण कीजिए। राह चलते समय लोग आपस में बात करते हैं कि अमुक पुस्तक में या अमुक कथा में बहुत ही खूबसूरत, बहुत कुशल, अति शिक्षित या सम्पन्न लड़कियों के बारे में पढ़ने या सुनने को मिलता है। सुन्दरी होते हुए भी वह वस्त्राभूषणों के अभाव में चराङ् (चराङ् : जल में उगनेवाली घास की प्रजाति का एक बेलदार पौधा) के बीच उगनेवाली कमलिनी-जैसी थी, रंग-रुप ठीक होते हुए भी खाने-पीने के अभाव में अत्याधिक दुबली-पतली थी, चन्द्रमा-सा सुन्दर चेहरा होते हुए भी दुख-ताप की श्यामलता से पीड़ित थी। पीछे मुड़कर देखें तो उसका अपना कोई नहीं था, भाई नहीं थे, माता-पिता हैं भी, तो उनके ठौर-ठिकाने की जानकारी नहीं। आँखों से आँसू बहाना ही उसके जीवन में विश्राम का प्रतीक बन चुका था। इसलिए आप सोच सकते हैं कि हमारी उरीरै की कथा पढ़ने से क्या लाभ मिलेगा। किन्तु इस संसार की सभी लड़कियाँ शकुन्तला की भाँति सुन्दर नहीं होती, सावित्री की भाँति बड़े राजाओं की सन्तान नहीं, विक्टोरिया की तरह आजन्म खुशहाल नहीं; यह संसार दीन-दुखियों से भरा है। हमारी उरीरै अभागिन है। समूहों में उड़नेवाले पक्षियों से बिछुड़ गई धनेश जैसी, हवा द्वारा पेड़ से छिटका दी गई बेल जैसी, पहाड़ के भीतरी स्थलों पर अकेली चहचहानेवाली ताम्ना जैसी, घने जंगल में अकेली खिलनेवाली केतकी जैसी, बिना तने और डालियों के ग्रीष्म की धूप सहनेवाले और वर्षा में भीगनेवाले लैपाक्लै जैसी है। वह गुणों से रहित नहीं है, वृक्ष की भाँति क्षमामयी है, धरती के समान सहनशील है, नदी की भाँति अविभक्त स्वभाववाली है। नारी जाति के हमारे आकांक्षित गुण भी केवल यही हैं।
तलहटी का दृश्य
शाम की मन्द-मन्द बहती हवा। घास के लहराते नए पत्ते। डूबते सूर्य की सुनहरी किरणों में चमकती फुनगियाँ। ऐसे समय वीरेन् अपने बचपन की अध्ययन - स्थली को देखने की इच्छा से उस तलहटी की ओर निकल आया। हैबोक पर्वत पर खेलना, शशि द्वारा उसे चौंका जाना, फूलों की बेलों के बीच उरीरै और माधवी से मुलाकात-बहुत दिनों के बाद यह सब याद करके उसका मन अत्यधिक व्याकुल हुआ। अर्से पूर्व घटित घटनाएँ एक बार घूमा कोई दूरस्थ स्थान, एक बार चढ़ी दूरस्थ पहाड़ी चोटी, तन्हाई में एक ही बार मिला मित्र-यह सब स्मरण आने पर मन में दुख और हूक उत्पन्न होते हैं - वैसे ही भाव के उदय होने से वीरेन् के मन को भी अत्यधिक पीड़ा हुई।
वीरेन् ने सोचा, ''बचपन के दिन कितने सुन्दर थे! डूबते सूर्य की सुनहरी किरणों में चमकती फुनगियाँ, उद्यान में भागना, झील में डुबकी लगाना, लताओं के बीच छिपते-छिपाते खेलना कितना आनन्ददायक था! झील से कमलिनी और कमलगट्टे तोड़ना और पर्वतीय पेड़ों से पके फल ढूँढ़कर खाना स्वादिष्ट लगता था! उद्यान से फूल चुनकर डोली सजाने में वह कितना कुशल था! अब भी पहलेवाला वही उद्यान है; झील वन, पेड़-पौधे फूल, फल पहले की भाँति ही हैं, किन्तु मेरे मन में किसी को भी देखने की इच्छा नहीं है, कुछ खाने की भी इच्छा नहीं। चारों ओर असंख्य वस्तुओं के होते हुए भी आँखों के सामने सुनसान ही दिख रहा है। यह उद्यान मेरे लिए उद्यान नहीं रहा, मरघट बन गया है; यह विस्तृत मैदान, मैदान नहीं रहा, मरुस्थल बन गया है; फूलों की सुगन्ध से भरा यह पवन भी शीतल पवन नहीं रहा; मरुस्थल का तप्त-पवन बन गया है। यह फल भी खाने योग्य नहीं रहे, विषयुक्त फल बन गए हैं। अरे, यह सब क्या हो रहा है? प्रकृति ही मेरी शत्रु बन गई है? जिस चीज को भी देखता हूँ, वही मुझे दुख दे रही है। समझ गया, यह सब यौवन के विचारों का प्रभाव है, यौवन का यह समय बहुत खतरनाक होता है।
सन्ध्या होनेवाली थी। पर्वत की चोटी ने सूर्य को ढँक लिया और तलहटी पर श्याम-परछाई छाने लगी। बैल, घोड़े, बकरे आदि घरेलू पशु चरना छोड़कर घर की ओर जाने लगे। पूर्ण प्रफुल्लित कमल कमलिनी की पँखुड़ियाँ धीरे-धीरे बन्द होने लगी। पहाडों पर फल ढूँढ़कर खानेवाला पक्षीवृन्द भी पंक्तियों में उड़ने लगा।
वीरेन् मन में द्वन्द्व लिए दिशाहीन होकर यूँ ही चलते-चलते रास मंडल के किनारे पहुँच गया। उसने वहाँ कुछ-कुछ बन्द हुए एक सौ आठ पँखुड़ियों वाले कमलों के बीच आँखें बंद करके देवाराधना कर रही उरीरै के मुख-कमल को देखा। सोचा ''यह संसार कितना बदल गया है, अब तो इस रास-मंडल में जल-कमल और स्थल-कमल साथ-साथ खिलने लगे हैं।''
उसी वक्त ''ओ सखी! कमल तोड़कर सूर्य-पूजा करने की तैयारी में स्वयं कमल बनकर गहरे जल में उतराने लगी हो। पर सखी डूब रही है! कोई है? मेरी सखी के प्राण बचाओ, मेरी सखी को किनारे पर लाओ।'' कहते हुए एक लड़की पोखरी के किनारे घबराते हुए चिल्लाने लगी। उसी क्षण वीरेन् अरे यह तो कमल नहीं है, कोई पानी में डूब रही है" कहते हुए पोखरी में कूद पड़ा और डूबती हुई लड़की को ऊपर ले आया। कैसा दैवयोग था! वह कोई और नहीं थी, उरीरै ही थी!
इस बीच चिल्लानेवाली लड़की अचानक गायब हो गई। पोखरी के किनारे उठा लाने के बाद दोनों युवक-युवती पुनः अचानक मिलने पर आनन्द और प्रेम में विभोर होकर कई क्षण तक कुछ भी नहीं बोल सके! पहली बार इसी प्रकार अचानक तलहटी के उद्यान में मिले थे। अब वीरेन् ज्यादा देर तक चुप नहीं रह सका, उरीरै! काँची उद्यान की उरीरै! मेरे मनोद्यान की उरीरै! मुझे क्षमा करो। तुमने मेरे लिए कितने दुख सहे, सोचते ही मुझे इतनी पीड़ा हुई कि जैसे मेरे हृदय में भाला चुभ गया हो। आओ, तुम्हें अपनी बाँहों में लेकर यह पीड़ा शान्त करुँ।" कहते हुए उरीरै को अपनी बाँहों में ले लिया। उरीरै भी पहले की तरह लजालू नहीं रही, अनवरत आँसू बहाते हुए बोली ''हे वीर! तुमने अभी तक मुझे नहीं भुलाया, यह जानते ही मेरा सारा दुख-दर्द मिट गया। नारी-रूप में मेरा यह जीवन सफल हो गया। हे वीर! अब जाओ। मनचाही युवती के साथ ब्याह कर लो। वर-पूजा (वर-पूजा : विवाह के एक रोज पूर्व शाम को सम्पन्न विवाह सम्बन्धी एक रस्म, जिसमें कन्या-पक्ष की ओर से एक छोटे बालक द्वारा किसी एक बुजुर्ग के साथ वर के घर जाकर वर की पूजा करके विवाह के लिए आमन्त्रित किया जाता है) के लिए लोग प्रतीक्षा कर रहे होंगे। दोनों के कल्याण के लिए मैं तन-मन एक करके ईश्वर की आराधना करुँगी। अब मैं अभागिनी ब्रहाचारिणी बनकर दूर चली जाऊँगी। कल ब्याह करनेवाले पुरुष की बाँहों में समाने योग्य नहीं रही।" क्या उत्तर दे, कुछ भी न समझ सकने के कारण वीरेन् उरीरै के उदार ललाट को बार-बार चूमने लगा। अरे वीरेन्! यह तुम्हारा कैसा उत्तर है? एम.ए. तक की पढ़ाई में इस प्रकार का प्रश्न कभी नहीं मिला? यथायोग्य उत्तर क्यों नहीं दे सकते?
विलक्षण विवाह
निश्चित समय पर निमन्त्रण प्राप्त बड़े-बुजुर्ग, मौहल्ले की औरतें, राजवंश की रमणियाँ सब राजेन् कविराज के घर आ पहुँचे और सभी को आदर-सत्कार के साथ उचित आसन पर बिठाया गया। पुरुषों का संकीर्तन शुरू हो गया।
उधर वीरेन् भी वर की वेश-भूषा धारण करके यात्रा के लिए तैयार हो गया। फिरुक् (फिरुक् : एक ढक्कनदार टोकरी विशेष, जिसमें विवाह या देवी-देवताओं की पूजा आदि में गुड़वाली धान की खील, फल आदि पूजा-सामग्री रखकर ले जाई जाती है) लेकर चलनेवाली नारियाँ फल लेकर चलनेवाले लड़के, मित्रगण और वर के साथ अन्य युवकों का दल काँची की सड़क पर भीड़-भाड़ के रुप में निकले। उसी समय सड़क की पश्चिमी दिशा से तलहटी के नजदीक वाले वन के निकट के संकरे मार्ग पर फिरुक ढोनेवाले लोगों की एक अन्य पंक्ति भी चली आ रही थी। वह दूर से देखने पर अंडे ढोनेवाली चींटियों की पंक्ति जैसी सुन्दर लग रही थी। पीछे आनेवाला दल वीरेन् के दल से मिलकर एक हो गया। वीरेन् के दल द्वारा पूछे जाने पर उस दल ने उत्तर दिया, ''धीरेन् ने अपने मित्र के लिए भेजा है। सभी लोग विवाह-स्थल पर मंडप में पहुंचकर यथायोग्य सम्मान के साथ अपने-अपने आसन पर बिठा दिए गए। विधि-विधानपूर्वक वर का स्वागत किया गया।
शुभ लग्न में वर जंगली हाथी की तरह धीरे-धीरे चलकर विवाह की चौकी पर बैठा| धीरेन् मित्र की सहायता करने लगा। उस समय सभी उपस्थित जन बहुत व्यस्त रहे। दाहिने हाथ से पान लिया, बाएँ हाथ में चिलम थामी, दृष्टि वर पर और मुँह में कुछ खाद्य पदार्थ। पान खाया जाए या हुक्का पिया जाए या वर की नुक्ता चीनी की जाए, सब मुश्किल में पड़ गए। वर भी धरती पर नजर गड़ाए ऐसे बैठा कि कहीं उसकी दृष्टि फिसल न जाए। उसे देखकर सभी ''ऊँघने लगा है, ऊँघने लगा है, गिर जाएगा'' कहकर शोर मचाने लगे। एक बार पलकें झपकाते ही बोले, ''आँखें खुल गई हैं।'' हलका-सा हिला तो फिर बोले ''हिलने लगा है, हिलने लगा है।'' ऐसे ही कुछ देर तक सभी क्या-क्या बोलते रहे। किन्तु बहुत बक-झक करने पर भी वर की ओर से कोई उत्तर न मिलने पर और बकते-बकते थक जाने के कारण खाने में रुचि लेने लगे। तभी कन्या को लाने के लिए कहा गया। उसी वक्त कन्या के घर में कोहराम मच गया, परिवार के सभी लोग बदहवासी में इधर-उधर भागने लगे। कारण पूछने पर पता चला ''कन्या गायब हो गई, ढूँढने पर भी नहीं मिल रही है।'' यह सुनते ही सभी लोग इधर-उधर, आगे-पीछे भागने फिरने लगे। दक्षिणा से वंचित होने की घबराहट में पुरोहित 'अनर्थ हो गया' कहते हुए आगबबूला हो गया। अकस्मात उसी पूरबवाले ओसारे के कोने से एक लड़की निकली, उसने वर के गले में वरमाला डाली। वर ने भी उस लड़की के गले में पुष्पमाला डाली। दोनों अगल-बगल में बैठ गए। विवाह सम्पन्न हो गया। सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए| कुछ लोग पहचानकर कहने लगे, ''यह तो उरीरै है, उरीरै है।'' थोड़ी देर पश्चात् राजेन् की बेटी और भुवन दोनों को पकड़कर सबके सामने लाया गया। राजेन् के यह पूछने पर कि दोनों को कैसा दंड दिया जाए, वीरेन् ने उत्तर दिया, दोनों में परस्पर प्रेम है तो इसी वक्त दोनों का विवाह संस्कार सम्पन्न होना ही सही दंड होगा; मैं बड़ा भाई बनकर कन्यादान करुँगा। ''सही बात है" कहते हुए सभी युवक चिल्लाने लगे। अब राजेन् बिना किसी के बताए स्वयं समझ गए कि प्रेम एक बहुत ही ऊधमी कीड़ा है; उपदेशों से इसका स्वभाव कोमल नहीं बनाया जा सकता, डाँट-डपट और मार से इसे नहीं समझाया जा सकता। यह सिर्फ खूबसूरती ही नहीं चाहता, धनवानों के यहाँ ही आश्रय नहीं लेता, सिर्फ शिक्षितों को ही नहीं देखना चाहता। इसलिए राजेन् ने बखेड़ा करने के बजाय चुपचाप बेटी का कन्यादान करके अपनी गलती को सुधारा।
वीरेन् भी बड़ा भाई बन कर राजेन् की पुत्री के कन्यादान में शरीक हुआ। उसी समय उरीरै को ''मेरा कोई भाई, माँ-बाप न होने के कारण मेरा कन्यादान करने वाला कोई नहीं है'' कहते हुए अनवरत आँसू बहाते देखकर मंडप के एक कोने से एक अधेड़ व्यक्ति निकला और ''बेटी, मैं हूँ तो'' कहकर अपनी बेटी को छाती से लिपटाते हुए बिलख पड़ा। सचमुच वह व्यक्ति उरीरै का बाप नवीन था। जब ''उरीरै नहीं मरी, बाप भी नहीं मरा'' कहते हुए सभी लोग परस्पर फुसफुसा रहे थे, तभी घर के भीतर से एक औरत निकल आई और उरीरै से लिपटकर खूब रोई। जिन्हें लोग मरा हुए सोचते थे, उन माँ- बाप और बेटी, तीनों के मिलन से सभी अत्यन्त खुश हुए। इसके अलावा अपने प्राण बचानेवाले युवक को दामाद के रूप में पाकर नवीन की खुशी का ठिकाना न रहा। वीरेन् भी अनाथिनी जैसी अलग-थलग रही उरीरै के माँ-बाप के सबसे सामने प्रकट हो जाने से बेहद खुश हुआ। नवीन्, थम्बाल् और उरीरै कैसे जीवित बचे, इसकी कहानी सबको सुनाई गई। सभी लोग अत्यन्त खुश हुए और कहने लगे कि यह विलक्षण विवाह है। सबके सामने नवीन ने अपने को भुवन के बाप का हत्यारा घोषित किया। उरीरै द्वारा शशि को निर्दोष बताए जाने पर उसे बन्दीगृह से छुड़ाकर वहाँ लाया गया। तब वीरेन् ने कहा, ''मित्र, तुमने मेरे लिए बहुत कष्ट सहा, उसी के पुरस्कार-स्वरूप मैं तुम्हें अपनी छोटी बहन सौंप रहा हूँ'' और अपनी बहन थम्बाल्सना का कन्यादान शशि के साथ किया। बन्दीगृह से निकलते ही राजवंश की एक कन्या को पाने पर शशि मुस्कुराया और बड़बड़ाया, ''राजवंश कभी अपनी जबान से पीछे नहीं हटता।'' राजेन् ने विवाह का सारा खर्च उठाया।
एक ही जगह, एक ही दिन तीन विवाह-संस्कार सम्पन्न होते देख सभी लोग समान रूप से खुश हुए और हर एक को तीनों विवाहों के लिए तीन-तीन दक्षिणाएँ मिलने से वहाँ तारीफ के पुल बँध गए। पुरोहित ने भी दक्षिणा से वंचित होने की घबराहट से मुक्त होकर, अधिक दक्षिणा मिलने से, ''मेरे द्वारा सम्पन्न कराया कार्य कभी असफल होता है क्या!'' कहकर अपनी खुशी जाहिर की।
इस प्रकार का विलक्षण समाचार सुनकर देश के शासक ने नवीन को प्राण दंड से मुक्त कर दिया।
उरीरै ने सोचा कि अब उसकी सारी विपत्ति दूर हो गई है, इस अवसर पर अगर सखी माधवी से उसकी मुलाकात हो जाती तो बेहद खुशी होती। माधवी के सही ठौर-ठिकाने का पता नहीं चल सका, लेकिन जब भुवन ने उसे बाँधकर जंगल में रखा था, तब उसे बचानेवाली और भविष्य में उसका सारा दुख-दर्द मिट जाने की भविष्यवाणी करनेवाली उस देवी की आवाज माधवी जैसी लगती थी और हाल ही में रास-मंडल में कूदकर आत्महत्या का प्रयास करते समय 'सखी' कहकर पुकारने वाली उस युवती की आवाज भी माधवी की ही लगती थी। पर ठीक से वार्तालाप का अवसर नहीं मिला था। उसने सोचा कि विपत्ति के समय उसकी रक्षा और वीरेन् से उसका मिलन-यह सब माधवी की ही कृपा है। यही सच भी था। माधवी के स्वार्थ त्याग और उदारता के बारे में सोचकर उरीरै को विश्वास नहीं हुआ कि वह एक इंसान थी, सोचने लगी कि वह हैबोक् की देवी ही है। विश्वास नहीं होता कि ऐसा इंसान संकीर्ण और धोखेबाज समाज में फिर दिखाई देगा, सचमुच ही दिखाई भी नहीं दिया।
समापन अंश
रात बीत गई, सुबह हो गई। पूर्वी आकाश में प्रात:कालीन सूर्य उजले प्रकाश के साथ उदित होने लगा। काँची के उद्यान में मल्लिका, मालती, उरीरै आदि पुष्प पूर्ण रूप से प्रफुल्लित होने लगे। माधवी मन में द्वन्द्व लिए उद्यान में गई। खिले हुए मल्लिका को चँगेरी भर तोड़ा। चँगेरी में से एक-एक पुष्प उठाकर माला पिरोने लगी। उस पुष्पमाला को देखकर कहने लगी, ''अर्थहीन पुष्पमाला है, मैं यह पुष्पमाला जिसके गले में पहनाना चाहती हूँ, अब वह सम्भव नहीं होगा।'' उसने दोनों आँखों से खूब आँसू बहाए। उन आँसुओं से वह पुष्पमाला पूरी तरह भीग गई। उसी समय धीरेन् सुबह के समय टहलने निकला तो काँची-उद्यान के सौन्दर्य को निहारने वहाँ चला आया। निर्जन स्थान पर संन्यासिनी का रूप धारण किए एक युवती को पुष्पमाला लिए आँखों से आँसू बहाते देख आश्चर्यचकित होकर थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा। बोला, ''हे पुष्पमाला पिरोनेवाली! क्या तुम काँची की देवी हो? या पति-वियोग के ताप से विह्वल होकर (देखने में विवाहिता स्त्री मानकर) अपने कोमल तन पर गेरुए वस्त्र धारण किए हो? किसके लिए अपनी आँखों से आँसू बहाती हो?'' माधवी अपने मन में आराधित मूर्ति, धीरेन् को सामने देखकर बिना कोई भी उत्तर दिए आँखों में आँसू भरे गौर से देखती रही। उसकी यह दशा देख धीरेन् ने दुखी मन से फिर पूछा, ''पुष्पमाला पिरोनेवाली! बोलो, तुम्हारी कौन सी मनोकामना पूरी नहीं हुई है? मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ तो अपने प्राण तक देकर तुम्हारी मनोकामना पूरी करने की कोशिश करूँगा।'' तब माधवी ने सोचा कि अगर वह अपना परिचय बता देगी, तो धीरेन् और राजेन् कविराज की बेटी के विवाह में बाधा उत्पन्न हो जाएगी और वह एक निर्दोष समवयसी की अपराधी हो जाएगी; इसलिए उसने अपना परिचय नहीं दिया। बोली, ''हे वीर! मैं संन्यासिनी हूँ, मैंने मनोकमानाएँ त्याग दी हैं, इसलिए इस संसार में मेरी कोई भी मनोकामना अपूर्ण नहीं रही। मेरा जीवन गेरुए वस्त्रों में बीता है, शेष जीवन भी इन्हीं के संग पूरा हो जाएगा।'' उसका पूरा शरीर आँसुओं से भीग गया। तब धीरेन् ने पूछा, ''तो इतने मन से यह पुष्पमाला क्यों पिरोई? और क्यों अपनी आँखों से आँसू बहा रही हो?" माधवी ने रोते-रोते काँपती आवाज में उत्तर दिया, "कोई व्यक्ति है, जिसके गले में यह पुष्पमाला पहनाना चाहती हूँ, इसलिए आँसुओं की एक-एक बूँद से यह माला पिरोई, यह सामान्य पुष्पमाला नहीं है, बड़ी आकांक्षा के साथ पिरोई गई माला है। यह मेरे जीवन की अंतिम माला है। इस संसार में अब यह पुष्पमाला पहनाना संभव नहीं, इस जन्म में मनोकामनापूर्वक पहनाने का अवसर नहीं मिला; जहाँ कभी वियोग न हो, वहाँ शान्त मन से पहनाऊँगी।'' यह कहते हुए चादर के पल्ले से चेहरा ढाँपकर बिलखने लगी। थोड़ी देर बाद टूटे स्वर में फिर बोली, ''हे वीर! अच्छा ही हुआ कि आज मैं तुमसे मिली हूँ। आज मेरा अन्तिम दिन, अन्तिम समय, अन्तिम पल है। किसी के मिलने पर एक पुरानी बात याद कराने की बाट जोहती आई हूँ। कहने का विचार किया, किन्तु इतने दिनों तक कह नहीं सकी - लेकिन मन की यह बात प्रकट न करूँ तो सदा के लिए मेरे ऊपर एक ऋण रह जाएगा। अगर कोई व्यक्ति 'निश्चित बात बाद में बताऊँगी' कहकर प्रतिज्ञा करनेवाली किसी युवती को ढूँढ़ने आए तो बस, उसे इतना बता दीजिए, ''निश्चित बात बताने का अवसर इस जन्म में नहीं आया, जहाँ कभी वियोग न हो, वहाँ शान्त मन से बताऊँगी।'' यह कहकर उस पुष्पमाला को अपने हृदय से लगा लिया। इसके पश्चात् धीरेन् के चौड़े ललाट को एक बार गौर से देखने के बाद मुड़ी और तेजी से उत्तर की ओर चली गई। उस दिन से किसी ने भी माधवी को इस संसार में नहीं देखा।
बाद में धीरेन् ने माधवी को पहचान कर उसे ढूँढ़ने का बड़ा यत्न किया, किन्तु वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ी।
''चन्दन के वृक्ष अनेक
पर्वतों पर और जंगलों में
जैसे नष्ट हो जाते हैं सूखकर ,
वैसे ही मनोद्यान के कोने में
सहेजकर रोपा हुआ पुष्प
सूख जाएगा होकर अर्थहीन
तन-मन सहित ;
नहीं होगा किसी को भी ज्ञात!''