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जंगली जानवर के बदले
मैं घुस गया था पिंजरे में।
गला डाली मैंने अपनी उम्र चीखते-चिल्लाते बैरक में।
समुद्र के किनारे मैं खेलता रहा रूलैट
खाना खाता था मैं पता नहीं किसके साथ।
हिमनद की ऊँचाई से मुझे दिखाई देती थी आधी दुनिया,
तीन बार मैं डूबा और एक बार पिटा।
छोड़ा मैंने वह देश पाला-पोसा था जिसने मुझे
इतने लोग भूल चुके हैं अब मुझे
कि पूरा शहर भर सकता है उनसे।
मैं स्तैंपी के मैदानों में भटकता रहा जिनकी यादों में
ताजा थी चीखें,
पहनता था कपड़े जो फिर से आ जाते थे फैशन में
बोता था जई, खलिहान को ढकता था तिरपाल से
और नहीं पीता था केवल सूखा जल
आने देता था सपनों में पहरेदारों की कव्वों-जैसी पुतलियों को,
भकोसता था निर्वासन की रोटी छोटा-सा टुकड़ा भी छोड़े बिना।
अपने कंठ से निकलने देता था हर तरह की ध्वनियों को
सिवा रोने-धोने की आवाज के,
बोलना अब फुसफुसाने तक रह गया था।
अब मैं चालीस का हो गया हूँ
क्या कह सकता हूँ जिंदगी के बारे में
जो इतनी लंबी निकल आई।
एकता का भाव अब महसूस होता है सिर्फ दुखों के साथ
पर अभी तक मिट्टी से बंद नहीं किया गया है मेरा मुँह
उसमें से निकलेंगे
शब्द केवल कृतज्ञता के।
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