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उपन्यास

अधखिला फूल

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


चमकता हुआ सूरज पश्चिम ओर आकाश में धीरे-धीरे डूब रहा है। धीरे-ही-धीरे उसका चमकीला उजला रंग लाल हो रहा है। नीले आकाश में हलके लाल बादल चारों ओर छूट रहे हैं। और पहाड़ की ऊँची उजली चोटियों पर एक फीकी लाल जोत सी फैल गयी है। जो घर की मुड़ेरों के ऊपर उठती हुई धूप को पकड़ कर किसी ने लाल रंग में रंग दिया है, तो पेड़ों की हरी-हरी पत्तियों पर भी लाली की वह झलक है, जो देखने से काम रखती है। लाल फूलों का लाल रंग ही अवसर पाकर चटकीला नहीं हो गया। पीले, उजले और नीले फूलों में भी ललाई की छींट सी पड़ गयी है। धरती की हरी-हरी दूबों, नदी, तालाब, पोखरों की उठती हुई छोटी-छोटी लहरों, बेल बूटों और झाड़ियों की गोद में छिपी हुई एक-एक पत्तियों तक में ललाई अपना रंग दिखला रही है। जान पड़ता है सारे जग पर एक हलकी लाल चाँदनी सी तन गयी है।

एक बहुत ही बड़ी और सुहावनी फुलवारी है। उसके एक ओर बहुत से अड़हुल के पौधे लगे हुए हैं। ये सब पौधे जी खोल कर फूले हैं-हरी-हरी पत्तियों में इन फूले हुए अनगिनत फूलों की बड़ी छटा है-जान पड़ता है चारों ओर ललाई का ऐसा समाँ देखकर ही इन फूलों पर इतनी फबन है। इन्हीं बहुत से फूले हुए फूलों में कुछ फूल अधाखिले से हैं, इन पौधों के पास खड़ी एक अधेड़ स्त्री इन अधाखिले फूलों को उँगली बताती जाती है, और एक बहुत ही सुघर और लजीली लड़की अपने लाल-लाल हाथों से धीरे-धीरे उन फूलों को तोड़ रही है। उसका मुँह डूबते हुए सूरज की ओर है, जिस लाली ने सारी धरती को अपने रंग में डुबाकर चारों ओर एक अनूठी छटा फैला रखी है, वह लाली इस खिली चमेली सी लड़की की देह की छबि को भी दूना करके दिखला रही है। इस भोली-भाली लड़की के गोरे-गोरे गालों पर इस घड़ी जो अनूठी और निराली फबन है, कहते नहीं बनती, उसकी सहज लाली दूनी तिगुनी हो गयी है, जिसको देखकर जी का भी जी नहीं भरता। पर उसको बिना झंझट देखना आँखों के भाग में बदा नहीं है, लड़की ने सर के कपड़े को कुछ आगे को खींच रखा है, यही कपड़ा जी भरकर उस छबि को देखने नहीं देता। जब पवन धीरे-धीरे आकर उस कपड़े को हटाती है, उस घड़ी उसके काँच से सुथरे गालों की अनोखी लाली आँखों में रस की सोत सी बहा देती है।

इन अड़हुल के पौधों के ठीक सामने पश्चिम ओर थोड़ी ही दूर पर एक बहुत ही ऊँची अटारी है। अटारी में पूर्व ओर तीन बड़ी-बड़ी खिड़कियों में से बीचवाली खिड़की पर कोई छिपा हुआ बैठा है-और छिपे ही छिपे, डूबते हुए सूरज की, फूली हुई फुलवारी की, चारों ओर फैली हुई लाली की, और उस सुन्दर सजीली लड़की की अनूठी छटा देख रहा है। डूबते हुए सूरज, चारों ओर फैली लाली, और भाँति-भाँति के फूलोंवाली फुलवारी के देखने से उसके जी में जो रस की एक छोटी सी लहर उठती है, और उससे जो सुख उसको होता है, किसी भाँति बतलाया जा सकता है। पर उस सुन्दर और छबीली लड़की के देखने से उसके गोरे-गोरे गालों की बढ़ी हुई अनूठी लाली पर, किसी भाँति दीठ डालने से, जो एक रस की धारा सी उसके कलेजे में बह जाती है, उसका सुख न किसी भाँति बतलाया जा सकता, न लिखा जा सकता है। वह इस धारा में अपने आपको खोकर धीरे-धीरे आप भी बह रहा है-और साथ ही अपने सुधा-बुध को भी चुपचाप बहा रहा है।

जिस घड़ी हमने लड़की को फूल तोड़ते देखा था, वह पिछली बारी थी-जितना फूल उसको तोड़ना चाहिए था वह तोड़ चुकी-इसलिए अब यह घर की ओर चली, पीछे-पीछे वह अधेड़ मालिन भी चली। साँझ का समय, चिड़िया चारों ओर मीठे-मीठे सुरों में गा रही थीं, भाँति-भाँति के फूल, फूल रहे थे, ठण्डी-ठण्डी पवन धीरे-धीरे चल रही थी, भीनी-भीनी महँक सब ओर फैली थी, जी मतवाला हो रहा था। साथ की अधेड़ स्त्री समय पर चूकनेवाली न थी। अपनी गिट्टी जमाने का अवसर देखकर बोली-देवहूती! देखो कैसा सुहावना समय है! कैसी निराली शोभा है! पर साँझ क्यों इतनी सुहावनी है? उसमें क्यों इतनी छटा है? क्या तुम इसको बतला सकती हो? साँझ का समय बहुत थोड़ा है-पर इस थोड़े समय में भी जितना प्यार और आदर उसका हो जाता है-और समय को होते देखने में नहीं आया। पर क्या यह गुण उसमें यों ही है? नहीं, यों ही नहीं है? वह अपने समय को जैसा चाहिए उसी भाँति काम में लाती है-इसी से वह इतने ही समय में अपना बहुत कुछ नाम कर जाती है। देखो, वह आते ही चाँद से गले मिलती है-पवन का कलेजा ठण्डा करती है-फूलों को खिला देती है-चिड़ियों को मीठा सुर सिखलाती है-पेड़ों को हरा-भरा बनाती है-आकाश को तारों से सजाती है-लोगों की दिन भर की थकावट दूर करती-और चारों ओर चहल-पहल की धुम सी मचा देती है। सच है, समय रहते ही सब कुछ हो सकता है, समय निकल जाने पर कुछ नहीं होता। पर देखती हूँ, देवहूती! तुम्हारा समय यों ही निकला जाता है, तुम्हारा यह रूप! यह जोवन!! और कोई प्यार करनेवाला नहीं! जैसा चाहिए वैसा आदर नहीं!!! क्या इससे बढ़कर कोई और दुख की बात हो सकती है?

देवहूती ने ठण्डी साँस भरी, उसकी आँखों में पानी आया, पर कुछ बोली नहीं, जी बहलाने के लिए इधर-उधर देखने लगी। इसी समय सामने फूले हुए कई पेड़ों की झुरमुट में एक बहुत ही सजीला जवान दिखलाई पड़ा। यह धीरे-धीरे उन पेड़ों में टहल रहा था, और साँझ की धीरे बहनेवाली पवन उसके सुनहले दुपट्टे को इधर-उधर उड़ा रही थी। इस जवान की दुहरी गठीली देह पर सुघराई फिसली पड़ती थी, गोरा रंग तपे सोने को लजाता था। बड़ी-बड़ी रसीली आँखें जी को बेचैन करती थीं और ऊँचे चौड़े माथे पर टेढ़े-टेढ़े बाल कुछ ऐसे अनूठेपन के साथ बिखरे थे, जिनके लिए आँखों को उलझन में डाल देना कोई बड़ी बात न थी। भौंहें घनी और आँखों के ऊपर ठीक धनुष की भाँति बनी थीं; पर रह-रह कर न जाने क्यों सिकुड़ती बहुत थीं। मुँह का डौल बहुत ही अच्छा, बहुत ही अनूठा और बहुत ही लुभावना था, पर उसकी निखरी गोराई में लाली के साथ पीलापन भी झलक रहा था। गला गोल, छाती चौड़ी और ऊँची बाँहें भरी और लाँबी, और उँगलियाँ बहुत ही सुडौल थीं। देह की गठन बनावट, लुनाई, सभी बाँकी और अनूठी थीं। देह के कपड़े हाथों की ऍंगूठियाँ, पाँव के जूते सभी अनमोल और सुहावने थे। इस पर जो पेड़ों से उसके ऊपर फूलों की वर्षा हो रही थी, समा दिखलाती थी। देवहूती की आँख जिस घड़ी उसके ऊपर पड़ी, वह सब भूल गयी, सुधा-बुध खो सी गयी। पर थोड़े ही बेर में काया पलट हो गया। जिस घड़ी उसकी आँख इसकी ओर फिरी और चार आँखें हुईं, देवहूती चेत में आ गयी और आँखों को नीचा कर लिया।

वह साथ की स्त्री जो बासमती छोड़ दूसरी नहीं है, यह सब देखकर मन-ही-मन फूल उठी, सजीले जवान का जी भी अधखिली कली की भाँति खिल उठा, दोनों ने समझा रंग जैसा चाहिए वैसा जम गया। पर इस घड़ी देवहूती के जी की क्या दशा थी, इसकी छान-बीन ठीक ठाक न हो सकी। धीरे-धीरे सूरज डूबा, और धीरे-ही-धीरे देवहूती बासमती के साथ फुलवारी से बाहर होकर घर आयी। पर उसका जी न जाने कैसा कर रहा है।

यह सजीला जवान कामिनीमोहन है, यह तो आप लोग जान ही गये होंगे। अटारी पर खिड़की में बैठा हुआ यही देवहूती की छटा देख रहा था-और उसकी छटा देखकर जो उस पर बीती आप लोगों से छिपा नहीं है। पर वहाँ बैठे-बैठे देवहूती पर अपना बान न चला सका, इसीलिए जब देवहूती फूल तोड़ कर चली, तो वह भी चट कोठे से उतर कर पेड़ों की झुरमुट में आया, और टहलने लगा। यहाँ कुछ उसके मन की सी हो गयी, यह आप लोग जानते हैं।


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