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भीतर चुप्पा आवाजों के
भीतर अँधेरे बिंबों में
मैं अपने को पाती हूँ
मैं कविता से पूछती हूँ
कि मेरे बुदबुदाते दिल में कहीं झाग है
मैं नाम देती हूँ
सवाल जो मैं नहीं जानती
उनमें से हरेक
जब कि दुख मुक्के की
तरह पड़ता है
मेरे सीने पर, मैं पीड़ा के बारे में बताऊँगी
मेरी कोई ना कोई कामना होनी चाहिए इस वर्डामिड मैदान में
जहाँ जमीन दर्पण है
मैं अपने को घुटने टेके देखती हूँ
आवाजों को सुनती हुई
धरती
इस तरफ का प्रेम गरीबी है
ठंड में बाहर गुजारा
आसमान से दूरी से ऊब
क्यों कि लोग नीचे उतर रहे हैं
अकेलेपन और पराएपन के कारण
मैं अपने को लोगों में खोजती हूँ
कस के बँधी रस्सी की तरह
जहाँ
मैं अपने को बंधन रहित रख सकूँ
भीड़ छितराई हुई है
मेरी यादों से
एक भीड़
मेरे सपनों में से
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