शुद्ध राजनिष्ठा जितनी मैंने अपने में अनुभव की है, उतनी शायद ही दूसरे में देखी हो। मैं देख सकता हूँ कि इस राजनिष्ठा का मूल सत्य पर मेरा स्वाभाविक प्रेम था। राजनिष्ठा का अथवा दूसरी किसी वस्तु का स्वाँग मुझ से कभी भरा ही न जा सका। नेटाल में जब मैं किसी सभा में जाता, तो वहाँ 'गॉड सेव दि किंग' (ईश्वर राजा की रक्षा करे) गीत अवश्य गाया जाता था। मैंने अनुभव किया कि मुझे भी उसे गाना चाहिए। ब्रिटिश राजनीति में दोष तो मैं तब भी देखता था, फिर भी कुल मिलाकर मुझे वह नीति अच्छी लगती थी। उस समय मैं मानता था कि ब्रिटिश शासन और शासकों का रुख कुल मिलाकर जनता का पोषण करनेवाला है।
दक्षिण अफ्रीका में मैं इससे उलटी नीति देखता था, वर्ण-द्वेष देखता था। मैं मानता था कि यह क्षणिक और स्थानिक है। इस कारण राजनिष्ठा में मैं अंग्रेजों से भी आगे बढ़ जाने का प्रयत्न करता था। मैंने लगन के साथ मेहनत करके अंग्रेजों के राष्ट्रगीत 'गॉड सेव दि किंग' की लय सीख ली थी। जब वह सभाओं में गाया जाता, तो मैं अपना सुर उसमें मिला दिया करता था। और जो भी अवसर आडंबर के बिना राजनिष्ठा प्रदर्शित करने के आते, उनमें मैं सम्मिलित होता था।
इस राजनिष्ठा को अपनी पूरी जिंदगी में मैंने कभी भुनाया नहीं। इससे व्यक्तिगत लाभ उठाने का मैंने कभी विचार तक नहीं किया। राजभक्ति को ऋण समझकर मैंने सदा ही उसे चुकाया है।
मैं जब हिंदुस्तान आया था तब महारानी विक्टोरिया के डायमंड जुबिली (हीरक जयंती) की तैयारियाँ चल रही थी। राजकोट में भी एक समिति बनी। मुझे उसका निमंत्रण मिला। मैंने उसे स्वीकार किया। उसने मुझे दंभ की गंध आई। मैंने देखा कि उसमें दिखावा बहुत होता है। यह देखकर मुझे दुख हुआ। समिति में रहने या न रहने का प्रश्न मेरे सामने खड़ा हुआ। अंत में मैंने निश्चय किया कि अपने कर्तव्य का पालन करके संतोष मानूँ।
एक सुझाव यह था कि वृक्षारोपण किया जाय। इसमें मुझे दंभ दिखाई पड़ा। ऐसा जान पड़ा कि वृक्षारोपण केवल साहबों को खुश करने के लिए हो रहा है। मैंने लोगों को समझाने का प्रयत्न किया कि वृक्षारोपन के लिए कोई विवश नहीं करता, वह सुझावमात्र है। वृक्ष लगाने हों तो पूरे दिल से लगाने चाहिए, नहीं तो बिलकुल न लगाने चाहिए। मुझे ऐसा याद पड़ता है कि मैं ऐसा कहता था, तो लोग मेरी बात को हँसी में उड़ा देते थे। अपने हिस्से का पेड़ मैंने अच्छी तरह लगाया और वह पल-पुसकर बढ़ा, इतना मुझे याद है।
'गॉड सेव दि किंग' गीत मैं अपने परिवार के बालकों को सिखाता था। मुझे याद है कि मैंने उसे ट्रेनिंग कॉलेज के विद्यार्थियों को सिखाया था। लेकिन वह यही अवसर था अथवा सातवें एडवर्ड के राज्यारोहण का अवसर था, सो मुझे ठीक याद नहीं है। आगे चलकर मुझे यह गीत गाना खटका। जैसे-जैसे अहिंसा संबंधी विचार मेरे मन में दृढ़ होते गए, वैसे वैसे मैं अपनी वाणी और विचारों पर अधिक निगरानी रखने लगा। उस गीत में दो पंक्तियाँ ये भी हैं :
उसके शत्रुओ का नाश कर,
उनके षड्यंत्रों को विफल कर।
इन्हें गाना मुझे खटका। अपने मित्र डॉ. बूथ को मैंने अपनी यह कठिनाई बताई। उन्होंने भी स्वीकार किया कि यह गाना अहिंसक मनुष्य को शोभा नहीं देता। शत्रु कहलानेवाले लोग दगा ही करेंगे, यह कैसे मान लिया जाय? यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन्हें हमने शत्रु माना वे बुरे ही होगे? ईश्वर से तो न्याय ही माँगा जा सकता है। डॉ. बूथ ने इस दलील को माना। उन्होंने अपने समाज में गाने के लिए नए गीत की रचना की। डॉ. बूथ का विशेष परिचय हम आगे करेंगे।
राजनिष्ठा की तरह शुश्रूषा का गुण भी मुझ में स्वाभाविक था। यह कहा जा सकता है कि बीमारों की सेवा करने का मुझे शौक था, फिर वे अपने हो या पराए। राजकोट में मेरा दक्षिण अफ्रीका का काम चल रहा था, इसी बीच मैं बंबई हो आया। खास-खास शहरों में सभाएँ करके विशेष रूप से लोकमत तैयार करने का मेरा इरादा था। इसी खयाल से मैं वहाँ गया था। पहले मैं न्यायमूर्ति रानडे से मिला। उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी और मुझे सर फीरोजशाह मेहता से मिलने की सलाह दी। बाद में मैं जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजी से मिला। उन्होंने मेरी बात सुनकर वही सलाह दी और कहा, 'जस्टिस रानडे और मैं आपका बहुत कम मार्गदर्शन कर सकेंगे। हमारी स्थिति तो आप जानते हैं। हम सार्वजनिक काम में हाथ नहीं बँटा सकते। पर हमारी भावना तो आपके साथ है ही। सच्चे मार्गदर्शक तो सर फीरोजशाह हैं।'
सर फीरोजशाह से तो मुझे मिलना ही था। पर इन दो गुरुजनों के मुँह से उनकी सलाह सुनकर मुझे इस बात का विशेष बोध हुआ कि सर फीरोजशाह का जनता पर कितना प्रभुत्व था।
मैं सर फीरोजशाह से मिला। उनके तेज से चकाचौंध हो जाने को तो मैं तैयार था ही। उनके लिए प्रयुक्त होनेवाले विशेषणों को मैं सुन चुका था। मुझे 'बंबई के शेर' और 'बंबई के बेताज बादशाह' से मिलना था। पर बादशाह ने मुझे डराया नहीं। पिता जिस प्रेम से अपने नौजवान बेटे से मिलता है, उसी तरह वे मुझसे मिले। उनसे मुझे उनके 'चेंबर' में मिलना था। उनके पास उनके अनुयायियों का दरबार तो भरा ही रहता था। वाच्छा थे, कामा थे। इनसे उन्होंने मेरी पहचान कराई। वाच्छा का नाम मैं सुन चुका था। वे सर फीरोजशाह के दाहिने हाथ माने जाते थे। वीरचंद गांधी ने अंकशास्त्री के रूप में मुझे उनका परिचय दिया था। उन्होंने कहा, 'गांधी, हम फिर मिलेंगे।'
इस सारी बातचीत में मुश्किल से दो मिनट लगे होंगे। सर फीरोजशाह ने मेरी बात सुन ली। न्यानमूर्ति रानडे और तैयबजी से मिल चुकने की बात भी मैंने उन्हें बतला दी। उन्होंने कहा, 'गांधी, तुम्हारे लिए मुझे आम सभा करनी होगी। मुझे तम्हारी मदद करनी चाहिए।' फिर अपने मुंशी की ओर मुड़े और उसे सभा का दिन निश्चित करने को कहा। दिन निश्चित करके मुझे बिदा किया। सभा से एक दिन पहले आकर मिलने की आज्ञा की। मैं निर्भय होकर मन ही मन खुश होता हुआ घर लौटा।
बंबई की इस यात्रा में मैं वहाँ रहनेवाले अपने बहनोई से मिलने गया। वे बीमार थे। घर में गरीबी थी। अकेली बहन से उनकी सेवा-शूश्रूषा हो नहीं पाती थी। बीमारी गंभीर थी। मैंने उन्हें अपने साथ राजकोट चलने को कहा। वे राजी हो गए। बहन-बहनोई को लेकर मैं राजकोट पहुँचा। बीमारी अपेक्षा से अधिक गंभीर हो गई। मैंने उन्हें अपने कमरे में रखा। मैं सारा दिन उनके पास ही रहता था। रात में भी जागना पड़ता था। उनकी सेवा करते हुए मैं दक्षिण अफ्रीका का काम कर रहा था। बहनोई का स्वर्गवास हो गया। पर उनके अंतिम दिनो में उनकी सेवा करने का अवसर मुझे मिला, इससे मुझे बड़ा संतोष हुआ।
शुश्रूषा के मेरे इस शौक ने आगे चलकर विशाल रूप धारण कर लिया। वह भी इस हद कि उसे करने में मैं अपना धंधा छोड़ देता था। अपनी धर्मपत्नी को और सारे परिवार को भी उसमें लगा देता था। इस वृत्ति को मैंने शौक कहा है, क्योंकि मैंने देखा है कि जब ये गुण आनंददायक हो जाते हैं तभी निभ सकते है। खींच-तानकर अथवा दिखावे के लिए या लोकलाज के कारण की जानेवाली सेवा आदमी को कुचल देती है, और ऐसी सेवा करते हुए भी आदमी मुरझा जाता है। जिस सेवा में आनंद नहीं मिलता, वह न सेवक को फलती है, न सेव्य को रुचिकर लगती है। जिस सेवा में आनंद मिलता है, उस सेवा के सम्मुख ऐश-आराम या धनोपार्जन इत्यादि कार्य तुच्छ प्रतीत होते हैं।