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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
तीसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 10. बोअर-युद्ध पीछे     आगे

सन 1897 से 1899 के बीच के अपने जीवन के दूसरे अनेक अनुभवों को छोड़ कर अब में बोअर-युद्ध पर आता हूँ। जब यह युद्ध हुआ तब मेरी सहानुभूति केवल बोअरों की तरफ ही थी। पर मैं मानता था कि ऐसे मामलों में व्यक्तिगत विचारों के अनुसार काम करने का अधिकार मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ है। इस संबंध के मंथन-चिंतन का सूक्ष्म निरीक्षण मैंने 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' में किया है, इसलिए यहाँ नहीं करना चाहता। जिज्ञासुओं को मेरी सलाह है कि वे उस इतिहास के पढ़ जाए। यहाँ तो इतना कहना काफी होगा कि ब्रिटिश राज्य के प्रति मेरी वफादारी मुझे उस युद्ध में सम्मिलित होने के लिए जबरदस्ती घसीट ले गई। मैंने अनुभव किया कि जब मैं ब्रिटिश प्रजाजन के नाते अधिकार माँग रहा हूँ तो उसी नाते ब्रिटिश राज्य की रक्षा में हाथ बटाना भी मेरा धर्म है। उस समय मेरी यह राय थी कि हिंदुस्तान की संपूर्ण उन्नति ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर हो सकती है।

अतएव जितने साथी मिले उतनों को लेकर और अनेक कठिनाइयाँ सहकर हमने घायलों की सेवा-शुश्रूषा करनेवाली एक टुकड़ी खड़ी की। अब तक साधारणतया यहाँ के अंग्रेजों की यही धारणा थी कि हिंदुस्तानी संकट के कामों में नहीं पड़ते। इसलिए कई अंग्रेज मित्रों ने मुझे निराश करनेवाले उत्तर दिए थे। अकेले डॉक्टर बूथ ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने हमें घायल योद्धाओं की सार-सँभाल करना सिखाया। अपनी योग्यता के विषय में हमने डॉक्टरी प्रमाण-पत्र प्राप्त किए। मि. लाटन और स्व. एस्कम्बे ने भी हमारे इस कार्य को पसंद किया। अंत में लड़ाई के लिए हमने सरकार से बिनती की। जवाब में सरकार ने हमें धन्यवाद दिया, पर यह सूचित किया कि इस समय हमें आपकी सेवा की आवश्यकता नहीं है।

पर मुझे ऐसी 'ना' से संतोष मानकर बैठना न था। डॉ. बूथ की मदद लेकर उनके साथ मैं नेटाल के बिशप से मिला। हमारी टुकड़ी में बहुत से ईसाई हिंदुस्तानी थे। बिशप को मेरी यह माँग बहुत पसंद आई। उन्होंने मदद करने का वचन दिया।

इस बीच परिस्थितियाँ भी अपना काम कर रही थीं। बोअरों की तैयारी, दृढ़ता, वीरता इत्यादि अपेक्षा से अधिक तेजस्वी सिद्ध हुई। सरकार को बहुत से रंगरूटों की जरूरत पड़ी और अंत में हमारी बिनती स्वीकृत हुई।

हमारी इस टुकड़ी में लगभग ग्यारह सौ आदमी थे। उनमें करीब चालीस मुखिया थे। दूसरे कोई तीन सौ स्वतंत्र हिंदुस्तानी भी रंगरूटों में भरती हुए थे। डॉ. बूथ भी हमारे साथ थे। उस टुकड़ी ने अच्छा काम किया। यद्यपि उसे गोला-बारूद की हद के बाहर ही रहकर काम करना होता था और 'रेड क्रॉस' का संरक्षण प्राप्त था, फिर भी संकट के समय गोला-बारूद की सीमा के अंदर काम करने का अवसर भी हमें मिला। ऐसे संकट में न पड़ने का इकरार सरकार ने अपनी इच्छा से हमारे साथ किया था, पर स्पियांकोप की हार के बाद हालत बदल गई। इसलिए जनरल बुलर ने यह संदेशा भेजा कि यद्यपि आप लोग जोखिम उठाने के लिए वचन-बद्ध नहीं है, तो भी यदि आप जोखिम उठा कर घायल सिपाहियों और अफसरों को रणक्षेत्र से उठाकर और डोलियों में डालकर ले जाने को तैयार हो जाएँगे तो सरकार आपका उपकार मानेगी। हम तो जोखिम उठाने को तैयार ही थे। अतएव स्पियांकोप की लड़ाई के बाद हम गोला-बारूद की सीमा के अंदर काम करने लगे।

इन दिनों सबको कई बार दिन में बीस-पचीस मील की मंजिल तय करनी पड़ती थी और एक बार तो घायलों को डोली में डालकर इतने मील चलना पड़ा था। जिन घायल योद्धाओं को हमें ले जाना पड़ा, उनमें जनरल वुडगेट वगैरा भी थे।

छह हफ्तों के बाद हमारी टुकड़ी को बिदा दी गई। स्पियांकोप और वालक्रान्ज की हार के बाद लेडी स्मिथ आदि स्थानों को बोअरों के घेरे में से बड़ी तेजी के साथ छुड़ाने का विचार ब्रिटिश सेनापति में छोड़ दिया था, और इग्लैंड तथा हिंदुस्तान से और अधिक सेना के आने की राह देखने लगे तथा धीमी गति से काम करने का निश्चय किया था।

हमारे छोटे-से काम की उस समय तो बड़ी स्तुति हुई। इससे हिंदुस्तानियों की प्रतिष्ठा बढ़ी। 'आखिर हिंदुस्तानी साम्राज्य के वारिस तो है ही ' इस आशय के गीत गाए। जनरल बुलर ने अपने खरीते में हमारी टुकड़ी के काम की तारीफ की। मुखियों को युद्ध के पदक भी मिले।

इससे हिंदुस्तानी कौम अधिक संगठित हो गई। मैं गिरमिटिया हिंदुस्तानियों के अधिक संपर्क में आ सका। उनमें अधिक जागृति आई। और हिंदू, मुसलमान, ईसाई, मद्रासी, गुजराती, सिंधी सब हिंदुस्तानी है, यह भावना अधिक दृढ़ हुई। सबने माना कि अब हिंदुस्तानियों के दुख दूर होने ही चाहिए। उस समय तो गोरों के व्यवहार में भी स्पष्ट परिवर्तन दिखाई दिया।

लड़ाई में गोरों के साथ जो संपर्क हुआ वह मधुर था। हमें हजारों टॉमियों के साथ रहने का मौका मिला। वे हमारे साथ मित्रता का व्यवहार करते थे, और यह जानकर कि हम उनकी सेवा के लिए आए है, हमारा उपकार मानते थे।

दु:ख के समय मनुष्य का स्वभाव किस तरह पिघलता है, इसका एक मधुर संस्मरण यहाँ दिए बिना मैं रह नहीं सकता। हम चीवली छावनी की तरफ जा रहे थे। यह वही क्षेत्र था, जहाँ लॉर्ड रॉबर्टस के पुत्र को प्राणघातक चोट लगी थी। लेफ्टिनेंट रॉबर्टस के शव को ले जाने का सम्मान हमारी टुकड़ी को मिला था। अगले दिन धूप तेज थी। हम कूच कर रहे थे। सब प्यासे थे। पानी पीने के लिए रास्ते में एक छोटा-सा झरना पड़ा। पहले पानी कौन पीए? मैंने सोचा कि पहले टॉमी पानी पी ले, बाद में हम पीएँगे। पर टॉमियों में हमें देखकर तुरंत हमसे पानी पीने लेने का आग्रह शुरू कर दिया, और इस तरह बड़ी देर तक हमारे बीच 'आप पहले, हम पीछे' का मीठा झगड़ा चलता रहा।


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