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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
तीसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी


इस प्रकार मैं देश जाने के लिए बिदा हुआ। रास्ते में मारिशस (टापू) पड़ता था। वहाँ जहाज लंबे समय तक ठहरा था। इसलिए मैं मारिशस में उतरा और वहाँ की स्थिति की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त कर ली। एक रात मैंने वहाँ के गवर्नर सर चार्ल्स ब्रूस के यहाँ बिताई थी।

हिंदुस्तान पहुँचने पर थोड़ा समय मैंने घूमने-फिरने में बिताया। यह सन 1901 का जमाना था। उस साल की कांग्रेस कलकत्ते में होनेवाली थी। दीनशा एदलजी वाच्छा उसके अध्यक्ष थे। मुझे तो कांग्रेस में तो जाना ही था। कांग्रेस का यह मेरा पहला अनुभव था।

बंबई से जिस गाड़ी में सर फीरोजशाह मेहता रवाना हुए उसी में मैं भी गया था। मुझे उनसे दक्षिण अफ्रीका के बारे में बातें करनी थी। उनके डिब्बे में एक स्टेशन तक जाने की मुझे अनुमति मिली थी। उन्होंने तो खास सलून का प्रबंध किया था। उनके शाही खर्च और ठाठबाट से मैं परिचित था। जिस स्टेशन पर उनके डिब्बे में जाने की अनुमति मिली थी, उस स्टेशन पर मैं उसमें पहुँचा। उस समय उनके डिब्बे में तबके दीनशाजी और तबके चिमनलाल सेतलवाड़ (इन दोनों को 'सर' की उपाधि बाद में मिली थी) बैठे थे। उनके साथ राजनीतिक चर्चा चल रही थी। मुझे देखकर सर फिरोजशाह बोले, 'गांधी, तुम्हारा काम पार न पड़ेगा। तुम जो कहोगे सो प्रस्ताव तो हम पास कर देंगे, पर अपने देश में ही हमें कौन से अधिकार मिलते हैं? मैं तो मानता हूँ कि जब तक अपने देश में हमें सत्ता नहीं मिलती, तब तक उपनिवेशों में तुम्हारी स्थिति सुधर नहीं सकती।'

मैं तो सुनकर दंग ही रह गया। सर चिमनलाल ने हाँ में हाँ मिलाई। सर दीनशा ने मेरी ओर दयार्द्र दृष्टि से देखा। मैंने समझाने का कुछ प्रयत्न किया, परंतु बंबई के बेताज के बादशाह को मेरे समान आदमी क्या समझा सकती था? मैंने इतने से ही संतोष माना कि मुझे कांग्रेस में प्रस्ताव पेश करने दिया जाएगा।

सर दीनशा वाच्छा मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए बोले, 'गांधी, प्रस्ताव लिख कर मुझे बताना भला!'

मैंने उनका उपकार माना। दूसरे स्टेशन पर ज्यों ही गाड़ी खड़ी हुई, मैं भागा और अपने डिब्बे में घुस गया।

हम कलकत्ते पहुँचे। अध्यक्ष आदि नेताओं को नागरिक धूमधाम से ले गए। मैंने किसी स्वयंसेवक से पूछा, 'मुझे कहाँ जाना चाहिए?'

वह मुझे रिपन कॉलेज ले गया। वहाँ बहुत से प्रतिनिधि ठहराए गए थे। मेरे सौभाग्य से जिस विभाग में मैं था, उसी में लोकमान्य तिलक भी ठहरे हुए थे। मुझे याद पड़ता है कि एक दिन बाद पहुँचे थे। जहाँ लोकमान्य हो वहाँ छोटा सा दरबार तो लग ही जाता था। मैं चित्रकार होता, तो जिस खटिया पर वे बैठते थे, उसका चित्र खींच लेता। उस जगह का और उनकी बैठक का आज भी मुझे इतना स्पष्ट स्मरण है। उनसे मिलने आनेवाले अनगिनत लोगों में से एक ही नाम मुझे अब याद है -- 'अमृतबाजार पत्रिका' के मोतीबाबू। उन दोनों का खिलखिलाकर हँसना और राज्यकर्ताओं के अन्याय के विषय में उनकी बातें भूलने योग्य नहीं है।

लेकिन वहाँ की व्यवस्था को थोड़ा देखें।

स्वयंसेवक एक-दूसरे से टकराते रहते थे। जो काम जिसे सौपा जाता, वह स्वयं उसे नहीं करता था। वह तुरंत दूसरे को पुकारता था। दूसरा तीसरे को। बेचारा प्रतिनिधि तो न तीन में होता, न तेरह में।

मैंने अनेक स्वयंसेवकों से दोस्ती की। उनसे दक्षिण अफ्रीका की कुछ बातें की। इसमें वे जरा शरमिंदा हुए। मैंने उन्हें सेवा का मर्म समझाने का प्रयत्न किया। वे कुछ समझे। पर सेवा की अभिरुचि कुकुरमुत्ते की तरह बात की बात में तो उत्पन्न नहीं होती। उनके लिए इच्छा चाहिए और बाद में अभ्यास। इन भोले और भले स्वयंसेवको में इच्छा तो बहुत थी, पर तालीम और अभ्यास वे कहाँ से पाते? कांग्रेस साल में तीन दिन के लिए इक्टठा होकर फिर सो जाती थी। साल में तीन दिन की तालीम से कितना सीखा जा सकता था?

जैसे स्वयंसेवक थे, वैसे ही प्रतिनिधि थे। उन्हें भी इतने ही दिनों की तालीम मिलती थी। वे अपने हाथ से अपना कोई भी काम न करते थे।

सब बातों में उनके हुक्म छूटते रहते थे। 'स्वयंसेवक यह लाओ, स्वयंसेवक वह लाओ' चला ही करता था।

अखा भगत (गुजरात के एक भक्तकवि। इन्होने अपने एक छप्पय में छुआछूत को 'आभडछेट अदकेरो अंग' कहकर उसका विरोध किया है और कहा है कि हिंदू धर्म में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं है।) के 'अदकेरा अंग' - 'अतिरिक्त अंग' का भी ठीक-ठीक अनुभव हुआ। छुआछूत को माननेवाले वहाँ बहुत थे। द्राविड़ी रसोई बिलकुल अलग थी। उन प्रतिनिधियों को तो 'दृष्टिदोष' भी लगता था! उनके लिए कॉलेज के अहाते में चटाइयों का रसोईघर बनाया गया था। उसमें घुआँ इतना रहता था कि आदमी का दम घुट जाय। खाना-पीना सब उसी के अंदर। रसोईघर क्या था, एक तिजोरी थी। वह कहीं से भी खुला न था।

मुझे यह वर्णधर्म उलटा लगा। कांग्रेस में आनेवाले प्रतिनिधि जब इतनी छुआछूत रखते है, तो उन्हें भेजनेवाले लोग कितनी रखते होंगे? इस प्रकार का त्रैराशिक लगाने से जो उत्तर मिला, उस पर मैंने एक लंबी साँस ली।

गंदगी की हद नहीं थी। चारों तरफ पानी ही पानी फैल रहा था। पखाने कम थे। उनकी दुर्गंध की याद आज भी मुझे हैरान करती है। मैंने एक स्वयंसेवक को यह सब दिखाया। उसने साफ इनकार करते हुए कहा, 'यह तो भंगी का काम है।' मैं झाड़ू माँगा। वह मेरा मुँह ताकता रहा। मैंने झाड़ू खोज निकाला। पाखाना साफ किया। पर यह तो मेरी अपनी सुविधा के लिए हुआ। भीड़ इतनी ज्यादा थी और पाखाने इतने कम थे कि हर बार के उपयोग के बाद उनकी सफाई होनी जरूरी थी। यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी। इसलिए मैंने अपने लायक सुविधा करके संतोष माना। मैंने देखा कि दूसरो को यह गंदगी जरा भी अखरती न थी।

पर बात यहीं खतम नहीं होती। रात के समय कोई-न-कोई तो कमरे के सामनेवाले बरामदे में ही निबट लेते थे। सवेरे स्वयंसेवको को मैंने मैला दिखाया। कोई साफ करने को तैयार न था। उसे साफ करने का सम्मान भी मैंने ही प्राप्त किया।

यद्यपि अब इन बातों में बहुत सुधार हो गया है, फिर भी अविचारी प्रतिनिधि अब तक कांग्रेस के शिविर को जहाँ-तहाँ मल त्याग करके गंदा करते है और सब स्वयंसेवक उसे साफ करने के लिए तैयार नहीं होते।

मैंने देखा कि अगर ऐसी गंदगी में कांग्रेस की बैठक अधिक दिनों तक जारी रहती, तो अवश्य बीमारी फैल जाती।


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