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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
तीसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 15. कांग्रेस में पीछे     आगे

कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ। पंडाल का भव्य दृश्य, स्वयंसेवको की कतारें, मंच पर नेताओं की उपस्थिति इत्यादि देखकर मैं घबरा गया। इस सभा में मेरा पता कहाँ लगेगा, यह सोचकर मैं अकुला उठा।

सभापति का भाषण तो एक पुस्तक ही थी। स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह पूरा पढ़ा जा सके। अतः उसके कुछ अंश ही पढ़े गए।

बाद में विषय-निर्वाचिनी समिति के सदस्य चुने गए। उसमें गोखले मुझे ले गए थे।

सर फिरोजशाह ने मेरा प्रस्ताव लेने की स्वीकृति तो दी थी, पर उसे कांग्रेस की विषय-निर्वाचिनी समिति में कौन प्रस्तुत करेगा, कब करेगा, यह सोचता हुआ मैं समिति में बैठा रहा। हरएक प्रस्ताव पर लंबे-लंबे भाषण होते थे, सब अंग्रेजी में। हरएक के साथ प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम जुड़े होते थे। इस नक्कारखाने में मेरी तूती की आवाज कौन सुनेगा? ज्यों-ज्यों रात बीतती जाती थी, त्यों-त्यों मेरा दिल धड़कता जाता था। मुझे याद आ रहा है कि अंत में पेश होनेवाले प्रस्ताव आजकल के विमानों की गति से चल रहे थे। सब कोई भागने की तैयारी में थे। रात के ग्यारह बज गए थे। मुझमें बोलने की हिम्मत न थी। मैं गोखले से मिल चुका था और उन्होंने मेरा प्रस्ताव देख लिया था।

उनकी कुर्सी के पास जाकर मैंने धीरे से कहा, 'मेरे लिए कुछ कीजिएगा।'

उन्होंने कहा, 'आपके प्रस्ताव को मैं भूला नहीं हूँ। यहाँ की उतावली आप देख रहे है, पर मैं इस प्रस्ताव को भूलने नहीं दूँगा।'

सर फीरोजशाह बोले, 'कहिए, सब काम निबट गया न?'

गोखले बोल उठे, 'दक्षिण अफ्रीका का प्रस्ताव तो बाकी ही है। मि. गांधी कब से बैठे राह देख रहे है। '

सर फीरोजशाह ने पूछा, 'आप उस प्रस्ताव को देख चुके है?'

'हाँ।'

'आपको वह पसंद आया?'

'काफी अच्छा है।'

'तो गांधी, पढ़ो।'

मैंने काँपते हुए प्रस्ताव पढ़ सुनाया।

गोखले ने उसका समर्थन किया।

सब बोल उठे, 'सर्व-सम्मति से पास।'

वाच्छा बोले, 'गांधी, तुम पाँच मिनट लेना।'

इस दृश्य से मुझे प्रसन्नता न हुई। किसी ने भी प्रस्ताव को समझने का कष्ट नहीं उठाया। सब जल्दी में थी। गोखले में प्रस्ताव देख लिया था, इसलिए दूसरों को देखने-सुनने की आवश्यकता प्रतीत न हुई।

सवेरा हुआ।

मुझे तो अपने भाषण की फिक्र थी। पाँच मिनट में क्या बोलूँगा? मैंने तैयारी तो अच्छी कर ली थी, पर उपयुक्त शब्द सूझते न थे। लिखित भाषण न पढ़ने का मेरा निश्चय था। पर ऐसा प्रतीत हुआ कि दक्षिण अफ्रीका में भाषण करने की जो स्वस्थता मुझ में आई थी, उसे मैं यहाँ खो बैठा था।

मेरे प्रस्ताव का समय आने पर सर दीनशा ने मेरा नाम पुकारा। मैं खड़ा हुआ। मेरा सिर चकराने लगा। जैसे-तैसे मैंने प्रस्ताव पढ़ा। किसी कवि ने अपनी कविता छपाकर सब प्रतिनिधियों में बाँटी थी। उसमें परदेश जाने की और समुद्र-यात्रा की स्तुति थी। वह मैंने पढ़ सुनाई और दक्षिण अफ्रीका के दुःखों की थोड़ी चर्चा की। इतने में सर दीनशा की घंटी बजी। मुझे विश्वास था कि मैंने अभी पाँच मिनट पूरे नहीं किए है। मुझे पता न था कि यह घंटी मुझे चेताने के लिए दो मिनट पहले ही बजा दी गई थी। मैंने बहुतों को आध-आध, पौने-पौने घंटे बोलते देखा था और घंटी नहीं बजी थी। मुझे दुख तो हुआ। घंटी बजते ही मैं बैठ गया। पर उक्त काव्य में सर फीरोजशाह को उत्तर मिल गया, ऐसा मेरी अल्प बुद्धि ने उस समय मान लिया।

प्रस्ताव पास होने के बारे में तो पूछना ही क्या था? उन दिनों दर्शक और प्रतिनिधि का भेद क्वचित् हीं किया जाता था। प्रस्तावों का विरोध करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। सारे प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पास होते थे। मेरा प्रस्ताव भी इसी तरह पास हुआ। इसलिए मुझे प्रस्ताव का महत्व नहीं जान पड़ा। फिर भी कांग्रेस में मेरा प्रस्ताव पास हुआ, यह बात ही मेरे आनंद के लिए पर्याप्त थी। जिस पर कांग्रेस की मुहर लग गई उस पर सारे भारत की मुहर है, यह ज्ञान किस के लिए पर्याप्त न होगा?


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