गोखले की छायातले रहकर मैंने सारा समय घर में बैठकर नहीं बिताया।
दक्षिण अफ्रीका के अपने ईसाई मित्रों से मैंने कहा था कि मैं हिंदुस्तान के ईसाइयों से मिलूँगा और उनकी स्थिति की जानकारी प्राप्त करूँगा। मैंने कालीचरण बैनर्जी
का नाम सुना था। वे कांग्रेस के कामों में से अगुआ बनकर हाथ बँटाते थे, इसलिए मेरे मन में उनके प्रति आदर था। साधारण हिंदुस्तानी ईसाई कांग्रेस से और
हिंदू-मुसलमानों से अलग रहा करते थे। इसलिए उनके प्रति मेरे मन में जो अविश्वास था, वह कालीचरण बैनर्जी के प्रति नहीं था। मैंने उनसे मिलने के बारे में गोखले से
चर्चा की। उन्होंने कहा, 'वहाँ जाकर क्या पाओगे? वे बहुत भले आदमी है, पर मेरा खयाल है कि वे तुम्हें संतोष नहीं दे सकेंगे। मैं उन्हें भलीभाँति जानता हूँ। फिर
भी तुम्हें जाना हो तो शौक से जाओ।'
मैंने समय माँगा। उन्होंने तुरंत समय दिया और मैं गया। उनके घर उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्या पर पड़ी थी। घर सादा था। कांग्रेस में उनको कोट-पतलून में देखा था। पर
घर में उन्हें बंगाली धोती और कुर्ता पहने देखा। यह सादगी मुझे पसंद आई। उन दिनों मैं स्वयं पारसी कोट-पतलून पहनता था, फिर भी मुझे उनकी यह पोशाक और सादगी बहुत
पसंद पड़ी। मैंने उनका समय न गँवाते हुए अपनी उलझने पेश की।
उन्होंने मुझसे पूछा, 'आप मानते हैं कि हम अपने साथ पाप लेकर पैदा होते है?'
मैंने कहा, 'जी हाँ।'
'तो इस मूल पाप का निवारण हिंदू धर्म में नहीं है, जब कि ईसाई धर्म में है।' यों कहकर वे बोले, 'पाप का बदला मौत है। बाईबल कहती है कि इस मौत से बचने का मार्ग
ईसा की शरण है।'
मैंने भगवद् गीता के भक्तिमार्ग की चर्चा की। पर मेरा बोलना निरर्थक था। मैंने इन भले आदमी का उनकी भलमनसाहत के लिए उपकार माना। मुझे संतोष न हुआ, फिर भी इस
भेंट से मुझे लाभ ही हुआ।
मैं यह कह सकता हूँ कि इसी महीने में मैंने कलकत्ते की एक-एक गली छान डाली। अधिकांश काम मैं पैदल चलकर करता था। इन्हीं दिनों मैं न्यायमूर्ति मित्र से मिला। सर
गुरुदास बैनर्जी से मिला। दक्षिण अफ्रीका के काम के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता थी। उन्हीं दिनों मैंने राजा सर प्यारीमोहन मुकर्जी के भी दर्शन किए।
कालीचरण बैनर्जी ने मुझ से काली-मंदिर की चर्चा की थी। वह मंदिर देखने की मेरी तीव्र इच्छा थी। पुस्तक में मैंने उसका वर्णन पढ़ा था। इससे एक दिन मैं वहाँ जा
पहुँचा। न्यायमूर्ति का मकान उसी मुहल्ले में था। अतएव जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन काली-मंदिर भी गया। रास्ते में बलिदान के बकरों की लंबी कतार चली जा रही थी।
मंदिर की गली में पहुँचते ही मैंने भिखारियों की भीड़े लगी देखी। वहाँ साधु-संन्यासी तो थे ही। उन दिनों भी मेरा नियम हृष्ट-पुष्ट भिखारियों को कुछ न देने का
था। भिखारियों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया था।
एक बाबाजी चबूतरे पर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा, 'क्यों बेटा, कहाँ जाते हो? '
मैंने समुचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे और मेरे साथियों को बैठने के लिए कहा। हम बैठ गए।
मैंने पूछा, 'इन बकरों के बलिदान को आप धर्म मानते है?'
'जीव की हत्या को धर्म कौन मानता है?'
'तो आप यहाँ बैठकर लोगों को समझाते क्यों नहीं?'
'यह काम हमारा नहीं है। हम तो यहाँ बैठकर भगवद् भक्ति करते हैं।'
'पर इसके लिए आपको कोई दूसरी जगह न मिली?'
बाबाजी बोले, 'हम कहीं भी बैठे, हमारे लिए सब जगह समान है। लोग तो भेंड़ों के झुंड की तरह है। बड़े लोग जिस रास्ते ले जाते है, उसी रास्ते वे चलते है। हम साधुओं
का इससे क्या मतलब?'
मैंने संवाद आगे नहीं बढ़ाया। हम मंदिर में पहुँचे। सामने लहू की नदी बह रही थी। दर्शनों के लिए खड़े रहने की मेरी इच्छा न रही। मैं बहुत अकुलाया, बेचैन हुआ। वह
दृश्य मैं अब तक भूल नहीं सका हूँ। उसी दिन मुझे एक बंगाली सभा का निमंत्रण मिला था। वहाँ मैंने एक सज्जन से इस क्रूर पूजा की चर्चा की। उन्होंने कहा, 'हमारा
खयाल यह है कि वहाँ जो नगाड़े वगैरा बजते है, उनके कोलाहल में बकरों को चाहे जैसे भी मारो उन्हें कोई पीड़ा नहीं होती। '
उनका यह विचार मेरे गले न उतरा। मैंने उन सज्जन से कहा कि यदि बकरों को जबान होती तो वे दूसरी ही बात कहते। मैंने अनुभव किया कि यह क्रूर रिवाज बंद होना चाहिए।
बुद्धदेववाली कथा मुझे याद आई। पर मैंने देखा कि यह काम मेरी शक्ति से बाहर है। उस समय मेरे जो विचार थे वे आज भी हैं। मेरे खयाल से बकरों के जीवन का मूल्य
मनुष्य के जीवन से कम नहीं है। मनुष्य देह को निबाहने के लिए मैं बकरे की देह लेने को तैयार न होऊँगा। मैं यह मानता हूँ कि जो जीव जितना अधिक अपंग है, उतना ही
उसे मनुष्य की क्रूरता से बचने के लिए मनुष्य का आश्रय पाने का अधिक अधिकार है। पर वैसी योग्यता के अभाव में मनुष्य आश्रय देने में असमर्थ है। बकरों को इस
पापपूर्ण होम से बचाने के लिए जितनी आत्मशुद्धि और त्याग मुझ में है, उससे कहीं अधिक की मुझे आवश्यकता है। जान पड़ता है कि अभी तो उस शुद्धि और त्याग का रटन
करते हुए ही मुझे मरना होगा। मैं यह प्रार्थना निरंतर करता रहता हूँ कि ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष और ऐसी कोई तेजस्विनी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातक में से मनुष्य
को बचावे, निर्दोष प्राणियों की रक्षा करे और मंदिर को शुद्ध करे। ज्ञानी, बुद्धिशाली, त्यागवत्तिवाला और भावना-प्रधान बंगाल यह सब कैसे सहन करता है?