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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
तीसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी


हमले के दो-एक दिन बाद जब मैं मि. एस्कंब से मिला तब मैं पुलिस थाने में ही था। रक्षा के लिए मेरे साथ एक-दो सिपाही रहते थे, पर दरअसल जब मुझे मि. एस्कंब के पास ले जाया गया तब रक्षा की आवश्यकता रही नहीं थी।

जिस दिन मैं जहाज से उतरा उसी दिन, अर्थात पीला झंडा उतरने के बाद तुरंत, 'नेटाल एडवरटाइजडर' नामक पत्र का प्रतिनिधि मुझ से मिल गया था। उसने मुझ से कई प्रश्न पूछे थे और उनके उत्तर में मैं प्रत्येक आरोप का पूरा-पूरा जवाब दे सका था। सप फिरोजशाह मेहता के प्रताप से उस समय मैंने हिंदुस्तान में एक भी भाषण बिना लिखें नहीं किया था। अपने उन सब भाषणों और लेखों का संग्रह तो मेरे पास था ही। मैंने वह सब उसे दिया और सिद्ध कर दिखाया कि मैंने हिंदुस्तान में ऐसी एक भी बात नहीं कहीं, तो अधिक तीव्र शब्दों में दक्षिण अफ्रीका में न कहीं हो। मैंने यह भी बता दिया कि 'कुरलैंड' और 'नादरी' के यात्रियों को लाने में मेरा हाथ बिलकुल न था। उनमें से अधिकतर तो पुराने ही थे और बहुतेरे नेटाल में रहनेवाले नहीं थे बल्कि ट्रान्सवाल जानेवाले थे। उन दिनों नेटाल में मंदी थी। ट्रान्सवाल में अधिक कमाई होती थी। इस कारण अधिककर हिंदुस्तानी वहीं जाना पसंद करते थे।

इस खुलासे का और हमलावरों पर मुकदमा दायर करने का इतना ज्यादा असर पड़ा कि गोरे शरमिंदा हुए। समाचार पत्रों ने मुझे निर्दोष सिद्ध किया और हुल्लड करने वालो की निंदा की। इस प्रकार परिणान में तो मुझे लाभ ही हुआ, और मेरा लाभ मेरे कार्य का ही लाभ था। इससे भारतीय समाज की प्रतिष्ठा बढ़ी और मेरा मार्ग अधिक सरल हो गया।

तीन या चार दिन बाद मैं अपने घर गया और कुछ ही दिनों में व्यवस्थित रीति से अपना कामकाज करने लगा। इस घटना के कारण मेरी वकालत भी बढ़ गई।

परंतु इस तरह यदि हिंदुस्तानियों की प्रतिष्ठा बढ़ी, तो उनके प्रति गोरों का द्वेष भी बढ़ा। गोरों को विश्वास हो गया कि हिंदुस्तानियों में दृढ़तापूर्वक लड़ने की शक्ति है। फलतः उनका डर बढ़ गया। नेटाल की धारासभा में दो कानून पेश हुए, जिनके कारण हिंदुस्तानियों की की कठिनाइयाँ बढ़ गई। एक से भारतीय व्यापारियों के धंधे को नुकसान पहुँचा, दुसरे से हिंदुस्तानियों के आने-जाने पर अंकुश लग गया। सौभाग्य से मताधिकार का लड़ाई के समय यह फैसला हो चुका था कि हिंदुस्तानियों के खिलाफ हिंदुस्तानी होने के नाते कोई कानून नहीं बनाया जा सकता। मतलब यह कि कानून में रंगभेद या जातिभेद नहीं होना चाहिए। इसलिए ऊपर के दोनों कानून उनकी भाषा को देखते हुए तो सब पर लागू होते जान पड़ते थे, पर उनका मूल उद्देश्य केवल हिंदुस्तानी कौम पर दबाव डालना था।

इन कानूनों ने मेरा काम बहुत ज्यादा बढ़ा दिया और हिंदुस्तानियों में जागृति भी बढ़ाई। हिंदुस्तानियों की ये कानून इस तरह समझा दिए गए कि इनकी बारीक से बारीक बातों से भी कोई हिंदुस्तानी अपरिचित न रह सके। हमने इनके अनुवाद भी प्रकाशित कर दिए। झगड़ा आखिर विलायत पहुँचा। पर कानून नामंजूर नहीं हुए।

मेरा अधिकतर समय सार्वजनिक काम में ही बीतने लगा। मनसुखलाल नाजर मेरे साथ रहे। उनके नेटाल में होने की बात मैं ऊपर लिख चुका हूँ। वे सार्वजनिक काम में अधिक हाथ बँटाने लगे, जिससे मेरा काम कुछ हलका हो गया।

मेरी अनुपस्थिति में सेठ आदमजी मियाँखाने अपने मंत्री पद को खूब सुशोभित किया था। उन्होंने सदस्य बढ़ाए और स्थानीय कांग्रेस के कोष में लगभग एक हजार पौंड की वृद्धि की थी। यात्रियों पर हुए हमले के कारण और उपर्युक्त कानूनों के कारण जो जागृति पैदा हुई, उससे मैंने इस वृद्धि में भी वृद्धि करने का विशेष प्रयत्न किया और कोष में लगभग पाँच हजार पौंड जमा हो गए। मेरे मन में लोभ यह था कि यदि कांग्रेस का स्थायी कोष हो जाए, उसके लिए जमीन ले ली जाए और उसका भाड़ा आने लगे तो कांग्रेस निर्भय हो जाए। सार्वजनिक संस्था का यह मेरा पहला अनुभव था। मैंने अपना विचार साथियों के सामने रखा। उन्होंने उसका स्वागत किया। मकान खरीदे गए और वे भाड़े पर उठा दिए गए। उनके किराए से कांग्रेस का मासिक खर्च आसानी से चलने लगा। संपत्ति का सुदृढ़ ट्रस्ट बन गया। वह संपत्ति आज भी मौजूद है, पर अंदर ही अंदर वह आपसी कलह का कारण बन गई और जायदाद का किराया आज अदालत में जमा होता है।

यह दुखद घटना तो मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के बाद घटी, पर सार्वजनिक संस्थाओं के लिए स्थायी कोष रखने के संबंध में मेरे विचार बदल चुके थे। अनेकानेक सार्वजनिक संस्थाओं की उत्पत्ति और उनके प्रबंध की जिम्मेदारी सँभालने के बाद मैं इस ढृढ़ निर्णय पर पहुँचा हूँ कि किसी भी सार्वजनिक संस्था को स्थायी कोष पर निभने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसमें उसकी नैतिक अधोगति का बीज छिपा रहता है।

सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों की स्वीकृति और लोगों के धन से चलनेवाली संस्था। ऐसी संस्था को जब लोगों की सहायता न मिले तो उसे जीवित रहने का अधिकार ही नहीं रहता। देखा यह गया है कि स्थायी संपत्ति के भरोसे चलनेवाली संस्था लोकमत से स्वतंत्र हो जाती है और कितनी ही बार वह उल्टा आचरण भी करती है। हिंदुस्तान में हमें पग-पग पर इसका अनुभव होता है। कितनी ही धार्मिक मानी जानेवाली संस्थाओं के हिसाब-किताब का कोई ठिकाना नहीं रहता। उनके ट्रस्टी ही उनके मालिक बन बैठे है और वे किसी के प्रति उत्तरदायी भी नहीं है। जिस तरह प्रकृति स्वयं प्रतिदिन उत्पन्न करती है और प्रतिदिन खाती है, वैसी ही व्यवस्था सार्वजनिक संस्थाओ की भी होनी चाहिए, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। जिस संस्था को लोग मदद देने के लिए तैयार न हो, उसे सार्वजनिक संस्था के रूप में जीवित रहने का अधिकार ही नहीं है। प्रतिवर्ष मिलनेवाला चंदा ही उन संस्थाओ की अपनी लोकप्रियता और उनके संचालको की प्रामाणिकता की कसौटी है, और मेरी यह राय है कि हर एक संस्था को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए।

मेरे यह लिखने से कोई गलतफहमी न होनी चाहिए। ऊपरी टीका उन संस्थाओं पर लागू नहीं होती, जिन्हे मकान इत्यादि की आवश्यकता होती है। सार्वजनिक संस्थाओ के दैनिक खर्च का आधार लोगों से मिलनेवाला चंदा ही होना चाहिए।

ये विचार दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के दिनों में ढृढ़ हुए। छह वर्षों की यह महान लड़ाई स्थायी कोष के बिना चली, यद्यपि उसके लिए लाखो रुपयों की आवश्यकता थी। मुझे ऐसे अवसरो की याद है कि जब अगले दिन का खर्च कहाँ से आएगा, इसकी मुझे खबर न होती थी। लेकिन आगे जिन विषयों की चर्चा की जानेवाली है, उनका उल्लेख यहाँ नहीं करूँगा। पाठकों को मेरे इस मत का समर्थन इस कथा के उचित प्रसंग पर यथास्थान मिल जाएगा।


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