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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
तीसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 7. ब्रह्मचर्य - 1 पीछे     आगे

अब ब्रह्मचर्य के विषय में विचार करने का समय आ गया है। एक पत्नी व्रत का तो विवाह के समय से ही मेरे हृदय में स्थान था। पत्नी के प्रति वफादारी मेरे सत्यव्रत का अंग था। पर अपनी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, इसका स्पष्ट बोध मुझे दक्षिण अफ्रीका में ही हुआ। किस प्रसंग से अथवा किस पुस्तक के प्रभाव से यह विचार मेरे मन में उत्पन्न हुआ, यो तो आज मुझे स्पष्ट याद नहीं है कि इसमें रायचंदभाई के प्रभाव की प्रधानता थी।

उनके साथ के संवाद का मुझे स्मरण है। एक बार मैं ग्लैडस्टन के प्रति मिसेज ग्लैडस्टन के प्रेम की प्रशंसा कर रहा था। मैंने कहीं पढ़ा था कि पार्लियामेंट की सभा में भी मिसेज ग्लैडस्टन अपने पति को चाय बनाकर पिलाती थी। इस वस्तु का पालन इस नियमबद्ध दंपती के जीवन का एक नियम बन गया था। मैंने कवि को यह प्रसंग पढ़कर सुनाया और उसके संदर्भ में दंपती प्रेम की स्तुति की। रायचंदभाई बोले, 'इसमें तुम्हें महत्व की कौन सी बात मालूम होती है? मिसेज ग्लैडस्टन का पत्नीत्व या उनका सेवाभाव? यदि वे ग्लैडस्टन की बहन होती तो? अथवा उनकी वफादार नौकरानी होती और उतने ही प्रेम से चाय देती तो? ऐसी बहनों, ऐसी नौकरानियों के दृष्टांत क्या हमें आज नहीं मिलते? और नारी-जाति के बदले ऐसा प्रेम यदि तुमने नर-जाति में देखा, तो क्या तुम्हें सानंद आश्चर्य न होता? तुम मेरे इस कथन पर विचार करना।'

रायचंद भाई स्वयं विवाहित थे। याद पड़ता है कि उस समय तो मुझे उनके ये वचन कठोर लगे थे, पर इन वचनो ने मुझे चुंबक की तरह पकड़ लिया। मुझे लगा कि पुरुष सेवक की ऐसी स्वामीभक्ति का मूल्य पत्नी की पति-निष्ठा के मूल्य से हजार गुना अधिक है। पति-पत्नी में ऐक्य होता है, इसलिए उनमें परस्पर प्रेम हो तो कोई आश्चर्य नहीं। मालिक और नौकर के बीच वैसा प्रेम प्रयत्न-पूर्वक विकसित करना होता है। दिन-पर-दिन कवि के वचनों का बल मेरी दृष्टि में बढ़ता प्रतीत हुआ।

मैंने अपने-आप से पूछा, मुझे अपनी पत्नी के साथ कैसा संबंध रखना चाहिए। पत्नी को विषय-भोग का वाहन बनाने में पत्नी के प्रति वफादारी कहाँ रहती है? जब तक मैं विषय-वासना के अधीन रहता हूँ, तब तक तो मेरी वफादारी का मूल्य साधारण ही माना जाएगा। यहाँ मुझे यह कहना ही चाहिए कि हमारे आपस के संबंध में पत्नी की ओर से कभी आक्रमण हुआ ही नहीं। इस दृष्टि से जब मैं चाहता तभी मेरे लिए ब्रह्मचर्य का पालन सुलभ था। मेरी अशक्ति अथवा आशक्ति ही मुझे रोक रही थी।

जाग्रत होने के बाद भी दो बार तो मैं विफल ही रहा। प्रयत्न करता परंतु गिर पड़ता। प्रयत्न में मुख्य उद्देश्य था, संतानोत्पत्ति को रोकना। उसके बाह्य उपचारों के बारे में मैंने विलायत में कुछ पढ़ा था। डॉ. एलिन्सन के इन उपायों के प्रचार का उल्लेख मैं अन्नाहार-विषयक प्रकरण में कर चुका हूँ। उसका थोड़ा और क्षणिक प्रभाव मुझ पर पड़ा था। पर मि. हिल्स ने उसका जो विरोध किया था और आंतरिक साधन के - संयम के - समर्थन में जो कहा था, उसका प्रभाव मुझ पर बहुत अधिक पड़ा और अनुभव से वह चिरस्थायी बन गया। इसलिए संतानोत्पत्ति की अनावश्यकता ध्यान में आते ही मैंने संयम-पालन का प्रयत्न शुरू कर दिया।

संयम पालन की कठिनाईयों का पार न था। हमने अलग खाटें रखी। रात में पूरी तरह थकने के बाद ही सोने का प्रयत्न किया। इस सारे प्रयत्न का विशेष परिणाम मैं तुरंत नहीं देख सका। पर आज भूतकाल पर निगाह डालते हुए देखता हूँ कि इन सब प्रयत्नो में मुझे अंतिम निश्चय का बल दिया।

अंतिम निश्चय तो मैं सन 1906 में ही कर सका था। उस समय सत्याग्रह का आरंभ नहीं हुआ था। मुझे उसका सपना तक नहीं आया था। बोअर-युद्ध के बाद नेटाल में जुलू 'विद्रोह' हुआ। उस समय मैं जोहानिस्बर्ग में वकालत करता था। पर मैंने अनुभव किया कि इस 'विद्रोह' के मौके पर भी मुझे अपनी सेवा नेटाल सरकार को अर्पण करनी चाहिए। मैंने सेवा अर्पण की और वह स्वीकृत हुई। उसका वर्णन आगे आएगा। पर इस सेवा के सिलसिले में मेरे मन में संयम-पालन के तीव्र विचार उत्पन्न हुए। अपने स्वभाव के अनुसार मैंने साथियों से इसकी चर्चा की। मैंने अनुभव किया कि संतानोत्पत्ति और संतान का लालन-पालन सार्वजनिक सेवा के विरोधी है। इस 'विद्रोह' में सम्मिलित होने के लिए मुझे जोहानिस्बर्ग की अपनी गृहस्थी उजाड़ देनी पड़ी थी। टीप-टाप से बसाए गए घर का और साज-समान का, जिसे बसाए मुश्किल से एक महीना हुआ होगा, मैंने त्याग कर दिया। पत्नी और बच्चों को फीनिक्स में रख दिया और मैं डोली उठाने वालो की टुकड़ी लेकर निकल पड़ा। कठिन कूच करते हुए मैंने देखा कि यदि मुझे लोकसेवा में ही तन्मय हो जाना हो तो पुत्रैषणा और वितैषणा का त्याग करना चाहिए और वानप्रस्थ-धर्म पालना चाहिए।

'विद्रोह' में तो मुझे डेढ महीने से अधिक का समय नहीं देना पड़ा, पर छह हफ्तों का यह समय मेरे जीवन का अत्यंत मूल्यवान समय था। इस समय मैंने व्रत के महत्व को अधिक से अधिक समझा। मैंने देखा कि व्रत बंधन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का द्बार है। आज तक मुझे अपने प्रयत्नों में चाहिए उतनी सफलता न मिलने का कारण यह था कि मों दृढ़निश्चयी नहीं था। मुझे अपनी शक्ति पर अविश्वास था, ईश्वर की कृपा पर अविश्वास था, और इस कारण मेरा मन अनेक तरंगो और अनेक विचारों के चक्कर में पड़ा रहता था। मैंने देखा कि व्रत-बद्ध न होने से मनुष्य मोह में पड़ता है। व्रत से बंधना व्यभिचार से छुटकारा पाकर एकपत्नी व्रत का पालन करने के समान है। 'मैं प्रयत्न करने में विश्वास रखता हूँ, व्रत से बंधन नहीं चाहता' - यह वचन निर्बलता की निशानी है, और इसमें सूक्ष्म रूप से भोग की वासना छिपी होती है। जो वस्तु त्याज्य है, उसका सर्वथा त्याग करने में हानि कैसे हो सकती है? जो साँप मुझे डंसनेवाला है, उसका त्याग मैं निश्चय-पूर्वक करता हूँ, त्याग का केवल प्रयत्न नहीं करता। मैं जानता हूँ कि केवल प्रयत्न के भरोसे रहने में मृत्यु निहित है। प्रयत्न में साँप की विकरालता के स्पष्ट ज्ञान का अभाव है। इसी तरह हम केवल वस्तु के त्याग का हम केवल प्रयत्न करते है उस वस्तु के त्याग के औचित्य के बारे में हमें स्पष्ट दर्शन नहीं हुआ है, यह सिद्ध होता है। 'आगे चलकर मेरे विचार बदल जाए तो?' ऐसी शंका करके प्रायः हम व्रत लेने से डरते है। इस विचार में स्पष्ट दर्शन का अभाव ही है। इसीलिए निष्कुलानंद ने कहा है :

'त्याग न टके रे वैराग बिना।'

जहाँ अमुक वस्तु के प्रति संपूर्ण वैराग्य उत्पन्न हो गया है, वहाँ उसके विषय में व्रत लेना अनिवार्य हो जाता है।


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