कुछ और भी दूसरे यूरोपियनों के गाढ़ परिचय की चर्चा करनी रह जाती है। पर उससे पहले दो-तीन महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख करना आवश्यक है।
एक परिचय तो यही दे दूँ। मिस डिक के नियुक्त करके ही मैं अपना काम पूरा कर सकूँ ऐसी स्थिति न थी। मि. रीच के बारे में मैं पहले लिख चुका हूँ। उनसें मेरा अच्छा
परिचय था ही। वे एक व्यापारी फर्म के संचालक थे। मैंने उन्हें सुझाया कि वहाँ से मुक्त होकर वे मेरे साथ आर्टिकल क्लर्क का काम करे। मेरा सुझाव उन्हें पसंद आया
और वे आफिस में दाखिल हो गए। काम का मेरा बोझ हलका हो गया।
इसी अरसे में श्री मदनजीत ने 'इंडियन ओपीनियन' अखबार निकालने का विचार किया। उन्होंने मेरी सलाह और सहायता माँगी। छापाखाना तो वे चला ही रहे थे। अखबार निकालने
के विचार से मैं सहमत हुआ। सन 1904 में इस अखबार का जन्म हुआ। मनसुखलाल नाजर इसके संपादक बने। पर संपादन का सच्चा बोझ तो मुझ पर ही पड़ा। मेरे भाग्य में प्रायः
हमेशा दूर से ही अखबार की व्यवस्था सँभालने का योग रहा है।
मनसुखलाल नाजर संपादक काम न कर सकें, ऐसी कोई बात नहीं थी। उन्होंने देश में कई अखबारों के लिए लेख लिखें थे, पर दक्षिण अफ्रीका के अटपटे प्रश्नों पर मेरे रहते
उन्होंने स्वतंत्र लेख लिखने की हिम्मत न थी। उन्हें मेरी विवेक शक्ति पर अत्याधिक विश्वास था। अतएव जिन-जिन विषयों पर कुछ लिखना जरूरी होता, उन पर लिखकर भेजने
का बोझ वे मुझे पर डाल देते थे।
यह अखबार साप्ताहिक था, जैसा कि आज भी है। आरंभ में तो वह गुजराती, हिंदी, तमिल और अंग्रेजी में निकलता था। पर मैंने देखा कि तमिल और हिंदी विभाग नाममात्र के
थे। मुझे लगा कि उनके द्वारा समाज की कोई सेवा नहीं होती। उन विभागों को रखने में मुझे असत्य का आभास हुआ। अतएव उन्हें बंद करके मैंने शांति प्राप्त की।
मैंने यह कल्पना नहीं की थी कि इस अखबार में मुझे कुछ अपने पैसे लगाने पड़ेगे। लेकिन कुछ ही समय में मैंने देखा कि अगर मैं पैसे न दूँ तो अखबार चल ही नहीं सकता
था। मैं अखबार का संपादक नहीं था। फिर भी हिंदुस्तानी और गोरे दोनों यह जानने लग गए थे कि उसके लेखों के लिए मैं ही जिम्मेदार था। अखबार न निकलता तो भी कोई हानि
न होती। पर निकलने के बाद उसके बंद होने से हिंदुस्तानियों की बदनामी होगी, और समाज को हानि पहुँचेगी, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ।
मैं उसमें पैसे उँड़लेता गया और कहा जा सकता है कि आखिर ऐसा भी समय आया, जब मेरी पूरी बचत उसी पर खर्च हो जाती थी। मुझे ऐसे समय की याद है, जब मुझे हर महीने 75
पौंड भेजने पड़ते थे।
किंतु इतने वर्षों के बाद मुझे लगता है कि इस अखबार ने हिंदुस्तानी समाज की अच्छी सेवा की है। इससे धन कमाने का विचार तो शुरू से ही किसी की नहीं था।
जब तक वह मेरे अधीन था, उसमें किए गए परिवर्तनों के द्योतक थे। जिस तरह आज 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' मेरे जीवन के कुछ अंशो के निचोड़ रूप में है, उसी तरह
'इंडियन ओपीनियन' था। उसमें मैं प्रति सप्ताह अपनी आत्मा उंड़ेलता था और जिसे मैं सत्याग्रह के रूप में पहचानता था, उसे समझाने का प्रयत्न करता था। जेल के समयों
को छोड़कर दस वर्षों के अर्थात सन 1914 तक के 'इंडियन ओपीनियन' के शायद ही कोई अंक ऐसे होंगे,जिनमें मैंने कुछ लिखा न हो। इनमें मैं एक भी शब्द बिना बिचारे,
बिना तौले लिखा हो या किसी को केवल खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। मेरे लिए यह अखबार संयम की तालीम सिद्ध
हुआ था। मित्रों के लिए वह मेरे विचारों को जानने का माध्यम बन गया था। आलोचकों को उसमें से आलोचना के लिए बहुत का सामग्री मिल पाती थी। मैं जानता हूँ कि उसके
लेख आलोचकों को अपनी कलम पर अंकुश रखने के लिए बाध्य करते थे। इस अखबार के बिना सत्याग्रह की लड़ाई चल नहीं सकती थी। पाठक-समाज इस अखबार को अपना समझकर इसमें से
लड़ाई का और दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की दशा का सही हाल जानता था।
इस अखबार के द्वारा मुझ मनुष्य के रंग-बिरंगे स्वभाव का बहुत ज्ञान मिला। संपादक और ग्राहक के बीच निकट का और स्वच्छ संबंध स्थापित करने की ही धारणा होने से
मेरे पास हृदय खोलकर रख देनेवाले पत्रों का ढ़ेर लग जाता था। उसमें तीखे, कड़वे, मीठे या भाँति भाँति के पत्र मेरे नाम आते थे। उन्हें पढ़ना, उन पर विचार करना,
उनमें से विचारों का सार लेकर उत्तर देना - यह सब मेरे लिए शिक्षा का उत्तम साधन बन गया था। मुझे ऐसा अनुभव हुआ मानो इसके द्बारा मैं समाज में चल रही चर्चाओं और
विचारों को सुन रहा होऊँ। मैं संपादक के दायित्व को भलीभाँति समझने लगा और मुझे समाज के लोगों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ, उसके कारण भविष्य में होनेवाली लड़ाई
संभव हो सकी, वह सुशोभित हुई और उसे शक्ति प्राप्त हुई।
'इंडियन ओपीनियन' के पहले महीने के कामकाज से ही मैं इस परिणाम पर पहुँच गया था कि समाचार पत्र सेवा भाव से ही चलाने चाहिए। समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है,
किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव के गाँव डूबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कल का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि
ऐसा अंकुश बाहर से आता है, तो वह निरंकुश से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है। अंकुश तो अंदर का ही लाभदायक हो सकता है।
यदि यह विचारधारा सच हो, तो दुनिया के कितने समाचार पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते है? लेकिन निकम्मों को बंद कौन करे? उपयोगी और निकम्मे दोनों साथ साथ ही चलते
रहेंगे। उनमें से मनुष्य को अपना चुनाव करना होगा।