हिंदुस्तान में हम अपनी बड़ी से बड़ी सेवा करनेवाले ढेड़, भंगी इत्यादि को, जिन्हें हम अस्पृश्य मानते है, गाँव से बाहर अलग रखते है। गुजराती में उनकी बस्ती को
'ढेड़वाड़ा' कहते है और इस नाम का उच्चारण करने में लोगों को नफरत होती है। इसी प्रकार यूरोप के ईसाई समाज में एक जमाना ऐसा था,जब यहूदी लोग अस्पृश्य माने जाते
थे और उनके लिए जो ढेड़वाड़ा बसाया जाता था उसे 'घेटो' कहते थे। यह नाम असगुनिया माना जाता था। इसी तरह दक्षिण अफ्रीका में हम हिंदुस्तानी लोग ढेड़ बन गए है।
एंड्रूज के आत्म बलिदान से और शास्त्री की जादू की छड़ी से हमारी शुद्धि होगी और फलतः हम ढेड़ न रहकर सभ्य माने जाएँगे या नहीं, सो आगे देखना होगा।
हिंदुओं की भाँति यहूदियों ने अपने को ईश्वर का प्रीतिपात्र मानकर जो अपराध किया था, उसका दंड़ उन्हें विचित्र और अनुचित रीति से प्राप्त हुआ था। लगभग उसी
प्रकार हिंदुओं ने भी अपने को सुसंस्कृत अथवा आर्य मानकर अपने ही एक अंग को प्राकृत, अनार्य अथवा ढेड़ माना है। अपने इस पाप का फल वे विचित्र रीति से और अनुचित
ढंग से दक्षिण अफ्रीका आदि उपनिवेशों में भोग रहे है और मेरी यह धारणा है कि उसमें उनके पड़ोसी मुसलमान और पारसी भी, जो उन्हीं के रंग के और देश के है, फँस गए
है।
जोहानिस्बर्ग के कुली-लोकेशन को इस प्रकरण का विषय बनाने का हेतु अब पाठकों की समझ में आ गया होगा। दक्षिण अफ्रीका में हम हिंदुस्तानी 'कुली' के नाम से मशहूर हो
गए है। यहाँ तो हम 'कुली' शब्द का अर्थ केवल मजदूर करते है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में इस शब्द को जो अर्थ होता था, उसे 'ढेड़', 'पंचम' आदि तिरस्कारवाचक शब्दों
द्वारा ही सूचित किया जा सकता है। वहाँ 'कुलियों' के रहने के लिए जो अलग जगह रखी जाती है, वह'कुली लोकेशन' कही जाती है। जोहानिस्बर्ग में ऐसा एक 'लोकेशन' था।
दूसरी सब जगहों में जो 'लोकेशन' बसाए गए थे और जो आज भी मौजूद है, उनमें हिंदुस्तानियों को कोई मालिकी हक नहीं होता। पर इस जोहानिस्बर्गवाले लोकेशन में जमीन 99
वर्ष के लिए पट्टे पर दी गई थी। इसमें हिंदुस्तानियों की आबादी अत्यंत घनी थी। बस्ती बढ़ती थी, पर लोकेशन बढ़ नहीं सकता था। उसके पाखाने जैसे-तैसे साफ अवश्य
होते थे, पर इसके सिवा म्युनिसिपैलिटी की ओर से और कोई विशेष देखरेख नहीं होती थी। वहाँ सड़क और रोशनी की व्यवस्था तो होती ही कैसे? इस प्रकार जहाँ लोगों के
शौचादि से संबंध रखनेवाली व्यवस्था की भी किसी को चिंता न थी, वहाँ सफाई भला कैसे होती? जो हिंदुस्तानी वहाँ बसे हुए थे, वे शहर की सफाई और आरोग्य इत्यादि के
नियम जाननेवाले सुशिक्षित और आदर्श हिंदुस्तानी नहीं थे कि उन्हें म्युनिसिपैलिटी की मदद की अथवा उनकी रहन-सहन पर म्युनिसिपैलिटी की देख-रेख की आवश्यकता न हो।
यदि वहाँ जगंल में मंगल कर सकनेवाले, धूल में से धान पैदा करने की शक्तिवाले हिंदुस्तानी जाकर बसे होते, तो उनका इतिहास सर्वथा भिन्न होता। ऐसे लोग बड़ी संख्या
में दुनिया के किसी भी भाग में परदेश जाकर बसते पाए नहीं जाते। साधारणतः लोग धन और धंधे के लिए परदेश जाते है। पर हिंदुस्तान से मुख्यतः बड़ी संख्या में अपढ़,
गरीब और दीन दुखी मजदूर ही गए थे। उन्हें तो पग पग पर रक्षा की आवश्यकता थी। उनके पीछे-पीछे व्यापारी और दूसरे स्वतंत्र हिंदुस्तानी जो गए, वे तो मुट्ठी भर ही
थे।
इस प्रकार सफाई की रक्षा करनेवाले विभाग की अक्षम्य असावधानी के कारण और हिंदुस्तानी बाशिंदों के अज्ञान के कारण आरोग्य की दृष्टि से लोकेशन की स्थिति बेशक खराब
थी। म्युनिसिपैलिटी ने उसे सुधारने की थोड़ी भी उचित कोशिश नहीं की। परंतु अपने ही दोष से उत्पन्न हुई खराबी को निमित्त बनाकर सफाई-विभाग ने उक्त लोकेशन को नष्ट
करने का निश्चय किया और उस जमीन पर कब्जा करने का अधिकार वहाँ की धारासभा से प्राप्त किया। जिस समय मैं जोहानिस्बर्ग में जाकर बसा था, उस समय वहाँ की हालत ऐसी
थी।
वहाँ रहनेवाले जमीन के मालिक थे, इसलिए उनको कुछ न कुछ नुकसानी की रकम निश्चित करने के लिए एक खास अदालत कायम हुई थी। म्युनिसिपैलिटी जो रकम देने को तैयार हो
उसे मकान मालिक स्वीकार न करता तो उक्त अदालत द्वारा ठहराई हुई रकम उसे मिलती थी। यदि म्युनिसिपैलिटी की द्वारा सूचित रकम से अधिक रकम देने का निश्चय अदालत करती
तो मकान मालिक के वकील का खर्च नियम के अनुसार म्युनिसिपैलिटी को चुकाना होता था।
इनमें से अधिकांश दावों में मकान मालिकों ने मुझे अपना वकील किया था। मुझे इस काम से धन पैदा करने की इच्छा नहीं थी। मैंने उनसे कह दिया था, 'अगर आप जीतेंगे तो
म्युनिसिपैलिटी की तरफ से जो भी खर्च मिलेगा उससे मैं संतोष कर लूँगा। आप हारे चाहे जीते, यदि मुझे हर पट्टे के पीछे दस पौंड आप मुझे देगे तो काफी होगा।' मैंने
उन्हें बताया कि इसमें से भी आधी रकम गरीबों के लिए अस्पताल बनाने या ऐसे ही किसी सार्वजनिक काम में खर्च करने के लिए अलग रखने का मेरा इरादा है। स्वभावतः यह
सुनकर सब बहुत खुश हुए।
लगभग सत्तर मामलों में से एक में हार हुई। अतएव मेरी फीस की रकम काफी बढ़ गई। पर उसी समय 'इंडियन ओपीनियन' की माँग मेरे सिर पर लटक रही थी। अतएव लगभग सोलह सौ
पौंड का चेक उसमें चला गया, ऐसा मेरा खयाल है।
इन दावों में मेरी मान्यता के अनुसार मैंने अच्छी मेहनत की थी। मुवक्किलों की तो मेरे पास भीड़ ही लगी रहती थी। इनमें से प्रायः सभी उत्तर हिंदुस्तान के बिहार
इत्यादि प्रदेशों से और दक्षिण के तमिल, तेलुगु प्रदेश से पहले इकरार नामे के अनुसार आए थे और बाद में मुक्त होने पर स्वतंत्र धंधा करने लगे थे।
इन लोगों ने अपने खास दुःखों को मिटाने के लिए स्वतंत्र हिंदुस्तानी व्यापारी वर्ग के मंडल से भिन्न एक मंडल की रचना की थी। उनमें कुछ बहुत शुद्ध हृदय के उदार
भावनावालें चरित्रवान हिंदुस्तानी भी थे। उनके मुखिया का नाम श्री जयरामसिंह था। और मुखिया न होते हुए भी मुखिया जैसे ही दूसरे भाई का नाम श्री बदरी था। दोनों
का देहांत हो चुका है। दोनों की तरफ से मुझे बहुत अधिक सहायता मिली थी। श्री बदरी से मेरा परिचय हो गया था और उन्होंने सत्याग्रह में सबसे आगे रहकर हिस्सा लिया
था। इन और ऐसे अन्य भाइयों के द्वारा मैं उत्तर दक्षिण के बहुसंख्यक हिंदुस्तानियों के निकट परिचय में आया था और उनका वकील ही नहीं, बल्कि भाई बनकर रहा था तथा
तीनो प्रकार के दुःखों में उनका साक्षी बना था। सेठ अब्दुल्ला ने मुझे 'गांधी' नाम से पहचानने से इनकार कर दिया। 'साहब' तो मुझे कहता और मानता ही कौन? उन्होंने
एक अतिशय प्रिय नाम खोज लिया। वे मुझे'भाई' कहकर पुकारने लगे। दक्षिण अफ्रीका में अंत तक मेरा यही नाम रहा। लेकिन जब ये गिरमिट मुक्त हिंदुस्तानी मुझे 'भाई'
कहकर पुकारते थे, तब मुझे उसमें एक खास मिठास का अनुभव होता था।