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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
चौथा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 16. महामारी -2 पीछे     आगे

इस प्रकार मकान और बीमारों को अपने कब्जे में लेने के लिए टाइनक्लर्क ने मेरा उपकार माना और प्रामाणिकता से स्वीकार किया, 'हमारे पास ऐसी परिस्थिति में अपने आप अचानक कुछ कर सकने के लिए कुछ साधन नहीं है। आपको जो मदद चाहिए, आप माँगिये। टाउन-कौंसिल से जिनती मदद बन सकेगी उतनी वह करेगी।' पर उपयुक्त उपचार के प्रति सजग बनी हुई इस म्युनिसिपैलिटी ने स्थिति का सामना करने में देर न की।

दूसरे दिन मुझे एक खाली पड़े हुए गोदाम को कब्जा दिया और बीमारों को वहाँ ले जाने की सूचना दी। पर उसे साफ करने का भार म्युनिसिपैलिटी ने नहीं उठाया। मकान मैला और गंदा था। मैंने खुद ही उसे साफ किया। खटिया वगैरा सामान उदार हृदय के हिंदुस्तानियों की मदद से इकट्ठा किया और तत्काल एक कामचलाऊ अस्पताल खड़ा कर लिया। म्युनिसिपैलिटी ने एक नर्स भेज दी और उसके साथ ब्रांडी की बोतल और बीमारों के लिए अन्य आवश्यक वस्तुए भेजी। डॉ. गॉडफ्रे का चार्ज कायम रहा।

हम नर्स को क्वचित ही बीमारों को छूने दे थे। नर्स स्वयं छूने को तैयार थी। वह भले स्वभाव की स्त्री थी। पर हमारा प्रयत्न यह था कि उसे संकट में न पड़ने दिया जा।

बीमारों को समय समय पर ब्रांडी देने की सूचना थी। रोग की छूत से बचने के लिए नर्स हमें भी थोड़ी ब्रांडी लेने को कहती और खुद भी लेती थी।

हममें कोई ब्रांडी लेनेवाला न था। मुझे तो बीमारों को भी ब्रांडी देने में श्रद्धा न थी। डॉ. गॉडफ्रे की इजाजत से तीन बीमारों पर, जो ब्रांडी के बिना रहने को तैयार थे और मिट्टी के प्रयोग करने को राजी थे, मैंने मिट्टी का प्रयोग शुरू किया और उनके माथे और छाती में जहाँ दर्द होता था वहाँ वहाँ मिट्टी की पट्टी रखी। इन तीन बीमारों में से दो बचे। बाकी सब बीमारों का देहांत हो गया। बीस बीमार तो गोदाम में ही चल बसे।

म्युनिसिपैलिटी की दूसरी तैयारियाँ चल रही थी। जोहानिस्बर्ग से सात मील दूर एक 'लेजरेटो' अर्थात संक्रामक रोगो के लिए बीमारों का अस्पताल था। वहाँ तंबू खड़े करके इन तीन बीमारों को उनमें पहुँचाया गया। भविष्य में महामारी के शिकार होनेवालों को भी वहीं ले जाने की व्यवस्था की गई। हमें इस काम से मुक्ति मिली। कुछ ही दिनों बाद हमें मालूम हुआ कि उक्त भली नर्स को महामारी हो गई थी और उसी से उसका देहांत हुआ। वे बीमार कैसे बचे और हम महामारी से किस कारण मुक्त रहे, सो कोई कह नहीं सकता। पर मिट्टी के उपचार के प्रति मेरी श्रद्धा और दवा के रूप में शराब के उपयोग के प्रति मेरी अश्रद्धा बढ़ गई। मैं जानता हूँ कि यह श्रद्धा और अश्रद्धा दोनों निराधार मानी जाएगी। पर उस समय मुझ पर जो छाप पड़ी थी और जो अभी तक बनी हुई है उसे मैं मिटा नहीं सकता। अतएव इस अवसर पर उसके उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ।

इस महामारी के शुरू होते ही मैंने तत्काल समाचार पत्रों के लिए एक कड़ा लेख लिखा था और उसमें लोकेशन को अपने हाथ में लेने के बाद से बढ़ी हुई म्युनिसिपैलिटी की लापरवाही और महामारी के लिए उसकी जवाबदारी की चर्चा की थी। इस पत्र ने मुझे मि. हेनरी पोलाक से मिला दिया था और यही पत्र स्व. जोसेफ डोक के परिचय का एक कारण बन गया था।

पिछले प्रकरण में मैं लिख चुका हूँ कि मैं एक निरामिष भोजनालय में भोजन करने जाता था। वहाँ मि. आल्बर्ट वेस्ट से मेरी जान पहचान हुई थी। इम प्रतिदिन शाम को इस भोजनायल में मिलते और भोजन के बाद साथ में घूमने जाया करते थे। वेस्ट एक छोटे से छापाखाने के साझेदार थे। उन्होंने समाचार पत्रों में महामारी विषयक मेरा पत्र पढ़ा और भोजन के समय मुझे भोजनालय में न देखकर वे धबरा गए।

मैंने और मेरे साथी सेवक महामारी के दिनों में अपना आहार घटा लिया था। एक लंबे समय से मेरा अपना यह नियम था कि जब आसपास महामाही की हवा हो तब पेट जितना हलका रहे उतना अच्छा। इसलिए मैंने शाम का खाना बंद कर दिया था और दोपहर को भोजन करनेवालो को सब प्रकार के भय से दूर रखने के लिए मैं ऐसे समय पहुँचकर खा आता था जब दूसरे कोई पहुँचे न होते थे। भोजनालय के मालिक से मेरी गहरी जान पहचान हो गई थी। मैंने उससे कह रखा था चूँकि मैं महामारी के बीमारों की सेवा में लगा हूँ इसलिए दूसरो के संपर्क में कम से कम आना चाहता हूँ।

यों मुझे भोजनालय में न देखने के कारण दूसरे या तीसरे ही दिन सबेरे सबेरे जब मैं बाहर निकलने की तैयारी में लगा था, वेस्ट ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलते ही वेस्ट बोले, 'आपको भोजनालय में न देखकर मैं घबरा उठा था कि कहीं आपको कुछ नहीं हो गया। इसलिए यह सोचकर कि इस समय आप मिल ही जाएँगे, मैं यहाँ आया हूँ। मेरे कर सकने योग्य कोई मदद हो तो मुझ से कहिए। मैं बीमारों की सेवा शुश्रूषा के लिए भी तैयार हूँ। आप जानते है कि मुझ पर अपना पेट भरने के सिवा कोई जवाबदारी नहीं है।'

मैंने वेस्ट का आभार माना। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने विचार के लिए एक मिनिट भी लगाया हो। तुरंत कहा, 'आपको नर्स के रूप में तो मैं कभी न लूँगा। अगर नए बीमार न निकले तो हमारा काम एक दो दिन में ही पूरा हो जाएगा। लेकिन एक काम अवश्य है।'

'कौन सा?'

'क्या डरबन पहुँचकर आप 'इंडियन ओपिनियन' प्रेस का प्रबंध अपने हाथ में लेंगे? मदनजीत तो अभी यहाँ के काम में व्यस्त है। परंतु वहाँ किसी का जाना जरूरी है। आप चले जाए तो उस तरफ की मेरी चिंता बिलकुल कम हो जाए।'

वेस्ट ने जवाब दिया, 'यह तो आप जानते है कि मेरा अपना छापा-खाना है। बहुत संभव है कि मैं जाने को तैयार हो जाऊँ। आखिरी जवाब आज शाम तक दूँ तो चलेगा न? घूमने निकल सके तो उस समय हम बात कर लेंगे।'

मैं प्रसन्न हुआ। उसी दिन शाम को थोड़ी बातचीत की। वेस्ट को हर महीने दस पौंड और छापेखाने में कुछ मुनाफा हो तो उसका अमुक भाग देने का निश्चय किया। वेस्ट वेतन के लिए तो आ नहीं रहे थे। इसलिए वेतन का सवाल उनके सामने नहीं था। दूसरे ही दिन रात की मेल से वे डरबन के लिए रवाना हुए और अपनी उगाही का काम मुझे सौपते गए। उस दिन से लेकर मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के दिन तक वे मेरे सुख-दुख के साथी रहे। वेस्ट का जन्म विलायत के एक परगने के लाउथ नामक के एक किसान परिवार में हुआ था। उन्हें साधारण स्कूली शिक्षा प्राप्त हुई थी। वे अपने परिश्रम से अनुभव की पाठशाला में शिक्षा पाकर तैयार हुए शुद्ध, संयमी, ईश्वर से डरनेवाले, साहसी और परोपकारी अंग्रेज थे। मैंने उन्हें हमेशा इसी रूप में जाना है। उनका और उनके कुटुंब का परिचय इन प्रकरणों में हमें आगे अधिक होनेवाला है।


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