यदि पाठक यह याद रखे कि जो बात 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' में नहीं आ सकी है अथवा थोड़े ही अंशो में आई है, वही इन प्रकरणों में आ रही है, तो वे
इन प्रकरणों के आसपास के संबंध को समझ सकेंगे।
टॉल्सटॉय आश्रम में बालकों और बालिकाओं के लिए कुछ-न-कुछ शिक्षा का प्रबंध करना आवश्यकता था। मेरे साथ हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई नवयुवक थे और कुछ बालिकाएँ
भी थे। खास इस काम के लिए शिक्षक रखना असंभव था और मुझे अनावश्यकता प्रतीत हुआ। असंभव इसलिए कि योग्य हिंदुस्तानी शिक्षकों की कमी थी और मिलने पर भी बड़ी
तनख्वाह के बिना डरबन से इक्कीस मील दूर आता कौन? मेरे पास पैसों की विपुलता नहीं थी। बाहर से शिक्षक लाना मैंने अनावश्यक माना, क्योंकि शिक्षा की प्रचलित
पद्धति मुझे पसंद न थी। सच्ची पद्धति क्या हो सकती है, इसका अनुभव मैं ले नहीं पाया था। इतना समझता था कि आदर्श स्थिति में सच्ची शिक्षा तो माँ बाप की निगरानी
में ही हो सकती है। आदर्श स्थिति में बाहरी मदद कम-से-कम होनी चाहिए। सोचा यह था कि टॉल्सटॉय आश्रम एक परिवार है और मैं उसमें एक पिता की जगह हूँ, इसलिए इन
नवयुवकों के निर्माण की जिम्मेदारी मुझे यथाशक्ति उठानी चाहिए।
इस कल्पना में बहुत से दोष तो थे ही। नवयुवक मेरे पास जन्म से नहीं रहे थे। सब अलग-अलग वातावरण में पले थे। सब एक धर्म के भी नहीं थे। ऐसी स्थिति में रहे हुए
बालकों और बालिकाओं का पिता बनकर भी मैं उनके साथ न्याय कैसे कर सकता था?
किंतु मैंने हृदय की शिक्षा को अर्थात चरित्र के विकास को हमेशा पहला स्थान दिया है। और, यह सोचकर कि उसका परिचय तो किसी भी उमर में और कितने ही प्रकार के
वातावरण में पले हुए बालकों और बालिकाओं को न्यूनाधिक प्रमाण में कराया जा सकता है, इन बालकों और बालिकाओं के साथ मैं रात-दिन पिता की तरह रहता था। मैंने चरित्र
को उनकी शिक्षा की बुनियाद माना था। यदि बुनियाद पक्की हो, तो अवसर आने पर दूसरी बातें बालक मदद लेकर या अपनी ताकत से खुद जान-समझ सकते है।
फिर भी मैं समझता था कि थोड़ा-बहुत अक्षर-ज्ञान तो कराना ही चाहिए, इसलिए कक्षाएँ शुरू की और इस कार्य में मैंने केलनबैक की और प्रागजी देसाई की सहायता ली।
शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता को मैं समझता था। यह शिक्षा उन्हें सहज ही मिल रही था।
आश्रम में नौकर तो थे ही नहीं। पाखाना-सफाई से लेकर रसोई बनाने तक के सारे काम आश्रमवासियों को ही करने होते थे। वहाँ फलो के पेड़ बहुत थे। नई फसल भी बोनी थी।
मि. केलनबैक को खेती का शौक था। वे स्वयं सरकार के आदर्श बगीचों से जाकर थोड़े समय तक तालीम ले आए थे। ऐसे छोटे-बड़े सबकों, जो रसोई के काम में न लगे होते थे,
रोज अमुक समय के लिए बगीचे में काम करना पड़ता था। इसमें बड़ा हिस्सा बालकों का था। बड़े-बड़े गड्ढ़े खोदना, पेड़ काटना, बोझ उठाकर ले जाना आदि कामों से उनके
शरीर अच्छी तरह कसे जाते थे। इसमें उन्हें आनंद आता था। और इसलिए दूसरी कसरत या खेल-कूद की उन्हें जरूरत न रहती थी। काम करने में कुछ विद्यार्थी अथवा कभी-कभी सब
विद्यार्थी नखरे करते थे, आलस्य करते थे। अकसर इन बातों की ओर से मैं आँख मीच लेता था। कभी-कभी उनसे सख्ती से काम लेता था। मैं यह भी देखता था कि जब मैं सख्ती
करता था, तब उनका जी काम से ऊब जाता था। फिर भी मुझे याद नहीं पड़ता कि बालकों ने सख्ती का कभी विरोध किया हो। जब-जब मैं सख्ती करता तब-तब उन्हें समझाता और
उन्हीं से कबूल कराता था कि काम के समय खेलने की आदत अच्छी नहीं मानी जा सकती। वे तत्काल तो समझ जाते, पर दूसरे ही क्षण भूल भी जाते। इस तरह हमारी गाड़ी चलती
थी। किंतु उनके शरीर मजबूत बनते जा रहे थे।
आश्रम में बीमारी मुश्किल से ही आती थी। कहना चाहिए कि इसमें जलवायु का और अच्छे तथा नियमित आहार का भी बड़ा हाथ था। शारीरिक शिक्षा के सिलसिले में ही शारीरिक
धंधे की शिक्षा का भी मैं उल्लेख कर दूँ। इरादा यह था कि सबको कोई-न-कोई उपयोगी धंधा सिखाया जाए। इसके लिए मि. केलनबैक ट्रेपिस्ट मठ से चप्पल बनाना सीख आए। उनसे
मैं सीखा और जो बालक इस धंधे को सीखने के लिए तैयार हुए उन्हें मैंने सिखाया। मि. केलनबैक को बढ़ई काम का थोड़ा अनुभव था और आश्रम में बढ़ई का काम जाननेवाला एक
साथी था, इसलिए यह काम भी कुछ हद तक बालकों को सिखाया जाता था। रसोई का काम तो लगभग सभी बालक सीख गए थे।
बालकों के लिए ये सारे काम नए थे। इन कामों को सीखने की बात तो उन्होंने स्वप्न में भी सोची न होगी। हिंदुस्तानी बालक दक्षिण अफ्रीका में जो कुछ भी शिक्षा पाते
थे, वह केवल प्राथमिक अक्षर-ज्ञान की ही होती थी। टॉल्सटॉय आश्रम में शुरू से ही रिवाज डाला गया था कि जिस काम को हम शिक्षक न करें, वह बालकों से न कराया जाए,
और बालक जिस काम में लगे हो, उसमें उनके साथ उसी काम को करनेवाला एक शिक्षक हमेशा रहे। इसलिए बालकों ने कुछ सीखा, उमंग के साथ सीखा।
चरित्र और अक्षर-ज्ञान के विषय में आगे लिखूँगा।