दक्षिण अफ्रीका के बहुत से स्मरण अब मुझे छोड़ने पड़ रहे है। जब सन 1914 में सत्याग्रह की लड़ाई समाप्त हुई, तो गोखले की इच्छानुसार मुझे इंग्लैड होते हुए
हिंदुस्तान पहुँचना था। इसलिए जुलाई महीने में कस्तूरबाई, केलनबैक और मैं - तीन व्यक्ति विलायत के लिए रवाना हुए। सत्याग्रह की लड़ाई के दिनों में मैंने तीसरे
दर्जे में सफर करना शुरू किया था। अतएव समुद्री यात्रा के लिए भी तीसरे दर्जे का टिकट कटाया। पर इस तीसरे दर्जे में और हमारे यहाँ के तीसरे दर्जे में बहुत अंतर
है। हमारे यहाँ सोने बैठने की जगह भी मुश्किल से मिलती है। स्वच्छता तो रह ही कैसे सकती है? जब कि वहाँ के तीसरे दर्जे में स्थान काफी था और स्वच्छता की भी
अच्छी चिंता रखी जाती थी। कंपनी ने हमारे लिए अधिक सुविधा भी कर दी थी। कोई हमें परेशान न करे, इस हेतु से एक पाखाने में खास ताला डालकर उसकी कुंजी हमें सौप दी
गई थी, और चूँकि हम तींनो फलाहारी थे, इसलिए स्टीमर के खजांची को आज्ञा दी गई थी कि वह हमारे लिए सूखे और ताजे फलो का प्रबंध करे। साधारणतः तीसरे दर्जे के
यात्रियों को फल कम ही दिए जाते है, सूखा मेंवा बिलकुल नहीं दिया जाता। इन सुविधाओ के कारण हमारे अठारह दिन बड़ी शांति से बीते।
इस यात्रा के कई संस्मरण काफी जानने योग्य है। मि, केलनबैक को दूरबीन का अच्छा शौक था। दो-एक कीमती दूरबीनें उन्होंने अपने साथ रखी थी। इस संबंध में हमारे बीच
रोज चर्चा होती थी। मैं उन्हें समझाने का प्रयत्न करता कि यह हमारे आदर्श के और जिस सादगी तक हम पहुँचना चाहते है उसके अनुकूल नहीं है। एक दिन इसको लेकर हमारे
बीच तीखी कहा-सुनी हो गई। हम दोनों अपने केबन की खिड़की के पास खड़े थे।
मैंने कहा, 'हमारे बीच इस प्रकार के झगड़े हो, इससे अच्छा क्या यह न होगा कि हम इस दूरबीन को समुद्र में फेंक दे और फिर इसकी चर्चा ही न करें?'
मि. केलनबैक ने तुरंत ही जवाब दिया, 'हाँ, इस मनहूस चीज को जरूर फेंक दो।'
मैंने कहा, 'तो मैं फेंकता हूँ।'
उन्होंने उतनी ही तत्परता से उत्तर दिया, 'मैं सचमुच कहता हूँ, जरूर फेंक दो।'
मैंने दूरबीन फेंक दी। वह कोई सात पौंड की थी। लेकिन उसकी कीमत जितनी दामों में थी उससे अधिक उसके प्रति रहे मि. केलनबैक के मोह में थी। फिर भी उन्होंने इस
संबंध में कभी दु:ख का अनुभव नहीं किया। उनके और मेरे बीच ऐसे कई अनुभव होते रहते थे। उनमें से एक यह मैंने बानगी के रूप में यहाँ दिया है।
हम दिनों के आपसी संबंध से हमें प्रतिदिन नया सीखने को मिलता था, क्योंकि दोनों सत्य का ही अनुकरण करते चलने का प्रयत्न करते थे। सत्य का अनुकरण करने से क्रोध,
स्वार्थ, द्वेष इत्यादि सहज ही मिल जाते थे, शांत न होते तो सत्य मिलता न था। राग-द्वेषादि से भरा मनुष्य सरल चाहे हो ले, वाचिक सत्य का पालन चाहे वह कर ले,
किंतु शुद्ध सत्य तो उसे मिल ही नहीं सका। शुद्ध सत्य की शोध करने का अर्थ है, राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्ति प्राप्त करना।
जब हमने यात्रा शुरू की थी, तब मुझे उपवास समाप्त किए बहुत समय नहीं बीता था। मुझमें पूरी शक्ति नहीं आई थी। स्टीमर में रोज डेक पर चलने की कसरत करके मैं काफी
खाने और खाए हुए को हजम करने का प्रयत्न करता था। लेकिन इसके साथ ही मेरे पैरों की पिंडलियों में ज्यादा दर्द रहने लगा। विलायत पहुँचने के बाद भी मेरी पीड़ा कम
न हुई, बल्कि बढ़ गई। विलायत में डॉ. जीवराज मेहता से पहचान हुई। उन्हें अपने उपवास और पिंडलियों की पीड़ा का इतिहास सुनाने पर उन्होंने कहा, 'यदि आप कुछ दिन के
लिए पूरा आराम न करेंगे, तो सदा के लिए पैरों के बेकार हो जाने का डर है।' इसी समय मुझे पता चला कि लंबे उपवास करनेवाले को खोई हुई ताकत झट प्राप्त करने का या
बहुत खाने का लोभ कभी न करना चाहिए। उपवास करने की अपेक्षा छोड़ने में अधिक साबधान रहना पड़ता है और शायद उसमें संयम भी अधिक रखना पड़ता है।
मदीरा में हमें समाचार मिले कि महायुद्ध के छिड़ने में कुछ घड़ियों की ही देर है। इंग्लैंड की खाड़ी में पहुँचते ही हमें लड़ाई छिड़ जाने के समाचार मिले और हमें
रोक दिया गया। समुद्र में जगह जगह सुरंगे बिछा दी गई थी। उनसे बचाकर हमें साउदेम्पटन पहुँचाने में एक दो दिन की देर हो गई। 4 अगस्त को युद्ध घोषित किया गया। 6
अगस्त को हम विलायत पहुँचे।