जैसे-जैसे मेरे जीवन में सादगी बढ़ती गई, वैसे-वैसे रोगों के लिए दवा लेने की मेरी अरुचि, जो पहले से ही थी, बढ़ती गई। जब मैं डरबन में वकालत करता था तब डॉ.
प्राणजीवनदास मेहता मुझे अपने साथ ले जाने के लिए आए थे। उस समय मुझे कमजोरी रहती थी और कभी-कभी सूजन भी हो आती थी। उन्होंने इसका उपचार किया था और मुझे आराम हो
गया था। इसके बाद देश में वापस आने तक मुझे कोई उल्लेख करने जैसी बीमारी हुई हो, ऐसा याद नहीं आता।
पर जोहानिस्बर्ग में मुझे कब्ज रहता था और कभी-कभी सिर भी दुखा करता था। कोई दस्तावर दवा लेकर मैं स्वास्थ्य को संभाले रहता था। खाने-पीने में पथ्य का ध्यान तो
हमेशा रखता ही था, पर उससे मैं पूरी तरह व्याधिमुक्त नहीं हुआ। मन में यह खयाल बना ही रहता कि दस्तावर दवाओं से भी छुटकारा मिले तो अच्छा हो।
इन्हीं दिनों मैंने मैंन्चेस्टर में 'नो ब्रेकफास्ट एसोशियेशन' की स्थापना का समाचार पढ़ा। इसमें दलील यह थी कि अंग्रेज बहुत बार और बहुत खाते रहते है और फिर
डॉक्टर के घर खोजते फिरते है। इस उपाधि से छूटना हो तो सबेरे का नाश्ता - 'ब्रेकफास्ट' - छोड़ देना चाहिए। मुझे लगा कि यद्यपि यह दलील मुझ पर पूरी तरह घटित नहीं
होती, फिर भी कुछ अंशों में लागू होती है। मैन तीन बार पेट भर खाता था और दोपहर को चाय भी पीता था। मैं कभी अल्पाहारी नहीं रहा। निरामिषाहार में मसालों के बिना
जिनते भी स्वाद लिए जा सकते थे, मैं लेता था। छह-सात बजे से पहले शायद ही उठता था।
अतएव मैंने सोचा कि यदि मैं सुबह का नाश्ता छोड़ दूँ तो सिर के दर्द से अवश्य ही छुटकारा पा सकूँगा। मैंने सुबह का नाश्ता छोड़ दिया। कुछ दिनों तक अखरा तो सही,
पर सिर का दर्द बिलकुल मिट गया। इससे मैंने यह नतीजा निकाला कि मेरा आहार आवश्यकता से अधिक था।
पर इस परिवर्तन से कब्ज की शिकायत दूर न हुई। कूने के कटिस्नान का उपचार करने से थोड़ा आराम हुआ। पर अपेक्षित परिवर्तन तो नहीं ही हुआ। इस बीच उसी जर्मन
होटलवाले ने या दूसरे किसी मित्र ने मुझे जुस्ट की 'रिटर्न टु नेचर' (प्रकृति की ओर लौटो) नामक पुस्तक दी। उसमें मैंने मिट्टी के उपचार के बारे में पढ़ा। सूखे
औप हरे फल ही मनुष्य का प्राकृतिक आहार है, इस बात का भी इस लेखक ने बहुत समर्थन किया है। इस बार मैंने केवल फलाहार का प्रयोग तो शुरू नहीं किया, पर मिट्टी के
उपचार तुरंत शुरू कर दिया। मुझ पर उसका आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा। उपचार इस प्रकार था, खेत की साफ लाल या काली मिट्टी लेकर उसमें प्रमाण से पानी डाल कर साफ, पतले,
गीले कपड़े में उसे लपेटा और पेट पर रखकर उस पर पट्टी बाँध दी। यह पुलटिस रात को सोते समय बाँधता था और सबेरे अथवा रात में जब जाग जाता तब खोल दिया करता था।
इससे मेरा कब्ज जाता रहा। उसके बाद मिट्टी के ये उपचार मैंने अपने पर और अपने अनेक साथियों पर किए और मुझे याद है कि वे शायद ही किसी पर निष्फल रहे हो।
देश में आने के बाद मैं ऐसे उपचारों के विषय में आत्म-विश्वास खो बैठा हूँ। मुझे प्रयोग करने का, एक जगह स्थिर होकर बैठने का अवसर भी नहीं मिल सका। फिर भी
मिट्टी और पानी के उपचारों के बारे में मेरी श्रद्धा बहुत कुछ वैसी ही है जैसी आरंभ में थी। आज भी मैं मर्यादा के अंदर रहकर मिट्टी का उपचार स्वयं अपने ऊपर तो
करता ही हूँ और प्रसंग पड़ने पर अपने साथियों को भी उसकी सलाह देता हूँ। जीवन में दो गंभीर बीमारियाँ मैं भोग चुका हूँ, फिर भी मेरा यह विश्वास है कि मनुष्य को
दवा लेने की शायद ही आवश्यकता रहती है। पथ्य तथा पानी, मिट्टी इत्यादि के घरेलू उपचारों से एक हजार में से 999 रोगी स्वस्थ हो सकते है। क्षण-क्षण में बैद्य,
हकीम और डॉक्टर के घर दौड़ने से और शरीर में अनेक प्रकार के पाक और रसायन ठूँसने से मनुष्य न सिर्फ अपने जीवन को छोटा कर लेता है, बल्कि अपने मन पर काबू भी खो
बैठता है। फलतः वह मनुष्यत्व गँवा देता है और शरीर का स्वामी रहने के बदले उसका गुलाम बन जाता है।
मैं यह बीमारी के बिछौने पर पड़ा-पड़ा लिखा रहा हूँ, इस कारण कोई इन विचारों की अवगणना न करे। मैन अपनी बीमारी के कारण जानता हूँ। मुझे इस बात का पूरा-पूरा
ज्ञान है और भान है कि मैन अपने ही दोषों के कारण मैं बीमार पड़ा हूँ और इस भान के कारण ही मैंने धीरज नहीं छोड़ा है। इस बीमारी को मैंने ईश्वर का अनुग्रह माना
है और अनेक दवाओं के सेवन के लालच से मैं दूर रहा हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि अपने हठ से मैं डॉक्टर मित्रों को परेशान कर देता हूँ, पर वे उदार भाव से मेरे हठ
को सह लेते है और मेरा त्याग नहीं करते।
पर मुझे इस समय की अपनी स्थिति के वर्णन को अधिक बढ़ाना नहीं चाहिए, इसलिए हम सन 1904-05 के समय की तरफ लौट आवे।
पर आगे बढ़कर उसका विचार करने से पहले पाठकों को थोड़ा सावधान करने की आवश्यकता है। यह लेख पढ़कर जो जुस्ट की पुस्तकें खरीदें, वे उसकी हर बात को वेदवाक्य न
समझे। सभी रचनाओ में प्रायः लेखक की एकांगी दृष्टि रहती है। किंतु प्रत्येक वस्तु को कम से कम सात दृष्टियों से देखा जा सकता है और उस उस दृष्टि से वह वस्तु सच
होती है। पर सब दृष्टियाँ एक ही समय पर कभी सच नहीं होती। साथ ही, कई पुस्तकों में बिक्री के और नाम के लालच का दोष भी होता है। अतएव जो कोई उक्त पुस्तक को पढ़े
वे उसे विवेक पूर्वक पढ़े और कुछ प्रयोग करने हो तो किसी अनुभवी की सलाह लेकर करें अथवा धैर्य-पूर्वक ऐसी वस्तु का थोड़ा अभ्यास करके प्रयोग आरंभ करें।