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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
पाँचवाँ भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 16. कार्य-पद्धति पीछे     आगे

विवरण इन प्रकरणों में नहीं दिया जा सकता। फिर, चंपारन की जाँच का अर्थ है, अहिंसा और सत्य का एक बड़ा प्रयोग। इसके संबंध की जितनी बातें मुझे प्रति सप्ताह सूझती है उतनी देता रहता हूँ। उसका विशेष विवरण तो पाठकों को बाबू राजेंद्रप्रसाद द्वारा लिखित इस सत्याग्रह के इतिहास और 'युगधर्म' प्रेस द्वारा प्रकाशित उसके (गुजराती) अनुवाद में ही मिल सकता है।

अब मैं इस प्रकरण के विषय पर आता हूँ। यदि गोरखबाबू के घर रहकर यह जाँच चलाई जाती, तो उन्हें अपना घर खाली करना पड़ता। मोतीहारी में अभी लोग इतने निर्भय नहीं हुए थे कि माँगने पर कोई तुरंत अपना मकान किराए पर दे दे। किंतु चतुर ब्रजकिशोरबाबू ने एक लंबे चौड़े अहातेवाला मकान किराए पर लिया और हम उसमें रहने गए।

स्थिति ऐसी नहीं थी कि हम बिलकुल बिना पैसे के अपना काम चला सके। आज तक की प्रथा सार्वजनिक काम के लिए जनता से धन प्राप्त करने की नहीं थी। ब्रजकिशोरबाबू का मंडल मुख्यतः वकीलों का मंडल था। अतएव वे जरूरत पड़ने पर अपनी जेब से खर्च कर लेते थे और कुछ मित्रों से भी माँग लेते थे। उनकी भावना यह थी कि जो लोग स्वयं पैसे-टके से सुखी हो, वे लोगों से द्रव्य की भिक्षा क्यों माँगे? मेरा यह दृढ़ निश्चय था कि चंपारन की रैयत से एक कौड़ी भी न ली जाए। यदि ली जाती तो उसका गलत अर्थ लगाए जाते। यह भी निश्चय था कि इस जाँच के लिए हिंदुस्तान में सार्वजनिक चंदा न किया जा। वैसा करने पर यह जाँच राष्ट्रीय और राजनीतिक रूप धारण कर लेती। बंबई से मित्रों में 15 हजार रुपए की मदद का तार भेजा। उनकी यह मदद सधन्यवाद अस्वीकार की गई। निश्चय यह हुआ कि ब्रजकिशोरबाबू का मंडल चंपारन के बाहर से, लेकिन बिहार के ही खुशहाल लोगों से जितनी मदद ले सके और कम पड़नेवाली रकम मैं डॉ. प्राणजीवनदास मेहता से प्राप्त कर लूँ। डॉ. मेहता ने लिखा कि जिनते रुपयों की जरूरत हो, मंगा लीजिए। अतएव द्रव्य के विषय में हम निश्चिंत हो गए। गरीबी-से, कम-से कम से खर्च करते हुए, लड़ाई चलानी थी, अतएव अधिक द्रव्य की आवश्यकता पड़ने की संभावना न थी। असल में पड़ी भी नहीं। मेरा खयाल है कि कुल मिलाकर दो या तीन हजार से अधिक खर्च नहीं हुआ था। जो द्रव्य इकट्ठा किया गया था उसमें से पाँच सौ या एक हजार रुपए बच गए थे, ऐसा मुझे याद है।

शुरू-शुरू के दिनों में हमारी रहन-सहन विचित्र थी और मेरे लिए वह रोज के विनोद का विषय बन गई थी। वकील-मंडल में हर एक का अपना रसोइया था और हरएक के लिए अलग अलग रसोई बनती थी। वे रात बारह बजे तक भी भोजन करते थे। ये सब महाशय रहते तो अपने खर्च से ही थे। परंतु मेरे लिए उनकी यह रहन-सहन उपाधि रूप थी। मेरे और साथियों के बीच इतनी मजबूत प्रेमगांठ बंध गई थी कि हममें कभी गलतफहमी हो ही नहीं सकती थी। वे मेरे शब्दबाणों को प्रेम-पूर्वक सहते थे। आखिर यह तय हुआ कि नौकरों को छुट्टी दे दी जाए। सब एक साथ भोजन करें और भोजन के नियमों का पालन करें। सब निरामिषाहारी नहीं थे और दो रसोईघर चलाने से खर्च बढ़ता था। अतएव निश्चय हुआ कि निरामिष भोजन ही बनाया जाए और एक ही रसोईघर रखा जाए। भोजन भी सादा रखने का आग्रह था। इससे खर्च में बहुत बचत हुई, काम करने की शक्ति बढ़ी और समय भी बचा।

अधिक शक्ति की बहुत आवश्यकता थी, क्योंकि किसानों के दल-के-दल अपनी कहानी लिखाने के लिए आने लगे थे। कहानी लिखाने वालों के साथ भीड़ तो रहती ही थी। इससे मकान का आहाता और बगीचा सहज ही भर जाता था। मुझे दर्शानार्थियों से सुरक्षित रखने के लिए साथी भारी प्रयत्न करते और विफल हो जाते। एक निश्चित समय पर मुझे दर्शन देने के बाहर निकाने सिवा कोई चारा न रह जाता था। कहानी लिखनेवाले भी पाँच-सात बराबर बने ही रहते थे, तो भी दिन के अंत में सबके बयान पूरे न हो पाते थे। इतने सारे बयानों की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी बयान लेने से लोगों को संतोष होता था और मुझे उनकी भावना का पता चलता था।

कहानी लिखनेवालों को कुछ नियमों का पालन करना पड़ता था। जैसे, हरएक किसान से जिरह की जाए। जिरह में जो उखड़ जाए, उसका बयान न लिया जाए। जिसकी बात मूल में ही बेबुनियाद मालूम हो, उसके बयान न लिखें जाए। इस तरह के नियमों के पालन से यद्यपि थोड़ा अधिक समय खर्च होता था, फिर भी बयान बहुत सच्चे और साबित हो सकनेवाले मिलते थे।

इन बयानों के लेते समय खुफिया पुलिस का कोई-न-कोई अधिकारी हाजिर रहता ही था। इन अधिकारियों को आने से रोका जा सकता था। पर हमने शुरू से ही निश्चय कर लिया था कि उन्हें न सिर्फ हम आने से नहीं रोकेंगे, बल्कि उनके प्रति विनय का बरताव करेंगे और दे सकने योग्य खबरे भी उन्हें देते रहेंगे। उनके सुनते और देखते ही सारे बयान लिए जाते थे। उसका लाभ यह हुआ कि लोगों में अधिक निर्भयता आई। खुफिया पुलिस से लोग बहुत डरते थे। ऐसा करने से वह डर चला गया और उनकी आँखों के सामने दिए जानेवाले बयानों में अतिशयोक्ति का डर कम रहता था। इस डर से कि झूठ बोलने पर अधिकारी कही उन्हें फांद न ले, उन्हें सावधानी से बोलना पड़ता था।

मैं निलहों को खिझाना नहीं चाहता था, बल्कि मुझे तो उन्हें विनय द्वारा जीतने का प्रयत्न करना था। इसलिए जिसके विरुद्ध विशेष शिकायतें आती, उसे मैं पत्र लिखता और उससे मिलने का प्रयत्न भी करता था। निलहों के मंडल से भी मैं मिला और रैयत की शिकायतें उनके सामने रखकर मैंने उनकी बातें भी सुन ली थी। उनमें से कुछ तिरस्कार करते थे, कुछ उदासीन रहते थे और कोई-कोई मेरे साथ सभ्यता और नम्रता का व्यवहार करते थे।


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