ब्रजकिशोरबाबू और राजेंद्रबाबू की तो एक अद्वितीय जोडी थी। उन्होंने अपने प्रेम से मुझे इतना पंगु बना दिया था कि उनके बिना मैं एक कदम भी आगे नहीं जा सकता था।
उनके शिष्य कहिए अथवा साथी, शंभूबाबू, अनुग्रहबाबू, धरणीबाबू और रामनवमीबाबू - ये वकील लगभग निरंतर मेरे साथ रहते थे। विन्ध्याबाबू और जनकधारीबाबू भी समय समय पर
साथ रहते थे। यह तो बिहारियों का संघ हुआ। उनका मुख्य काम था लोगों का बयान लेना।
अध्यापक कृपालानी इसमें सम्मिलित हुए बिना कैसे रह सकते थे? स्वयं सिंधी होते हुए भी वे बिहारी से भी बढ़कर बिहारी थे। मैंने ऐसे सेवक कम देखे है, जिनमें वे जिस
प्रांत में जाए उसमें पूरी तरह घुलमिल जाने की शक्ति हो और जो किसा को यह मालूम न होने दे कि वे दूसरे प्रांत के है। इनमें कृपालानी एक है। उनका मुख्य काम
द्वारपाल का था। दर्शन करनेवालों से मुझे बचा लेने में उन्होंने जीवन की सार्थकता समझ ली थी। किसी को वे विनोद करके मेरे पास आने से रोकते थे, तो किसी को अहिंसक
धमकी से। रात होने पर अध्यापक का धंधा शुरू करते और सब साथियों को हँसाते थे और कोई डरपोल पहुँच जाए तो उसे हिम्मत बँधाते थे।
मौलाना मजहरुल हक ने मेरे सहायक के रूप में अपना हक दर्ज करा रखा था और वे महीने में एक-दो बार दर्शन दे जाते थे। उस समय के उनके ठाटबाट और दबदबे में और आज की
उनकी सादगी में जमीन-आसमान का अंतर है। हमारे बीच आकर वे हमसे हृदय की एकता साध जाते थे, पर अपनी साहबी के कारण बाहर के आदमी को वे हमसे अलग जैसे जान पड़ते थे।
जैसे-तैसे मुझे अनुभव प्राप्त होता गया वैस-वैसे मैंने देखा कि चंपारन में ठीक से काम करना हो तो गाँवों में शिक्षा का प्रवेश होना चाहिए। लोगों को अज्ञान दयनीय
था। गाँवों के बच्चे मारे-मारे फिरते थे अथवा माता-पिता दो या तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे सारे दिन नील के खेतों में मजदूरी करवाते थे। उन दिनों वहाँ पुरुषों
की मजदूरी दस पैसे से अधिक नहीं थी। स्त्रियों की छह पैसे और बालकों की तीन पैसे थी। चार आने की मजदूरी पानेवाला किसान भाग्यशाली समझा जाता था।
साथियों से सलाह करके पहले तो छह गाँवों में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निश्चय किया। शर्त यह थी कि उन गाँवों के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन व्यय दे,
उसके दूसरे खर्च की व्यवस्था हम करे। यहाँ के गाँवों में पैसे की विपुलता नहीं थी, पर अनाज वगैरा देने की शक्ति लोगों में थी। इसलिए लोग कच्चा अनाज देने को
तैयार हो गए थे
महान प्रश्न यह था कि शिक्षक कहाँ से लाए जाए? बिहार में थोड़ा वेतन लेनेवाले अथवा कुछ न लेनेवाले अच्छे शिक्षकों का मिलना कठिन था। मेरी कल्पना यह थी कि साधारण
शिक्षकों के हाथ में बच्चों को कभी न छोड़ना चाहिए। शिक्षक को अक्षर-ज्ञान चाहे थोड़ा हो, पर उसमें चरित्र बल तो होना ही चाहिए।
इस काम के लिए मैंने सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवकों की माँग की। उसके उत्तर में गंगाधरराव देशपांडे ने बाबासाहब सोमण और पुंडलीक को भेजा। बंबई से अवंतिकाबाई
गोखले आई। दक्षिण से आनंदीबाई आई। मैंने छोटेलाल, सुरेंद्रनाथ तथा अपने लड़के देवदास को बुला लिया। इसी बीच महादेव देसाई और महादेव देसाई और नरहरि परीख मुझे मिल
गए थे। महादेव देसाई की पत्नी दुर्गाबहन और नरहरि परीख की पत्नी मणिबहन भी आई। मैंने कस्तूरबाई को भी बुला लिया था। शिक्षकों और शिक्षिकाओं का इतना संघ काफी था।
श्रीमति अवंतिकाबाई और आनंदीबाई की गिनती तो शिक्षितो में हो सकती थी, पर मणिबहन परीख और दुर्गाबहन को सिर्फ थोड़ी-सी गुजराती आती थी। कस्तूरबाई की पढ़ाई तो नहीं
के बराबर ही थी। ये बहने हिंदी-भाषी बच्चों को किसी प्रकार पढ़ाती?
चर्चा करके मैंने बहनों को समझाया कि उन्हें बच्चों को व्याकरण नहीं, बल्कि रहन-सहन का तौर तरीका सिखाना है। पढ़ना-लिखना सिखाने की अपेक्षा उन्हें स्वच्छता के
नियम सिखाने है। उन्हें यह भी बताया कि हिंदी, गुजराती, मराठी के बीच कोई बड़ा भेद नहीं है, और पहले दर्जे में तो मुश्किल से अंक लिखना सिखाना है। अतएव उन्हें
कोई कठिनाई होगी ही नहीं। परिणाम यह निकला कि बहनों की कक्षाएँ बहुत अच्छी तरह चली। बहनों में आत्मविश्वास उत्पन्न हो गया और उन्हें अपने काम में रस भी आने लगा।
अवंतिकाबाई की पाठशाला आदर्श पाठशाला बन गई। उन्होंने अपनी पाठशाला में प्राण फूँक दिए। इस बहनों के द्वारा गाँवों के स्त्री-समाज में भी हमारा प्रवेश हो सका
था।
पर मुझे पढ़ाई की व्यवस्था करके ही रुकना नहीं था। गाँवों में गंदगी की कोई सीमा न थी। गलियों में कचरा, कुओं के आसपास कीचड़ और बदबू, आँगन इतने गंदे कि देखे न
जा सके। बड़ो को स्वच्छता की शिक्षा की जरूरत थी। चंपारन के लोग रोगों से पीड़ित देखे जाते थे। जितना हो सके उतना सफाई का काम करके लोगों के जीवन के प्रत्येक
विभाग में प्रवेश करने की हमारी वृत्ति थी।
इस काम में डॉक्टरों की सहायता की जरूरत थी। अतएव मैंने गोखले की सोसायटी से डॉ. देव की माँग की। उनके साथ मेरी स्नेहगांठ तो बंध ही चुकी थी। छह महीनों के लिए
उनकी सेवा का लाभ मिला। उनकी देखरेख में शिक्षकों और शिक्षिकाओं को काम करना था।
सबको यह समझा दिया गया कि कोई भी निलहों के विरुद्ध की जानेवाली शिकायतों में न पड़े। राजनीति को न छुए। शिकायत करनेवालों को मेरे पास भेज दे। कोई अपने क्षेत्र
से बाहर एक कदम भी न रखे। चंपारन के इन साथियों का नियम-पालन अद्भुत था। मुझे ऐसा कोई अवसर याद नहीं आता, जब किसी ने दी हुई सूचनाओं का उल्लंघन किया हो।