मजदूरों ने शुरू के दो हफ्तों में खूब हिम्मत दिखाई; शांति भी खूब रखी; प्रतिदिन की सभाओं में वे बड़ी संख्या में हाजिर भी रहे। प्रतिज्ञा का स्मरण मैं रोज
उन्हें कराता ही था। वे रोज पुकार-पुकार कर कहते थे, 'हम मर मिटेंगे, पर अपनी टेक कभी न छोड़ेंगे।'
लेकिन आखिर वे कमजोर पड़ते जान पड़े। और जिस प्रकार कमजोर आदमी हिंसक होता है, उसी प्रकार उनमें जो कमजोर पड़े वे मिल में जानेवालों का द्वेष करने लगे और मुझे
डर मालूम हुआ कि कहीं वे किसी के साथ जबरदस्ती न कर बैठें। रोज की सभा में लोगों की उपस्थिति कम पड़ने लगी। आनेवालों के चेहरों पर उदासीनता छाई रहती थी। मुझे
खबर मिली कि मजदूर डगमगाने लगे हैं। मैं परेशान हुआ। यह सोचने लगा कि ऐसे समय में मेरा धर्म क्या हो सकता है। मुझे दक्षिण अफ्रीका के मजदूरों की हड़ताल का
अनुभव था। पर यह अनुभव नया था। जिस प्रतिज्ञा के करने में मेरी प्रेरणा थी,जिसका मैं प्रतिदिन साक्षी बनता था, वह प्रतिज्ञा कैसे टूट सकती है? इस विचार को आप
चाहे मेरा अभिमान कह लीजिए अथवा मजदूरों के और सत्य के प्रति मेरा प्रेम कह लीजिए।
सबेरे का समय था। मैं सभा में बैठा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। किंतु सभा में ही मेरे मुँह से निकल गया, 'यदि मजदूर फिर से दृढ़ न
बनें और फैसला होने तक हड़ताल को चला न सकें, तो मैं तब तक के लिए उपवास करूँगा।'
जो मजदूर हाजिर थे, वे सब हक्के-बक्के रह गए। अनसूया बहन की आँखों से आँसू की धारा बह चली। मजदूर बोल उठे, 'आप नहीं, हम उपवास करेंगे। आपको उपवास नहीं करना
चाहिए। हमें माफ कीजिए। हम अपनी प्रतिज्ञा का पालन करेंगे।'
मैंने कहा 'आपको उपवास करने की जरूरत नहीं है। आपके लिए तो यही बस है कि आप अपनी प्रतिज्ञा का पालन करें। हमारे पास पैसा नहीं है। हम मजदूरों को भीख का अन्न
खिलाकर हड़ताल चलाना नहीं चाहते। आप कुछ मजदूरी कीजिए और उससे अपनी रोज की रोटी के लायक पैसा कमा लीजिए। ऐसा करेंगे तो फिर हड़ताल कितने ही दिन क्यों न चले, आप
निश्चिंत रह सकेंगे। मेरा उपवास तो अब फैसले से पहले न छूटेगा।'
वल्लभभाई पटेल मजदूरों के लिए म्युनिसिपैलिटी में काम खोज रहे थे, पर वहाँ कुछ काम मिलने की संभावना न थी। आश्रम की बुनाई-शाला में रेत का भराव करने की जरूरत
थी। मगनलाल गांधी ने सुझाया कि इस काम में बहुत से मजदूर लगाए जा सकते हैं। मजदूर इसे करने को तैयार हो गए। अनसूया बहन ने पहली टोकरी उठाई और नदी में से रेत की
टोकरियाँ ढोनेवाले मजदूरों की एक कतार खड़ी हो गई। वह दृश्य देखने योग्य था। मजदूरों में नया बल आ गया। उन्हें पैसे चुकानेवाले चुकाते-चुकाते थक गए।
इस उपवास में एक दोष था। मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि मालिकों के साथ मेरा मीठा संबंध था। इसलिए उन पर उपवास का प्रभाव पड़े बिना रह ही नहीं सकता था। मैं तो जानता
था कि सत्याग्रही के नाते मैं उनके विरुद्ध उपवास कर ही नहीं सकता; उन पर कोई प्रभाव पड़े तो वह मजदूरों की हड़ताल का ही पड़ना चाहिए। मेरा प्रायश्चित उनके
दोषों के लिए नहीं था; मजदूरों के दोष के निमित्त से था। मैं केवल बिनती ही कर सकता था। उनके विरुद्ध उपवास करना उन पर ज्यादती करने के समान था। फिर भी मैं
जानता था कि मेरे उपवास का प्रभाव उन पर पड़े बिना रहेगा ही नहीं। प्रभाव पड़ा भी। किंतु मैं अपने उपवास को रोक नहीं सकता था। मैंने स्पष्ट देखा कि ऐसा दोषमय
उपवास करना मेरा धर्म है।
मैंने मालिकों को समझाया : 'मेरे उपवास के कारण आपको अपना मार्ग छोड़ने की तनिक भी जरूरत नहीं।' उन्होंने मुझे कड़वे-मीठे ताने भी दिए। उन्हें वैसा करने का
अधिकार था।
सेठ अंबालाल इस हड़ताल के विरुद्ध दृढ़ रहनेवालों में अग्रगण्य थे। उनकी दृढ़ता आश्चर्यजनक थी। उनकी निष्कपटता भी मुझे उतनी ही पसंद आई। उनसे लड़ना मुझे
प्रिय लगा। उनके जैसे अगुवा जिस विरोधी दल में थे, उस पर उपवास का पड़नेवाला अप्रत्यक्ष प्रभाव मुझे अखरा। फिर, उनकी धर्मपत्नी श्री सरलादेवी का मेरे प्रति
सगी बहन जैसा प्रेम था। मेरे उपवास से उन्हें जो घबराहट होती थी, वह मुझसे देखी नहीं जाती थी।
मेरे पहले उपवास में अनसूयाबहन, दूसरे कई मित्र और मजदूर साथी बने। उन्हें अधिक उपवास न करने के लिए मैं मुश्किल से समझा सका। इस प्रकार चारों ओर प्रेममय
वातावरण बन गया। मालिक केवल दयावश होकर समझौते का रास्ता खोजने लगे। अनसूया बहन के यहाँ उनकी चर्चाएँ चलने लगीं। श्री आनंदशंकर ध्रुव भी बीच में पड़े। आखिर वे
पंच नियुक्त हुए और हड़ताल टूटी। मुझे केवल तीन उपवास करने पड़े। मालिकों ने मजदूरों को मिठाई बाँटी। इक्कीसवें दिन समझौता हुआ। समझौते की सभा में मिल-मालिक
और उत्तरी विभाग के कमिशनर मौजूद थे। कमिश्नर ने मजदूरों को सलाह दी थी : 'आपको हमेशा मि. गांधी जैसा कहें वैसा करना चाहिए।' इस घटना के बाद तुरंत ही मुझे
इन्ही कमिश्नर से लड़ना पड़ा था। समय बदला इसलिए वे भी बदल गए और खेड़ा के पाटीदारों को मेरी सलाह न मानने की बात कहने लगे।
यहाँ एक दिलचस्प और करुणाजनक घटना का उल्लेख करना उचित जान पड़ता है। मालिकों की बनवाई हुई मिठाई बहुत ज्यादा थी और सवाल यह खड़ा हो गया था कि वह हजारों
मजदूरों में कैसे बाँटी जाय? जिस पेड़ की छायातले मजदूरों ने प्रतिज्ञा की थी वहीं उसे बाँटना उचित है, वह सोचकर और दूसरी जगह हजारों मजदूरों को इक्ट्ठा करना
कष्टप्रद होगा,यह समझकर पेड़ के आसपास के खुले मैदान में बाँटने का निश्चय हुआ था। अपने भोलेपन के कारण मैंने यह मान लिया था कि इक्कीस दिन तक नियमन में रहे
हुए मजदूर बिना प्रयत्न के कतार में खड़े होकर मिठाई ले लेंगे और अधीर बनकर उस पर टूट न पड़ेंगे। पर मैदान में बाँटने की दो-तीन रीतियाँ आजमाई गईं और वे विफल
हुईं। दो-तीन मिनट काम ढंग से चलता और फिर तुरंत बँधी कतार टूट जाती। मजदूरों के नेताओं ने खूब कोशिश की, पर वह व्यर्थ सिद्ध हुई। अंत में भीड़,कोलाहल और
छीनाझपटी यहाँ तक बढ़ गई कि कुछ मिठाई कुचलकर बरबाद हो गई। मैदान में बाँटना बंद करना पड़ा और बची हुई मिठाई को मुश्किल से बचाकर सेठ अंबालाल के मिर्जापुरवाले
बँगले पर पहुँचाया जा सका। दूसरे दिन यह मिठाई बँगले के मैदान में ही बाँटनी पड़ी।
इस घटना में निहित हास्यरस तो स्पष्ट ही है। परंतु उसके करुण रस का उल्लेख करना जरूरी है। 'एक टेक' वाले पेड़ के पास मिठाई न बँट सकने के कारण का पता लगाने
पर मालूम हुआ कि मिठाई बँटने की खबर पाकर अहमदाबाद के भिखारी वहाँ आ पहुँचे थे और उन्होंने कतार तोड़कर मिठाई झपट लेने की कोशिश की थी।
यह देश भुखमरी से इतना पीड़ित है कि भिखारियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जाती है और वे भोजन पाने के लिए साधारण मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। धनवान लोग ऐसे
भिखारियों के लिए काम की व्यवस्था करने के बदले बिना विचारे भिक्षा देकर उन्हें पोसते हैं।