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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
पाँचवाँ भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 37. अमृतसर की कांग्रेस पीछे     आगे

फौजी कानून के चलते जिन सैकड़ो निर्दोष पंजाबियों को नाम की अदालतों ने नाम के सबूत लेकर छोटी-बड़ी मुद्दतों के लिए जेल में ठूँस दिया था, पंजाब की सरकार उन्हें जेल में रख न सकी। इस घोर अन्याय के विरुद्ध चारों ओर से ऐसी जबरदस्त आवाज उठी कि सरकार के लिए इन कैदियों को अधिक समय तक जेल में रखना संभव न रहा। अतएव कांग्रेस-अधिवेशन के पहले बहुत से कैदी छूट गए। लाला हरकिसनलाल आदि सब नेता रिहा हो गए और कांग्रेस अधिवेशन के दिनों में अलीभाई भी छूट कर आ गए। इससे लोगों के हर्ष की सीमा न रही। पं. मोतीलाल नेहरु, जिन्होंने अपनी वकालत को एक तरफ रखकर पंजाब में ही डेरा डाल दिया था, कांग्रेस के सभापति थे। स्वामी श्रद्धानंदजी स्वागत-समिति के अध्यक्ष थे।

अब तक कांग्रेस में मेरा काम इतना ही रहता था कि हिंदी में अपना छोटा सा भाषण करूँ, हिंदी भाषा की वकालत करूँ, और उपनिवेशो में रहनेवाले हिंदूस्तानियो का मामला पेश करूँ? यह खयाल नहीं था कि अमृतसर में मुझे इसमें अधिक कुछ करना पड़ेगा। लेकिन जैसा कि मेरे संबंध में पहले भी हो चुका है, जिम्मेदारी अचानक मुझ पर आ पड़ी।

नए सुधारों के संबंध में सम्राट की घोषणा प्रकट हो चुकी थी। वह मुझे पूर्ण संतोष देनेवाली नहीं थी। और किसी को तो वह बिलकुल पसंद ही नहीं थी। लेकिन उस समय मैंने यह माना था कि उक्त घोषणा में सूचित सुधार त्रुटिपूर्ण होते हुए भी स्वीकार किए जा सकते है। सम्राट की घोषणा में मुझे लार्ड सिंह का हाथ दिखाई पड़ा था। उस समय की मेरी आँखों ने घोषणा की भाषा में आशा की किरणें देखी थीं। किंतु लोकमान्य, चितरंजन दास आदि अनुभवी योद्धा विरोध में सिर हिला रहे थे। भारत-भूषण मालवीयजी तटस्थ थे।

मेरा डेरा मालवीयजी में अपने ही कमरे में रखा था। उनकी सादगी की झाँकी काशी विश्वविद्यालय के शिलान्यास के समय मैं कर चुका था। लेकिन इस बार तो उन्होंने मुझे अपने कमरे में ही स्थान दिया था। इससे मैं उनकी सारी दिनचर्या देख सका और मुझे सानंद आश्चर्य हुआ। उनका कमरा क्या था, गरीबों की धर्मशाला थी। उसमें कहीं रास्ता नहीं रहने दिया गया था। जहाँ-तहाँ लोग पड़े ही मिलते थे। वहाँ न एकांत था। चाहे जो आदमी चाहे जिस समय आता था और उनका चाहे जितना समय ले लेता था। इस कमरे के एक कोने में मेरा दरबार अर्थात खटिया थी।

किंतु मुझे इस प्रकरण में मालवीयजी की रहन-सहन का वर्णन नहीं करना है। अतएव मैं अपने विषय पर आता हूँ।

इस स्थिति में मालवीयजी के साथ रोज मेरी बातचीत होती थी। वे मुझे सबका पक्ष बड़ा भाई जैसे छोटे को समझाता है वैसे प्रेम से समझाते थे। सुधार-संबंधी प्रस्ताव में भाग लेना मुझे धर्मरूप प्रतीत हुआ। पंजाब विषयक कांग्रेस की रिपोर्ट की जिम्मेदारी में मेरा हिस्सा था। पंजाब के विषय में सरकार से काम लेना था। खिलाफत का प्रश्न तो था ही। मैंने यह भी माना कि मांटेग्यू हिंदुस्तान के साथ विश्वासघात नहीं करने देगे। कैदियों की और उनमें भी अलीभाइयों की रिहाई को मैंने शुभ चिह्न माना था। अतएव मुझे लगा कि सुधारों को स्वीकार करने का प्रस्ताव पास होना चाहिए। चितरंजन दास का दृढ़ मत था कि सुधारों को बिलकुल असंतोषजनक और अधूरे मान कर उनकी उपेक्षा करनी चाहिए। लोकमान्य कुछ तटस्थ थे। किंतु देशबंधु जिस प्रस्ताव को पसंद करे, उसके पक्ष में अपना वजन डालने का उन्होंने निश्चय कर लिया था।

ऐसे पुराने अनुभवी और कसे हुए सर्वमान्य लोकनायकों के साथ अपना मतभेद मुझे स्वयं असह्य मालूम हुआ। दूसरी ओर मेरा अंतर्नाद स्पष्ट था मैंने कांग्रेस की बैठक में से भागने का प्रयत्न किया। पं. मोतीलाल नेहरू और मालवीयजी को मैंने यह सुझाया कि मुझे अनुपस्थित रहने देने से सब काम बन जाएगा और मैं महान नेताओं के साथ मतभेद प्रकट करने के संकट से बच जाऊँगा।

यह सुझाव इन दोनों बुजुर्गों के गले न उतरा। जब बात लाला हरकिसनलाल के कान तक पहुँची तो उन्होंने कहा, 'यह हरगिज न होगा। इससे पंजाबियों को भारी आधात पहुँचेगा।'

मैंने लोकमान्य और देशबंधु के साथ विचार-विमर्श किया। मि. जिन्ना से मिला। किसी तरह कोई रास्ता निकलता न था। मैंने अपनी वेदना मालवीयजी के सामने रखी, 'समझौते के कोई लक्षण मुझे दिखाई नहीं देते। यदि मुझे अपना प्रस्ताव रखाना ही पड़ा, तो अंत में मत तो लिए ही जाएँगे। पर यहाँ मत ले सकने की कोई व्यवस्था मैं नहीं देख रहा हूँ। आज तक हमने भरी सभा में हाथ उठवाये है। हाथ उठाते समय दर्शकों और प्रतिनिधियों के बीच कोई भेद नहीं रहता। ऐसी विशाल सभा में मत गिनने की कोई व्यवस्था हमारे पास नहीं होती। अतएव मुझे अपने प्रस्ताव पर मत लिवाने हो, तो भी इसकी सुविधा नहीं है।'

लाला हरकिसनलाल ने यह सुविधा संतोषजनक रीति से कर देने का जिम्मा लिया। उन्होंने कहा, 'मत लेने के दिन दर्शकों को नहीं आने देंगे। केवल प्रतिनिधि ही आएगे और वहाँ मतो की गिनती करा देना मेरा काम होगा। पर आप कांग्रेस की बैठक से अनुपस्थित तो रह ही नहीं सकते।'

आखिर मैं हारा।

मैंने अपना प्रस्ताव तैयार किया। बड़े संकोच से मैंने उसे पेश करना कबूल किया। मि. जिन्ना और मालवीयजी उसका समर्थन करनेवाले थे। भाषण हुए। मैं देख रहा था कि यद्यपि हमारे मतभेद में कही कटुता नहीं थी, भाषणों में भी दलीलों के सिवा और कुछ नहीं था, फिर भी सभा जरा-सा भी मतभेद सहन नहीं कर सकती थी और नेताओं के मतभेद से उसे दु:ख हो रहा था। सभा को तो एकमत चाहिए था।

जब भाषण हो रहे थे उस समय भी मंच पर मतभेद मिटाने की कोशिशे चल रही थीं। एक-दूसरे बीच चिट्ठियाँ आ-जा रही थीं। मालवीयजी, जैसे भी बने, समझौता कराने का प्रयत्न कर रहे थे। इतने में जयरामदास ने मेरे हाथ पर अपना सुझाव रखा और सदस्यों को मत देने के संकट से उबार लेने के लिए बहुत मीठे शब्दों में मुझ से प्रार्थना की। मुझे उनका सुझाव पसंद आया। मालवीयजी की दृष्टि तो चारों ओर आशा की खोज में घूम ही रही थी। मैंने कहा, 'यह सुझाव दोनों पक्षों को पसंद आने लायक मालूम होता है।' मैंने उसे लोकमान्य को दिखाया। उन्होंने कहा, 'दास को पसंद आ जाए, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।' देशबंधु पिघले। उन्होंने विपिनचंद्र पाल की ओर देखा। मालवीयजी को पूरी आशा बँध गई। उन्होंने परची हाथ से छीन ली। अभी देशबंधु के मुँह से 'हाँ' का शब्द पूरा निकल भी नहीं पाया था कि वे बोल उठे, 'सज्जनों, आपको यह जानकर खुशी होगी कि समझौता हो गया है।' फिर क्या था? तालियों का गड़गड़ाहट से मंड़प गूँज उठा और लोगों के चहेरों पर जो गंभीरता थी, उसके बदले खुशी चमक उठी।

यह प्रस्ताव क्या था, इसकी चर्चा की यहाँ आवश्यकता नहीं। यह प्रस्ताव किस तरह स्वीकृत हुआ, इतना ही इस संबंध में बतलाना मेरे इन प्रयोगों का विषय है। समझौते ने मेरी जिम्मेदारी बढा दी।


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