मुझे कांग्रेस के कामकाज में हिस्सा लेना पड़ा, इसे मैं कांग्रेस में अपना प्रवेश नहीं मानता। इससे पहले की कांग्रेस की बैठकों में मैं गया सो सिर्फ अपनी
वफादारी की निशानी के रूप में। छोटे-से-छोटे सिपाही के काम के सिवा मेरा वहाँ दूसरा कोई कार्य हो सकता है, ऐसा पहले की बैठकों के समय मुझे कभी आभास नहीं हुआ था,
न इससे अधिक कुछ करने की मुझे इच्छा हुई थी।
अमृतसर के अनुभव ने बतलाया कि मेरी एक-दो शक्तियाँ कांग्रेस के लिए उपयोगी है। मैं यह देख सका था कि पंजाब की जाँच-कमेटी के मेरे काम से लोकमान्य, मालवीयजी,
मोतीलाल, देशबंधु आदि खुश हुए थे। इसलिए उन्होंने मुझे अपनी बैठकों और चर्चाओं में बुलाया। इतना तो मैंने देख लिया था कि विषय-विचारिणी समिति का सच्चा काम इन्ही
बैठकों में होता था और ऐसी चर्चाओं में वे लोग सम्मिलित होते थे, जिनपर नेता विशेष विश्वास या आधार रखते थे और दूसरे वे लोग होते थे, जो किसी-न-किसी बहाने से
घुस जाते थे।
अगले साल करने योग्य कामों में से दो कामों में मुझे दिलचस्पी थी, क्योंकि उनमें मैं कुछ दखल रखता था। एक था जलियाँवाला बाग के हत्याकांड का स्मारक। इसके बारे
में कांग्रेस ने बड़ी शान के साथ प्रस्ताव पास किया था। स्मारक के लिए करीब पाँच लाख रुपए की रकम इकट्ठी करनी थी। उसके संरक्षकों (ट्रस्टियों) में मेरी नाम था।
देश में जनता के काम के लिए भिक्षा माँगने की जबरदस्त शक्ति रखनेवालों में पहला पद मालवीयजी का था और है। मैं जानता था कि मेरा दर्जा उनसे बहुत दूर नहीं रहेगा।
अपनी यह शक्ति मैंने दक्षिण अफ्रीका में देख ली थी। राजा-महाराजाओं पर अपना जादू चलाकर उनसे लाखों रुपए प्राप्त करने की शक्ति मुझमें नहीं थी, आज भी नहीं है। इस
विषय में मालवीयजी के साथ प्रतिस्पर्धा करनेवाला मुझे कोई मिला ही नहीं। मैं जानता था कि जलियाँवाला बाग के काम के लिए उन लोगों से पैसा नहीं माँगा जा सकता।
अतएव रक्षक का पद स्वीकार करते समय ही मैं यह समझ गया था कि इस स्मारक के लिए धन-संग्रह का बोझ मुझे पर पड़ेगा और यही हुआ भी। बंबई के उदार नागरिको में इस
स्मारक के लिए दिल खोलकर धन दिया और आज जनता के पास उसके लिए जितना चाहिए उतना पैसा है। किंतु हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के मिश्रित रक्त से पावन बनी हुई इस
भूमि पर किस तरह का स्मारक बनाया जाए, अर्थात पड़े हुए पैसों का क्या उपयोग किया जाए, यह एक विकट सवाल हो गया है, क्योंकि तीनों के बीच आज दोस्ती के बदले
दुश्मनी का भास हो रहा है।
मेरी दूसरी शक्ति लेखक और मुंशी का काम करने की थी, जिसका उपयोग कांग्रेस कर सकती थी। नेतागण यह समझ चुके थे कि लंबे समय के अभ्यास के कारण कहाँ, क्या और कितने
कम शब्दों में व अविनय-रहित भाषा में लिखना चाहिए सो मैं जानता हूँ। उस समय कांग्रेस का जो विधान था, वह गोखले की छोड़ी हुई पूँजी थी। उन्होंने कुछ नियम बना दिए
थे। उनके सहारे कांग्रेस का काम चलता था। वे नियम कैसे बनाए गए, इसका मधुर इतिहास मैंने उन्हीं के मुँह से सुना था। पर अब सब कोई यह अनुभव कर रहे थे कि कांग्रेस
का काम उतने नियमों से नहीं चल सकता। उसका विधान बनाने की चर्चाएँ हर साल उठती थी। पर कांग्रेस के पास ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं थी जिससे पूरे वर्षभर उसका काम
चलता रहे, अथवा भविष्य की बात कोई सोचे। उनके तीन मंत्री होते थे, पर वास्तव में कार्यवाहक मंत्री तो एक ही रहता था। वह भी चौबीसों घंटे दे सकनेवाला नहीं होता
था। एक मंत्री कार्यालय चलाए या भविष्य का विचार करे अथवा भूतकाल में उठाई हुई कांग्रेस की जिम्मेदारियों को वर्तमान वर्ष में पूरा करे? इसलिए इस वर्ष यह प्रश्न
सबकी दृष्टि में अधिक महत्वपूर्ण बन गया। कांग्रेस में हजारों की भीड़ होती थी। उसमें राष्ट्र का काम कैसे हो सकता था? प्रतिनिधियों की संख्या की कोई सीमा न थी।
किसी भी प्रांत से चाहे जितने प्रतिनिधि हो सकता था। अतएव कुछ व्यवस्था करने की आवश्यकता सबको प्रतीत हुई। विधान तैयार करने का भार उठाने की जिम्मेदारी मैंने
अपने सिर ली। मेरी एक शर्त थी। जनता पर दो नेताओं का प्रभुत्व मैं देख रहा था। इससे मैंने चाहा कि उनके प्रतिनिधि मेरे साथ रहे।
मैं समझता था कि वे स्वयं शांति से बैठकर विधान बनाने का काम नहीं कर सकते। इसलिए लोकमान्य और देशबंधु से उनके विश्वास के दो नाम मैंने माँगे। मैंने यह सुझाव
रखा कि इनके सिवा विधान-समिति में और कोई न होना चाहिए। यह सुझाव मान लिया गया। लोकमान्य ने श्री केलकर का और देशबंधु ने श्री आई. बी. सेन का नाम दिया। यह
विधान-समिति एक दिन भी कहीं मिलकर नहीं बैठी। फिर भी हमने अपना काम एकमत से पूरा किया। पत्र-व्यवहार द्वारा अपना काम चला लिया। इस विधान के लिए मुझे थोड़ा
अभिमान है। मैं मानता हूँ कि इसका अनुकरण करके काम किया जाए, तो हमारा बेड़ा पार हो सकता है। यह तो जब होगा, परंतु मेरी यह मान्यता है कि इस जिम्मेदारी को लेकर
मैंने कांग्रेस में सच्चा प्रवेश किया।