राजकोट से मैं शांतिनिकेतन गया। वहाँ शांतिनिकेतन के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने मुझ पर अपना प्रेम बरसाया। स्वागत की विधि में सादगी, कला और प्रेम का सुंदर
मिश्रण था। वहाँ मैं काकासाहब कालेलकर से पहले-पहल मिला।
कालेलकर 'काकासाहब' क्यों कहलाते थे, यह मैं उस समय नहीं जानता था। लेकिन बाद में मालूम हुआ कि केशव राव देशपांडे, जो विलायत में मेरे समकालीन थे और जिनके साथ
विलायत में मेरा अच्छा परिचय हो गया था, बड़ौदा राज्य में 'गंगानाथ विद्यालय' चला रहे है। उनकी अनेक भावनाओं में से एक यह भी थी कि विद्यालय में पारिवारिक भावना
होनी चाहिए। इस विचार से वहाँ सब अध्यापको के नाम रखे गए थे। उनमें कालेलकर को 'काका' नाम मिला। फड़के 'मामा' बने। हरिहर शर्मा 'अण्णा' कहलाए। दूसरों के भी
यथायोग्य नाम रखे गए। काका के साथी के रूप में आनन्दानंद (स्वामी) और मामा के मित्र के नाते पटवर्धन (अप्पा) आगे चलकर इस कुटुंब में सम्मिलित हुए। इस कुटुंब के
उपर्युक्त पाँचो सदस्य एक के बाद एक मेरे साथी बने। देशपांडे 'साहब' के नाम से पुकारे जाने लगे। साहब का विद्यालय बंद होने पर यह कुटुंब बिखर गया। पर इन लोगों
में अपना आध्यात्मिक संबंध न छोड़ा। काकासाहब भिन्न-भिन्न अनुभव प्राप्त करने में लग गए। इसी सिलसिले में वे इस समय शांतिनिकेतन में रहते थे। इस मंडल के एक और
सदस्य चिंतामण शास्त्री भी वहाँ रहते थे। ये दोनों संस्कृत सिखाने में हिस्सा लेते थे।
शांतिनिकेतन में मेरे मंडल को अलग से ठहराया गया था। यहाँ मगनलाल गांधी उस मंडल को सँभाल रहे थे और फीनिक्स आश्रम के सब नियमों का पालन सूक्ष्मता से करते-कराते
थे। मैंने देखा कि उन्होंने अपने प्रेम, ज्ञान और उद्योग के कारण शांतिनिकेतन में अपनी सुगंध फैला दी थी। एंड्रूज तो यहाँ थे ही। पियर्सन थे। जगदानंदबाबू,
नेपालबाबू, संतोषबाबू, क्षितिमोहनबाबू, नगेनबाबू, शरदबाबू और कालीबाबू के साथ हमारा खासा संपर्क रहा। अपने स्वभाव के अनुसार मैं विद्यार्थियों और शिक्षकों में
घुलमिल गया, और स्वपरिश्रम के विषय में चर्चा करने लगा। मैंने वहाँ के शिक्षकों के सामने यह बात रखी कि वैतनिक रसोईयों के बदले शिक्षक और विद्यार्थी अपनी रसोई
स्वयं बना ले तो अच्छा हो। ऐसा करने से आरोग्य और नीति की दृष्टि से रसोईघर पर शिक्षक समाज का प्रभुत्व स्थापित होगा और विद्यार्थी स्वावलंबन तथा स्वयंपाक का
पदार्थ-पाठ सीखेंगे। एक दो शिक्षकों में सिर हिलाकर असहमति प्रकट की। कुछ लोगों को यह प्रयोग बहुत अच्छा लगा। नई चीज, फिर वह कैसी भी क्यों न हो, बालकों को तो
अच्छी लगती ही है। इस न्याय से यह चीज भी उन्हें अच्छी लगी और प्रयोग शुरू हुआ। जब कविश्री के सामने यह चीज रखी गई तो उन्होंने सहमति दी कि यदि शिक्षक अनुकूल
हो, तो स्वयं उन्हें यह प्रयोग अवश्य पसंद होगा। उन्होंने विद्यार्थियों से कहा, 'इसमें स्वराज्य की चाबी मौजूद है।'
पियर्सन ने प्रयोग को सफल बनाने में अपने आप को खपा लिया। उन्हें यह बहुत अच्छा लगा। एक मंडली साग काटने वालों की बनी, दूसरी अनाज साफ करने वालों की। रसोईघर के
आसपास शास्त्रीय ढंग से सफाई रखने के काम में नगेनबाबू आदि जुट गए। उन लोगों को कुदाली से काम करते देखकर मेरा हृदय नाच उठा।
लेकिन मेहनत के इस काम को सवा सौ विद्यार्थी और शिक्षक भी एकाएक नहीं अपना सकते थे। अतएव रोज चर्चाएँ चलती थी। कुछ लोग छक जाते थे। परंतु पियर्सन क्यों छकने
लगे? वे हँसते चेहरे से रसोईघर के किसी न किसी काम में जुटे रहते थे। बड़े बड़े बरतन माँजना उन्हीं का काम था। बरतन माँजनेवाली टुकडी की थकान उतारने के लिए कुछ
विद्यार्थी वहाँ सितार बजाते थे। विद्यार्थियों ने प्रत्येक काम को पर्याप्त उत्साह से अपना लिया और समूचा शांतिनिकेतन मधुमक्खियों के छ्ते की भाँति गूँजने लगा।
इस प्रकार फेरफार जब एक बार शुरू हो जाते है, तो फिर वे रुक नहीं पाते। फीनिक्स का रसोईघर स्वावलंबी बन गया था, यहीं नहीं बल्कि उसमें रसोई भी बहुत सादी बनती
थी। मसालों का त्याग किया गया था। अतएव भात, दाल, साग तथा गेहूँ के पदार्थ भी भाप के द्वारा पका लिए जाते थे। बंगाली खुराक में सुधार करने के विचार से उस प्रकार
का एक रसोईघर शुरू किया था। उसमें एक-दो अध्यापक और कुछ विद्यार्थी सम्मिलित हुए थे। ऐसे ही प्रयोगों में से सर्वसाधारण रसोईघर को स्वावलंबी बनाने का प्रयोग
शुरू किया जा सका था।
पर आखिर कुछ कारणों से यह प्रयोग बंद हो गया। मेरा विश्वास है कि इस जगद्-विख्यात संस्था ने थोड़े समय के लिए भी इस प्रयोग को अपनाकर कुछ खोया नहीं और उससे
प्राप्त अनेक अनुभव उसके लिए उपयोगी सिद्ध हुए थे।
मेरा विचार शांतिनिकेतन में कुछ समय रहने का था। किंतु विधाता मुझे जबरदस्ती घसीटकर ले गया। मैं मुश्किल से वहाँ एक हफ्ता रहा होऊँगा कि इतने में पूना से गोखले
के अवसान का तार मिला। शांतिनिकेतन शोक में डूब गया। सब मेरे पास समवेदना प्रकट करने आए। मंदिर में विशेष सभा की गई। यह गंभीर दृश्य अपूर्व था। मैं उसी दिन पूना
के लिए रवाना हुआ। पत्नी और मगनलाल गांधी को मैंने अपने साथ लिया, बाकी सब शांतिनिकेतन में रहे।
बर्दवान तक एंड्रूज मेरे साथ आए थे। उन्होंने मुझ से पूछा, 'क्या आप को ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान में आपके लिए सत्याग्रह करने का अवसर है? और अगर ऐसा लगता हो
तो कब आएगा, इसकी कोई कल्पना आपको है?'
मैंने जवाब दिया, 'इसका उत्तर देना कठिन है। अभी एक वर्ष तक तो मुझे कुछ करना ही नहीं है। गोखले ने मुझ से प्रतिज्ञा करवाई है कि मुझे एक वर्ष तक देश में भ्रमण
करना है, किसी सार्वजनिक प्रश्न पर अपना विचार न तो बनाना है, न प्रकट करना है। मैं इस प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन करूँगा। बाद में भी मुझे किसी प्रश्न पर कुछ
करने की जरूरत होगी तभी मैं कहूँगा। इसलिए मैं नहीं समझता कि पाँच वर्ष तक सत्याग्रह करने का कोई अवसर आएगा।'
यहाँ यह कहना अप्रस्तुत न होगा कि 'हिंद स्वराज्य' में मैंने जो विचार व्यक्त किए है, गोखले उनका मजाक उड़ाते थे और कहते थे, 'आप एक वर्ष हिंदुस्तान में रहकर
देखेंगे, तो आपके विचार अपने आप ठिकाने आ जाएँगे।'