कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में स्वीकृत असहयोग के प्रस्ताव को नागपुर में होनेवाले वार्षिक अधिवेशन में बहाल रखना था। कलकत्ते की तरह नागपुर में भी असंख्य लोग इक्टठा हुए थे। अभी तक प्रतिनिधियों की संख्या निश्चित नहीं हुई थी। अतएव जहाँ तक मुझे याद है, इस अधिवेशन में चौदह हजार प्रतिनिधि हाजिर हुए थे। लालाजी के आग्रह से विद्यालयो संबंधी प्रस्ताव में मैंने एक छोटा-सा परिवर्तन स्वीकार कर लिया था। देशबंधु ने भी कुछ परिवर्तन कराया था और अंत में शांतिमय असहयोग का प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पास हुआ था।
इसी बैठक में महासभा के विधान का प्रस्ताव भी पास करना था। यह विधान मैंने कलकत्ते की विशेष बैठक में पेश तो किया ही था। इसलिए वह प्रकाशित हो गया था और उस पर चर्चा भी हो चुकी थी। श्री विजयाराघवाचार्य इस बैठक के सभापति थे। विधान में विषय-विचारिणी समिति ने एक ही महत्व का परिवर्तन किया था। मैंने प्रतिनिधियों की संख्या पंद्रह सौ मानी थी। विषय-विचारणी समिति ने इसे बदलकर छह हजार कर दिया। मैं मानता था कि यह कदम बिना सोचे-विचारे उठाया गया है। इतने वर्षों के अनुभव के बाद भी मेरा यही खयाल है। मैं इस कल्पना को बिलकुल गलत मानता हूँ कि बहुत से प्रतिनिधियों से काम अधिक अच्छा होता है अथवा जनतंत्र की अधिक रक्षा होती है। ये पंद्रह सौ प्रतिनिधि उदार मनवाले, जनता के अधिकारों की रक्षा करनेवाले और प्रामाणिक हो, तो छह हजार निरंकुश प्रतिनिधियों की अपेक्षा जनतंत्र की अधिक रक्षा करेंगे। जनतंत्र की रक्षा के लिए जनता में स्वतंत्रता की, स्वाभिमान की और एकता की भावना होनी चाहिए और अच्छे तथा सच्चे प्रतिनिधियों को ही चुनने का आग्रह रहना चाहिए। किंतु संख्या के मोह में पड़ी हुई विषय-विचारिणी समिति छह हजार से भी अधिक प्रतिनिधि चाहती थी। इसलिए छह हजार पर मुश्किल से समझौता हुआ।
कांग्रेस में स्वराज्य के ध्येय पर चर्चा हुई थी। विधान की धारा में साम्राज्य के भीतर अथवा उसके बाहर, जैसा मिले वैसा, स्वराज्य प्राप्त करने की बात थी। कांग्रेस में भी एक पक्ष ऐसा था, जो साम्राज्य के अंदर रहकर ही स्वराज्य प्राप्त करना चाहता था। उस पक्ष का समर्थन पं. मालवीयजी और मि. जिन्ना ने किया था। पर उन्हें अधिक मत न मिल सके। विधान की यह एक धारा यह थी कि शांतिपूर्ण और सत्यरूप साधनों द्वारा ही हमें स्वराज्य प्राप्त करना चाहिए। इस शर्त का भी विरोध किया गया था। पर कांग्रेस ने उसे अस्वीकार किया और सारा विधान कांग्रेस में सुंदर चर्चा होने के बाद स्वीकृत हुआ। मेरा मत है कि यदि लोगों ने इस विधान पर प्रामाणिकतापूर्वक और उत्साहपूर्वक अमल किया होता, तो उससे जनता को बड़ी शिक्षा मिलती। उसके अमल में स्वराज्य की सिद्धि समायी हुई थी। पर यह विषय यहाँ प्रस्तुत नहीं है।
इसी सभा में हिंदू-मुस्लिम एकता के बारे में, अस्पृश्यता-निवारण के बारे में और खादी के बारे में भी प्रस्ताव पास हुए। उस समय से कांग्रेस के हिंदू सदस्यों ने अस्पृश्यता को मिटाने का भार अपने ऊपर लिया है और खादी के द्वारा कांग्रेस ने अपना संबंध हिंदुस्तान के नर-कंकालो के साथ जोड़ा है। कांग्रेस ने खिलाफत के सवाल के सिलसिले में असहयोग का निश्चय करके हिंदु-मुस्लिम एकता सिद्ध करने का एक महान प्रयाय किया था।