अब इन प्रकरणों को समाप्त करने का समय आ पहुँचा है।
इससे आगे का मेरा जीवन इतना अधिक सार्वजनिक हो गया है कि शायद ही कोई ऐसी चीज हो, जिसे जनता जानती न हो। फिर सन 1921 से मैं कांग्रेस के नेताओं के साथ इतना अधिक
ओतप्रोत रहा हूँ कि किसी प्रसंग का वर्णन नेताओं के संबंध की चर्चा किए बिना मैं यथार्थ रूप में कर ही नहीं सकता। ये संबंध अभी ताजे हैं। श्रद्धानंदजी, देशबंधु,
लालाजी और हकीम साहब आज हमारे बीच नहीं है। पर सौभाग्य से दूसरे कई नेता अभी मौजूद हैं। कांग्रेस के महान परिवर्तन के बाद का इतिहास अभी तैयार हो रहा है। मेरे
मुख्य प्रयोग कांग्रेस के माध्यम से हुए है। अतएव उन प्रयोगों के वर्णन में नेताओं के संबंधों की चर्चा अनिवार्य है। शिष्टता के विचार से भी फिलहाल तो मैं ऐसा
कर ही नहीं सकता। अंतिम बात यह है कि इस समय चल रहे प्रयोगों के बारे में मेरे निर्णय निश्चयात्मक नहीं माने जा सकते। अतएव इन प्रकरणों को तत्काल तो बंद कर देना
ही मुझे अपना कर्तव्य मालूम होता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके आगे मेरी कलम ही चलने से इनकार करती है।
पाठकों से बिदा लेते हुए मुझे दु:ख होता है। मेरे निकट अपने इन प्रयोगों की बड़ी कीमत है। मैं नहीं जानता कि मैं उनका यथार्थ वर्णन कर सका हूँ या नहीं। यथार्थ
वर्णन करने में मैंने कोई कसर नहीं रखी है। सत्य को मैंने जिस रूप में देखा है, जिस मार्ग से देखा है, उसे उसी तरह प्रकट करने का मैंने सतत प्रयत्न किया है और
पाठकों के लिए उसका वर्णन करके चित्त में शांति का अनुभव किया है। क्योंकि मैंने आशा यह रखी है कि इससे पाठकों में सत्य और अहिंसा के प्रति अधिक आस्था उत्पन्न
होगी।
सत्य से भिन्न कोई परमेंश्वर है, ऐसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया। यदि इन प्रकरणों के पन्ने-पन्ने से यह प्रतीति न हुई हो कि सत्यमय बनने का एकमात्र मार्ग अहिंसा
ही है तो मैं इस प्रयत्न को व्यर्थ समझता हूँ। मेरी अहिंसा सच्ची होने पर भी कच्ची है, अपूर्ण है। अतएव हजारों सूर्यों को इकट्ठा करने से भी जिस सत्यरूपी सूर्य
के तेज का पूरा माप नहीं निकल सकता, सत्य की मेरी झाँकी ऐसे सूर्य की केवल एक किरण के दर्शन के समान ही है। आज तक के अपने प्रयोगों के अंत में मैं इतना तो अवश्य
कह सकता हूँ कि सत्य का संपूर्ण दर्शन संपूर्ण अहिंसा के बिना असंभव है।
ऐसे व्यापक सत्य-नारायण के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए जीवनमात्र के प्रति आत्मवत् प्रेम की परम आवश्यकता है। और, जो मनुष्य ऐसा करना चाहता है, वह जीवन के किसी भी
क्षेत्र से बाहर नहीं रह सकता। यही कारण है कि सत्य की मेरी पूजा मुझे राजनीति में खींच लाई है। जो मनुष्य यह कहता है कि धर्म का राजनीति के साथ कोई संबंध नहीं
है वह धर्म को नहीं जानता, ऐसा कहने में मुझे संकोच नहीं होता और न ऐसा कहने में मैं अविनय करता हूँ।
बिना आत्मशुद्धि के जीवन मात्र के साथ ऐक्य सध ही नहीं सकता। आत्मशुद्धि के बिना अहिंसा-धर्म का पालन सर्वधा असंभव है। अशुद्ध आत्मा परमात्मा के दर्शन करने में
असमर्थ है। अतएव जीवन-मार्ग के सभी क्षेत्रो में शुद्धि की आवश्यकता है। यह शुद्धि साध्य है, क्योंकि व्यष्टि और समष्टि के बीच ऐसा निकट संबंध है कि एक की
शुद्धि अनेकों की शुद्धि के बराबर हो जाती है। और व्यक्तिगत प्रयत्न करने की शक्ति तो सत्य-नारायण ने सबको जन्म से ही दी है।
लेकिन मैं प्रतिक्षण यह अनुभव करता हूँ कि शुद्धि का मार्ग विकट है। शुद्ध बनने का अर्थ है मन से, वचन से और काया से निर्विकार बनना, राग-द्वेषादि से रहित होना।
इस निर्विकारता तक पहुँचने का प्रतिक्षण प्रयत्न करते हुए भी मैं पहुँच नहीं पाया हूँ, इसलिए लोगों की स्तुति मुझे भुलावे में नहीं डाल सकती। उलटे, यह स्तुति
प्रायः तीव्र वेदना पहुँचाती है। मन के विकारों को जीतना संसार को शस्त्र से जीतने की अपेक्षा मुझे अधिक कठिन मालूम होता है। हिंदुस्तान आने के बाद भी अपने भीतर
छिपे हुए विकारों को देख सका हूँ, शरमिंदा हुआ हूँ किंतु हारा नहीं हूँ। सत्य का प्रयोग करते हुए मैंने आनंद लूटा है, और आज सभी लूट रहा हूँ। लेकिन मैं जानता
हूँ कि अभी मुझे विकट मार्ग तय करना है। इसके लिए मुझे शून्यवत् बनना है। मनुष्य जब तक स्वेच्छा से अपने को सबसे नीचे नहीं रखता, तब तक उसे मुक्ति नहीं मिलती।
अहिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है और यह अनुभव-सिद्ध बात है कि इस नम्रता के बिना मुक्ति कभी नहीं मिलती। ऐसी नम्रता के लिए प्रार्थना करते हुए और उसके लिए संसार
की सहायता की याचना करते हुए इस समय तो मैं इन प्रकरणों को बंद करता हूँ।