मुझे डॉ. प्राणजीवनदास मेहता से मिलने रंगून जाना था। वहाँ जाते हुए श्री भूपेंद्रनाथ बसु का निमंत्रण पाकर मैं कलकत्ते में उनके घर ठहरा था। यहाँ बंगाली
शिष्टाचार की पारकाष्ठा हो गई थी। उन दिनो मैं फलाहार ही करता था। मेरे साथ मेरा लड़का रामदास था। कलकत्ते में जितने प्रकार का सूखा और हरा मेवा मिला, उतना सब
इकट्ठा किया गया था। स्त्रियों ने रात भर जागकर पिस्तों वगैरा को भिगोकर उनके छिलके उतारे थे। ताजे फल भी जितनी सुधड़ता से सजाए जा सकते थे, सजाए गए थे। मेरे
साथियों के लिए अनेक प्रकार के पकवान तैयार किए गए थे। मै इस प्रेम और शिष्टाचार को तो समझा, लेकिन एक दो मेहमानो के लिए समूचे परिवार का सारे दिन व्यस्त रहना
मुझे असह्य प्रतीत हुआ। परंतु इस मुसीबत से बचने का मेरे पास कोई इलाज न था।
रंगून जाते समय स्टीमर में मैं डेक का यात्री था। यदि श्री बसु के यहाँ प्रेम की मुसीबत थी, तो स्टीमर मे अप्रेम की मुसीबत थी। डेक के यात्री के कष्टों का मैंने
बुरी तरह अनुभव किया। नहाने की जगह तो इतनी गंदी थी कि वहाँ खड़ा रहना भी कठिन था। पाखाने नरक के कुंड बने हुए थे। मल-मूत्रादि से चलकर या उन्हें लाँधकर पाखाने
मे जाना होता था! मेरे लिए ये असुविधाएँ भयंकर थी। मै जहाज के अधिकारियों के पास पहुँचा, पर सुनता कौन है? यात्रियों ने अपनी गंदगी से डेक को गंदा कर डाला था।
वे जहाँ बैठे होते वहीं थूक देते, वहीं सुरती के पीक की पिचकारियाँ चलाते और वहीं खाने पीने के बाद बचा हुआ कचरा डालते थे। बातचीत से होने वाले कोलाहल की कोई
सीमा न थी। सब कोई अपने लिए अधिक से अधिक जगह घेरने की कोशिश करते थे। कोई किसी की सुविधा का विचार न करता था, सामान उससे अधिक जगह घेर लेता था। ये दो दिन बड़ी
घबराहट मे बीते।
रंगून पहुँचने पर मैंने एजेंट को सारा हाल लिख भेजा। लौटते समय भी मैं डेक पर ही आया। पर इस पत्र और डॉ. मेहता के प्रबंध के फलस्वरुप अपेक्षाकृत अधिक सुविधा से
आया।
मेरे फलाहार की झंझट तो यहाँ भी अपेक्षाकृत अधिक ही रहती थी। डॉं. मेहता के साथ ऐसा संबंध था कि उनके घर को मैं अपनी ही घर समझ सकता था। इससे मैंने पदार्थों पर
तो अंकुश रख लिया था, लेकिन उनकी कोई मर्यादा निश्चित नहीं की थी। इस कारण तरह-तरह का जो मेवा आता, उसका मैं विरोध न करता था। नाना प्रकार की वस्तुएँ आँखो और
जीभ को रुचिकर लगती थी। खाने का कोई निश्चित समय नहीं था। मै स्वयं जल्दी खा लेना पसंद करता था, इसलिए बहुत देर तो नहीं होती थी। फिर भी रात के आठ नौ तो सहज ही
बज जाते थे ।
सन् 1915 मे हरद्बार में कुंभ का मेला था। उसमें जाने की मेरी कोई खास इच्छा नहीं थी। लेकिन मुझे महात्मा मुंशीराम के दर्शनों के लिए जरूर जाना था। कुंभ के अवसर
पर गोखले के भारत-सेवक समाज ने एक बड़ी टुकड़ी भेजी थी। उसका प्रबंध श्री हृदयनाथ कुंजरू के जिम्मे था। स्व. डॉ. देव भी उसमे थे। उनका यह प्रस्ताव था कि इस काम
में मदद करने के लिए मैं अपनी टुकड़ी भी ले जाऊँ। शांतिनिकेतन वाली टुकड़ी को लेकर मगनलाल गाँधी मुझ से पहले हरद्वार पहुँच गए थे। रंगून से लौटकर मैं भी उनसे जा
मिला।
कलकत्ते से हरद्वार पहुँचने मे खूब परेशानी उठानी पड़ी। गाड़ी के डिब्बों मे कभी कभी रोशनी तक नहीं होती थी। सहारनपुर से तो यात्रियों को माल के या जानवरों के
डिब्बों में ठूँस दिया गया था। खुले, बिना छतवाले डिब्बों पर दोपहर का सूरज तरता था। नीचे निरे लोहे को फर्श था। फिर घबराहट का क्या पूछना ? इतने पर भी
श्रद्धालु हिंदू अत्यंत प्यासे होने पर भी 'मुसलमान पानी' के आने पर उसे कभी न पीते थे। 'हिंदू पानी' की आवाज आती तभी वे पानी पीते। इन्हीं श्रद्धालु हिंदुओं को
डॉक्टर दवा मे शराब दे, माँस का सत दे अथवा मुसलमान या ईसाई कम्पाउंडर पानी दे, तो उसे लेने मे इन्हें कोई संकोच नहीं होता और न पूछताछ करने की जरूरत होती है।
हमने शांतिनिकेतन में ही देख लिया था कि भंगी का काम करना हिंदुस्तान में हमारा खास धंधा ही बन जाएगा। स्वयंसेवको के लिए किसी धर्मशाला मे तंबू लगाए गए थे।
पाखानों के लिए डॉ. देव ने गड्ढे़ खुदवाए थे। पर उन गड्ढो़ं की सफाई का प्रबंध तो ऐसे अवसर पर जो थोडे़ से वैतनिक भंगी मिल सकते थे उन्ही के द्वारा वे करा सकते
थे न ? इन गड्ढ़ों मे जमा होने वाले पाखाने को समय समय पर ढँकने और दूसरी तरह से उन्हें साफ रखने का काम फीनिक्स की टुकड़ी के जिम्मे कर देने की मेरी माँग को
डॉ. देव ने खुशी खुशी स्वीकार कर लिया। इस सेवा की माँग तो मैंने की, लेकिन इसे करने का बोझ मगनलाल गाँधी ने उठाया। मेरा धंधा अधिकतर डेरे के अंदर बैठकर लोगों
को 'दर्शन' देने का और आनेवाले अनेक यात्रियों के साथ धर्म की या ऐसी ही दूसरी चर्चाएँ करने का बन गया। मैं दर्शन देते देते अकुला उठा। मुझे उससे एक मिनट की
फुरसत न मिलती थी। नहाने जाते समय भी दर्शनाभिलाषी मुझे अकेला न छोड़ते थे। फलाहार के समय तो एकांत होता ही कैसे? अपने तंबू के किसी भी हिस्से मे मै एक क्षण के
लिए भी अकेला बैठ नहीं पाया। दक्षिण अफ्रीका में जो थोडी़ बहुत सेवा मुझसे बन पड़ी थी, उसका कितना गहरा प्रभाव सारे भारतखंड पर पड़ा है, इसका अनुभव मैंने
हरद्वार में किया ।
मैं तो चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। जहाँ प्रकट न होता वहाँ तीसरे दर्जे के यात्री के नाते कष्ट उठाता और जहाँ ठहरता वहाँ दर्शनार्थियों के प्रेम से अकुला
उठता। मेरे लिए यह कहना प्रायः कठिन है कि दो में से कौन सी स्थिति अधिक दयाजनक है। दर्शनार्थियों के प्रेम प्रदर्शन से मुझे बहुत बार गुस्सा आया है, और मन में
तो उससे भी अधिक बार मैं दुःखी हुआ हूँ, इतना मै जानता हूँ। तीसरे दर्जे की कठिनाइयों से मुझे असुविधा हुई है, पर क्रोध शायद ही कभी आया है, और उससे मेरी उन्नति
ही हुई है।
उन दिनों मुझ में घूमने फिरने की काफी शक्ति थी। इससे मैं काफी भ्रमण कर सका था। उस समय मैं इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ था कि रास्तों पर चलना भी मुश्किल से संभव
हो। इस भ्रमण में मैंने लोगों की धर्म भावना की अपेक्षा उनका पागलपन, उनकी चंचलता, उनका पाखंड और उनकी अव्यवस्था ही अधिक देखी। साधुओं का तो जमघट ही इकट्ठा हो
गया था। ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे सिर्फ मालपुए और खीर खाने के लिए ही जन्मे हो। यहाँ मैंने पाँच पैरोवाली एक गाय देखी। मुझे तो आश्चर्य हुआ किंतु अनुभवी लोगों ने
मेरा अज्ञान तुरंत दूर कर दिया। पाँच पैरोवाली गाय दृष्ट और लोभी लोगों के लोभ की बलिरूप थी। गाय के कंधे को चीर कर उसमें जिंदे बछडे़ का काटा हुआ पैर फँसाकर
कंधे को सी दिया जाता था और इस दोहरे कसाईपन का उपयोग अज्ञानी लोगों को ठगने में किया जाता था। पाँच पैरोवाली गाय के दर्शन के लिए कौन हिंदू न ललचाएगा ? उस
दर्शन के लिए वह जितना दान दे उतना कम है।
कुंभ का दिन आया। मेरे लिए वह धन्य घड़ी थी। मैं यात्रा की भावना से हरद्वार नहीं गया था। तीर्थक्षेत्र में पवित्रता की शोध में भटकने का मोह मुझे कभी नहीं रहा।
किंतु 17 लाख लोग पाखंडी नहीं हो सकते थे। कहा गया था कि मेले में 17 लाख लोग आए होंगे। इनमें असंख्य लोग पुण्य कमाने के लिए, शुद्धि प्राप्त कमाने के लिए आए
थे, इसमें मुझे कोई शंका न थी। यह कहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है कि इस प्रकार की श्रद्धा आत्मा को किस हद तक ऊपर उठाती होगी ।
मैं बिछौने पर पड़ा पड़ा विचार सागर मे डूब गया। चारों ओर फैले हुए पाखंड के बीच ये पवित्र आत्माएँ भी है। ये ईश्वर के दरबार मे दंडनीय नहीं मानी जाएगी। यदि ऐसे
अवसर पर हरद्वार मे आना ही पाप हो तो मुझे सार्वजनिक रुप से उसका विरोध करके कुंभ के दिन तो हरद्वार का त्याग ही करना चाहिए। यदि यहाँ आने में और कुंभ के दिन
रहने में पाप न हो, तो मुझे कोई-न-कोई कठोर व्रत लेकर प्रचलित पाप का प्रायश्चित करना चाहिए, आत्मशुद्धि करनी चाहिए। मेरा जीवन व्रतों की नींव पर रचा हुआ है।
इसलिए मैंने कोई कठिन व्रत लेने का निश्चय किया। मुझे उस अनावश्यक परिश्रम की याद आई, जो कलकत्ते और रंगून में यजमानों को मेरे लिए उठाना पड़ा था। इसलिए मैंने
आहार की वस्तुओं की मर्यादा बाँधने और अंधेरे से पहले भोजन करने का व्रत लेने का निश्चिय किया। मैंने देखा कि यदि मैं यजमानों के लिए मैं भारी असुविधा का कारण
बन जाऊँगा और सेवा करने के बदले हर जगह लोगों को मेरी सेवा मे ही उलझाए रहूँगा। अतएव चौबीस घंटो में पाँच चीजों से अधिक कुछ न खाने और रात्रि भोजन के त्याग का
व्रत तो मैंने ले ही लिया। दोनों की कठिनाई का पूरा विचार कर लिया। मैंने इन व्रतों में से एक भी गली न रखने की निश्चय किया। बीमारी में दवा के रुप मे बहुत सी
चीजें लेना या न लेना, दवा की गितनी खाने की वस्तुओं मे करना या न करना, इन सब बातों को सोच लिया और निश्चय किया कि खाने के कोई भी पदार्थ मैं पाँच से अधिक न
लूँगा। इन दो व्रतों को लिए अब तेरह वर्ष हो चुके हैं। इन्होंने मेरी काफी परीक्षा की है। किंतु जिस प्रकार परीक्षा की हैं, उसी प्रकार ये व्रत मेर लिए काफी
ढालरूप भी सिद्ध हुए हैं। मेरा यह मत है कि इन व्रतों के कारण मेरा जीवन बढ़ा है; और मैं मानता हूँ कि इनकी वजह से मैं अनेक बार बीमारियों से बच गया हूँ।