भारतीय सभ्यता की एक विशेषता यह रही है कि इसमें ऊँच-नीच की जातिगत श्रेणियाँ तो थीं किंतु आचार-विचार, रहन-सहन में समरूपता लाने की गंभीर कोशिश कभी नहीं की गई। दूसरों को यहाँ उनके पहले से चले आ रहे रीति-रिवाजों और विश्वासों के साथ ही एक जाति के रूप में मान्यता दे दी जाती थी और जाति-व्यवस्था के पदानुक्रम में उनकी भी एक जगह बन जाती थी। समाज-वैज्ञानिक सुदीप्तो कविराज ने भारतीय जाति-व्यवस्था के बारे में एक बहुत ही पते की बात कही है, जिसका उल्लेख यहाँ करना उचित होगा। उन्होंने लिखा है कि जाति-व्यवस्था घेरे के भीतर घेरे की पद्धति पर चलती थी और मधुमक्खी के छत्तों की तरह एक दूसरे से जुड़ी हुई थी। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक जाति के पास एक ऐसा निजी घेरा होता था जिसमें दूसरी जाति, समाज और यहाँ तक की राज्य-सत्ता का भी दखल कमोबेश न के बराबर होता था। खान-पान और शादी-व्याह के मामले में इस निजी घेरे की नियामक भूमिका बहुत सारे बदलाव आ जाने के बावजूद आज भी दिखाई पड़ती है। इसका तात्पर्य यह भी है कि जाति-व्यवस्था किसी राज्य के सहारे नहीं टिकी हुई थी। इसीलिए जाति-व्यवस्था को गलत मानने वाले राज्य और उसके द्वारा निर्मित कानून के आ जाने के बावजूद यह व्यवस्था अभी भी बहुत सारे बदलावों के बावजूद चल रही है। किंतु यह अर्थ निकालना भी गलत होगा कि राज्य की नीतियों और ऐतिहासिक परिवर्तनों का जाति-व्यवस्था और पारिवारिक संरचना पर कोई असर ही नहीं होता था। जाति-व्यवस्था और पारिवारिक आदर्श को इतिहास-निरपेक्ष कोटियों के रूप में नहीं रखा जा सकता। कहने का आशय सिर्फ यह है कि राज्य की नीतियों और ऐतिहासिक परिवर्तनों के साथ जाति-व्यवस्था खत्म तो नहीं होती लेकिन इसके रूप, महत्व और भूमिका में कुछ बदलाव जरूर आ जाते हैं।
भारतीय सभ्यता जाति-व्यवस्था के इसी ढाँचे पर टिकी हुई थी। इसके दो निहितार्थ संप्रति हमारे विवेच्य विषय को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि किसी भी जाति को सभी कार्यक्षेत्रों में अंतिम रूप से निर्णायक महत्व नहीं प्राप्त था, इसलिए अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में अलग-अलग जातियों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण दिखाई पड़ती है। जो जाति आर्थिक रूप से शक्तिशाली है वह राजनीतिक रूप से भी प्रभावशाली हो, यह बिल्कुल जरूरी नहीं था। इसी प्रकार जो जाति धार्मिक क्षेत्र में सबसे निर्णायक महत्व रखती है, वह आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी निर्णायक महत्व रखती हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। यहाँ तक की नीची मानी जाने वाली जातियों के कार्यक्षेत्र में भी अन्य जातियों का दखल कम ही दिखाई पड़ता हैं। बहुत सीमित स्तर पर ही सही, किंतु अपने-अपने कार्यक्षेत्र में प्रत्येक जाति बहुत कुछ स्वायत्त होती थी और जाति-व्यवस्था के ऊँच-नीच के पदानुक्रम के बावजूद रीति-रिवाज, खान-पान, शादी-विवाह और धार्मिक विश्वासों और परंपराओं के बारे में उनमें पर्याप्त भिन्नता भी होती थी। पर इस भिन्नता को एक समस्या के रूप में नहीं देखा जाता था। संक्षेप में यह एक ऐसा ढीला-ढाला ढाँचा था जिसमें सभी को अपने ढंग से रहने और सोचने-विचारने के लिए थोड़ी सी जगह मिल जाती थी। संभवतः यही कारण है कि आज भी बहुत सारी ऐसी परंपराएँ बची रह गई हैं जिनका संबंध मनुष्यता के इतिहास के बहुत ही प्रारंभिक स्तर से रहा होगा। व्यापक स्तर पर पितृसत्तात्मक समाज स्थापित हो जाने के बावजूद धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं और स्त्रियों के जीवन से संबंधित ऐसी अनेक परंपराएँ लंबे समय तक चलती रहीं जिनका संबंध लगता है कि पितृसत्तात्मक समाज स्थापित होने के पहले के दौर से रहा होगा।
यूरोप में लिखित परंपरा की केंद्रीयता रही है और अफ्रीका में वाचिक परंपरा थी। भारत के बारे में कहना मुश्किल है कि यहाँ लिखित और वाचिक में से किस परंपरा की केंद्रीयता थी। संभवतः यहाँ वाचिक और लिखित परंपराओं में से किसी एक को तरजीह देना उचित नहीं होगा। वाचिक और लिखित परंपराएँ यहाँ इस कदर एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं कि कई बार तो उन्हें अलग कर पाना ही मुमकिन नहीं लगता। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि कुछ क्षेत्रों में वाचिक परंपरा का पलड़ा भारी है तो कुछ क्षेत्रों में लिखित परंपरा का।
भारतीय सभ्यता में वाचिक और लिखित परंपराओं के बीच आदान-प्रदान और संग्रह-त्याग का सिलसिला इतना व्यापक है कि किसी एक को छोड़कर इसकी समग्रता को समझने के दावे ही संदिग्ध लगने लगते हैं। असल में वे एक ही नैरंतर्य या एस्पेक्ट्रम के क्रमिक रूप से परिवर्तित या परिवर्द्धित रूप हैं। इनके इस क्रमिक रूपांतरण के सिलसिले को छोड़कर यदि हम इनके छोरों को देखें तो, जैसा कि ए.के. रामानुजम ने लिखा है, यकीन कर पाना मुश्किल हो जाता है कि वे एक ही स्पेक्ट्रम के दो छोर हैं। (रामानुजन : 1991)
भारतीय सभ्यता की इन्ही विलक्षणताओं के कारण हमारे यहाँ शिष्ट-साहित्य और लोक-साहित्य की परंपराएँ एक साथ और परस्पर वाद-विवाद-संवाद करते हुए आगे विकसित होती रही हैं। इनमें से किसी एक को छोड़कर दूसरे को ठीक से नहीं समझा जा सकता। सच तो यह है कि जिसे शिष्ट-साहित्य कहते हैं, उसका भव्य प्रासाद भी लोक-साहित्य की बुनियाद पर निर्मित हुआ है। यही नहीं, कुछ बातें तो ऐसी हैं जो शिष्ट-साहित्य और लोक-साहित्य दोनों पर समान रूप से लागू होती है। जैसे हमारे यहाँ काव्य का संगीत, नृत्य और नाटक से बहुत गहरा संबंध रहा है। भक्तिकाल में और उससे पहले भी काव्य के साथ इस बात का उल्लेख मिलता है कि इसे किस राग में गाया जाए। इसका निहितार्थ यह भी हुआ कि जितने लोग काव्य पढ़ते थे उससे कहीं ज्यादा लोग काव्य गाते या सुनते थे। सच तो यह है कि काव्य पढ़ने के लिए नहीं बल्कि गाने के लिए लिखा जाता था। शिष्ट-साहित्य की तरह लोक-साहित्य का कोई एक रचयिता नहीं होता था लेकिन उसे भी गाया जाता था। गेयता और वाचिकता दो ऐसे तत्व हैं जो शिष्ट-साहित्य और लोक-साहित्य दोनों पर लागू होते हैं। इसीलिए हमारे यहाँ ज्ञानी सिर्फ उसी को नहीं माना जाता था जो लिख-पढ़ सके, वह भी ज्ञानी था जो लिख-पढ़ नहीं सकता था। वी. नारायण राव के शब्दों में उसे 'लोक परंपरा में दीक्षित' कहना सही होगा। कथित रूप से अनपढ़ होने के बावजूद कबीर स्वयं को ज्ञानी मानते हैं, बल्कि 'पढ़े-लिखे' पंडित-मौलवियों को ज्ञान के खुले मैदान में चुनौती भी देते हैं। ज्ञान सुनकर और देखकर भी प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए 'निरक्षर' व्यक्ति को भी अपने यहाँ ज्ञानी मानने में कोई संकोच नहीं था। उसे जाहिल, अनपढ़ और गँवार मानने का चलन हो सकता है कि पहले भी थोड़ा बहुत रहा हो, लेकिन उसकी पक्की बुनियाद औपनिवेशिक दौर में पड़ी। इस प्रसंग की चर्चा आगे हम फिर करेंगे, फिलहाल रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में सिर्फ इतना कहना पर्याप्त होगा कि लोक-साहित्य वाचिक परंपरा का विश्वविद्यालय है।
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इक्जाटिक रहस्यवाद से परिपूर्ण भारत में तर्कबुद्धि का अभाव है और जाति-धर्म की सर्वव्यापी रूढ़ियों ने यहाँ लोगों को इस कदर भाग्यवादी बना दिया है कि उनमें एक सचेतन मनुष्य के रूप में कुछ करने की सामर्थ्य का ही विनाश हो गया है! औपनिवेशिक विमर्श में धर्म और जाति की इस सर्वव्यापी भूमिका को इतना बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया कि सामाजिक संगठन में आर्थिक और राजनीतिक कारकों के महत्व का लगभग निषेध हो गया। भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप की एक ऐसी छवि गढ़ी गई जिसमें समय के साथ कोई बदलाव नहीं आता। यह एक ऐसा जड़-स्थिर, जमा हुआ भारत है जिसमें तार्किक और राजनीतिक आधार पर स्वयं को शासित करने की क्षमता ही नहीं है। इसीलिए विदेशी आक्रांता यहाँ आकर शासन करते रहे हैं। निकोलस डर्क (1989 A) ने लिखा है कि धर्म/जाति के निर्णायक और सर्वव्यापी प्रभाव को दिखाने के लिए धर्म/जाति को राजनीति से और राजनीति को समाज से अलग कर पेश किया गया। डर्क के शब्दों में 'जिसे आज भारतीय परंपरा के रूप में स्वीकार किया जाता है, उसके ज्यादातर हिस्सों की 'रचना' औपनिवेशिक दौर में हुई थी। जैसे स्वायत्त जाति-व्यवस्था, ब्राह्मण की सर्वोच्चता, ग्राम-आधारित विनिमय इत्यादि। (1989 B : 63)। ओरियंटलिस्ट विद्वानों ने इसी बुनियाद पर जाति-व्यवस्था और रूढ़ हिंदू धार्मिकता को भारतीय सभ्यता की तात्विक विशेषता के रूप में पेश किया। एडवर्ड सईद (1979) के मुताबिक ओरियंटल विमर्श के जरिए यूरोप ने 'ओरियंट' को सिर्फ मैनेज नहीं किया, बल्कि निर्मित भी किया क्योंकि यूरोप के ही पास पश्चिम और पूर्व को भी 'रिप्रेजेंट' करने की सत्ता थी। पूर्व और पश्चिम की सांस्कृतिक भिन्नता को लैंगिक मुहावरे में ढालकर पूर्व को सांस्कृतिक रूप से हीन और पश्चिम को श्रेष्ठ घोषित कर दिया गया। पार्थ चटर्जी के शब्दों में 'बंधनों में जकड़ी हुई और प्रताड़ित भारतीय स्त्री के साथ स्वयं को सहानुभूति रखने वाले के रूप में पेशकर औपनिवेशिक मस्तिष्क ने भारतीय स्त्री की इस तसवीर को समूची परंपरा की तसवीर में तब्दील कर दिया। (चटर्जी, 1989 B : 622)।
इस बहस में, राज्य और नागरिक समाज के विभाजन को मानते हुए औपनिवेशिक शासक स्वयं को तटस्थ रेफरी के रूप में पेश करता था और सिर्फ परंपरा के सच को तय करने के लिए ही दखल देता था। (ओ, हनलोन, 1989 : 101)। परंपरा के सच को तय करने के दौरान ही धार्मिक ग्रंथों के आधार पर विभिन्न धार्मिक समुदायों के 'पर्सनल लॉ' बनाए गए और इस प्रक्रिया में ब्राह्मण विद्वानों को औपनिवेशिक शासकों ने ऐसा निर्णायक महत्व दिया गया जो उन्हें इससे पहले कभी नहीं हासिल था। ब्राह्मण विद्वानों द्वारा की गई धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या को सभी 'हिंदुओं' पर समान रूप से लागू होने वाली आधिकारिक व्याख्या के रूप में स्वीकार कर लिया गया। धार्मिक ग्रंथों की इस व्याख्या के आधार पर जो कानून-कायदे बनाए गए उनमें क्षेत्रीय, वर्गीय, जातिगत और स्थानीय लोक-परंपराओं में पाई जाने वाली आचार-विचार और व्यवहार की भिन्नता के लिए कोई जगह न थी। इसी सिलसिले के तहत 'सती प्रथा' को समूचे भारतवासियों की परंपरा के रूप में प्रचारित किया गया। इस तरह जिस परंपरा की बर्बरता की बाद में आलोचना की गई, वह परंपरा वास्तव में औपनिवेशिक शासकों, न्यायाधीशों और ब्राह्मण विद्वानों द्वारा गढ़ी गई थी। विभिन्न जातियों, वर्गों और क्षेत्रों के लोगों के वास्तविक आचार-विचार और व्यवहार को तरजीह न देकर धार्मिक ग्रंथों के आधार पर भारतीय परंपरा और संस्कृति की समरूप और प्रायः स्थिर छवि गढ़ने का परिणाम यह हुआ कि भारतीय परंपरा और संस्कृति दोनों स्थिर और जड़ प्रतीत होने लगीं। धार्मिक ग्रंथों की बुनियाद पर 'सच्ची' भारतीय परंपरा गढ़ने के कारण इस बात का बोध ही नहीं हो पाया कि अलग-अलग दौर में संस्कृति की मूर्ति नए सिरे से गढ़ी जाती है। धार्मिक ग्रंथों के आधार पर वास्तविक जीवन की छवि गढ़ने का नतीजा यह हुआ कि समाज में स्त्री की भूमिका और हैसियत पत्थर में तराशी गई मूर्ति की तरह स्थिर और अपरिवर्तनशील लगने लगी। परंपरा की गढ़ी गई यह मूर्ति, ग्रंथ-केंद्रित और ब्राह्मण विद्वानों द्वारा इन ग्रंथों की गई व्याख्या से बनी थी।
औपनिवेशिक हस्तक्षेप ने आंशिक रूप से ही सही, पहले से चली आ रही असमानताओं को और भी बढ़ा दिया, बल्कि कुछ नई असमानताएँ भी जोड़ दीं। इसने उच्चवर्गीय पितृसत्तात्मक विवाह और उत्तराधिकार के मूल्यों को सभी जातियों-वर्गों पर लागू होने वाले कानून में तब्दील कर और भी शक्तिशाली बना दिया। इससे सभी जातियों और वर्गों की स्त्रियाँ प्रभावित हुईं, जबकि उनकी वास्तविक स्थितियाँ बहुत ही भिन्न थीं। स्त्रियों को एक समरूप समुदाय के रूप में नहीं देखा जा सकता। जाति, सामाजिक-पारिवारिक संबंध, वर्ग और आयु के भेद से उनकी हैसियत और भूमिका में अंतर दिखाई पड़ता है।
औपनिवेशिक दौर में स्त्रियों की दुर्दशा के लिए मुख्यतः धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को जिम्मेदार ठहराया गया और अंततः यह सिद्ध करने की कोशिश की गई कि समूची भारतीय सभ्यता ही इसी प्रकार की अमानवीय परंपराओं की बुनियाद पर खड़ी थी। असल में पारिवारिक/धार्मिक परंपराएँ सामाजिक-आर्थिक जीवन के बीच ही अवस्थित होती हैं और सामाजिक-आर्थिक जीवन में आने वाले बदलाव का प्रभाव उन परंपराओं पर भी पड़ता है। स्त्रियों के जीवन में धर्म के घटते-बढ़ते प्रभाव को सामाजिक आर्थिक संदर्भों से काटकर नहीं समझा जा सकता। विद्धानों ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि धार्मिक परंपराओं और पारिवारिक संबंधों के ताने-बाने को भारतीय स्त्रियाँ अपनी दैनिक जरूरत के मुताबिक पुनर्व्याख्यायित पुनर्गठित करती रही हैं। धार्मिक परंपराओं और पारिवारिक संबंधों के साथ स्त्रियों का संबंध अनेकायामी रहा है। औपनिवेशिक दौर में केवल उन्हीं आयामों को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया जिनसे भारतीय सभ्यता में अंतर्निहित अमानवीयता की पुष्टि हो सके।
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कई अन्य अनुशासनों की तरह लोक-विद्या के क्षेत्र में भी विधिवत संकलन और अध्ययन की शुरुआत अंग्रेज अधिकारियों/विद्वानों द्वारा हुई। भले ही उपनिवेशवाद की 'परोपकारी' भूमिका में यकीन करने वाले आज भी बचे रह गए हों, किंतु स्टूअर्ट ब्लैकबर्न के शब्दों में कहें तो सच्चाई यही है कि 'यह सिद्ध करने के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि नृतत्वशास्त्र की तरह फोकलोर भी भारत में औपनिवेशिक अभियान का हिस्सा था। 1900 में लंदन में हुए 'फोकलोर सोसाइटी' का अध्यक्षीय संबोधन 'फोकलोर' के अध्ययन की 'इंपायर थियरी' की बात करता है। इस सिद्धांत के अनुसार 'फोकलोर' का अध्ययन इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे उपनिवेशों को बेहतर ढंग से शासित करने में मदद मिलेगी। अचरज नहीं कि तीन साल बाद ही भारत के भाषा सर्वेक्षण की स्थापना हुई जिसके मुखिया फोकलोरिस्ट-प्रशासक सर जार्ज ग्रिर्यसन बनाए गए।' (2006 : 13)। अंग्रेज भारत और भारत की संस्कृति को समझना चाहते थे। भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने और उसे लंबे समय तक कायम रखने के लिए भारत और भारतीय संस्कृति के अध्ययन का महत्व वे भलीभाँति समझते थे। लेकिन वे यह भी मानते थे कि भारतीय संस्कृति पिछड़ी और अमानवीय संस्कृति है। यह धार्मिक अंधविश्वासों और रूढ़ियों से जकड़ी हुई है और इसीलिए यहाँ लंबे समय से कोई परिवर्तन घटित नहीं हुआ। इस अतार्किक, एक्जॉटिक, रहस्यमय एवं बर्बर पूर्वी समाज को सभ्य बनाने और स्त्रियों-दलित वर्गों को मुक्ति दिलाने का गुरुतर दायित्व इतिहास ने औपनिवेशिक श्वेत पुरुषों के कंधों पर डाल दिया है! स्त्री लोकगीतों में भी उन्हें इसी कालातीत समाज की बर्बरता दिखाई पड़ी। धार्मिक रूढ़ियों से जकड़ी हुई कमजोर-अबला स्त्रियों में स्वयं तो कुछ कर सकने की सार्मथ्य रही नहीं। किंतु उनके सौभाग्य से श्वेत औपनिवेशिक पुरुषों का आगमन भारत-भूमि पर हो गया है। संभवतः उन्हीं के हाथों इनका उद्धार होना लिखा था। किंतु इस उद्धार के लिए स्त्रियों की पारंपरिक संस्कृति में सुधार लाने होंगे। क्योंकि गाने-बजाने वाली स्त्रियों की यह संस्कृति फूहड़, अश्लील और अनैतिक है। औपनिवेशिक श्वेत पुरुषों और ईसाई मिशनरियों की इस राय से बंगाली भद्रलोक भी सहमत था। इनके सम्मिलित 'सुधार अभियान' के सामने स्त्रियों की फूहड़-अश्लील संस्कृति की क्या बिसात थी जो टिक पाती। (सुमंत बनर्जी, 1989 : 160)। फिर क्या था, बंगाल की देखा-देखी उत्तर प्रदेश में भी इस सुधार अभियान की लहर चल पड़ी और राष्ट्र की सेहत के मुफीद 'आदर्श-गीत' गाने की नेक नसीहत स्त्रियों को दी जाने लगी। (चारु गुप्ता, 2001 : 95-96)।
आधुनिक भारतीय राष्ट्र के उपयुक्त आधुनिक भारतीय स्त्री की छवि और संस्कृति गढ़ी जाने लगी। जाहिर सी बात है कि आधुनिक भारतीय स्त्री की छवि और संस्कृति में गँवई, फूहड़ और अश्लील स्त्री-संस्कृति के लिए कोई जगह न थी। इस तरह भारतीय स्त्री की जो छवि प्रोजेक्ट की गई वह वास्तव में सवर्ण मध्यवर्गीय स्त्री की छवि थी। नई स्त्री की यह छवि पश्चिमी स्त्री और निम्नवर्गीय-निम्नजातीय भारतीय स्त्री के विरोध में गढ़ी गई। विक्टोरियन नैतिकता के चश्मे से देखने के कारण साहित्य, कला और संस्कृति के अन्य रूपों में भी काम और शृंगार की सहज उपस्थिति उन्हें अश्लील और अमर्यादित लगी। भारतीय संस्कृति का यह मर्यादावादी संस्करण सवर्ण भद्रलोक की अभिरुचियों के अनुकूल पड़ता था। इसीलिए राष्ट्रवादी विमर्श ने भी भारतीय संस्कृति के काम-शृंगार से संबंधित 'अश्लील' तत्वों को निकाल फेंकने में कोई मुरव्वत नहीं दिखाई।
आधुनिक भारतीय राष्ट्र ने भारतीय स्त्री की स्त्रियोचित एक ऐसी छवि का प्रचार किया जो सहिष्णुता, करुणा, सेवा की मूर्ति थी और जो परिवार और राष्ट्र के हित के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर थी। (चटर्जी, 1989 B : 627)। एक तरह से स्त्री की सोचने-समझने, पढ़ने-लिखने की भाषा को ही नियंत्रित और अनुशासित कर दिया गया। (संगारी, 1989 : 11)।
यदि औपनिवेशिक शासकों ने कमजोर और प्रताड़ित भारतीय स्त्री की छवि गढ़ी जिसे पुरुषों और भारतीय परंपरा की बर्बरता से बचाकर सभ्य बनाने की जरूरत थी तो भारतीय राष्ट्रवादी अभिजन पुरुष के लिए वह भारतीय संस्कृति और परंपरा की शुद्धता की प्रतीक थी जिसे हर हाल में संरक्षित करने की जरूरत थी। लता मणि के शब्दों में 'इस समूची बहस में एक सक्रिय और सोचने-समझने की सामर्थ्य रखने वाली भारतीय स्त्री की भूमिका कहीं नहीं थी और न ही वास्तविक भारतीय स्त्री की उन्हें कोई चिंता थी। इस बहस के केंद्र में थी 'सच्ची' भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की व्याख्या।' (1987 :122)।
भारतीय संस्कृति के तात्विक स्वरूप की संवाहिका के रूप में भारतीय राष्ट्रवाद ने स्त्री की जगह घर के भीतर तय की। बाहर की दुनिया, जिसमें अनेक 'विजातीय' तत्व आ गए थे, पुरुषों के लिए छोड़ दी गई। स्त्री/पुरुष, सार्वजनिक/व्यक्तिगत, घर/बाहर, आधुनिकता/परंपरा, भौतिक/आध्यात्मिक जैसे द्विआधारी विरुद्धों के जरिए आध्यात्मिक रूप से निष्कलुष स्त्री की छवि निर्मित की गई, जिसका कार्य-क्षेत्र घर था। राष्ट्रवादी सांस्कृतिक विमर्श में घर-परिवार और राष्ट्र को स्त्री के पर्याय के रूप में देखा गया और प्रकारांतर से एक कर्ता के रूप में घर से बाहर की उसकी भूमिका सीमित कर दी गई। (चटर्जी B : 1989)।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान निर्मित स्त्रीत्व की नई अवधारणा के तहत स्त्री को घर से बाहर निकलने की छूट तो मिल गई किंतु साथ ही यह शर्त भी लगा दी गई कि उसे हर हाल में अपना 'स्त्रीत्व' सुरक्षित रखना चाहिए। असल में देवी या माँ की छवि के द्वारा बाहरी दुनिया में स्त्री की 'सेक्सुअलिटी' को मिटा दिया गया। (चटर्जी, 1989 B : 630)।
'पढ़ी-लिखी' मध्यवर्गीय स्त्री बाहर तो निकल सकती थी लेकिन 'भारतीय स्त्री' की छवि से बाहर निकलने की छूट उसे न थी। उसे आचार-विचार और व्यवहार में पश्चिमी स्त्री से भिन्न तो दिखना ही था, निम्नवर्गीय फूहड़, मुँहफट और अश्लील भारतीय स्त्री से भी उसे दूरी बनाए रखनी थी। कथा-साहित्य में तो पश्चिमी रंग-ढंग अपनाने वाली स्त्री का कैरीकेचर किया ही गया, बंबइया फिल्मों में तो उसे 'वैंप' में ही तब्दील कर दिया गया। निम्नवर्गीय स्त्री और उससे संबंधित सांस्कृतिक रूपों को तो फूहड़ और अमर्यादित घोषित कर दृश्यपटल से ही बाहर कर दिया गया। ग्रामीण निम्नवर्गीय स्त्रियों के गीत-संगीत-नृत्य के प्रति शहरी मध्यवर्गीय भद्र महिलाओं में अरुचि, उपेक्षा और तिरस्कार का भाव पैदा करने में आधुनिक शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पश्चिमी और भारतीय 'परंपरा' में शिक्षित भद्र महिला को अश्लील-फूहड़ निम्नवर्गीय लोकसाहित्य के कुप्रभाव से बचाना इसलिए जरूरी था, क्योंकि स्त्रियों का लोकसाहित्य कई बार नैतिक वर्जनाओं की सीमा-रेखा लाँघ जाता है और पुरुषसत्तात्मक प्राधिकार को चुनौती देता है।
आधुनिकीकृत राष्ट्रवादी पितृसत्ता ने भी औपनिवेशिक शासकों की तरह स्त्रियों की लोक-संस्कृति को एक ऐसे खतरे के रूप में देखा जिसके प्रभाव से उन्हें डर था कि स्त्रियाँ बदचलन हो जाएँगी। राष्ट्रीय आंदोलन के साथ शास्त्रीय उपशास्त्रीय गायन और नृत्य-शैलियों को तो पुरस्कृत किया गया किंतु लोक-परंपराओं, विशेष रूप से स्त्री-लोक परंपराओं, को फूहड़ और अश्लील मानते हुए मुख्यधारा में लाने-लायक ही नहीं माना गया।
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आम आदमी के जीवन को समझने के लिए लोक-साहित्य के महत्व की अपरिहार्यता का बोध समाज-वैज्ञानिकों को भी बहुत बाद में हुआ। समाज-वैज्ञानिकों ने लोक-जीवन के इस अभिलेखागार को पढ़ने और अध्ययन करने की लंबे समय तक जरूरत ही नहीं समझी। जबकि सच्चाई यह है कि लोक-जीवन के अनेक गुह्यतम और अंतरतम पक्ष लोक-साहित्य में ही उद्घाटित होते हैं। भारतीय समाज के 'यथार्थ' की अनेक परतें रही हैं जो पश्चिमी ढंग की समाजवैज्ञानिक सैद्धांतिकी की पकड़ में ही नहीं आतीं। कई बार तो वे कुछ ऊपरी तथ्यों और सूचनाओं के आधार पर ही भारतीय समाज के बारे में अपने निष्कर्ष निकाल लेते हैं, जिससे इस समाज की वास्तविक संवेदनात्मक गतिकी का बोध ही नहीं होता।
स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले लोक-गीत एक ऐसी डायरी की तरह हैं जो खुले में पड़ी हुई है। लेकिन संभवतः खुले में पड़ी हुई होने के कारण किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं जाता। जो चीज खुली पड़ी हुई है, जिसे कोई भी देख और पढ़ सकता है, उसे छोड़कर हम ऐसे तथ्यों के आधार पर स्त्रियों के जीवन का अध्ययन करना चाहते हैं जिन्हें उन्होंने नहीं, हमने गढ़ा है। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि स्त्री लोक-गीतों का खुले में पड़ा होना ही हमें उनके प्रति अनुत्सुक बनाता है। जैसे कोई चीज होने के बावजूद न हो, जैसे किसी गीत को सुनने के बावजूद अनसुना किया जा रहा हो, जैसे उसे इस लायक ही न समझा जा रहा हो कि उसके अर्थ-निहितार्थ पर ध्यान दिया जाए। जैसा कि पहले भी कहा गया, भारतीय समाज-व्यवस्था में प्रत्येक जाति के लिए एक ऐसा निजी क्षेत्र होता था जो कमोबेश सिर्फ उसका होता था। वैसे ही स्त्रियों के जीवन और संस्कृति का एक ऐसा दायरा था जो सिर्फ उनका था, जिसमें पुरुष शायद ही कभी दखल देता था या उसे दखल देने लायक ही नहीं मानता था। इसी दायरे में स्त्रियों की संस्कृति-गीत, संगीत, किस्से, कहानी इत्यादि का विकास हुआ था। इसी दायरे में पुरुष सत्तात्मक मूल्यों को किसी न किसी रूपों में प्रश्नांकित करने वाले अनेक तत्व मौजूद थे। असल में स्त्रियों का जीवन लगातार दो स्तरों पर घटित होता है। वे पुरुषों की दुनिया में हैं, लेकिन उनकी एक दुनिया और है जो पुरुषों के हस्तक्षेप से कमोबेश बची हुई है। ऐसे ही वे मायके में होकर भी मायके की नहीं है, पराई अमानत हैं; ससुराल में रहने के बावजूद ससुराल की नहीं हैं, क्योंकि दूसरे घर से आई हैं। अस्तित्वगत अस्थिरता के कारण ही संभवतः उनमें दो या अधिक दुनियाओं में संचरण करने और उनका अपने हित में प्रयोग करने की कला आ जाती है। इसीलिए कुछ विद्वानों ने स्त्रियों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को एक अधीनस्थ विमर्श के रूप में देखने-समझने की पेशकश की है। उन्होंने स्त्री-संस्कृति को एक ऐसे रणनीतिक स्पेस के रूप में व्याख्यायित किया है जहाँ उन्हें अपनी चिंताएँ व्यक्त करने और सुख-दुख बाँटने तथा उन निर्णयों के बारे में सोचने का अवसर मिलता है जिनसे उनकी जिंदगी प्रभावित होती है। स्त्रियाँ बहुत सारे गीत पुरुषों की अनुपस्थिति में गाती हैं, इसलिए पितृसत्तात्मक वर्जनाओं से मुक्त होकर अपनी आकांक्षाओं को सहज रूप में व्यक्त करने का अवसर भी यहाँ मिल जाता है। वास्तव में स्त्रियों की संस्कृति प्रभुत्वशाली मूल्यों और इतिहास-दृष्टि के समानांतर एक वैकल्पिक इतिहास-दृष्टि और सामाजिक यथार्थ की अवधारणा प्रस्तुत करने की सामर्थ्य रखती है।
प्रतिस्मृति (Counter Memory) की अवधारणा के सहारे स्त्रियों की संस्कृति और लोक-गीतों के महत्व को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। जार्ज लिपसिट्ज के शब्दों में, ''प्रतिस्मृति को स्मरण और विस्मरण के एक ऐसे तरीके के रूप में देखा जा सकता है, जिसकी शुरुआत स्थानीय, तात्कालिक और व्यक्तिगत संदर्भों से होती है। प्रतिस्मृति अतीत के प्रभुत्वशाली आख्यान में दबे हुए इतिहास की तलाश करती है। यह उत्पीड़न से जुड़े हुए स्थानीय अनुभवों को सामने लाती है और उनके सहारे प्रभुत्वशाली आख्यान के सार्वभौमिक अनुभव का प्रतिनिधित्व करने के दावे को पुनर्परिभाषित करती है।'' (लिपसिट्ज, 1991 : 213) प्रतिस्मृति की अवधारणा वर्चस्वशाली विमर्श को प्रश्नांकित कर उस प्रक्रिया को उद्घाटित करती है जिसके तहत स्त्रियों को इस विमर्श में जगह दी जाती है।
प्रतिस्मृति पितृसत्तात्मक मूल्यों के सार्वभौमिकता के दावे को कमजोर कर उसके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों - गैर बराबरी के संरचनात्मक स्वरूप - को उद्घाटित कर स्त्रियों में कर्त्तृत्वभाव की चेतना का संचार करती है। वास्तविक जीवनानुभवों और पितृसत्तात्मक आदर्शों के बीच अवस्थित प्रतिस्मृति को स्त्रियों के समानांतर इतिहास के स्रोत के रूप में देखा जाना चाहिए। स्त्रियों के लोकगीत वृहत्तर ऐतिहासिक आख्यान के बरक्स प्रति-स्मृति द्वारा संरक्षित-संवर्द्धित समानांतर/वैकल्पिक इतिहास के स्रोत नहीं तो और क्या हैं!
ग्रामीण-जीवन पर शोध करने वाले विद्वानों ने 'बहुविध-यथार्थ' की अवधारणा विभिन्न वर्गों के बीच प्रभुत्व के लिए चल रही खींच-तान की आंतरिक प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना है। सामाजिक यथार्थ और प्रभुत्व की संरचना की बहुविध और तरल अवधारणा के सहारे स्त्रियों के जीवन और संस्कृति के ऐतिहासिक संदर्भ को ज्यादा बेहतर ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। इतिहास और अनुभव, भौतिक परिस्थितियाँ और दैनंदिन जीवन, चेतना और प्रतिरोध के स्वरूप को समझने में इससे मदद मिलती है। असल में स्त्रियाँ प्रभुत्वशाली विमर्श में शामिल तो होती है लेकिन साथ ही सामाजिक यथार्थ को अपने ढंग से पुनर्व्याख्यायित भी करती हैं। स्त्रियाँ जब प्रभुत्वशाली विमर्श को चुनौती नहीं भी दे रही होतीं, तब भी अपनी सुविधा के अनुसार वे उस विमर्श की इस तरह व्याख्या करती हैं जो उनके हितों के अनुकूल पड़े। जेम्स स्कॉट्स (1985) तो 'सहमति' को भी बहुत सोची-समझी, नपी-तुली रणनीति के हिस्से के रूप में देखते हैं। उन्होंने 'मंच' से बाहर आकर की जाने वाली टीका-टिप्पणियों, किस्सों-कहावतों, हँसी-मजाक, चुटकुलों, गीतों और कर्मकाण्डों में व्यक्त होने वाली 'वैकल्पिक दृष्टि' को बहुत महत्वपूर्ण माना है। 'मंच' के बाहर व्यक्त होने वाला 'दैनंदिन प्रतिरोध' प्रतीकात्मक सहमति के भीतर छिप जाता है। निम्न वर्गों द्वारा किए जाने वाले 'दैनंदिन प्रतिरोध' को इसीलिए आधुनिकता की शब्दावली में समझ पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि आधुनिकता की शब्दावली में प्रतिरोध और वर्चस्व की अवधारणाएँ बिल्कुल अलग-अलग हैं। आधुनिकता की शब्दावली में प्रतिरोध वही है जो कुछ माँगों को लेकर संगठित समूहों या वर्गों द्वारा किया जाता है। यहाँ प्रतिरोध का स्वरूप बिल्कुल स्पष्ट है। असहमति के वे रूप जो विरोध की आधुनिक अवधारणा में नहीं आते, हमारे समझ में ही नहीं आते। स्त्री-गीतों में प्रतिरोध तो है लेकिन प्रतिरोध की पुरुषकेंद्रित आधुनिक अवधारणा के सहारे उसे चिन्हित कर पाना लगभग असंभव है। स्त्री-प्रतिरोध के दैनंदिन और पारिवारिक चरित्र को संगठित राजनीतिक प्रतिरोध की शब्दावली में नहीं समझा जा सकता। स्त्रियों के प्रतिरोध में ऐसी स्पष्टता नहीं है। असल में सत्ता और प्रतिरोध के संरचनात्मक और सांस्कृतिक संस्थानीकरण के बीच इतनी परतें हैं किसी संगठित विरोध में उसकी समूची अभिव्यक्ति संभव ही नहीं।
स्त्रियों के अस्तित्व-बोध का स्वरूप प्रायः ऐसा होता है कि उनका प्रतिरोध आक्रामक राजनीतिक, सामाजिक मुहावरे में व्यक्त नहीं होता। स्त्रियों के प्रतिरोध को हमें उन क्षेत्रों में विशेष रूप से देखना चाहिए जो अक्सर अदृश्य रहते हैं। इसी तरह, प्रतिरोध के उन स्त्री-सुलभ मुहावरों को चिन्हित करना जरूरी है जो प्रतिरोध की राजनीतिक शब्दावली में नहीं आते। जेम्स स्काट (1985) के शब्दों में यह दैनंदिन घटित होने वाला प्रतिरोध है। यह ऐसा प्रतिरोध है जहाँ प्रतिरोध और सहमति के बीच स्पष्ट भेद का पाना आसान नहीं। क्योंकि शत्रु और मित्र की कोटियाँ यहाँ मिली-जुली हैं। असल में शत्रु तो वह पितृसत्तात्मक मूल्य-व्यवस्था है जिसका खामियाजा स्त्रियों के साथ-साथ पुरुषों को भी, पूरी तरह न सही, फिर भी भोगना पड़ता है। यह सही है कि पितृसत्तात्मक मूल्यों के वर्चस्व के कारण कृषक-जीवन में पुरुष ज्यादा शक्तिशाली दिखाई पड़ता है, लेकिन यही पुरुष वृहत्तर सामाजिक संरचना के अधीन शोषित भी होता है। यह भी विचारणीय है कि पारिवारिक संरचना के अंदर कई मामलों में स्त्रियों की बहुत ही निर्णायक भूमिका होती है। स्त्रियों का प्रभाव-क्षेत्र राजनीतिक संस्थाओं के बाहर पड़ता है, इसलिए कई बार यह भ्रम होता है कि पुरुषों के वर्चस्व से बाहर कोई क्षेत्र नहीं बचता है। जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं।
स्त्री-प्रतिरोध के दैनंदिन चरित्र को हृदयंगम करने के लिए वर्चस्व और प्रतिरोध के द्विआधारी आधुनिक विमर्श से बाहर निकलना होगा और प्रतिरोध की अवधारणा को व्यापक बनाना पड़ेगा। स्त्रियों का प्रतिरोध हमें इसलिए नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि हमने जीवन-जगत को राजनीतिक और अराजनीतिक कोटियों में बाँट रखा है। राजनीतिक संघर्ष की ऐसी अवधारणा के कारण स्त्रियों के कर्तृत्व और प्रतिरोध को हम चिन्हित ही नहीं कर पाते।
यथार्थ की वैकल्पिक अवधारणा सामाजिक शक्तियों की मुठभेड़ को सिर्फ नियामक-निर्मम शक्ति के रूप में नहीं देखती, बल्कि यह भी मानती है कि उसका विस्तार व्यक्तिगत जीवन और सांस्कृतिक प्रक्रिया तक जाता है। (कोनेल : 1987 : 84) सामाजिक शक्तियों के बीच मुठभेड़ की अवधारणा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे उस प्रक्रिया का बोध होता है जिसके परिणामस्वरूप शक्ति-संतुलन के दौरान किसी का वर्चस्व तो स्थापित हो जाता है किंतु यह वर्चस्व मुकम्मल नहीं होता। वैकल्पिक यथार्थ को दबा तो दिया जाता है किंतु उसका पूरी तरह खात्मा नहीं हो जाता। वैकल्पिक यथार्थ-बोध द्वारा इस वर्चस्व को लगातार चुनौती मिलती रहती है। स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती देने वाले वैकल्पिक यथार्थ-बोध के स्वर सुनाई पड़ते हैं। लेकिन हम उन्हें सुनकर भी नहीं सुनते। उन्हें सुनने वाली इंद्रियों पर पितृसत्तात्मक मूल्यों की इतनी मोटी परत चढ़ गई है कि यह आवाज अंदर तक पहुँच ही नहीं पाती। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि स्त्री का यथार्थ और स्त्री की संवेदना के मायने वही नहीं होते जो पुरुष के यथार्थ और पुरुष की संवेदना के होते हैं। फिर भी यहाँ यह सावधानी बरतनी जरूरी है कि इसे मुद्दे को सीधे से स्त्री बनाम पुरुष के रूप में न देखा जाय। क्योंकि स्त्रियों के गीतों में भयंकर संघर्ष पुरुष और स्त्रियों के बीच नहीं, बल्कि स्त्रियों के बीच होते दिखाई पड़ते हैं। ऐसा क्यों होता है यह चर्चा आगे हम थोड़े विस्तार में करेंगे। फिलहाल तो प्रभुत्वशाली विचारधारा को इस रूप में देखने की सामान्य प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है कि जैसे उसका उद्भव शून्य गगन में होता है और फिर वह धरती पर उतरकर यहाँ के निरीह-निष्क्रिय प्राणियों को अपने मोह-पाश में बाँध कर कठपुतली की तरह नचाती है। रोजालिंड ओ हनलोन विचारधारात्मक विमर्शों को इस तरह देखने के खतरों के प्रति आगाह करते हुए लिखती हैं 'विमर्शों का अस्तित्व इन विमर्शों के दायरे में आने वाले लोगों से न तो पहले है और न ही ये लोगों के हस्तक्षेप से पूरी तरह अप्रभावित रहते हैं, (1988 : 217) हनलोन का तर्क है कि प्रभुत्वशाली मान-मूल्य पूरी तरह विकसित-निर्मित नहीं होते, और न ही प्रतिरोध उनकी अधीनता स्वीकार कर लेने के उपरांत आरंभ होता है। असल में प्रतिरोध, खींचतान, मोलभाव के जरिए ही वर्चस्व के रूपों का निर्माण होता है। इसलिए इस प्रभुत्व में कुछ दरारें रह ही जाती हैं। प्रभुत्वशाली विचारधाराओं/विमर्शों को पूर्व-प्रदत्त मानने वाले इस अंदरुनी संघर्ष, खींचतान और जीवन-जगत को अलग-अलग तरीके से परिभाषित करने की जद्दोजहद को नहीं देख पाते। असल में सामाजिक स्थिति के भेद से अलग-अलग समुदाय/वर्ग जीवन-जगत की अलग-अलग छवियाँ गढ़ते हैं। इसीलिए उनके ज्ञान और नैतिक मूल्य भी एक जैसे नहीं होते। प्रभुत्वशाली विचारधाराएँ 'यथार्थ' के इस बहुविध बोध और नैतिक मूल्यों की वैकल्पिक सम्भावनाओं के औचित्य का ही निषेध कर इतिहास के विकासक्रम को एक अवश्यंभावी भवितव्य के रूप में प्रस्तुत करती हैं।
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क्या किया जाता है और उसका अर्थ क्या लगाया जाता है, इन दो चीजों में फर्क है। खासतौर पर स्त्रियों के संदर्भ में यह फर्क बहुत महत्वपूर्ण है। मजबूरी में बात मान लेने का मतलब यह नहीं होता कि उस बात को दिल से मान लिया गया है। पितृसत्तात्मक मूल्यों को 'मानती' हुई स्त्रियाँ उन्हें अंदर से खारिज करती रहती है। इसलिए वे जो मानती सी प्रतीत होती हैं, उसे जानने से ज्यादा यह जानना जरूरी है कि वे वास्तव में क्या मानती हैं। इसी तरह, वे जो कुछ करती हैं, अपनी पसंद और मर्जी से नहीं करतीं, इसलिए यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है कि वे 'अपने किए को' किस रूप में लेती हैं। इस सहमति के अंदर छिपी हुई असहमति को टोन, भंगिमा, बेरुखेपन, मौन और सविनय असहयोग के द्वारा जाहिर किया जाता है। पुरुष स्त्रियों द्वारा कही गई बातों पर भरोसा नहीं करता। क्योंकि जो उनके मन में होता है, उसे वे कहती नहीं, और जो कहती हैं, वह उनके मन में नहीं होता। त्रिया के चरित्र को देवता नहीं जान पाते, इनसान की तो बिसात ही क्या है! इसीलिए वह 'महाठगिन' है! इसीलिए स्त्री-गीतों में यथार्थ, भाषा और बोध का सीधा समीकरण काम नहीं करता। यथार्थवाद की सैद्धांतिकी से कुछ बातें तो पकड़ में आ जाएँगी। किंतु बहुत सारी महत्वपूर्ण बातें छूट भी जाएँगी। अर्थ का अनर्थ होने की गुंजाइश तो खूब रहेगी। जिन गीतों में स्त्री-मन की अभिव्यक्ति खुलकर हुई है, वहाँ यथार्थवादी ढब पर पूरी तरह न सही, फिर भी, अर्थ निकल जाएगा।
लोक साहित्य के औपनिवेशिक अध्येताओं ने भारतीय समाज की तरह लोकसाहित्य के भी अपरिवर्तनशील रूप को ही सच्चे लोकसाहित्य के रूप में तरजीह दी। उनके अनुसार सदियों से उन्हीं लोकगीतों को उसी रूप में स्त्रियाँ गाती चली आ रही हैं। यदि इस बात को मान लिया जाय तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि स्त्रियों में सक्रिय कर्ता के रूप में सोचने-समझने की क्षमता ही पितृसत्तात्मक मूल्यों ने हमेशा के लिए खत्म कर दी थीं और फिर यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि भारतीय समाज में कोई सार्थक परितर्वन किसी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप के बिना आ ही नहीं सकता था। दलित विमर्शकारों ने तो नहीं, किंतु नारीवादी चिंतकों ने जरूर स्त्री के कर्तृत्व के निषेध की औपनिवेशिक परियोजना को सिरे से खारिज कर दिया है। औपनिवेशिक अध्येताओं के निष्कर्ष से सहमत कोई उल्लेखनीय अध्येता आज शायद ढूँढ़ने से भी न मिले! असल में भारतीय सभ्यता में घटित होने वाले परितर्वन की प्रक्रिया के वैशिष्टय को न समझ पाने के कारण बाहरी व्यक्ति को यह भ्रम हो जाता है कि यहाँ कुछ बदल ही नहीं रहा। उसे बाहर से दिखाई पड़ने वाले चित्र की स्थूल रूपरेखाएँ यथावत लगती हैं। इस तरह देखने पर शंकराचार्य से लेकर तुलसीदास तक सभी पुरानी बातों को दोहराते से प्रतीत होते हैं। स्त्री लोकगीतों के बारे में भी ऐसा ही लगेगा। लेकिन हम जानते हैं कि इन गीतों का स्थायी (टेक) भले ही वही रहे, अंतरा लगातार बदलता रहता है। भाषा तो बदलती ही है। और यह नहीं भूलना चाहिए कि समय-समय पर नए लोकगीत भी रचे जाते रहते हैं। सच तो यह है कि लोकसाहित्य स्थिर और अपरिवर्तनशील नहीं होता। वह गतिशील और लचीला होता है। अच्छी कविता की तरह लोकगीत लोगों की स्मृतियों में बसते हैं। कुछ गीत यथावत चलते 'प्रतीत' होते हैं, कुछ को अपनी पसंद के मुताबिक मोड़ लिया जाता है और कुछ ऐसे भी गीत होते हैं जिन्हें पूरी तरह छोड़ दिया जाता है। सामाजिक संदर्भ और अभिव्यक्ति के तौर-तरीके पर ध्यान देने पर ही समय के साथ आने वाले परिवर्तन को चिन्हित किया जा सकता है। लोकगीतों को समय और संदर्भ से काट कर छपी हुई कविता की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। लोकगीत का स्वरूप और निहितार्थ समय और संदर्भ के साथ बदलता रहता है। जितनी बार लोकगीत गाया जाता है, उतनी बार उसमें कुछ नया जुड़ जाता और कुछ पुराना छूट जाता है। इसलिए इनके अध्ययन के दौरान ऐतिहासिक संदर्भ का प्रश्न उठाना निहायत ही जरूरी है। ऐतिहासिक संदर्भ का प्रश्न उठाने से मनुष्य के कर्तृत्व रूप की बहाली हो जाती है। याद दिलाना जरूरी है कि उपनिवेशवाद ने भारतीय जनमानस की कर्तृत्व-क्षमता का ही निषेध कर दिया था। वस्तुतः ऐतिहासिक संदर्भ का प्रश्न धार्मिक-सामाजिक परंपराओं की निर्माण-प्रक्रिया को लेकर भी उठाना चाहिए। क्योंकि धार्मिक-सामाजिक परंपराएँ देश-काल-निरपेक्ष शून्य से अवतरित नहीं होती। रश्मि दुबे भटनागर, रेनू दुबे और रीना दुबे अपने शोधालेख में लिखती हैं, 'धर्म सिर्फ एक विचारधारा या मिथ्या चेतना नहीं है, और न ही यह जनता को अपने हिसाब से घुमा देने वाला तंत्र है। परिपाटियों, ज्ञानमीमांसाआों और आचार-व्यवहार के समुच्चय का नाम ही धर्म है। इनके बारे में निश्चयपूर्वक न तो कोई भविष्यवाणी की जा सकती है और न ही इनका स्वरूप राजनीतिक रूप से सीधा-सादा और एकायामी है। धर्म बिंब और आख्यान को समुच्चय प्रदान करता है और कवि-इतिहासकार धार्मिक ट्रोप को बदलकर असहमति के बारे में चिंतन संभव कर देता है।' (2010 : 260)।
जो बातें दुबे बहनों ने कवि-इतिहासकार के बारे में कही हैं, वे स्त्री-लोकगीतों पर भी लागू होती हैं। इसलिए यह सोचना गलत होगा कि गैरबराबरी की संरचनात्मक स्थितियों से स्वतः पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक मूल्यों का जन्म हो जाता है। उन्हीं भौतिक स्थितियों में तुलनात्मक रूप से ज्यादा मानवीय पारिवारिक सामाजिक संबंध संभव हो सकते हैं। इसलिए सांस्कृतिक मूल्यों को भौतिक परिस्थितियों का 'बाई प्रोडक्ट' मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। स्त्रियों के लोकगीत उसी सामाजिक आर्थिक संदर्भ और शक्ति संरचना में ऐसी सांस्कृतिक संभावनाओं की ओर संकेत करते हैं जिनकी पितृसत्तात्मक नैतिकता कल्पना भी नहीं कर सकती।
ए.के. रामानुजन ने (2006 : 34-52) लिखा है कि भारतीय चिंतन-परंपरा संदर्भ के प्रति बहुत संवेदनशील रही है। जबकि पाश्चात्य चिंतन-परंपरा में संदर्भ-निरपेक्ष सामान्यीकरण की प्रवृत्ति ज्यादा दिखाई पड़ती है। रामानुजन के वजन पर स्त्री-लोकगीतों के बारे में भी कहा जा सकता है कि उन्हें संदर्भ से काटकर नहीं समझा जा सकता। क्योंकि गीत का अर्थ संदर्भ बदलने के साथ बदल जाता है।
स्त्रियों का संघर्ष जिन पुरुषों के साथ होता है वे वर्गशत्रु या सामंत नहीं है। वे उनसे घृणा भी करती हैं और प्रेम भी। इसलिए उनके संघर्ष में सहयोग की गुंजाइश भी बची रहती है। क्योंकि पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार में वे पुरुष की बेचारगी समझती हैं। रहेजा और गोल्ड ने लिखा है कि 'प्रचलित विचारधारा से पुरुष भी वैसे ही प्रताड़ित होता है जैसे स्त्रियाँ। पुरुष की मजबूरी है कि वह अपनी पत्नी के सामने कुछ कहे और परिवार वालों के सामने कुछ और।' (1994 : 136)। इसीलिए वे समझौते भी करती हैं और ये समझौते दूरगामी रणनीति का हिस्सा होते हैं। किंतु स्त्रियों को आँख मूँदकर सब कुछ चुपचाप बर्दाश्त कर लेने वाली अबला के रूप में देखने से उनकी सक्रिय कर्ता की भूमिका का निषेध हो जाता है और अंततः 'सभ्य जागरुक' औपनिवेशिक/राष्ट्रवादी पुरुष एक ऐसे त्राता के रूप में सामने आता है जिसकी कृपा-दृष्टि के बिना उनकी मुक्ति संभव नहीं।
स्त्री के कर्तृत्व (Agency) की देश-काल निरपेक्ष परिकल्पना आत्मघाती साबित हुई है। कर्तृत्व की तरह ही मुक्ति, स्वाधीनता और सुख की अवधारणा भी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक संदर्भों से पूर्णतः निरपेक्ष नहीं होती। इसलिए आधुनिकता द्वारा सुलभ करा दी गई सैद्धांतिक कोटियों के सहारे स्त्रीगीत-संस्कृति का अध्ययन करने पर संभव है, जो पहले दिख रहा था, उसका भी दिखाई पड़ना बंद हो जाए। इसका आशय यह है कि सैद्धांतिकी यथार्थ को समझने में हमेशा मदद ही नहीं करती, कई बार यथार्थ-बोध की प्रक्रिया को ही विकृत कर देती है। एक खास तरह की सैद्धांतिकी में कुछ चीजें तो दिखाई देती है लेकिन कुछ ऐसी भी चीजें होती है जो उसमें दिखाई ही नहीं पड़ती। इसे देखने के लिए एक अलग तरह की सैद्धांतिकी विकसित करनी पड़ती है। ऐसी सैद्धांतिकी जिसमें उस संदर्भ विशेष को देखने-समझने की क्षमता हो, प्रायः उस संदर्भ विशेष के अध्ययन से ही अनुस्यूत होती है।
स्त्रियों के जीवन को सिर्फ स्त्री-पुरुष के द्विआधारी विरोध के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। परिवार के अंदर अपनी हैसियत बढ़ाने और पारिवारिक संसाधनों को अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए सबसे भयंकर झगड़े पुरुषों और स्त्रियों के बीच नहीं, बल्कि स्त्रियों के बीच होते हैं। यह सही है कि ये झगड़े प्रायः पितृसत्तात्मक मूल्यों द्वारा स्वीकृत नियमों से संचालित होते हैं, लेकिन यह मानना कि सभी स्त्रियों की हैसियत पुरुषों और पितृसत्तात्मक आदर्शों के सम्मुख एक जैसी होती है, गलत सरलीकरण होगा। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की हैसियत वर्ग, जाति, आयु, गुण और सौंदर्य आदि अनेक कारकों से निर्धारित होती है।
वैकल्पिक संभावनाओं के ज्यादा मानवीय द्वार खोलने वाले स्त्री-गीतों से संबंध कायम कर भारतीय नारीवाद की प्रभावी परंपरा विकसित की जा सकती है। स्त्रियों के गीत जीवन का हिस्सा हैं, उनकी जीवन-शैली में अनुस्यूत हैं। उनका चरित्र सामुदायिक और स्वभाव सहज है। इस कला में हास्य-व्यंग्य, छेड़-छाड़ भी खूब है। इसका रसास्वादन ज्ञान-वर्द्धक और आनंददायक एक साथ है। अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए हमेशा यथार्थ का अनुकरण करने की मजबूरी भी यहाँ नहीं है। बल्कि यथार्थ और कला के बीच एक अंतराल है। इस अंतराल के कारण ही इस कला में एक विशेष प्रकार की लीलामय कल्पनाशीलता दिखाई पड़ती है, जो दरअसल समूची भारतीय कला की विशेषता है। इसी अंतराल में वैकल्पिक जीवन के यूटोपिया जन्म लेते हैं। स्त्रियों और निम्नवर्ग का कला-साहित्य प्रायः वैकल्पिक जीवन का यूटोपिया रचकर प्रकारांतर से यथार्थ की आलोचना करता है।
यह कहना अत्युक्ति न होगी कि लोक-गीतों तथा इसी प्रकार की अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के जरिए स्त्रियों की सामुदायिक एकजुटता बनती और मजबूत होती है। इस सामुदायिक एकजुटता के कारण पितृसत्तात्मक मूल्यों की आलोचना कर पाना और एक बेहतर मानवीय जीवन का सपना देख पाना संभव होता है।
स्त्री-लोकगीतों में स्त्रियों की संगीतमय आवाजें सुनाई पड़ती हैं। यहाँ वह स्पेस बनता है जहाँ वे सामाजिक-पारिवारिक जीवन, पितृसत्तात्मक सामाजिक-मूल्यों और यथार्थ को लेकर अपना गीत-संगीतमय विमर्श रचती हैं। यह ऐसा स्पेस है जहाँ स्त्री का कर्तृत्व रूप सर्वाधिक मुखर होता है। यहीं हम मुक्ति, स्वाधीनता और सुख के उन मायनों की झलक पा सकते हैं जो आज के समय में प्रचलित मायनों से कई मामलों में भिन्न हैं। किंतु धैर्य, और संवेदनशीलता के बिना बहुत संभव है कि कुछ भी न सुनाई पड़े और जो सुनाई पड़ भी जाए उसकी कोई सार्थकता समझ में न आए। कुछ सार्वभौमिक कोटियों को आँख मूँद कर लागू करने पर हो सकता है अंधकार के सिवाय कुछ भी न दिखे।
उल्लेखनीय है कि लोकसाहित्य और भक्तिसाहित्य में गहरा आदान-प्रदान हुआ है। लोक साहित्य में पितृसत्तात्मक मूल्यों से बाहर निकलने की छटपटाहट खूब दिखाई पड़ती है। इस छटपटाहट की छाप भक्तिकालीन साहित्य पर भी बहुत गहरी पड़ी है। यह अकारण नहीं है कि ज्यादातर भक्त कवयित्रियों ने स्वयं को वैवाहिक और घरेलू जीवन के बंधनों से बाहर रखा, विवाह की पारंपरिक संस्था के साथ साथ धन और सामाजिक हैसियत को भी त्याग दिया। प्रकारांतर से इन्होंने स्त्री-पुरुष संबंधों के पारंपरिक आधार को ही त्याग दिया। भक्त/संत कवियों की तरह शाक्त परंपरा में देवियों की भूमिका भी विचारणीय है। ये अत्यंत सकर्मक, शक्तिशाली, क्रियाशील और क्रुद्ध देवियाँ हैं। स्त्री की इन छवियों को पितृसत्तात्मक संस्कृति के समान्तर और विकल्प के रूप में पढ़ने पर दिलचस्प नतीजे निकल सकते हैं। किंतु यह स्वतंत्र अध्ययन का विषय है, इसलिए फिलहाल इस विस्तार में जाना ठीक नहीं होगा।
स्त्री और दलितों की मौजूदा हालात के लिए केवल पारंपरिक भेदभावपरक सांस्कृतिक मूल्यों को जिम्मेदार मान लेने से उपनिवेशवाद और नवसाम्राज्यवाद की राजनीतिक-आर्थिक भूमिका का ही निषेध हो जाता है। उत्पीड़न-शोषण को सिर्फ सांस्कृतिक उपादानों - जाति-वर्ण-लिंग के जरिए व्याख्यायित करने के परिणाम स्वरूप राजनीतिक-आर्थिक-ऐतिहासिक संदर्भ परिदृश्य से ही गायब हो जाते हैं। इस प्रकार की सोच प्रकारांतर से भारतीय स्त्री की कर्तृत्व-क्षमता का भी निषेध कर देती है। विडंबना यह रही है कि पश्चिमी नारीवादी चिंतकों ने भी पितृसत्तात्मक धार्मिक समाज द्वारा निर्मित सताई गई निःसहाय भारतीय स्त्री की छवि को ही यथावत स्वीकार लिया। भिन्न सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ में विकसित हुई सैद्धांतिकी स्त्री की कर्तृत्व क्षमता (एजेन्सी) और विरोध-चेतना को चिन्हित करने में असफल रही। वास्तव में वैयक्तिकता, स्वाधीनता/मुक्ति और सुख के मायने अलग-अलग सांस्कृतिक-ऐतिहासिक संदर्भों में अलग-अलग होते हैं। किन्हीं सार्वभौमिक कोटियों के आधार पर उन्हें नहीं समझा जा सकता। इसलिए स्त्री-गीतों के मर्म को समझने के लिए ऐसी विश्लेषणात्मक कोटियाँ विकसित करनी पड़ेगी जो भिन्न सांस्कृतिक परिवेश में स्त्री-एजेन्सी की अभिव्यक्ति के विशिष्ट रूप को 'डिकोड' करने में समर्थ हो। ऐसी विश्लेषणात्मक कोटियाँ संस्कृति-विशेष के प्रति संवेदनशील रहकर ही विकसित की जा सकती है। स्त्री-गीतों के अध्ययन से संस्कृति-विशेष के रूपों और अवधारणाओं के प्रति संवेदनशील विश्लेषणात्मक कोटियों का विकास संभव है।
यहाँ ज्ञान, धर्म, साहित्य, कला का पश्चिम या अरब की तरह सांस्थानिक रूप प्रायः नहीं रहा है। यहाँ ज्ञान एवं कलाओं की परंपराएँ लोक और शास्त्र में इस कदर फैली हुई थीं कि किसी के लिए उन्हें पूरी तरह नष्ट कर पाना नामुमकिन था। इसलिए पुस्तकों एवं पुस्तकालयों को जलाकर भी आक्रांता ज्ञान और साहित्य की अनवरत प्रवाहमान और विकासमान धारा को एक सीमा से अधिक बाधित नहीं कर सके। लेकिन औपनिवेशिक दौर में यूरोपीय अध्येताओं ने और उसके बाद भारतीय विद्वानों ने लोकसाहित्य एवं लोकज्ञान को तिरस्कृत एवं हतोत्साहित कर भारतीय साहित्य एवं संस्कृति की जड़ों को ही सुखा देने की ऐसी गलती की जिसकी मिसाल समूचे भारतीय इतिहास में नहीं मिलती।
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