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दरवाजा खुला छोड़ दो, कृपा कर
हवा जैसा कुछ नहीं है
जब कि ये पीछे के अहाते से इमारत की तरफ बहती है
पर्दों के पेट फूल जाते हैं, आँधी खनखनाहटें
गलियों में पताका खंभों की रस्सियाँ फड़फड़ा उठती है
पुल के नीचे और नगर में
कोई बराबरी नहीं
ऐसा ही वसंत काल में होता है, मैं शरदकालीन तूफान को याद करता हूँ
वह कैसे दरख्तों और मचानों को झकझोर देता है
छतों को उखाड़ फेंकता है
कोई बराबरी नहीं
तुमने उस औरत के बारे में तो पढ़ा होगा ना जो अपने कुत्ते के साथ पुल से गुजर रही थी
तूफान ने उसे नदी में धकिया दिया। वह डूब गई, काश मैं यह देख पाता
कोई बराबरी नहीं
लेकिन मुझे आश्चर्य है कि तुम अपने बच्चे के साथ यहाँ क्यों आई हो
तुम्हारी माँ तो कभी की चली गईं। अब वह
शांति के समंदर में तैर रही हैं, उनकी आँखो की सफेदी भी शांत है
अब वे तुम्हें नहीं पहचाननतीं
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