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कविता

दिन की थैली

हेलेन सिनर्वो

अनुवाद - रति सक्सेना


दिन के थैली में काफी जगह होती है
थूक या चबाए हुए रोटी के टुकड़ों के लिए
             चबाना, निगलना, पलकें झपकाना, आँख मिचकाना
थैलियों भरी उबासियाँ, अधोवायु,
रिसाव, बतकहनियाँ... फुसफुसाहटें,
             हिम खंड और निर्झर झरनें
जहाँ मोटरबोट की खड़खड़ाहट लहर को लहर के काटती है
एक अकेली जल बतख बर्फ को छेदती है
             तलहटी के कीच की ओर रास्ता बनाती हुई
बिजली घर की चिमनी से निकलता धुँआ, ये सब भी
दिन की थैली में समाता है... गिरिजाघर का शिखर, और डिब्बे
             बच्चों की गर्दन और बगलों में छिपी खिलखिलाहटें
रेत का घिसना, माइक्रोवेव की बीप बीप
चम्मचों का खनखनाना... कपों का खड़खड़ाना और बेवफाई
             छत से उखड़ते प्लास्तरों को घूरना
गलबहियाँ, घुटने चलना, संदेश भेजना
पढ़ाई, ये सब दिन की थैली में
             आ जाते हैं... और फिर भी जगह बच जाती है

लेकिन वक्त चूहा है... कुतरता रहता है
हर शाम को बिल से बाहर निकला है
             थैलों को रस्सी से बाँध लेता है
और नीचे तहखाने में ले जाता है
गोया कि भरा हो चीज और ओटमील,
             खजूर, केक और मुँह में घुल जाने वाले मांस से
जल्दी ही चूहा दिन की थैली को तहखाने से
सीढ़ियों से होते हुए सब वे टनल ले जाता है
             जहाँ पर रेलगाड़ियाँ आती जाती हैं
और वहाँ से नीचे फिर एलिवेटर से सुरंग में रखे बम पर
घसीटते हुए, उतारते चढ़ाते, धक्का दे देता है
             नीचे, वेंटीलेशन शाफ्ट के साथ

भुलक्कड़ी की नदी में कीचड़ के धब्बे।

 


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