इस समूचे लेख में लोकगीतों के साक्ष्य पर जिन बिंदुओं की चर्चा की गई, उन्हें समन्वित कर कुछ बातें तो फिलहाल सूत्रबद्ध की जा सकती हैं।
भारतीय समाज में बेटी के जन्म से जुड़ी तमाम धारणाओं में से हम (अकादमिक जगत के लोग) केवल उन्हीं से परिचित हैं, जो भारतीय समाज को पिछड़ा, जड़ और ठहरा हुआ साबित कर सकें; जो हमें हीनताबोध से ग्रस्त कर सकें, जो हमारे मन में अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति नफरत के भाव पैदा कर सकें। लोकगीतों एवं उनसे जुड़े लोक-विश्वासों के प्रमाण पर हमने पाया कि हमारी अब तक की धारणा उपनिवेशवादियों द्वारा तथ्यों के साजिशपूर्ण चयन से निर्मित की गई थी/है। बेटी के जन्म का प्रसंग तो एक नमूना भर है, इसके सहारे हम कहना ये चाहते हैं कि भारतीयता के तमाम पहलुओं की हमारी समझ अधूरी है और साजिशपूर्ण स्थापनाओं की निर्मित्ति है। हम बिल्कुल नहीं कहते कि हमारे समाज एवं हमारी सभ्यता में खामियाँ नहीं रही हैं, लेकिन प्रायोजित मानदंडों के जरिए तय की गई स्थापनाओं को 'अपौरुषेय' मानकर हम अपने अतीत की सही और (यथासंभव) मुकम्मल पहचान नहीं कर सकते।
पीड़िया-उत्सव के प्रसंग में हमने देखा कि पूर्व-औपनिवेशिक भारतीय समाज में औरत को सहज ही कितना (भरपूर) 'स्पेस' मिला हुआ था, जबकि आधुनिकता (औपनिवेशिक) की प्रेरणा से स्त्री को सभ्य बनाए जाने के अभियान के कारण यह 'स्पेस' पहले से काफी घटा है।
पीड़िया, विवाह एवं बेटी की विदाई के गीतों के अध्ययन से हमें मायके में बेटी के महत्व और उसकी भूमिका तय करने में मदद मिली। हमने देखा कि बेटी अपने मायके वालों की खैरियत के लिए कितनी चिंतित रहती है। पिता और भाई भी अपनी बेटी/बहन के सुखी जीवन की खातिर, पितृसत्तात्मक मूल्यों के दायरे में ही सही, कितने फिक्रमंद और चिंतित रहते हैं। ये गीत पिता-माँ-भाई से बेटी के प्रीतिकर संबंधों की मार्मिकता का सुखद एहसास कराते हैं।
लोकगीतों में दो किस्म के विरह-गीत होते हैं। ढेर सारे गीत ऐसे हैं, जिनमें घर से कमाने गया नौजवान मर्द दशकों तक वापस नहीं लौटा। इस वियोग का दुख उस नौजवान की पत्नी को झेलना पड़ता है। बेटे के न आने का दुख एक माँ के नजरिए से किसी भी गीत में नहीं गाया जाता। 'माँ का दुख' विदा हो रही बेटी या ससुराल में दुख झेल रही बेटी के प्रसंग में दर्ज हुआ है। इसी कड़ी में उन गीतों को भी जोड़ सकते हैं, जिनमें मायके वालों से बिछड़ रही 'बेटी का दुख' रचा गया है। बेटी पराया धन कही जाती है। संभवतः उसके पराया हो जाने का एहसास ही माँ को ज्यादा सालता है। कमाने गया बेटा आए या न आए, वह तो अपना ही है, इसीलिए उसकी ओर से माँ प्रायः बेफिक्र रहती है। बेटी तो एक बार विदा हो जाने के बाद परायी मान ली जाती है। इसी के साथ यह भी कह देना जरूरी लगता है कि बेटी के जन्म पर माँ-बाप का दुखी होना सामाजिक रवायतों की आलोचना के रूप में ज्यादा व्यंजित होता है। परदेसी पति की पत्नी का विरह-गीत भी कई दफा इस शिकायत के रूप में ही रचा गया है कि यदि पति को अपनी दुल्हन की इच्छाओं और जरूरतों की परवाह नहीं, तो वह स्त्री (पति के) कुल की मर्यादा ढोने के लिए विवश क्यों रहे! ढेर सारे गीतों में वियोगिनी पत्नी ब्याहता के लिए तय किए गए दायरों को अतिक्रमित करती है। लेकिन गीतों में विदाई के प्रसंग इतने कारुणिक हैं कि वाकई ये 'शोकगीत' कहे जा सकते हैं। हालाँकि इनमें भी सामाजिक रीति-रिवाजों की भरपूर लानत-मलामत की गई है।
हमने पाया कि लोकगीतों में किसी स्त्री या पुरुष को सीधे-सीधे खलनायक के रूप में कम ही खड़ा किया गया है। इसके बजाय उन जटिलताओं का भाष्य रचा गया है, जिनमें स्त्री-पुरुष दोनों को उलझना पड़ता है। इसी प्रकार स्त्री केवल पत्नी या बहू ही नहीं, सास और ननद (पुरुष-पक्ष) भी होती है। अमानवीय सामाजिक रवायतें भले ही पहली नजर में स्त्री-विरोधी जान पड़ें, लेकिन भूमिकाओं के हेरफेर से उनका शिकार औरत-मर्द दोनों ही होते हैं। यही नहीं, भूमिकाओं के हेरफेर से दोनों उन मूल्यों को लागू करने में भागीदार भी होते हैं। कई बार तो 'पति' की भूमिका में ही पुरुष चरम उत्पीड़न का शिकार होता है। जो स्त्री (सास या बहू) ज्यादा मजबूत भूमिका में होती है, परिवार का पुरुष सदस्य (बेटा/पति) उस महिला की चालों के मुताबिक चलने को मजबूर दिखाई पड़ता है। इसी प्रसंग में हमने यह भी जिक्र किया कि लोकगीतों में स्त्री की एजेन्सी बहुत ही मजबूत है और पुरुष की एजेन्सी बेहद कमजोर।
हमने देखा कि घर में सताई जाने वाली बहू जब बेटे को जन्म देती है, तो परिवार में उसकी अहमियत इतनी बढ़ जाती है कि वह जेठ और ससुर की नाफरमानी कर सकती है, पति उसकी चिरौरी करता है और ननद तो उसके सामने याचक की मुद्रा अख्तियार कर लेती है। गीतों में इस अवसर पर सास का तो जिक्र ही नहीं आता अथवा बहुत हुआ तो कुछ गीतों में वह पोते के जन्म की खुशियाँ मना लेती है। उम्र के आखिरी दौर में अपने जीवन का सिंहावलोकन करने पर स्त्री पाती है कि इस बीत गई जिंदगी में उसका 'निजी जीवन' तो कहीं नहीं। इस विषय के निर्गुन गीत भारतीय समाज के भीतर आसानी से न दिखने वाली वैयक्तिकता का संकेत करते हैं।
लेख में दो अवसरों पर सती होने की अवधारणा समस्याग्रस्त होती है। एक बार, जब एक गीत में सास की साजिशों के कारण मृत बहू की चिता पर उसका (बहू का) पति सती हो जाता है। दूसरी बार, जब एक अन्य गीत में पति द्वारा प्रेमी को मार दिए जाने पर औरत अपने पति को छकाकर प्रेमी की लाश के संग सती हो जाती है।
हमने पाया कि स्त्रियों के लोकगीतों में प्रेम-प्रसंग तनिक उलटकर, ढककर यानी 'पुरुष की नजर बचाकर' चित्रित किए गए हैं। सामाजिक पदानुक्रम में क्रमशः निचली जातियों की औरतों के प्रेमगीतों में यह पर्देदारी घटती जाती है, उनके गीतों में प्रेम और यौन संबंधों की बिंदास अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है। हमने देखा कि प्रेम और काम-संबंधों के संदर्भ में पुरुषसत्ता द्वारा तय किए गए दायरों को स्त्री बार-बार और अनेक स्तरों पर अतिक्रमित करती है। वह प्रेमी के साथ काम-संबंध बनाती है और पूरे प्रेम-व्यापार के लिए प्रेमी को जिम्मेदार (दोषी नहीं) ठहराती है। वह देवर, ननदोई इत्यादि के साथ प्रेमपूर्ण काम-संबंध कायम करती है, जेठ और ससुर की नीयत पर सवाल खड़े करती है। इससे अकादमिक दुनिया की ये धारणाएँ टूटती हैं कि पुरुषों द्वारा तय किए गए दायरे में ही जीना स्त्री की बेबसी रही है और वह हमेशा लांछित होती रही है। लोकगीतों से साबित होता है कि औरत अपनी सीमा में पारिवारिक मर्यादा और नैतिकता के नुमाइंदों - जेठ और ससुर - पर जवाबी लांछन भी लगाती रही है।
औरतों ने कृष्ण और राधा के प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी प्रेम-भावनाओं के ढेर सारे लोकगीत रचे हैं। यही गीत सूर, मीरा, चैतन्य या ऐसे ही अन्य कवियों की रचनाओं की बुनियाद बने। इसके अलावा कई दफे हमने प्रसंगानुसार लोकसाहित्य और भक्तिसाहित्य के अंतर्संबंधों का जिक्र किया है। इससे लोकसाहित्य एवं भक्तिसाहित्य के अंतर्संबंधों पर विस्तार से अध्ययन करने की जरूरत का एहसास होता है।