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विमर्श

भोजपुरी लोकगीतों में औरत की दुनिया

अशोक सिंह यादव

अनुक्रम लोकगीत संचयन पीछे    

(1)

बँसवा के जरीयाँ से नीकले करीलवा
अरे बँसवा के जीव क जवाल रे ललनवाँ
माई की गोदीया में जनमल बीटियवा
अरे माई के जीव क जवाल रे ललनवाँ
जब हम जनतीं बेटी लीहँऽ जनमवाँ
अरे पीसी पीयतीं मरचा क झाक रे ललनवाँ
झकिया के पीयले हो बेटी मरी जइतीं
अरे टूटि जइतँ देस क संतात रे ललनवाँ
जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवाँ
अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ
सासु ननद घरे दीयनो ना जरे
अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाइ रे ललनवाँ
जब हमरे बेटी खेलत-खात अइलीं
अरे दिल क दरद हरि लेनी रे ललनवाँ
सासु ननदिया क जीव जरि जाला
अरे आपन प्रभु जीव जुड़वावैं रे ललनवाँ
जब हमरे बेटी क अइलीं बरियतिया
अरे चारों ओरियाँ भइनँ अजोर रे ललनवाँ
सासु ननद घरे दीयना जरत है
अरे आपन प्रभु चलें हरसाइ रे ललनवाँ

बेटी पैदा करने वाली औरत कहती है : बाँस की जड़ से निकलने वाला करील उसकी परेशानी का सबब बनता है। उसी प्रकार माँ की गोद में पैदा हुई बेटी उसकी परेशानी का सबब बनती है। अगर जान पाती कि बेटी पैदा होगी, तो कोई जतन करके उसे पेट में ही मार डालती। बेटी के पैदा होने पर मानो चारों ओर अँधेरा छा गया है, सास-ननद मातम मना रही हैं और पति मुरझाए हुए हैं।

जब बेटी खेलने-कूदने लायक हुई, तो उसकी बाललीलाओं से हृदय को सुकून मिलता। हालाँकि सास-ननद तो जलती-चिढ़ती रहती हैं, लेकिन मेरे पति अपनी बिटिया को देख-देखकर आह्लादित होते हैं।

बेटी की बारात आने पर चारों ओर उजाला हो गया। सास-ननद ने भी दीया जला रखा है। मेरे पति खुश होकर चल रहे हैं।

(2)

गाइ क गोबरा मँगाइला
अँगना लीपाइला हो
बहिनी सेहि बेदियाँ बइठँऽ सतनरायन बाबा
ओढ़ले पीतम्मर
जौं मोहिं जनतों सतनरायन बाबा ओढ़ले पीतम्मर हो
बहिनी नीहूरी नीहूरी गोड़वा लगतों
मगन कुछु माँगित
माँगहु ए तिरिया माँगा
मगन कुछु माँगा न हो
तिरिया आजु मगन कुछु देबों
मगन पूरा करबों न हो
सोनवा त माँगीला हरदी एइसन
रूपवा दधीय एइसन हो
ललना धीयवा त माँगीला हो लवंग एइसन
पूतवा हो नरीयर एइसन
का करबू सोनवा हरदी एइसन
रूपवा दधीय एइसन हो
तिरिया का करबू धीयवा हो लवंग एइसन
पूत नरीयर एइसन हो
सोनवा त लेब सोहाग खातिर
रूपवा सीङार खातिर हो
ललना धीयवा त लेबों धरम खातिर
पूता धन सँउपऽ खातिर हो
सीता के हो बाँटिहँऽ परसदवा
त के चना चूरन हो
सीता के हो भूखीहँऽ तुहरऽ बरत
कथा हो बइठी सूनबू
मनसा तुहरऽ पूरा होई हो
लछिमन बाबू परसदवा
त राम चना चूरन हो
एतनी बचन जौं पूरा करबा
बरत हम भूखबँऽ
कथा हो बइठी सूनबँऽ
मनसा हमरी पूरा होई हो

औरत ने गाय के गोबर से आँगन पुतवाकर वेदी बनवाया। उसी वेदी पर 'सत्यनारायण भगवान' आकर बैठे। औरत ने झुककर उनके चरण छूए और कुछ वरदान माँगे। उसने खरा सोना, गोरा रूप, सुंदर बिटिया और बलिष्ठ बेटा आशीर्वाद के रूप में माँगा। सत्यनारायण जी पूछते हैं, 'ये सब किसलिए माँग रही हो?' वह औरत बताती है कि सुहाग के लिए सोना, सजने-सँवरने के लिए रूप, धर्म-लाभ के लिए बेटी और वारिस बनाने के लिए बेटा माँग रही है। फिर सत्यनारायण जी पूछते हैं कि वह कैसे कथा संपन्न कराएगी? (गीत में इस बिंदु पर औरत के लिए सीता का संबोधन आता है।) वह कहती है कि राम और लक्ष्मण जी प्रसाद बाँटेंगे। वह खुद व्रत रखेगी और बैठकर कथा सुनेगी। इसके बाद उसकी मंशा पूरी हो जाएगी।

(3)

अंगना मों झारि-झुरि दुआरे घुर लगवलीं
कि जामि गइलँ ना, ऊजे अल्हर अमोलवा
कि जामि गइलँ ना,
अल्हर अमोलवा मों सींचहू ना पवलीं
कि आइ गइलँ ना, मोरे ससुरू उवदवा
कि आइ गइलँ ना
मचियाँ हि बइठेलँऽ बाबा बढ़इता
फेरा हो बाबा ना, मोरे ससुरू उवदवा
फेरा हो बाबा ना
कइसे क फेरीं बेटी तोरे ससुरू उवदवा
तुहार ससुर ना, माँगै अगहन गवनवाँ
तुहार ससुर ना

युवती ने आँगन झाड़-बुहारकर घर के सामने एक घूरा लगाया। उस घूरे पर एक अमोला (आम का पौधा) उग आया। वह उस अमोले को सींचने भी न पाई कि उसके ससुर ने गौने की माँग कर दी। युवती ने अपने पिता से ससुर की माँग अभी न मानने का आग्रह किया। पिता ने अपनी असमर्थता जताते हुए कहा, 'तुम्हारे ससुर अगहन महीने में ही गौना माँग रहे हैं।'

(4)

लगली पीड़ियवा छोड़वहू ना पवलीं
कि आइ गइलँ ना, हमरे गवने क उवदवा
कि आइ गइलँऽ ना
सभवाँ हि बइठल बाबा बढ़इता
फेरा हो बाबा ना, हमरे गवने के उवदवा
फेरा हो बाबा ना
कइसे क फेरों बेटी गवने क उवदवा
तुहार ससुर ना, झोंके मागेलैं गवनवाँ
तुहार ससुर ना
जाहुँ न बेटी हो अपने ससुरवा
तुहार पीड़िया हम गंगा बहवइबऽ
तुहार पीड़िया
जइसे-जइसे बाबा हो मारै गंगा क हिलोरवा
वोइसे हो वोइसे ना, हमरै बीहरैला करेजवा
वोइसे हो वोइसे ना

पीड़िया लगाने वाली कोई लड़की कहती है, 'मैं अभी पीड़िया छुड़ाने भी न पाई कि मेरे गौना का दिन तय हो गया।' वह अपने पिता से गौना का दिन फेरने का आग्रह करती है। पिता अपनी असमर्थता जताते हुए बेटी को उसकी पीड़िया गंगा में विसर्जित करने का आश्वासन देते हैं। लेकिन लड़की को संतोष नहीं होता, वह कहती है, 'जैसे-जैसे गंगा में लहरें उठती-गिरती हैं, वैसे-वैसे मेरे कलेजे में कसक होती है।

(5)

सीता झमकि के चढ़ैलीं अटरिया
त अदित मनावेलीं हो
ससुर माँगे राजा दसरथ
सासू कोसिल्या एइसन हो
हे ललना देवर माँगेलीं बाबू लछिमन
पुरूख भगवान एइसन हो
दूसर मगन सीता माँगेलीं
माँगि के सुनावेलीं हो
ललना माँगेलीं सरजू जी के दरसन
अवध सीङ्होरा माँगे हो।
हे ललना माँगेलीं अजोद्धा एइसन राज
त जुग-जुग एहवात बढ़े हो

सीता झमक कर अटारी पर चढ़ती हैं और सूर्यदेव का ध्यान करके उनसे राम जैसा पति, लक्ष्मण जैसा देवर, राजा दशरथ जैसा ससुर, रानी कौशल्या जैसी सास, अयोध्या का राज और सरयू का सुलभ-दर्शन माँगती हैं।

(6)

फूलवा बरन हम सुंदर ए बाबा
सेंदुर बरन चटकार
हमरे सरेखे बर खोजिहा ए बाबा
तब रचिहा हमरो बियाह
पूरूब खोजलीं बेटी पस्चीम खोजलीं
खोजि अइलीं राम भवन
तोहरे सरेखे बेटी बर नाहीं मिलनँऽ
अब बेटी रहबू कुँवार

बेटी : मैं फूल जैसी सुंदर और सिंदूर के रंग-सी चटख हूँ। पिताजी, मेरे लायक वर खोज लीजिएगा, तब मेरा विवाह करिएगा।

पिता : मैंने हर मुमकिन जगह खोजा, लेकिन तुम्हारे लायक वर नहीं मिला। लगता है, तुम कुँआरी ही रह जाओगी।

(7)

बाबा बरवा त खोजीहा सहरीया
सहर के लोगवा सुंदर हो
बेटी सहरे क लोगवा माँगे तीलक
तीलकवा कहाँ से अइहँ न हो
बाबा खोलि दीहा माई क तीजोरिया
तीलक जूटी जइहँ न हो

बेटी : पिताजी! मेरे लिए शहरी लड़का ढूँढ़िएगा, शहर के लोग सुंदर होते हैं।

पिता : बेटी! शहरी लोग तिलक माँगते हैं, तिलक के लिए धन कहाँ से आएगा?

बेटी : पिताजी! माँ की तिजोरी में से तिलक की व्यवस्था कर दीजिएगा।

(8)

मोरे पीछुअरवाँ रे घनि बँसवरिया
अरे तोता मैना करेलँऽ बसेर रे ललनवाँ
सोइ गइलँऽ तोता रे, सोइ गइलँऽ मैना
अरे सोइ गइलँऽ देस संसार रे ललनवाँ
एक नाहिं सूतेलँऽ बेटी क बाबा
अरे जेकरे दहेजवा क सोच रे लगनवाँ

घर के पीछे घने बाँसों में तोता-मैना की रिहाइश है। तोता-मैना सो गए, दुनिया-जहान के लोग भी सो गए, पर बेटी के पिता को दहेज की चिंता के मारे नींद नहीं आती।

(9)

नीबिया हि नीबि करूआइन ए बाबा
बहि जाले सीतली बयार
जेहि तरे बेटी क बाबा पलंग दसावेलँऽ
नींदिया सोवेलँऽ अनचीत
घर में से निकलेलीं बेटी हो कवन देइ
धइले देवढ़िया धइले ठाढ़
जेकरे ही घरवाँ ए बाबा कन्या कुँआरी हो
ते कइसे सोवे अनचीत
कुछु बेटी सोईला, कुछु बेटी जागीला
कुछु रे दहेजवा क सोच
का ऊनकर खइला ए बाबा
का ऊनकर पीयला हो
का ऊनकर कईला ऊधार
पान ऊनकर खइलीं बेटी
पानी ऊनकर पीयलीं हो
फूलवा क करीला ऊधार
पान ऊनकर फूँकि दा ए बाबा
पानी ढरकावा हो
फूलवा के देहू छीतिराय

नीम की घनी छाया है और ठंठी हवा बह रही है। बेटी के पिता नीम तले पलंग बिछाकर सो जाते हैं। घर के भीतर से बेटी निकलकर आती है और पूछती है, 'पिताजी, जिसके घर कुँआरी कन्या हो, वह भला निश्चिंत होकर कैसे सो सकता है?' लेकिन बेटी के पिता सो नहीं, सोच रहे थे। वह कहते हैं, 'बेटी, कुछ सोता हूँ, कुछ जागता हूँ और कुछ दहेज के बारे में सोचता हूँ।' बेटी पूछती है, 'आपने उनका क्या खाया-पीया है कि आप इतने चिंतित हो गए हैं?' पिता कहते हैं, 'मैंने उनका पान खाया है, पानी पीया है और फूल उधार किया है (अर्थात उनके घर बेटी की शादी तय की है)।' इस पर बेटी ऐसे रिश्ते को ठुकरा देने की सलाह देती है, जिसके कारण उसके पिता की नींद हराम हो गई है।

(10)

धनवाँ सूखइनँ ए बेटी
धान के कियरियाँ हो
पनवाँ बरइया के दुकान
गंगा सूखइनीं ए बेटी जमुना सूखइलीं हो
सूखि गइलीं नदी क सेवार
बेटी के बाबा के मनवाँ सूखइलँ हो
अब बेटी रहबू कुँवार
धान हरियइलँ ए बाबा
धान के कियरियाँ हो
पनवा के बरइया के दुकान
गंगा उमड़ली ए बाबा जमुना उमड़लीं हो
बढ़ि गइलीं नदी के सेवार
बेटी के बाबा के मन हरियइलँ हो
अब बेटी ब्याहन जाय

धान के खेत में धान और बरई की दुकान पर पान सूख गया है। गंगा यमुना सूख गई और नदी की सेवार (काई जैसी घास) भी सूख गई। बेटी के पिता का मन सूखा हुआ है कि अब बेटी की शादी नहीं हो पाएगी। खेत में धान, बरई की दुकान पर पान हरे-भरे हो गए। गंगा और यमुना उमड़ पड़ी तथा नदी की सेवार बढ़ गई। बेटी के पिता का मन हरा या हर्षित हो गया कि अब बेटी का ब्याह हो जाएगा।

(11)

झांझर मँड़वा छवइहा मोरे बाबा
गोरी बदन कुम्हिलाय
कहतू त ए बेटी छत्र पीटवतीं
कहतू त सुरूजू अलोप
काहें के मोरे बाबा छत्र पीटइबा
काहें के सुरूजू अलोप
आजु की राति बाबा तुहरे मँड़उआँ
बेहने सुंदर बर के साथ
खोरवन-खोरवन बेटी दुधवा पीअवलीं
दहिया खीअवलीं साढ़ीदार
कोराँ से ए बेटी भुइयाँ ना उतरलीं
बेटो ले अधिको दुलार
जनत त रहला बाबा
आन घरे जइहँऽ
काहें के कइला मोर दुलार

बेटी : पिताजी, छायादार मंडप बनवाइएगा, मेरी गोरी देह धूप लगने से झुलस जाती है।

पिता : बेटी, तुम कहो तो छत बनवा दूँ, कहो तो सूरज को अलोप कर दूँ।

बेटी : मेरे पिताजी, क्यों छत बनवाएँगे और क्यों सूरज को अलोप करेंगे! आज की रात आपके मंडप में रहूँगी, कल तो अपने सुंदर वर के साथ चली जाऊँगी।

पिता : बेटी! मैंने तुम्हें कटोरा भर-भरकर दूध पिलाया, मलाईदार दही खिलाई, अपनी गोद से कभी नीचे नहीं उतारा, उससे भी अधिक दुलार किया जितना लोग अपने बेटों का करते हैं।

बेटी : आप तो जानते ही थे कि मुझे पराए घर जाना है, फिर आपने मुझे इतना प्यार-दुलार क्यों किया?

(12)

अरे काढ़ैलँऽ कवन बाबा आँखी कै पूतरिया
अरे ईह मति जनिहा समधी काठे कै पूतरिया
अरे हमरी कवनि बेटी आँखी कै पूतरिया
अरे काढ़ैलँऽ कवन भइया आँखी कै पूतरिया
अरे ईह मति जनिहा सरऊ काठे कै पूतरिया
अरे हमरी कवनि बहिना आँखी कै पूतरिया

पिता अपनी आँखों की पुतली (अत्यंत प्यारी-दुलारी बेटी) निकालते हैं (घर में से ले आकर मंडप में बैठाते हैं।) और समधी से कहते हैं, 'मेरी बेटी आँखों की पुतली है और इसे काठ की पुतली मत जानिएगा।'

भाई अपनी आँखों की पुतली (प्यारी बहन) निकालते हैं और जीजा (जीजा-साला संबंध परिहासपूर्ण होता है, अतः साला भी जीजा को 'साला' कहता है।) से कहते हैं, 'मेरी बहन आँखों की पुतली है और इसे काठ की पुतली मत जानिएगा।'

(13)

केथुअन चटइया बाबा बइठल बाड़ा
हम्में बइठवले बाड़ा
केथुअन क छतिया बाबा कइले बाड़ा
हम्में धनकारत बाड़ा
कूस की चटइया बेटी बइठल बाड़ीं तोहें बइठवले बाड़ीं
बजरे के छतिया बेटी कइले बाड़ीं तोहें धनकारत बाड़ी

पिताजी, किस चटाई पर आप बैठे हैं और आपने मुझे भी बैठा रखा है। पिताजी, आपने अपनी छाती (हृदय) कैसी बना ली है, कि मुझे अपने से दूर कर रहे हैं।

बेटी, कुश की चटाई पर बैठा हूँ और तुम्हें भी बैठाया है। अपनी छाती मैंने वज्र की कर ली हैं, इसलिए तुम्हें अपने से दूर कर पा रहा हूँ।

(14)

अमवाँ ले मीठी इमीलिया ए बाबा
अरे लगि जइहँ महुआ में कुच रे ललनवाँ
सूतल रहलीं मों अम्मा की गोदियाँ
अरे सपना देखिला अवगुच्च रे ललनवाँ
अरे केकर होला बिआह रे ललनवाँ
लजिया क बतिया बेटी कहलो न जाला
अरे तुहर जे होला बिआह रे ललनवाँ
घरि झारि अइहा बेटी चूल्ह पोती अइहा
अरे बरतन मँजिहा पखारि रे ललनवाँ
सासू क बतिया बेटी अँचरे छिपइहा
अरे ननदी जबाब जनि करिहा रे ललनवाँ
देवरू क बतिया बेटी हँसि भूलवइहा
अरे सामी के हिरदयाँ लगइहा रे ललनवाँ
घरि झारि अइलीं अम्मा चूल्ह पोति अइलीं
अरे बरतन माँजीला पखारि रे ललनवाँ
सासू क बतिया अम्मा अँचरे छिपवलीं
अरे ननदा जबाब नाहीं कइलीं रे ललनवाँ
देवरू क बतिया अम्मा हँसि भूलववलीं
अरे सामी के हिरदयाँ लगवलीं रे ललनवाँ

लड़की अपनी माँ की गोद में गहरी नींद सोई हुई है और सपना देखती है। वह अपनी माँ से पूछती है कि किसका ब्याह हो रहा है? माँ बताती है, 'तुम्हारा ब्याह हो रहा है।' फिर वह बेटी को सीख देती है, 'घर में झाड़ू लगाना, चूल्हे की पुताई करना, बर्तन बढ़िया से माँजना, सास की कही बातों को आँचल में छुपाकर रखना, ननद की बातों का पलट कर जवाब मत देना, देवर की कही बातों को हँस कर भुला देना और अपने पति को हृदय से लगाकर रखना।'

ससुराल से वापस आकर बेटी अपनी माँ को आश्वस्त करती है कि उसने उसके कहे अनुसार ही व्यवहार किया।

(15)

सेर जोखी सोना अइलँऽ
सेर जोखी चाँदी अइलीं
अरे माई सेर जोखी धीया कऽ सूहाग अइनँ
धीया लेइ चऊके बइठँ
दूअरे पर बाबा रोवैं
घरवा में माई रोवैं
अरे माई आजु मोरी दूनिया अन्हारि भइनीं
बेटी मोरी पराया भइनीं
दूअरे पर ससुरू हँसैं
घरवा में सासू हँसैं
अरे माई आजु हमरी दूनिया अजोर भइनीं
बेटा से पतोह अइनीं

बेटी के ब्याह के समय उसकी ससुराल से सुहाग की सारी सामग्री यथोचित मात्रा में लाई गई और बेटी का ब्याह संपन्न हुआ।

विदाई के बखत : द्वार पर पिता रो रहे हैं, घर में माँ रो रही है कि आज हमारी दुनिया अंधकारमय हो गई, हमारी बेटी पराई हो गई है।

बहू के आने पर : द्वार पर ससुर हँस रहे हैं, घर में सास हँस रही है कि आज हमारी दुनिया में उजाला हो गया, बेटे के कारण घर में बहू आई।

(16)

केकरे रोवले आँचल भीगे
केकरे रोवले तउली भीगे
अरे माई केकरे रोवले भीगे डोली परदा
त आजु बहिना चलि जइहँ
माई रोवले आँचल भीगे
बाबा रोवले तउली भीगे
अरे माई भइया रोवले भीगे डोली परदा
त आजु बहिना चली जइहँ
माई के समुझाइ दा लोगवा
बाबा के समुझाइ दा लोगवा
अरे माई भइया जी के गोदिया में उठाइ ला लोगवा
आजु बहिना चली जइहँ

अपनी विदाई के बखत बेटी : किसके रोने से आँचल भीग रहा है, किसके रोने से तौलिया भीग रहा है, किसके रोने से डोली का परदा भीग रहा है? माँ के रोने से आँचल, पिता के रोने से तौलिया, भाई के रोने से डोली का परदा भीग रहा है। ए लोगों, मेरे माता-पिता को समझा दीजिए। मेरे भाई को गोद में उठा लीजिए, आज (उसकी) बहन चली जाएगी।

(17)

पूता के जनमले हो निरमलि कोखिया
दिन दिन रहीला सगोड़
जौ मोहीं जनतीं पूता कोखी होइहँऽ
पीयतीं सुरहिया गाइ क दूध
धीया के जनमले हो झाँझरि कोखिया
दिन दिन रहीला अकेल
जौं मोहीं जनतों धीया हो कोखी होइहँऽ
खइतों मरीचिया क झाक
मरीची की झकियाँ धीया हो मरी जइतीं
धीया क करकिया न होय
ई घर सून देखों, ऊ घर सून देखों
सूनी देखैलों बँसवार
पुरुब क डढ़िया पछुअँ चली गइलीं
मोरे कुइयाँ धधकले आग
के हमरे बेटी क सीर चोटी करीहँऽ
के करीहँ सोरहो सीङार
केकरे हो संगे बेटी खेलन जइहँऽ
के हो कलेउआ लेहले ठाढ़
नाऊन हो बेटी क सीर चोटी करीहँऽ
बारीन करीहँ सोरहो सिंगार
ननदा के संगे बेटी खेलन जइहँ
सासू करीहँ बेटी कऽ अदर

बेटी की विदाई के बाद माँ : बेटा पैदा होने से कोख धन्य हो जाती है, माँ का महत्व बढ़ता जाता है। मैं जानती कि बेटा पैदा होगा तो कामधेनु का दूध पीती। बेटी पैदा होने से कोख खाली-खाली महसूस होती है। मैं जानती कि बेटी पैदा होगी तो मिर्च पीस कर पी जाती। इससे बेटी पेट में ही मर जाती और उसके जीवन में आने वाली तकलीफें हमें नहीं सालतीं। बेटी के चले जाने से मेरा घर-संसार सूना लग रहा है और दुख से मेरा अंतर्मन दहक रहा है। वहाँ (बेटी के ससुराल में) कौन मेरी बेटी का साज-शृंगार करेगा, किसके साथ वह खेलेगी, कौन उसके खान-पान की परवाह करेगा? फिर वह कामना करती है कि नाऊन-बारीन मेरी बेटी का साज-शृंगार करेंगी, ननद के साथ वह खेलेगी और (उसकी) सास उसका मान करेंगी।

(18)

खेत खरीहनवाँ ले आवेनँ बेटी क बाबा
'बेटी-बेटी' डालेनँ पूकार
हमरऽ जे बेटी हो कहाँ चली गइलीं हो
घरवा लगेला सूनसान
घर में से नीकलेनीं बेटी क अम्मा हो
बाबा के देनीं समझाय
तुहरे जे बेटी हो ससुरे चली गइलीं हो
घरवा लगेला सूनसान

खेत-खलिहान से पिता आते हैं और बेटी को आवाज देते हैं। कोई जवाब न पाकर कहते हैं, 'हमारी बेटी कहाँ चली गई? घर सूना-सूना लग रहा है।' घर में से बेटी की माँ निकलकर याद दिलाती है, 'आपकी बेटी अपने ससुराल चली गई, इसलिए घर सुनसान लग रहा है।'

(19)

हरीयर हरीयर बँसवा कटइहा हमरे बाबा
मंदिल उठइहा झकझोर
माँड़ो देखऽ चलैनीं बेटी हो कवन देई
लगि गइनँ अँचरे में धूर
घोड़ा दरवनँ हो दूलहे कवन राम
झारै लगनँऽ अँचरे क धूर

पिताजी, हरे-हरे बाँस कटवाकर घना मंडप छवाइएगा। बेटी अपना मंडप देखने के लिए चलती है तो उसके आँचल में धूल लग जाती है। तब तक दूल्हा घोड़े पर सवार होकर आता है और आँचल में लगी धूल झाड़ने लगता है।

(20)

गाई के गोबर पीयरि माटी हो
गजमोती चऊका पुराई
ताही चऊक चढ़ी बइठेलें कवन दुलहा
हुमवाँ का धुआँ ना सहाय
बाहरि बाड़ू कि भीतर ए कवन सुभवा
मोरे मुखे बेनिया डोलाव
कइसे मो बेनिया डोलाईं सीरी साहेब
बइठल बा नइहर सभ लोग
एतनी बचन जब सुनेलें कवन दुलहा
जोड़ा जामा ऊठें झहराय
ससुरू क धीयवा मँड़उआ बीचे छोड़बों
हम करबों दूसर बिआह
एतनी बचन जब सुनेलीं कवन सुभवा
धइ लीहली घोड़ा के लगाम
तोहरे संगरिया प्रभु जोगिनि होइबों हो
ना संगे माई ना बाप
भूखीयन मरबू पीयसीयन मरबू हो
पान बिनु जइबू कुम्हिलाय
भूखीया नेवारब पीयसिया ए प्रभु जी
पानवाँ देइबि बीसराय
तोहरे संगरिया प्रभु जोगिनि होइबँ
ना संगे माई ना बाप

गाय के गोबर, पीयरी माटी और गजमुक्ता से मंडप में बैठने का स्थान (चौका) बनाया गया। इसी चौके पर दूल्हा बैठा है। हवन का धुआँ उससे सहा नहीं जा रहा। वह दुल्हन को पुकारता है, 'अरी सौभाग्यवती! घर में हो कि बाहर? मेरे मुँह पर पंखी झलो।' इस पर दुल्हन कहती है, 'श्रीमान, मैं कैसे पंखी झलूँ? मायके के सभी लोग बैठे हुए हैं।' इतना सुनते ही दूल्हा अपनी पोशाक झाड़ते हुए उठ खड़ा होता है। अपनी दुल्हन से वह कहता है, 'तुम्हें मंडप में छोड़ जाऊँगा और दूसरा विवाह करूँगा।' तब तक दुल्हन घोड़े की लगाम पकड़ लेती है और कहती है, 'हे स्वामी! आपके साथ जोगिन बनकर रहूँगी, माँ-बाप थोड़े न साथ जाएँगे।' दूल्हा कहता है, 'मेरे साथ भूखे-प्यासे रहना पड़ जाएगा।' दुल्हन कहती है, 'आपका साथ पाकर मैं सारी मुश्किलें आसानी से झेल लूँगी।'

(21)

मोरे पीछुअरवाँ रे घनि बँसवरिया रे
अब बँसवा नइयऽ नई जाय रे
सोहाग मोर अजब बनी
ओही मों बँसवा के पलंगा सलाईला
मखतुलवा क ऊरचन लगाव रे - सोहाग मोर...
अब चारो पउआँ घुँघरू लगाव रे - सोहाग मोर...
अब चारों कोने ईंगुरु ढराव रे - सोहाग मोर...
ओहि पलंगे सूतलँऽ दूलहे कवन राम
अब पँयते ले कवनि देइ जायँ रे - सोहाग मोर...
आगुर चल आगुर चल ससुर जी क बिटिया रे
जोड़ा-जमवाँ धूमिल होइ जाय रे - सोहाग मोर...
एतना बचन जब सुनलीं कवनि देई
अब ऊछड़ि बीछड़ि भुइयाँ जायँ रे - सोहाग मोर...
गोड़ तोरऽ लागीला ससुर जी क बीटिया रे
आगुर आ आगुर आ सरवन क बहिनी रे
जोड़ा जमवाँ लेबों मों धोवाय रे
सोहाग मोर अजब बनी

घर के पीछे लहराते हुए घने बाँस हैं, उन्हीं बाँसों से पलंग बना हुआ है। पलंग में मखतूल का उनचना (पैताना) लगा हुआ है। पलंग के चारो कोनों पर घुँघरू बँधे हैं और एंगुर (लाल सिंदूर) ढरकाया गया है। उसी पलंग पर दूल्हा सोया हुआ है। दुल्हन जाकर पैताने बैठ या सो जाती है। पति दिल्लगी करता है, 'और आगे जाओ, और आगे जाओ! मेरी पोशाक (तुम्हारे बैठने से) धूमिल हो जाएगी।' दुल्हन पहले से ही एकदम किनारे पर थी। दूल्हे के ऐसा कहते ही वह उछलकर नीचे उतर जाती है। दुल्हन के मान करने पर दूल्हा मनुहार करके उसे सेज पर बुलाने लगता है, 'मेरे ससुर की बिटिया, मेरे सालों की बहना! आगे आ जाओ! मैं जोड़ा जामा (गंदा हो जाएगा तो) धुलवा लूँगा।'

(22)

गल्ली-गल्ली घास कइलू
कार चढ़ि अइलू
ऊतरि आवा दूलही
बड़ा चोन्हरइलू
ऊतरि आवा दूलही
गल्ली-गल्ली भइँस चरवलू
कार चढ़ि अइलू
ऊतरि आवा दूलही
बड़ा चोन्हरइलू
ऊतरि आवा दूलही।

गली-गली घूमकर घास करती रही, आज कार में चढ़कर आई हो। अब उतर भी आइए, बहुत भाव खा लिया। गली-गली भैंस चराती रही, आज कार में आई हो। उतर भी आइए, बहुत भाव खा लिया।

(23)

कवन रंगऽ जीपिया कवन रंगऽ सीट जी
कवने रंगऽ आपन भइया भाभी लेहले ठाढ़ जी
काली रंगऽ जीपिया कालीय रंगऽ सीट जी
गोरे रंगऽ आपन भइया भाभी लेहले ठाढ़ जी

किस रंग की जीप है और जीप की सीट किस रंग कही है? हमारे भैया किस रंग के हैं, जो भाभी को लेकर खड़े हैं। काली रंग की जीप है और काले ही रंग की सीट है। भाभी को लेकर खड़े अपने भइया गोरे रंग के हैं।

(24)

रोआइ हम्मे मरला, रोआइ हम्में मरला
ए हमरे राजा
सीनवाँ में सीनवाँ जब हो मिलइबऽ
सीनेदार चेस्टर जब हो लीअइबा
रोआइ हम्मे मरला, रोआइ हम्में मरला
ए हमरे राजा
मुँखवा में मुखवा जब हो मिलइब
मुखेदार मिसिया जब हो लीअइबा
नैनों में नैना जब हो मिलइब
नयनदार सुरूमा जब हो लीअइबा

मेरे राजा, आपने मुझे रुला-रुला कर मार डाला। मैं आपके सीने से अपना सीना तभी लगाऊँगी जब आप मेरे सीने के नाप की चोली देंगे। गीत की आगे की कड़ियों में दुल्हन अपने होंठों के मेल की मिसिया और नैनों के मेल का काजल माँगती है।

(25)

चाकर सीधरिया क चाकर चुइयवाँ
बलम हो पातर मोर करिहइयाँ
टीकवा पहिनि हम सूतलीं अटरिया
बलम हो कोई नाहीं सान मरवइया
कीया सान मारेला लहुरा देवरवा
बलम हो कूल रस लेला ननदोइया

सिधरी (छोटी मछली की एक प्रजाति) तो बहुत चौड़ी है। उसकी चुइयाँ (ऊपर की पतली त्वचा) भी चौड़ी है। मैं तो उससे भी पतली कमर वाली पतली छरहरी हूँ। मैं टीका पहन कर यानी शृंगार करके अटारी पर सोई हूँ। हे बलम! कोई भी मुझे सान नही मार रहा है यानी प्रेमपूर्ण इशारे नहीं कर रहा। या तो छोटा देवर इशारे करता है या ननदोई मुझे देख-देखकर रस ले रहा है।

(26)

सोने की थारी में जेवना परोसलों
जेवना न जेवँऽ टिकउआ गिर गय नारी में
सारी देहियाँ गिर गइलीं बलम की अँकवारी में
झँझरे गढुअवाँ गंगा जल पानी
पनिया न पीयें टिकउआ गिर गय नारी में
सारी देहियाँ गिर गइनीं बलम की अँकवारी में
फूले हजारी क सेज लगवलों
सेजिया न सोवैं झुलनिया गिर गई नारी में
सारी देहियाँ गिर गइलीं बलम की अंकवारी में

नायिका अपने पति को सोने की थाली में खाना परोसने गई, लेकिन पति ने इतना उन्मुक्त प्रेमालिंगन किया कि उसके माथे का टीका नाली में गिर गया और पूरी देह पति की अँकवार में गिर पड़ी। इसके आगे की कड़ियों में पानी पिलाने और सेज लगाते समय पति के द्वारा उन्मुक्त प्रेमालिंगन किए जाने का वर्णन है।

(27)

जेवना न जेवैं हरि निरेखैं मोर टीकुलिया
बड़ी रे दूर ले, धन तोर चमके टीकुलिया
बड़ी रे दूर ले
किया तुहरी देलीं धन माई से बहिनिया
किया हो कइलू ना मनिहरवा इयरवा
किया हो कइलू ना
नाहीं हमरी देलीं राजा माई से बहिनिया
नाहीं हो कइलीं ना मनिहरवा इयरवा
नाहीं हो कइलीं ना
ई टीकवा हमरे ननदा क हउअँ
ननद कइलीं ना, मनिहरवा इयरवा
ननद कइलीं ना

पति, खाना खाने के बजाय मेरे माथे की बिंदिया निहार रहा है। पति कहता है, 'ए धनिया! तुम्हारी बिंदिया बहुत चमकीली है। इसे तुम्हारी माँ-बहन ने दिया है या तुमने किसी मनिहार को अपना यार बना लिया है (जिसने तुम्हें यह बिंदी लाकर दी है)।' पत्नी ताने और मजाक का मिला जुला जवाब देती है, 'मेरे राजा! ये बिंदिया मेरी माँ-बहन ने नहीं दिया है और न ही मैंने मनिहार से यारी की है। ये बिंदी मेरी ननद की है, उसी ने मनिहार को अपना यार बना लिया है।

(28)

सीझत मों रहलीं हो रामरसोइयाँ
गरमीया से ना, मोर दिल घबड़इलँऽ
गरमीया से ना
सासू जी क पुतवा, ननद जी क भइया, हमारे स्वामी ना!
मुखे बेनिया डोलवता, हमारे स्वामी ना!
बेनिया डोलवतऽ क सासु देखि लीहलीं
हमारे पूता ना, भइलँऽ बहू क गुलमवाँ
हमारे पूता ना
जवने ही दिन सासू, सिरे सेंदुर डलनँ
ओही रे दिनवाँ, पूता भइनँ तोर गुलमवाँ
ओही रे दिनवाँ

खाना बनाते वक्त गरमी से परेशान होकर औरत ने अपने पति से पंखी झलने का आग्रह किया। पति को पंखी झलते हुए सास ने देख लिया और अफसोस के साथ कहने लगी, 'मेरा बेटा तो बहू का गुलाम हो गया।' इस पर बहू ने जवाब दिया, 'ए सासु, जिस दिन तुम्हारे बेटे ने मेरे सिर में सिंदूर डाला, उसी दिन वे मेरे गुलाम हो गए।'

(29)

मचियाँ ही बइठलीं सासू
त बहूअरि अरज करै हो
सासू हमके मँगा दा ढोला पनवाँ
त दँतवा हो रतुल करब
नाहीं मोरे ईटिया से बीटिया
बरइयाऽ ना बसैलँऽ हो
बहूअरि नइहरे ले बीरवा हो मँगइहा
त दँतवा हो रतुल करिहा
भल कइलू ए सासू भल कइलू
बरई बरिजि लेलू हो
सासू जब हरी अइहँ जेवना जेवै
तबऽ हो बीरवा माँगब
जेवना बनइहँ मोरी धीया
त बीरन के जेवइहँ न हो
ए बहूअरि हम बइठब आँगन रखवरवा
कइसे क बीरवा मँगबू
भल कइलू ए सासू भल कइलू
बेटवा बरिजि लेलू हो
सासू जब हरी अइहँऽ गेढुआ पीयऽ
तबऽ हो बीरवा माँगब
गेढुआ भरइहँ मोरी धीया
त बीरन के पीयइहँ न हो
बहूअरि हम बइठब चउकठ रखवरवा
कइसे क बीरवा मँगबू
भल कइलू ए सासू भल कइलू
बेटवा बरिजि लेलू हो
सासू जब राजा अइहँऽ मोरि सेजरिया
तबऽ हो बीरवा माँगब
सेजिया लगइहँऽ मोरी धीया
त बीरन के सोवइहँ न हो
बहूअरि हम बइठब ऊनचन रखवरवा
कइसे क बीरवा मँगबू
भल कइलू ए सासू भल कइलू
बेटवा बरिजि लेलू हो
सासू जब हरी जइहँऽ कचहरिया
तबऽ हो बीरवा माँगब
कइ किलो चाहैले खयरिया
त कइ किलो सोपारी न हो
धन कइ ढोला चाही तुहके पनवाँ
त दँतवा हो रतुल करबु
एक किलो चाहैले खयरिया
दूसरी किलो सोपारी न हो
राजा बत्तीस ढोला चाही हमके पनवाँ
त दँतवा हो रतुल करब
दूअरे ले आवैनँ ससूरू
त सासु लइया जोरैलीं हो
ए राजा अब की बहुअवा कलजुगही
त पीयवा हो बरिजि लेलीं
चुप रहा ए धन चुप रहा
कहि जिनि सुनावा न हो
धन चिटुकी क बान्हलि हो बहुअवा
बरिजले ना बरीजैं

पान खाने की इच्छा होने पर बहू अपनी सास से पान माँगती है। सास कहती है, 'तुम मेरी बेटी नहीं हो! और हमारे यहाँ कोई बरई (पान लगाने वाला) भी नहीं रहता।' बहू कहती है, 'सासू जी! अच्छा किया कि आपने बरई को बरज (रोक) लिया। जब मेरे पति भोजन करने आएँगे, उस समय उनसे पान का बीड़ा माँगूँगी।' इस पर सास कहती है, 'मेरी बिटिया खाना बनाकर अपने भाई को खिलाएगी। मैं आँगन में बैठकर नजर रखूँगी। भला बताओ, तुम कैसे पान का बीड़ा माँग पाओगी?' फिर बहू पानी पिलाते हुए पति से पान माँगने की बात कहती है। सास इस अवसर से भी बहू को वंचित करने की धमकी देती है। बहू सेज पर पति से अपनी माँग पूरी करवा लेने की सोचती है। सास फिर बहू को वंचित रखने की योजना बनाती है।

आखिरकार बहू अपने पति से कचहरी में जाकर अपनी माँग जाहिर करती है। पति अपनी पत्नी से पूछ-पूछकर उसकी इच्छा भर खैर-सुपारी-पान लाकर देता है। बहू के द्वारा पति को अपना लिए जाने पर सास आहत महसूस करती है। बाहर से ससुर के आने पर वह शिकायत करती है, 'हे स्वामी! अब की बहुएँ कलियुगी होती हैं। अपने पति को केवल अपना बनाके रख लेती हैं।' ससुर कहते हैं, 'ए मेरी धनिया! चुप रहो! कुछ कहो-सुनाओ मत। अपने पति के साथ चुटकी भर सिंदूर से बँधी ये बहुएँ किसी के रोकने से नहीं मानती हैं।'

(30)

चूल्हि पोतै चलैलीं लहुरी हो पतोहिया
चूल्हिया में चीन्हा सासू डालेलीं हो जी
काहें के मोरी सासू चीन्हा डालि हो देहलू
चूल्हिया पोतत चीन्हा मीटेला हो जी
एतनी बचन सासू सुनही रे ना पवलीं
गोड़े मूँड़े तानेलीं चदरिया न हो जी
साँझे क सूतल दूपहर होइ हो गइनँ
ए सासू कवनीं हो बेदनियाँ हमसे भइलन हो जी
हे सासू उठा सासू कइला दतुअनियाँ न हो जी
हमरी बेदनिया बहुअर तोहूँ नाहिं हो जनबू
हमरी बेदनिया रामऽ बुझिहन हो जी
बाट कऽ चलत बटोहिया मीत हो भइया
भइया हमरो हो संदेसा लीहले जइहा न हो जी
इहे संदेसा हमरे हरि जी से हो कहिहा
तोहरे माता बेदने बियाकुल हो जी
तोहरे मो हरि हो जी के चीन्हले ना जनले
कइसे कहबै तोहरो संदेसवा न हो जी
हमरे जे हरी जी क लंबी-लंबी अँखिया
नकिया त हउअ जइसे सुगना क हो ठोरवा
दँतवा अनरवा के दनवा न हो जी
हमरे जे हरी जी क एड़िया ले धोतिया
इहे हउअँ हरी जी हमार न हो जी
एक बने अइलँ दूसरे बने हो अइलँ
तीसरे बने पहुँचें गजओबर हो जी
मुड़िया उघारि हो राजा गोड़वा हो उघरनँऽ
हे माता कवनी हो बेदनियाँ तोहके भइलन हो जी
हे माता उठा माता कइला दतुअनियाँ न हो जी
हमरी बेदनियाँ ए बेटा तूहूँ नाहीं हो बूझबा
हमरी बेदनियाँ रामऽ बूझिहन हो जी
तूहरी बेदनियाँ ए माता रामऽ नाहीं बूझिहँ
तूहरी बेदनियाँ हम बूझब हो जी
लहुरी पतोहिया सिरवा ओखद हो जी
एतनीं बचन हो राजा सुनही हो ना पवलन
झपसी से न पहुँचैं रामरसोइयाँ न हो जी
हाली-हाली सीझा हो रनिया राम हो रसोइयाँ
हे रनिया तोहके हो पहुँचइबे नइहरवाँ न हो जी
हे रानी तोहरे पीठि भइया जेव जनमल हो जी
हमरे ही पीठि हो राजा भइया जेव जनमतँऽ
हमके लोचनवा नउआ लिआवत हो जी
मोरे पिछवरवाँ सोनरवा हो छोकड़वा
हे भइया धन जोगे गढ़ता हो तिलरिया न हो जी
भइया मोरी धन जइहँ नइहरवा न हो जी
मोरे पिछवरवाँ दरजिया हो छोकड़वा
हे भइया धन जोगे सियहू हो चोलियवऽ न हो जी
हे भइया मोरी धनिया जइहें नइहरवा न हो जी
मोरे पिछवरवाँ रंगरेजवा हो छोकड़वा
हे भइया धन जोगे छपता हो चुनरिया न हो जी
मोरे पिछवरवाँ कँहरवा हो छोकड़वा
हे भइया धन जोगे डड़िया फनवतऽ न हो जी
ओढ़ि पहिनी धन ठाढ़ि हो जौं भइलीं
जइसे उगऽ दुइजी क चनवा न हो जी
एक बने गइलीं दूसरे बने हो गइनीं
तीसरे बने चील्हि मेंड़रालन हो जी
लेहू न कहरा ए भइया अपनऽ हो मजूरिया
हे भइया मोरी धनियाँ जइहँ पइदलवन हो जी
धनिया क ढीलवा बिचारैलं हो जी
जेबा में से कढ़लैं हो राजा सोनवइ क हो छूड़िया
धनिया पर मारेलैं निसनवाँ न हो जी
एक चाकू मरलैं दूसर छूड़ी हो मरलैं
तीसरे छूड़ि रोवै बाबू बलकवा न हो जी
मुँहवा प टूक देइ के रोवैलँ हो बचवा
अरे रोवैलँ हो रजवा
जऊँ हम जनतीं हो रनियाँ तोहूँ हऊ असापत
हरिना करेजा माता के देतिन हो जी
एक हाथे लीहलँऽ हो रजवा रानी क हो करेजवा
एक हाथे लीहलँऽ बाबू बलकवा न हो जी
गलियाँ कऽ गलियाँ हो राजा डालैंलँ हो पुकरवा
केहू लेइ बबुलऽ बलकवा न हो जी
घर में से निकलैलीं पतरी हो तिरियवा
हम लेबैं बबुलै बलकवा न हो जी
एक बने गइलँऽ दूसरे बने हो गइलँऽ
तीसरे बने पहुँचैं माता ओबरिया न हो जी
लेहू न माता हो रानी कै हो करेजवा
माता उठा माता कइला दतुअनियाँ न हो जी
आपन बहुअर ए बेटा नइहर पहुँचवला
हरिना करेजा माता के देता न हो जी
एइसन माता के डोम हथवां बेचतीं
हलखोर हथवां बेचतीं
लगली सेजरिया मोरि बिछोड़लसि हो जी

छोटी बहू चूल्हा पोतने के लिए चलती है, तब तक सास चूल्हे के भीतर चीन्हा (लाइन) खीच देती है। बहू कहती है, 'सासू जी! आपने चीन्हा क्यों खीच दिया? चूल्हा लीपते समय चीन्हा मिट गया। इतना सुनते ही सास सिर से पाँव तक चादर ओढ़कर सो जाती है। बहू के बहुत मनाने पर भी वह नहीं उठती। तब बहू राह चलते बटोही से अपने पति को कचहरी में खबर भेजवाती है। बटोही से खबर पाकर पति तुरंत घर पहुँचता है और माँ से उसकी तकलीफ पूछता है। माँ कहती है, 'मेरी तकलीफ तुम नहीं समझोगे। मेरी तकलीफ बस भगवान समझेंगे।' यह बात बेटे के दिल पर चोट करती है, वह कहता है, 'तुम्हारी तकलीफ केवल भगवान नहीं बूझेंगे, मैं भी बूझूँगा।' तब माँ कहती है, 'छोटी बहू मेरे सिर की दवा है।' माँ की बात सुनकर बेटा रसोईघर में जाकर अपनी पत्नी से कहता है, 'ए रानी! जल्दी-जल्दी खाना बनाओ। मैं तुम्हे तुम्हारे मायके पहुँचाऊँगा। तुम्हारा भाई पैदा हुआ है।' पत्नी कहती है, 'यदि मेरा भाई पैदा होता, तो मेरे मायके का नाई लोचना (बधाई संदेश) लेकर आता।'

इसके बाद पति अपनी पत्नी के शृंगार के लिए तमाम गहने-कपड़े बनवाता है। उन गहनों-कपड़ों से सजीधजी पत्नी बहुत खूबसूरत लगती है। पति को तो वह दूईज का चाँद लगती है। घर से चलकर आगे जंगल में पहुँचने पर पति डोली ढोने वाले कहार को मजदूरी देकर वापस भेज देता है और कहता है, 'अब यहाँ से आगे मेरी पत्नी पैदल जाएगी।' पति वहीं जंगल में पत्नी के सिर से जूँ निकालने लगता है। इसी दौरान जेब से सोने की छुरी निकालकर उसने पत्नी को मार डाला। अंतिम छुरी मारते ही पत्नी के गर्भ में पल रहा बच्चा रोने लगता है। बच्चे का रुदन सुनकर पति भी रोने लगता है और कहता है, 'मेरी रानी! मैं जानता कि तुम गर्भवती हो, तो हिरन का कलेजा ले जाकर माँ को दे देता।' वह एक हाथ में पत्नी का कलेजा और एक हाथ में अपना बेटा लेकर गली-गली आवाज देता है, 'कोई नवजात बेटा लेगा?' एक औरत आकर उसका बेटा ले लेती है।

इसके बाद वह माँ के पास पहुँचता है और अपनी पत्नी का कलेजा उसे देता है। माँ कहती है, 'बेटा! अपनी पत्नी को उसके मायके पहुँचा आए और मुझे हिरन का कलेजा दे रहे हो।' इस पर बेटा अपना धैर्य खो देता है और कहता है, 'ऐसी माता को मैं डोम के हाथ बेच देता, हलखोर के हाथ बेच देता। इसने मेरी लगी हुई सेज अलगा दी।'

(31)

सासू जँतवाऽ गड़ावैं गजवाओबर हो राम
सासू महले में कटतू झरोखवा
त झूरि-झूरि बयारि आवति हो ना
रहिया के चलतऽ बटोहिया हित हो भइया
भइया हमरो सनेसा लीहले जइहा न हो
हमरऽ सनेसा हमरे हरी अगवाँ कइहा
भइया तोर धन पीसतइ पसीजलीं हो राम
तुहरे हरी जी के चीन्हले हो ना जनले
बहिनी केइसे क कहि समूझईबइ हो ना
हमरे हरी जी क एड़ी लगलि हो धोतिया
भइया कन्हिया प धरलँऽ तऊलिया न हो
हमरे हरी जी क काली काली जूलुफिया
भइया बीच कचहरिया पनवाँ कचरत हो
भइया ओनहीं से कहि समूझाइ दीहा हो
भइया तोरे धन क भीजे रेसम चोलियइ हो राम
एतनी बचनि राजा सूनलइँ हो, सूनही नाहि हो पवलँऽ
राजा बनवाँ हो पइसी काटँऽ आल्हर बँसवइ हो
अरे राम सूतल ही डोमवा जगवलइँ हो राम
किया तोरे ए राजा करवा हो परोजवा
राजा किया हो हउअँ तुहार भइया बीअहवइ हो
नाहीं मोरे ए भइया करवा हो परोजवा
अरे नाहीं हमरे हउअँ भइया बीअहवइ हो ना
भइया धन हो जोगवाँ सात रंग बेनियवाँ बीना हो
भइया छीलि हो दीहलैं डोमवा छीकुलवइ हो ना
भइया सात हो रंगवाँ रंगलइँ छीकुलवइ हो राम
भइया बीनि हो दीहलैं सातो रंग बेनियवइ हो
बेनिया के लेई राजा पइसँऽ गजओबरियाँ
धन लेइ हो लेतू बेनिया बयरियइ हो
कइसे क लेईं राजा बेनिया हो बयरिया
राजा आइ हो जईहँ माई तोरी बहिनीयइ हो
माई मोरि गईंलीं हो भर भरसइयाँ
धन बहिनी गईलीं पनिया के घटवइँ हो
बेनिया डोलवतऽ कऽ अइलीं सुखनिंदिया
अरे रामा सुति हो गइलँ दुनहून परिनियइ हो राम
अरे राम माई अईलीं भर भरसईयँऽ से हो
अरे राम बहिनी अईलीं पनिया के घटवइँ से हो राम
अरे रामा माई अगवाँ बहिनी लइया जोरी लवलीं हो ना
माता तूहरे हो जीयतऽ भइया भउजी क नोकर बाड़ैं हो ना
एतनी बचनि अम्मा सूनही ना रे पवलीं
अरे रामा गोड़े मूँड़वा तानैलीं दूपट्टवा
सूतैलीं गजवा ओबरि हो राम
किया तोरे माता रे जर जूड़ी अईलँऽ
माता किया तूहरऽ सिरवा हो धमकलइँ हो ना
नाहीं मोरे पूता रे जर जूड़ी अईलँऽ
पूता नाहीं हमरऽ सिरवा हो धमकलइँ हो
पूता धन क हो करेजवा सिरवाँ ओखद हो राम
पहीरी न लेहू रानी अपनऽ हो कपड़वा
रानी चलि हो चला अपने नईहरवइँ हो
ओढ़ि पहीरि रानी डड़ियाँ हो बईठलीं
एक बन गईलीं दूसर बनवाँ गईलीं
अरे राम तीसर बनवाँ डड़िया छीपवलइँ हो ना
लेइ लेहूँ कँहरा हो अपनी हो बीदइया
अरे धन हमरी अब पयदल जइहँइ हो ना
डड़िया ऊतारि राजा जाँघी बईठवलँ
रानी आजु तुहर ढीलवा हम हेरबइ हो राम
छवऽही महीना राजा तुहरे हो घरवाँ
राजा कबहूँ ना ढीलवा हमरऽ हेरला न हो
राजा अब त हेरीहँऽ माई मोरि बहीनीया न हो
राजा अवरू हेरीहँ हमरी भऊजईयऽ न हो
अरे रामा बगले से तबले कढ़लइँ छुड़वइ हो ना
अरे रामा हति हो दीहलैं रानी क परनवइ हो
रानी हाथ जोड़ि के चली ऊनकरि गईलिन हो
अरे रामा काढ़ि लीहलैं ऊनकर कलेजवइ हो राम
ऊठा न माता हो, लेहू धन करेजवा
पूता तोहऊँ हो लीअइला हरिना करेजवइ हो
नाहीं मोरी माता हो हरीना हो करेजवा
माता चीन्हि हो लेतू धन क अँगूठिया न हो
माता धन क हो करेजवा तोर ओखद हो ना

सास ने घर की भीतरी अँधेरी कोठरी में जाँता गड़वाया। बहू ने कहा, 'सासू जी! घर में आप झरोखा बनवा देतीं तो उससे होकर मंद-मंद हवा आती।' (सास के ऐसा न करने पर) बहू ने राह चलते बटोही से कहा, 'हे बटोही भइया, मेरा संदेश मेरे हरि जी (पति) से कह देना। कहना कि तुम्हारी पत्नी जाँता पीसते हुए पसीने से भीग जाती है।' बटोही : 'मैं तुम्हारे हरि जी को जानता-पहचानता नहीं हूँ। ए बहिनी, मैं उनसे तुम्हारा संदेश कैसे कहूँगा?' बहू : 'मेरे हरि जी की धोती एड़ी तक फहराती है, वे कंधे पर तौलिया रखते हैं, उनकी जुल्फें काली-काली हैं, वे बीच कचहरी पान कूँचते रहते हैं। भइया, मेरे ऐसे पति से समझाकर कह देना कि तुम्हारी पत्नी की रेशमी चोली (पसीने से) भीग जाती है।' बटोही से यह संदेश पाते ही पति ने जंगल में घुसकर नरम बाँस काटा और डोम के घर जाकर सोए हुए डोम को जगाया। डोम ने पूछा, 'राजा! क्या आपके घर कोई उत्सव-कार्यक्रम है अथवा आपके भाई का ब्याह तय हुआ है?' राजा : 'न मेरे घर कोई उत्सव-कार्यक्रम है और न ही मेरे भाई का ब्याह तय हुआ है। मेरी पत्नी के लायक सतरंगी बेनिया (पंखी) बुन दो, भाई!' डोम ने बाँस छीलकर छीकुलियाँ (खपच्चियाँ) बनाईं, खपच्चियों को सात रंगों में रंगकर उनसे पंखी बुनकर तैयार कर दी। बेनिया लेकर पति अपनी पत्नी के कमरे में गया और बोला, 'धनिया, पंखी की हवा ले लो!' पत्नी : 'मेरे राजा, कैसे पंखी की हवा ले लूँ? तुम्हारी माँ-बहन आ जाएँगी।' पति : 'मेरी माँ भड़भूजे के लिए और बहन पानी के घाट पर गई है।'

पंखी की हवा से दोनों प्राणी सुकून भरी नींद सो गए। इसी दरम्यान माँ और बहन घर वापस आ गईं। बहन ने अपनी माँ से शिकायत की : 'माँ! भइया तुम्हारे जीते ही भाभी के नौकर हो गए!' माँ इतना सुनते ही सिर से पाँव तक चादर ओढ़ कर अँधेरी कोठरी में सो गई। बेटे ने पूछा, 'माँ, तुम्हें ज्वर-बुखार आ गया है या तुम्हारा सिर दर्द कर रहा है?' माँ बोली, न मुझे ज्वर-बुखार आया है, न तो मेरा सिर दर्द कर रहा है। मेरे सिर (दर्द) की दवा तुम्हारी पत्नी का कलेजा है।' बेटा अपनी पत्नी के पास गया और बोला, 'रानी, चलो, अपने मायके हो आओ!' पत्नी पहन-ओढ़कर डोली में बैठ गई। दूर जंगल में जाकर पति ने कहार को मजदूरी देकर वापस लौटा दिया, कहा : 'अब यहाँ से आगे मेरी पत्नी पैदल जाएगी।' पति ने अपनी पत्नी को डोली से उतार कर (प्यार से) अपनी जाँघ पर बैठाया और कहा : 'आओ, मैं तुम्हारे सिर के जूँ निकाल दूँ।' पत्नी बोली : 'राजा! मैं छह महीने आपके घर पर रही, आपने कभी मेरे सिर के जूँ नहीं निकाले। राजा, अब तो यह काम मेरी माँ, बहन और भाभी करेंगी।' तब तक पति ने बगल से छुरा निकाला और अपनी पत्नी को मार डाला। उसने पत्नी का कलेजा निकाला और माँ के पास जाकर कहाः 'माँ, उठो! ये लो, मेरी धनिया का कलेजा।' माँ बोली : 'तुम हिरन का कलेजा लेकर आए हो।' उसके बेटे ने कहा : 'माँ, मेरी पत्नी की ये अँगूठी पहचानो। मैं उसी का कलेजा निकालकर ले आया हूँ। लो, अपनी दवा।'

(32)

जँतवा पीसत सासू, देखलीं हो सरफवा
अरे देखलीं हो सरफवा
तोरे लेखे बहूअरि हो असली रे सरफवा
बहूअरि मोरे लेखे लपसी मछरियऊ हो ना
काटि धोइ नावा बहूअरि लपसी हो मछरिया
बहूअरि करुआ ही तेल गरम मसलवऊ हो ना
खाई के रनियाँ सूतैले रंगमहलियाँ
हर जोति अइनँ कूदारि मारि अइनँ
माता पतरी हो तीरियवा नाहीं लवकैले हो राम
तूहरी रनियवाँ पूता गरबे हो गूमनवाँ
पूता खाई के सूतैले रंगमहलीयउ हो ना
गोड़ टोइ अइनँऽ कपार टोइ अइनँऽ
माता कतहूँ ना रानी के परनवउँ हो ना
सेर भर सेखुआ अरज गँठिअवतू
अरे राम छीटत हो छीटत जमुना तीरे जइबऽ हो राम
नव मन तउलीला सेखुआ की लकड़ीया
आरीं आरीं धरेलँऽ सेखुआ की लकड़ीया
अरे रामा बीचवा में रानी के सूतवलैं हो राम
ध ध ध ध बरऽले सेखुआ की लकड़ीया
अरे रामा रनियाँ के संगवाँ सतिया होइ गइनँऽ हो राम

बहू ने सास से कहा, 'मैंने जाँता पीसते समय घर में साँप रखा हुआ देखा।' सास ने कहा, 'बहू, तुम जिसे साँप समझ रही हो, वह लपसी मछली है। उसे तुम सरसों के तेल और गरम मसाले में पका लो।'

बहू मछली के नाम पर साँप पकाकर-खाकर सो जाती है। पति हरवाही से आने पर अपनी माँ से पूछता है, 'माँ, मेरी पत्नी नहीं दिखाई दे रही है!' माँ कहती है, 'तुम्हारी पत्नी को घमंड हो गया है। वह गुमान में रहती है। वह खाकर रंगमहल (अपने शयनकक्ष) में सोई हुई है।

इतना सुनने के बाद पति अपनी पत्नी को सिर से पाँव तक छू-छूकर देख आया। फिर माँ से कहता है, 'माँ, मेरी रानी के शरीर में बिल्कुल प्राण नहीं हैं।'

इसके बाद वह पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए यमुना किनारे गया। चारों तरफ शेखू की लकड़ी रखकर बीच में अपनी पत्नी को सुला दिया। धधक-धधककर आग जलने लगी और वह उसी चिता में पत्नी के साथ सती हो गया।

(33)

बहिनी से गइलँऽ भइया भेंट करन हो
अरे बहिनी के रोवले भीजैला रे अँचरवा
अरे भइया के रोवले भीजैला रे रूमलिया
नव मन कुटीं भइया नव मन हो पीसनीं
अरे नव मन सीझिला रसोइयाँ ए भइया
ओहू में पछिली टिकरिया ए भइया
ओहू में ननदा कलेउआ ए भइया
अरे ओहू में कुकुरा बिलरिया ए भइया
कँसवा पितरिया जौ रहतँऽ हमरी बहिनी
अरे बदली रे मंगवतों
अरे तोहरऽ रे करमवाँ कइसे बदलीं ए बहिनी

बहन की ससुराल में भेंट करने के लिए भाई आया है। बहन के रोने से उसका आँचल भीग रहा है और भाई के रोने से उसका रूमाल भीग रहा है। बहन अपने भाई से कहती है, 'भइया, मैं नौ मन कूटती हूँ, नौ मन पीसती हूँ, नौ मन रसोई पकाती हूँ। बचे-खुचे आटे से जो आखिरी रोटी बनाती हूँ, वही मुझे खाने के लिए मिलती है। उस रोटी में भी छोटे देवर, छोटी ननद, घर के कुत्ते-बिल्ली को खिलाना पड़ता है।' इस पर भाई कहता है, 'ए बहन! काँसा-पीतल होता तो मैं बदलकर दूसरा मँगा लेता। तुम्हारा भाग्य भला मैं कैसे बदलूँ।'

(34)

पातर भइया हो चलैं बहिनी देसवाँ
अपने त जाई भइया बइठलँऽ खम्हियवाँ
अरे रामऽ घोड़वा हो बान्हैलँऽ घन डरियउँ हो राम
एक मन कूटलीं हो एक मनवाँ पीसलीं
भइया दुई मनवाँ सीझीला रसोईयन हो राम
भइया पछिली हो टीकरिया मोरि भोजनिया बाड़ीं हो ना
भइया ओहू में त कूकुरा बीलरिया बाड़ैं हो ना
ईहहि दुख भइया केहू से जिन कहिहा
भइया ईहऽ हो दुखवा माता अगवाँ जिनि कहिहा हो ना
भइया बईठलि हो मचियवाँ अम्मा कुमुसैलीं हो राम
हमरऽ ही दुख भइया अगुआ अगवाँ कइहा
भइया जेवन पापी कइलऽ मोरि अगुवइया न हो
बहिनी हमरे हो जीयतऽ एतनी दुख बाड़ै हो राम
बहिनी हमरऽ हो जीयलऽ धीरिक हउअइँ हो ना
हमहीं लीखउलीं बहिनी बाबा कै हो अजदिया
बहिनी तुहरे हो करम भीखिया लीखलि बाड़ीं हो ना
बहिनी तुहर हो करम पातर हउऐं हो राम
बहिनी लागऽ दा अगमपुर बजरिया
त करम तुहरऽ बदलि देबँऽ हो राम
भइया कँसवा हो पीतरी बदलि जइहँ हो राम
भइया हमरऽ हो करम कइसे बदली हो ना

भाई अपनी बहन के घर जाता है, तो बहन अपना दुख बता लेने के बाद भाई से कहती है, 'ये दुख किसी से मत कहना। ये दुख माँ से मत कहना, वह कलपेगी। ये सारे दुख अगुआ से कहना, उसी पापी ने ऐसे घर में मेरा ब्याह कराया।' ये सुनकर भाई कहता है, 'बहिन! मेरे जीते जी तुम्हें इतने दुख हैं, मेरे जीने को धिक्कार है। मेरे भाग्य में पिता की जायदाद है और तुम्हारे भाग्य में भीख माँगना लिखा है! अगमपुर की बाजार लगने दो, तुम्हारा भाग्य ही बदल लाऊँगा।' इस पर बहन कहती है, 'काँसा-पीतल होता तो बदला जा सकता, मेरा भाग्य कैसे बदला जाएगा!'

(35)

बोलू-बोलू कगवा सूलछनी तू बोलिया
मोरे भइया आवेलें पहूनवा न हो राम
बइठहु भइया रे चनन काठ पीढ़इया
सजी दूखवा जानेली मलीनिया न हो राम
नौ मन कूटीं भइया नौ मन हो पीसलों हो
नौ मनवा सीझीं राम रसोइयाँ न हो राम
बीगहा पचास भइया जगही चउकवा
अउआँ भरल बरतन माँजीले हो राम
खाए के पाईं भइया पछिली हो टीकरिया हो
ओहू में ननदो का बसियवा न हो राम
ओहू में कुकुरा बिलरिया न हो राम
ईहो दुख ए भइया अम्मा अगवाँ जनि कहिहा
मँचिया बइठलि अम्मा रोईहनि हो राम
ईहो दुख ए भइया बाबा अगवाँ जनि कहिहा
सभवा बइठल बाबा झंखिहनि हो राम
ईहे ही दुखवा भइया चाची अगवाँ मति कहिहा
माँह अँगनवाँ मेहंना मरीहँनि हो राम
इह दुख ए भइया भाभी अगवाँ जनि कहिहा
अइले गइले भउजी हँसिहनि हो राम
ईह दूख ए भइया गंगा तीरवाँ छोड़ि दीहा
असमस जनिहा मोटरी छूटऽले हो राम
ईहो दूख ए भइया अगुवा अगवाँ कहिहा
जिनि अगुआ कइलऽ मोर बीयहवा न हो राम

ए काग! शुभ संकेतों वाली बोली बोलो, मेरे भइया मेहमान बनकर आए हैं। भइया! चंदन काठ के पीढ़ा पर बैठिए। मेरे दुख मालिन (भी) जानती है। नौ मन कूटती हूँ, नौ मन पीसती हूँ। पचास बीघे (रकबा) का चौका (रसोई) है। आँवा भर बरतन माँजती हूँ। इतना सब करने के बाद खाने के लिए पिछली टीकरी (पैथन के बचे-खुचे आटे को गूँथकर बनाई गई आखिरी रोटी) मिलती है। उस रोटी में से भी ननद को बासी खाने के लिए रखती हूँ, उसी में से कुत्ते और बिल्लियों को भी देती हूँ। ए भइया, मेरे ये दुख माँ से मत कहना, वह मचियाँ बैठकर रोएँगी। ये दुख पिताजी से मत कहना, सभा में बैठे हुए वह चिंतित होंगे। ये दुख चाची से मत कहना, वो माता जी को ताना देंगी। ये दुख भाभी से मत कहना, मायके आते-जाते वो मुझ पर हँसेंगी। ए भइया! ये दुख गंगा किनारे छोड़ देना और ऐसा समझ लेना गठरी (दुख की गठरी) छूट गई। ये दुख अगुआ से कहना, जिसने ऐसे घर में मेरा ब्याह करवाया।

(36)

बड़ी नींक लागले बइरिया तोहरी पाती हो
जवने बीचे कँटवो ना होय छोटी ननदी
बड़ी नींक लगैले ससुर जी तुहरी बोली हो
जवने घर ससुइयो ना होय छोटी ननदी
बड़ी नींक लगैले बइरिया तोहरी पाती हो
जवने बइरी कँटवो ना होय छोटी ननदी
बड़ी नींक लगैले भसुर जी तोहरी बोली हो
जउने घर जेठनियो ना होय छोटी ननदी
बड़ी नींक लगैले बइरिया तुहरी पाती हो
जवने बइरी कँटवो ना होय छोटी ननदी
बड़ी नींक लगैले देवर जी तोहरी बोली हो
जवने घर देवरनियो ना होय छोटी ननदी
बड़ी नींक लागैले बइरिया तोहरी पाती हो
जवने बइरी कँटवो ना होय छोटी ननदी
बड़ी नींक लागैले सइयाँ जी तोहरी बोली हो
जवने घर सवतियो ना होय छोटी ननदी

यदि बेर में काँटे न हों, तो उसकी पत्तियाँ अच्छी लगती हैं। ऐसे ही जिस घर में सास न हो, जेठानी न हो, देवरानी न हो, सौत न हो उस घर में बहू को ससुर की बोली, जेठ की बोली, देवर की बोली तथा पति की बोली प्यारी लगती है।

(37)

पुरूआ त बहै पुरूवइया
त पछुआँ झकोर मारै हो
अरे हो सोइ गइनीं भइया के ओसरवाँ
त गोदिया में भतीजा लेई
गरबे क मातलि भउजइया
भतीजा छोड़ि लीहलीं न हो
अरे हो रोवतऽ रोवतऽ चलि गइलीं
गंगा हो माई तर ठाढ़ भइनीं
गंगा माई एक ही लहरिया हमके देतू
त हम डूबि मरीत
किया तोहें ए बहुअरि नइहर दूख
किया तोहें ससूरे दूख हो
बहुअर किया प्रभु मारेला मेहनवाँ
सहलो नाहीं जाला
नाहीं मोंके ए गंगा माई नइहर दूख
नाहीं मोंहें ससूरे दूख हो
गंगा माई नाहीं प्रभु मारेलँ हो मेहनवाँ
सहलो नाहीं जाला
पुरूआ त बहऽ पुरूवइया
त पछुआँ झकोर मारै हो
अरे हो सोइ गइनीं भइया के हो ओसरवाँ
त गोदिया में भतीजा लेइ
गरबे क मातलि भउजइया
भतीजा छोड़ि लीहलीं न हो
अरे हो रोवत रोवत चली अइनीं
तुहारे लगीयाँ ठाढ़ भइनी
गंगा माई तोहसे लहरिया हमहीं माँगीला
फिरी जाहु ए तिरिया फिरी जाहू
घर के लवट जाहू हो
तिरिया आजु के नवही हो महीनवाँ
होरिलवा तोहरे जनमिहँ

बिना औलाद वाली औरत अपने भतीजे को गोद में लेकर दुलार करते-करते, ठंडी हवा चलने से, सो जाती है। उसकी भाभी आकर अपना बेटा छीन ले जाती है। वह औरत रोते हुए गंगा माँ के पास जाती है और उनसे मरने की इच्छा प्रकट करती है। गंगा माँ पूछती हैं, 'तुम्हें मायके में कोई दुख है या ससुराल में कोई दुख है या तुम्हारा पति ताना मारता है, जो न सह सकने के कारण तुम मरना चाहती हो?' औरत कहती है, 'मुझे ये सब दुख नहीं हैं। मेरी गोद में भतीजा खेल रहा था और भाभी ने उसे छीन लिया।' यह सुनकर माँ गंगा उसे आशीर्वाद देती हैं, 'आज के नौ महीने बाद तुम्हें सुंदर बेटा पैदा होगा।'

(38)

एक बोली बोलनीं दूसर बोली
अवरू तीसर बोली हो
राजा खीड़िकी में अमवाँ हो लगवता
बऊरवा हमहूँ देखीत
ए रानी तूँ त हऊ नान्हें क हो बझीनियाँ
बऊरवा कइसे देखैलू
मोरे पीछुवरवाँ त लोहरा
त भइया छोकरवा बाड़ैं हो
हे लोहरा मोरे खातीन डढ़िया हो फनइहा
नइहरवाँ पहुँचइहा
एक बने गइनीं दूसरे बने
अऊरी तीसरे बने हो
अरे हो तीसर बनवाँ मायर मोरि भेंटानीं
त धईके ऊनके भेंटीला
हे मायर काहें के धीया जनमवलू
पूरूख मेहना मारेला
एक हाथे लेईला मनार फूल
एक हाथे धतूर फूल हो
बेटी कईऽ अवतू सिव क हो पूजनियाँ
गरभ रहि जइतू
अरे हो आजु के नवहे हो महीनवाँ
त होरीला जनमलँ
अंगना बहोरत क चेरिया
त अउरी लऊरिया न हो
हे चेरिया सामी आगे खबर हो जनवतू
त होरीला हो जनमलँऽ
एतनी बचन राजा सूनलँऽ
सूनही नाहीं पावेलँऽ हो
राजा झपसी के पइसनँऽ हो बजरिया
त चूनरी हो बेसहनँऽ
हटि जाहू ए राजा हटि जाहू
लम्मे से बात करा हो
हे राजा ओही दिन क मारलऽ मेहनवा
सहलो नाहीं जाला

कोई औरत अपने पति से घर की खिड़की के सामने आम का पेड़ लगाने की फरमाइश करती है। इस पर पति ताना देता है, 'तुम तो बाँझ हो। तुम आम के बौर देखने लायक नहीं हो।' इसके बाद औरत गाँव के लोहार से डोली बनवाकर मायके के लिए निकल पड़ती है। रास्ते में (तीसरे वन में) उसकी मुलाकात अपनी माँ से होती है। वह अपनी माँ से भेंटते हुए (गले मिलकर रोते हुए) कहती है, 'हे माँ, तुमने बेटी (मुझे) क्यों पैदा किया? मर्द (पति) मुझे बाँझ होने का ताना मारता है।' औरत की माँ उसे उपाय बताती है, 'शिव जी की पूजा करो, तुम्हें गर्भ ठहरेगा।' उसके ठीक नौवें महीने औरत ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया। वह औरत घर की नौकरानी के द्वारा पति को यह घबर भेजती है। पति तुरंत बाजार जाकर पत्नी की पसंद वाली चीजें खरीद कर उसके पास जाता है, तब पत्नी कहती है, 'हटिए, दूर से बात करिए। उस दिन का मारा हुआ आपका ताना सहा नहीं जाता।'

(39)

बोलिया त हम एक बोलीला
बोलत सरमि लागै हो
हे राजा हमरे तीलरिया का साधि
तीलरिया हम पहीरब
बोलिया त हम एक बोलीला
बोलत सरमि लागै हो
ए रानी हमरे सोहरिया की साधि
सोहरिया हम सूनब
हे धन तूँ त हऊ काली कोइलिया
तीलरिया नाहीं सोभै
एतनी बचनि रानी सुनलीं
सूनही नाहीं पावलीं हो
राजा गोड़े मूँड़े तानेलीं हो दूपटवा
सूतलीं गजवा ओबर
घरी भर बीतलँऽ दूसरि घरी अवरी तीसरी घरी हो
ए राजा तीसरे में भइनँ नंदलाल
महलियाँ उठऽ सोहर
अंगना बहोरति चेरिया त अवरी लँउड़िया न हो
चेरिया राजा आगे खबर हो जनावा
महलियाँ उठऽ सोहर
एतनी बचनि राजा सूनलँ
सूनही नाहीं पावैलँ हो
राजा घोड़े पीठि भइलँ असवरवा
त सोनरा हो दूकाने जालँऽ
हे राजा घोड़े पीठि भइलँ असवरवा
रंगरेजवा हो दूकाने जालँऽ
सोनरा धन जोगे गढ़ऽ दा हो तीलरिया
त धन के हो मनाईब
हथवा क लीहलँऽ तीलरिया
त बगले में चूनरिया न हो
राजा झपसी के हलँऽ गजवा ओबरि
त धन के हो मनाव
हे धन छोड़ि देहू मन क हो बिरोग
पहीरि लेहु तीलरि
तीलरी पहीरँऽ तुहरी माई
त चूनरी बहीनि पहीरऽ हो
राजा हम त हईं काली हो कोइलिया
तीलरिया नाहीं सोभै

कोई औरत अपने पति से तिलरी (तीन लड़ियों वाली माला) पहनने की इच्छा जाहिर करती है। पत्नी को बाँझ होने का ताना मारते हुए पति कहता है, 'मेरी इच्छा सोहर सुनने (बेटे का बाप बनने) की है। तुम तो काली-कलूटी हो, तुम्हें तिलरी शोभा नहीं देगी।' इतना सुनते ही पत्नी रुठकर घर की अँधेरी कोठरी में सो जाती है। इसके बाद एक छड़ी वक्त बीता, दो घड़ी बीता, तीसरे घड़ी में एक सुंदर बेटा पैदा हुआ, घर सोहर से गुंजित हो उठा। नौकरानी के जरिए पत्नी अपने पति को यह सूचना देती है। यह घबर पाते ही पति बाजार जाकर पत्नी के लिए तिलरी, चुनरी खरीद लाता है। ये सब चीजें लेकर पति जचगी वाले कक्ष में जाता है और रूठी पत्नी को मानने लगता है। वह औरत अपने पति को जवाब देते हुए कहती है, 'तिलरी आपकी माताजी पहनें, चुनरी आपकी बहन पहने। ए राजा! मैं तो काली-कलूटी हूँ, मुझे तिलरी शोभा नहीं देती है।'

(40)

दुअरे ले आवैनँ ससुरू त अड़पी तड़पि बोलैं हो
ए बहुअर आजु घरे छठीया हो बरहीया
जगत नींदिया सोइहा
ए ससुरू बेदने क मारल करिहइयाँ सोईला अनचीत
ए ससुरू जागँऽ तोहरे घरे कै हो देवतवा
त हम काहें के जागीं
दुअरे ले आवैनँ भसुरू त अड़पी तड़पि बोलैं हो
ए भयव्ह आजु घरे छठीया हो बरहीया
जगत नींदिया सोइहा
जगत नींदिया सोइहा
ए भसुरू बेदने क मारल करिहइयाँ सोईला अनचीत
ए भसुरू जागँऽ तोहरे घरे कै हो देवतवा
त हम काहें के जागीं

ससुर जी घर के भीतर आकर बहू से अधिकारपूर्वक कहते हैं, 'बहू! आज घर में छट्ठी-बरही का आयोजन है, ऐसी नींद सोना की जरूरत पर जाग सको।' इस पर बेटा जनने वाली वह माननीया कहती है, 'ए ससुर जी! मेरी कमर में दर्द (प्रसव के कारण) हो रहा है, मैं तो निश्चिंत होकर सोऊँगी। आपके घर के देवता जागें, मैं क्यों जागूँ?' जेठ की बातों का भी वह ऐसे ही जवाब देती है।

(41)

हमरे भाभी के जनमैं नंदलाल, ननद अइलीं अपने से हो
भाभी अइले क लाज तोहूँ रखिहा, ननद अइलीं अपने से हो
भाभी देइ दीहा हाथे क सोठउरा, त खात घरवाँ चली जइबऽ हो
ननदा एही गाँव क बनिया त मरि गइलँऽ, मरि के उड़सि गइलँऽ हो
ननदा चीनिया भइल कंठारोल, ननद अइलीं अपने से हो
हमरे भाभी के भइलैं नंदलाल, ननद अइलीं अपने से हो
भाभी अइले क लाज तोहूँ रखिहा, ननद अइनीं अपने से हो
भाभी देइ दीहा हाथे क लेड़ुअवा, त खात घरवाँ चलि जइबऽ हो
ननदा एही गाँव क सोनरा त मरि गइनँऽ, मरि के उड़सि गइनँऽ हो
ननदा सोनवा भयल अनमोल, ननद अइनीं अपने से हो
हमरे भाभी के जनमैं नंदलाल, ननद अइनीं अपने से हो
भाभी देइ दीहा अंगे क चुनरिया, पेन्हत घरवाँ चलि जइबऽ हो
ननदा एही गाँव क जोलहा त मरि गइलँ, मरिके ऊड़सि गइनँऽ हो
ननदा चुनरी भइल अनमोल, ननद अइनीं अपने से हो
हमरे भाभी के जनमैं नंदलाल, ननद अइलीं अपने से हो

भाभी को बेटा पैदा होने की खबर पाकर ननद बिन बुलाए खुद चली आती है, 'भाभी, मेरे आने की लाज रखना। मेरे हाथ में सोठउरा (विशेष तरह का लड्डू) दे देना। मैं खाते हुए अपने घर चली जाऊँगी।'

भाभी : 'ए ननद, इस गाँव के बनिया मर-बिला गए। चीनी भी दुर्लभ हो गई है।' (अर्थात सोठउरा नहीं मिलेगा)

ननद : 'भाभी, मेरे हाथ में लड्डू दे देना। मैं खाते हुए घर चली जाऊँगी।'

भाभी : 'ए ननद, इस गाँव के हलवाई मर-बिला गए और घी दुर्लभ हो गया है।'

ननद : 'भाभी, मुझे हाथ में पहनने के लिए कंगन दे देना, मैं उसे पहनते हुए घर चली जाऊँगी।;

भाभी : 'ए ननद, इस गाँव के सुनार मर-बिला गए और सोना अनमोल हो गया है।'

ननद : 'भाभी, मुझे तन पर पहनने के लिए चुनरी दे देना, मैं पहनते हुए घर चली जाऊँगी।'

भाभी : 'ए ननद, इस गाँव के बजाज मर-बिला गए, चुनरी अनमोल हो गई है।'

(42)

दूरि से आवैले ननदिया देवढ़िया धइले ठाढ़ि भइनीं हो
भउजी एक लोटा पनिया हमके देय देतू
पीके अपने घरे जइतीं हो
एजइक क डोरिया टूटि गईल
बल्टी हमरी फूटि गइनीं
इनरा हमरऽ ढह गइनँ
ईंटिया खहराइ गइनीं हो
ननदा फिरि जाहू घर के लवट जाहू
ननदा एक लोटा पनिया भइनँ नोहर
लवट के अपने घरे जइतू हो
दूरी से आवैले ननदिया देवढ़िया धइले ठाढ़ि भइनीं हो
भउजी एक टुकड़ी रोटिया हमके देतू
त खाइके अपने घरे जइतीं हो
जउआ मोर ओराइ गइनँ
जाँता हमरै फूटि गइनँ
किल्ला जुआ टूटि गइनँ
चली जाहु ए ननदा घर के लवट जाहु हो
ननदा एक टुकड़ी रोटिया भइनीं नोहर
लवटि के अपने घरे जइतू हो
दूरि से अवैले ननदिया
देवढ़िया धइले ठाढ़ि भइनीं हो
हे भाभी एक ठोप तेलवा हमके देतू
दाबिके अपने घरे जइतीं हो
तीसिया मोर ओराइ गइनीं
तेलिया के कोल्हुआ फूटि गइनँ
तेलिया हमरै मरि गइनैं
मरि के उलसि गइनैं हो
ननदा फिरी जाहु घर के लवटि जाहु
ननदा एक ठोप तेलवा भइनँ नोहर
लवटि के अपने घरे जइतू हो
भउजी भइया के हमरे बोलवतू त
भेंटि के अपने घरे जइतीं हो
ननदा, भइया अपने ससुरारि गइनँ
लइकन के ननिअउरे गइनँ
हमरे नईहरवाँ गइनँ हो
ननदा भइया के जनमल भतीजवा
भतीजवा भेंटि के चलि जइतू हो

ननद दूर से (ससुराल से) आती है और ड्योढ़ी पकड़कर खड़ी हो जाती है, कहती है : 'भाभी, एक लोटा पानी दे दीजिए, मैं पीकर अपने घर चली जाऊँगी।'

भाभी : 'यहाँ की डोर टूट गई है, बाल्टी फूट गई है, कुआँ ढह गया है, कुएँ की ईंटें भहरा गई हैं। ए ननद, एक लोटा पानी मिलना मुश्किल हो गया है। अपने घर वापस लौट जाओ।'

ननद : 'ए भाभी, एक बूँद तेल दे दो तो सिर पर लगाकर अपने घर चली जाऊँगी।'

भाभी : 'मेरी तीसी (अलसी) खत्म हो गई है, तेली का कोल्हू फूट गया है, हमारा तेली मर-बिला गया है। ए ननद, एक बूँद तेल दुर्लभ हो गया है। वापस अपने घर लौट जाओ।'

ननद : 'ए भाभी, मेरे भइया को बुला दीजिए। मैं उनसे मिल-भेंट कर घर चली जाऊँगी।'

भाभी : 'ए ननद, तुम्हारे भइया अपने ससुराल यानी बच्चों के ननिहाल यानी मेरे मायके गए हैं। तुम्हारे भइया का जन्मा हुआ ये भतीजा है, भतीजे से मिल-भेंट कर अपने घर लौट जाओ।'

(43)

ए दीनानाथ केकर करीं आसा
अपना दिनन खातिर बगिया लगवलों रामा
बहे पुरवइया छोड़न लागे लासा - ए दीनानाथ...
अपना दिनन खातिर बेटा जनमवलों रामा
अइलीं पतोहिया छोड़ाइ देहलीं नाता - ए दीनानाथ...
अपना दिनन खातिर बेटी जनमवलों रामा
अइलें दमाद छोड़ाइ दिहलऽ नाता - ए दीनानाथ...

हे दीनानाथ! किसकी आस करूँ? अपने आने वाले दिनों की सोचकर मैंने जो बाग लगाया, पुरवा हवा चलने से उसके पेड़ भी लासा छोड़ने लगे। अपने दिनों के लिए मैंने बेटा जन्माया, बहू के आने के बाद उससे भी मेरा पहले-सा नाता नहीं रहा। अपने दिनों के लिए मैंने बेटी पैदा की, दामाद ने आकर उससे भी मेरा नाता छुड़ा दिया।

(44)

कोठवा ले ऊँच ए रामऽ
ससुर के कोठरिया न रे जी
ताही कोठवा चढ़लें ए राम
चेतमन चोरवा न रे जी
सामी हमरे गइलें ए रामऽ
अपने कचहरिया न रे जी
ताही बिचवा चढ़लें ए राम
चेतमन चोरवा न रे जी
आई तऽ गइलें ए रामऽ
पियवा कचहरिया से रे जी
मारन लगलें ए सामी
चेतमन चोरवा न रे जी
धनिया तऽ करेली मिनतिया
सुनी सामी मानीं हमार बतिया
अंगना जनि मरिहऽ ए सामी जी
दुअरवाँ जनि हो मरिहऽ
गाँव के दक्खिनवाँ ए राम
गंगा सागड़ नदिया न रे जी
वोही जा मरिहा ए सामी
चेतमन चोरवा न रे जी
इहवाँ से चोरवा ए सामी
गंगा सागड़ मरलनि ए राम
ऊपराँ ही मरलैं ए सामी
नीचवाँ गिरवलनि ए राम
कदमे के डढ़िया ए सामी
चेतमन लसिया टङलनि ए राम
हाँकड़त आवै उनकर घोड़वा
डूबलि तलवरिया न ए राम
कथुअन डूबल ए सामी
तोहरो तलवरिया न रे जी
कथुअन डूबल ए सामी
घोड़वा के लहसिया न रे जी
गंगा सागड़ मरनीं ए धनिया
चेतमन चोरवा न रे जी
ओही से डूबल ए धनिया
ढालि तलवरिया न रे जी
ओही से डूबल ए धनिया
घोड़ा के लहसिया न रे जी
तोहरा के छोड़ि ए सामी
आन के ना होइब न रे जी
चेतमन के लसिया ए सामी
हमरा के देखइता न रे
आगे-आगे जालेहूँ रजवा
पछवाँ से डोलिया न रे जी
जहवाँ त रहलें ए रामऽ
चेतमन के लसिया न रे जी
उहवें ऊतरलीं ए रनिया
सामी भरमावेलीं ए राम
तोही अगिनिया ए सामी जी
तनि आनि देबा न रे जी
चेतमन के लसिया ए सामी जी
मिली जुलि जरइबो न रे जी
जाहूँ तोही होइबा ए चेतमन
नइहर के इयरवा न रे जी
अँचरे अगिनिया धधकइबा
जरी जाए छरवा न रे जी
एतनी बचनिया ए रनिया
कहही ना पवलीं न रे
धधकल अगीनिया अँचरवा
चेतमन जरी गइलन ए राम
आगी लेके अइलन बलमुआ
गीरे मुरूझाइ के ए राम
जाहुँ हम जनतीं ए धनिया
मोर बुधिया छोरबू न रे जी
चेतमन के लसिया ए धनिया
गंगा जलवा फेंकती न रे जी

औरत के ससुर की कोठी बहुत अधिक ऊँची है। उसका पति कचहरी गया हुआ था, इसी बीच चेतमन चोर उस ऊँची कोठी पर चढ़ गया। जल्दी ही उस औरत का पति कचहरी से वापस आ गया। चोर पकड़ लिया गया। पति जब चोर को मारने लगे, तब पत्नी ने मिन्नत की, 'ए स्वामी! सुनिए, मेरी बात मानिए! इसे आँगन में या घर के बाहर मत मारिए। गाँव के दक्षिण गंगा नदी के तीरे ले जाकर इसे मारिएगा।' पति ने चोर को गंगा किनारे ले जाकर मार डाला और खून में डूबी तलवार लिए हुए अपने घोड़े पर सवार होकर विजयी मुद्रा में घर आया। पत्नी के पूछने पर उसने बताया, 'चेतमन चोर को मैंने मार डाला। उसी के खून से घोड़े की बाग और मेरी तलवार भीगी हुई है।' पत्नी ने कहा, 'स्वामी! आपको छोड़कर किसी और की तो मैं होऊँगी नहीं। चेतमन की लाश मुझे तनिक दिखा दीजिए।' चेतमन की लाश के पास पहुँचकर औरत अपने पति को भरमाते हुए बोली, 'ए स्वामी, तनिक आग ले आइए तो चेतमन की लाश मिलकर जला दी जाए।' पति आग ले आने के लिए गया, तब औरत ने चेतमन की लाश से गुहार किया, 'ए चेतमन! अगर तुम मेरे सच्चे प्रेमी हो, तो इस आँचल से आग धधकाओगे और हम दोनों जलकर राख हो जाएँगे।' वह अपनी बात पूरी कहने भी न पाई थी कि उसके आँचल से आग धधक उठी और दोनों जल गए। पति आग लेकर आया तो यह देखते ही मुरझाकर गिर पड़ा। वह बोला, 'यदि मैं जानता कि तुम मुझे ऐसे बेवकूफ बनाओगी, तो मैं चेतमन की लाश गंगा में बहा देता।'

(45)

नदिया किनरवाँ मिरिजा कोठवा उठवलें हो
कि आहो ए राम रे
रचि रचि काटेलें झरोखवा न ए राम
ताही ऊपर मिरिजा करे कचहरिया हो
कि आहो ए राम रे
नीचवाँ नहाले दसवत रनियाँ न ए राम
अपने महलिया से बोले राजा मिरिजा हो
कि आहो ए राम रे
केकर हऊ धीयवा बहीनिया न ए राम
जासर के हईं हम धीयवा बीटियवा हो
हरी सिंह के हईं हम बहीनिया न ए राम
एतनी बचनिया हो मिरिजा सुनही ना पवलें हो
कि आहो ए राम रे
हरी सिंह के उलुटा सुतावेलँ ए राम
ऊँचे महल हो चढ़ी धनिया निहारेलीं
कि आहो ए राम रे
केकर स्वामी जालें जेहलखनवा ए राम
कि आहो ए राम रे
भइया के मुसुक छोड़ाइब ए राम
देहू न अम्मा हो झिलमिल सड़िया हो
कि आहो ए राम रे
भइया के मुसुक छोड़ाइब ए राम
हँसि-हँसि रजवा हो गहना बेसहलें हो
कि आहो ए राम रे
रोइ-रोइ पहिरँ हमरे अम्मा न हो राम
हँसि-हँसि मिरिजा हो हथिया बेसहलें हो
कि आहो ए राम रे
रोइ-रोइ चढ़े हमार बाबा न ए राम
जाहुँ तोहूँ मिरिजा हो हमरा से लोभिहा हो
कि आहो ए राम रे
भइया जोगे चढ़ै बदे घोड़वा न ए राम
हँसि-हँसि मिरिजा हो घोड़वा बेसहलें हो
कि आहो ए राम रे
रोइ-रोइ चढ़े हमार भइया न ए राम
हँसि-हँसि मिरिजा हो सड़िया बेसहलें हो
कि आहो ए राम रे
रोइ-रोइ पहिरँ हमरी भाभी न ए राम
जाहुँ तोहूँ मिरिजा हो हमरा पे लोभिहा हो
कि आहो ए राम रे
मोरे जोगे भरल सीगहोरवा न ए राम
हँसि-हँसि मिरिजा हो सेन्हुरा बेसहलें हो
कि आहो ए राम रे
पहिरी के चलनीं दसवत रनियाँ न ए राम
एक बने गइलीं दसवत दूइ बने गइलीं हो
कि आहो ए राम रे
तीसर बनवाँ बाबा के सगरवा बाड़ैं ए राम
गोड़ तुहरे लगीले अगिला कहरवा हो
कि आहो ए राम रे
बाबा के सगरवा पनिया पीयब ए राम
कि आहो ए राम रे
भइया के सगरवा पनिया पीयब ए राम
चला चला दसवत हमरे नगरिया हो
कि आहो ए राम रे
ससुर के सगरवा पनिया पीहा न ए राम
कि आहो ए राम
भसुर के सगरवा पनिया पीहा न ए राम
कि आहो ए राम
हमरे सगरवा पनिया पीहा न ए राम
तोहरे सगरवा ए स्वामी निति ऊठि पीयबों हो
कि आहो ए राम
बाबा के सगरवा सपना होइहँ न ए राम
कि आहो ए राम
भइया के सगरवा सपना होइहँ न ए राम
ए डेग डललीं दसवत दूइ डेग डललीं हो
कि आहो ए राम रे
तीसर डेगवा भइलीं तरबोरवा न ए राम
रोइ-रोइ मिरिजा हो गमछा बिछवलें हो
डालें महाजलिया हो
कि आहो ए राम रे
बाझल आवे घुँघुची सेवार न ए राम
रोइ-रोइ बाबा हमरे डालेलें रूमलिया हो
कि आहो ए राम रे
बाझल आवे दसवत बिटियवा न ए राम
कि आहो मोरे राम रे
मोरे पतिया रखलीं दसवत धीयवा न ए राम
रोवेलँऽ रजवा हो मुँह देइ रूमलिया हो
कि आहो ए राम रे
मोर बुधिया छोरलसि राजा छोकरिया न ए राम

नदी किनारे मिर्जा का ऊँचा महल है, महल में सुंदर-सुंदर झरोखे हैं। महल के ऊपरी कोठे पर मिर्जा का दरबार लगता है। नदी में दसवत नाम की सुंदर राजकुमारी नहा रही थी, तभी कचहरी में बैठा मिर्जा महल के झरोखे से उसे देखता है और मोहित हो जाता है। उसने पूछा, 'तुम किसकी बेटी और बहन हो?' दसवत ने बताया कि वह जासर राजा की बेटी और हरीसिंह की बहन है। इसके बाद मिर्जा ने हरीसिंह को बंदी बना लिया। हरीसिंह की पत्नी अपनी ननद दसवत को धिक्कारती है, 'तुम्हारी वजह से मेरे पति कैदी बनाए गए हैं।' भाई को बचाने के लिए राजकुमारी दसवत अपनी भाभी के गहने और माँ की रेशमी साड़ी से सजधजकर मिर्जा के पास गई। दसवत की माँग पर मिर्जा ने खुशी-खुशी गहने खरीदे और दसवत की माँ ने रो-रोकर उन गहनों को स्वीकार किया। इसी प्रकार मिर्जा ने दसवत की माँग पर खुशी-खुशी उसके पिता के लिए हाथी, उसके भाई के लिए घोड़ा और भाभी के लिए साड़ी खरीदी। दसवत के बेबस परिजनों को दुखी मन से ये सारी भेंट स्वीकार करनी पड़ी। आखिर में दसवत ने मिर्जा से कहा, 'यदि तुम मुझपे मोहित हो, तो मेरे लिए भरा हुआ सिंदूरदान ले आओ।' मिर्जा ने खुशी-खुशी सिंदूरदान खरीदा और दसवत अपनी माँग में सिंदूर पहनकर मिर्जा के साथ चल पड़ी। कुछ ही दूर चलने पर जासर राजा का तालाब पड़ा। दसवत ने अपने पिता-भाई के उस तालाब में पानी पीने की इच्छा जताई। मिर्जा ने कहा, 'हमारे नगर चलो, वहीं हमारे तालाब में पानी पीना।' दसवत ने कहा, 'ए स्वामी! आपके तालाब का पानी तो रोज सुबह उठकर पीऊँगी, लेकिन पिताजी का तालाब तो अब सपना (दुर्लभ) हो जाएगा।' पानी पीने के बहाने वह तालाब में घुसी और डूब मरी। रो-रोकर मिर्जा का बुरा हाल हो गया। उसने तालाब में जाल डाला। उसकी जाल में केवल घुँघची-सेवार ही उलझकर आ पाईं। दसवत के पिता और भाई ने भी जाल डलवाया, उनकी जाल में दसवत की देह उलझकर आ गई। पिता-भाई ने संतोष जताया कि उनकी बेटी/बहन ने अपनी जान देकर कुल की मर्यादा रख ली। मिर्जा ने रो-रोकर कहा कि 'राजा की बेटी' उसको मूर्ख बना गई।

(46)

बारह बरीसवा के लाचिया लवँतिया हो राम
अरे खिड़ीकी हो दूअरिया लाची बयरिया खालीं हो दइवऽ
घोड़वा चढ़ल अइलें राजा के हो कुँवरवा
अरे चला लाची हमरी तू संगहवा न रे दइवऽ
कइसे मों चलीं राजा तोहरी हो संगहवा
अरे मोरे पीयवा बसे परदेसवा न रे दइवऽ
अपने परदेसिया के आस जनि हो करिहा
अरे चला लाची हमरी तू संगहवा न रे दइवऽ
लाची के सूरति देखि राजा मुरू-हो-झइलें
अरे गली गली खोजलें कूटनिया न रे दइवऽ
तोहके मों देबो कूटनी डाल भरल हो सोनवा
अरे डाल भरल हो चनिया
अरे लाची के हो भोराइ लेइ अइबू न रे दइवऽ
अगिया लगइबों राजा डाल भरला हो सोनवा
अरे डाल भरल हो चनिया
अरे कवने हो बहाने लाची भोरइबै न रे दइवऽ
हथवा के लेहू कूटनी बीनुवा रे गोंइठिया
अरे अगिनी हो बहाने लाची भोरइबू न रै दइवऽ
हथवा के लेहू कूटनी लोटवा के हो डोरिया
अरे गंगा असननवा खातिर भोरइहऽ न रे दइवऽ
अरे सभ सखी जात बाड़ीं गंगा के हो नहनवा
अरे तूहू चला गंगा के नहनवा न रे दइवऽ
अरे करे असननवा कूटनी भोरावे लगलीं रे दइवऽ
सभवाँ बइठल तोहीं ससुर जी हो बढ़इता
अरे हम जइबो गंगा असननवा न रे दइवऽ
मचियाँ बइठली उरे सासु जी हो बढ़इतिन
हरे हम जइबऽ गंगा असननवाँ न रे दइवऽ
अरे बड़ा बिधि के लगल गरहनवाँ न रे दइवऽ
खेलत फूलगेनवा तोहीं देवर जी हो बढ़इता
अरे हम जइब गंगा असननवाँ न रे दइवऽ
केहू के कहल लाची तनी नाहीं हो मनलीं
अरे चली गइलीं गंगा असनवाँ न रे दइवऽ
गंगा के अरारे लाची झारे लंबी हो केसिया
अरे परि गइलें राजा के नजरिया न रे दइवऽ
तोहरा के देबों गंगा दोहरी हो करहिया
अरे दोहरी हो चूनरिया
अरे जब लाची होइहें मोर सेजरिया न रे दइवऽ
एइसन बोली राजवा तोहूँ जनि हो बोलिहा
अरे मोरे सामी हउँएँ हवलदारवा न रे दइवऽ
मोरे सामी हउँएँ हवलदारवा न रे दइवऽ
तोहरी सरीखे हमरे घरवाँ हो नोकरवा
अरे मुँहवाँ हो तोपी के भागी जइबा न रे दइवऽ

एक किशोर उम्र की नायिका लाची खिड़की के पास ठंडी बयार ले रही थी। एक राजकुँवर घोड़े पर सवार होकर आया और उसने लाची से अपने साथ चलने के लिए कहा। लाची ने कहा, 'मैं तुम्हारे साथ कैसे चलूँ, मेरे पति परदेसी हैं।' राजकुँवर बोला, 'परदेशी की आस छोड़ो, मेरे साथ चलो!' लाची की खूबसूरती ने राजकुँवर को बेचैन कर दिया था। उसने एक कूटनी ढूँढ़कर उससे कहा, 'मैं तुम्हें डलिया भर सोना-चाँदी दूँगा। तुम बस किसी तरह लाची को भरमाकर मेरे पास ले आओ।' कुटनी बोली, 'हे राजा, आपके डलिया भर सोने-चाँदी में आग लगे! भला मैं लाची को कैसे भरमाऊँगी।' राजा ने उपाय बताया, 'तुम अपने हाथ में गोंइठा (उपला) लेकर आग माँगने के बहाने लाची को भरमाने के लिए जाना। तुम अपने हाथ में लोटा-डोरी लिए रहना और गंगा नहाने के बहाने लाची को बुला लाना।' कुटनी लाची के पास गई, बोली, 'सभी सखियाँ गंगा नहाने जा रही हैं। तुम भी चलो लाची!' लाची ने अपने ससुर, सास, देवर से गंगा नहाने के लिए जाने की अनुमति माँगी। अनुमति न मिलने के बावजूद लाची गंगा नहाने चली गई। गंगा-किनारे वह अपने बाल सँवार रही थी कि तभी राजकुँवर ने उसे देख लिया और माँ गंगा से मनौती की, 'हे गंगा माँ! यदि लाची संग सेज-सुख मिल जाए तो आपको जोड़ा चुनरी-जोड़ा कड़ाही चढ़ाऊँगा।' यह सुनकर लाची बोली, 'ए राजकुँवर! ऐसी बात मत बोलो। मेरे पति हवलदार-कोतवाल हैं। तुम्हारे जैसे तो मेरे घर के नौकर हैं। मुँह छुपाकर यहाँ से भाग जाओ।'

(47)

केवनी नगरिया क हरिला सुगना
कवनी नगर मेंड़राय
मेंड़रात-मेंड़रात सुगना बइठँ आम की डढ़िया
बोलिया बोलेला अनमोल
घर में से निकलनँऽ भइया हो कवन भइया
धनुस क पेंच चढ़ाय
घर में से निकलेलीं भाभी हो कवनि देई
सुना प्रभु अरज हमार
मारहु ए प्रभु हरिला सुगनवा
लेइ जइहँ बहिना तोहार
घर में से निकलेलीं बहिना हो कवनि देई
सुना भइया अरज हमार
मति मारा ए भइया हरिला सुगनवा
एही घरे रहना हमार

एक हरा सुग्गा, जाने किस नगर से आकर, मंडराते-मंडराते आम की डाल पर बैठ गया और मीठे बोल बोलने लगा। घर में से नायिका का भाई धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाए हुए निकला। घर के भीतर से नायिका की भाभी आकर अपने पति से बोली, 'ए प्रभु, सुनिए! इस हरे सुग्गे को मार दीजिए वरना ये आपकी बहन को भगा ले जाएगा।' प्रेमिका घर में से निकलकर बोली, 'ए भइया, प्यारे सुगना को मत मारिए! मुझे इसी घर में रहना है।' अर्थात सुग्गे के साथ कहीं नहीं जाना है।

(48)

के रे खनावला बिर्दाबन पोखरवा
के रे बन्हावऽ चारो घाट बिर्दाबन में
ससुरू खनावलँऽ बिर्दाबन पोखरवा
भसुरू बन्हावँऽ चारो घाट बिर्दाबन में
ननदी भउजीया दूनो रे समऊरीया
दुनो पनिया भरैलीं अकेल बिर्दाबन में
भरि-भरि घड़िला ननदा धइलीं किनरवाँ
भउजीया छिपीत होइ जाले बिर्दाबन में
रहिया के चलतऽ बटोहिया हित भइया
कतहूँ देखला भऊजी हमार बिर्दाबन में
देखलों मों देखलों रे जोगिया की मड़इयाँ
जोगिया संग जोगिरवा खेलत रहै बिर्दाबन में
किया तोहरे ए भउजी पीठिया धुरिया लगलीं
किया झुलिया फाटैले अकेल बिर्दाबन में
भीतियाँ सटत ननदा पीठिया धुरिया लगलीं
डहरी चलत झुलिया फाटै बिर्दाबन में
तुहके मों देबों ननदा साठी रूपइया
भइया अगवाँ लइया जिन लगइहा बिर्दाबन में
अगिया लगइबों भउजी साठी रूपइया
भइया आगे लइया हम लगइबै बिर्दाबन में

वृंदावन में ससुर ने तालाब बनवाया और जेठ ने उसके घाट बनवाए। समउम्र ननद-भौजाई उसी तालाब से पानी भरने के लिए गईं। ननद ने सारे घड़ों में पानी भरकर किनारे पर रखा, तब तक भौजाई कहीं छिप गई। राह चलते बटोही से ननद ने पूछा, 'ए बटोही भइया! आपने मेरी भौजी को कहीं देखा? बटोही ने बताया, 'तुम्हारी भाभी जोगी की झोपड़ी में उसके साथ जोगीरा खेल रही थी।' भौजाई लौटकर आई तो ननद ने पूछा, 'तुम्हारी पीठ में धूल कैसे लगी और तुम्हारी झुल्ली (ब्लाउज) कैसे फटी?' भौजाई ने बताया कि दीवार से सटने के कारण पीठ में धूल लग गई और राह चलने में झुल्ली फट गई। फिर वह ननद को प्रलोभन देते हुए बोली, 'ए ननद! अपने भइया के आगे इस घटना की शिकायत मत करना। मैं तुम्हे साठ रुपये दूँगी।' ननद ने कहा, 'तुम्हारे साठ रुपये में आग लगे। मैं भइया से जरूर शिकायत करूँगी।'

(49)

रीमझीम बरिसेला हो सवनवाँ
बड़ा नींक लागे अँगनवाँ ना
आ हो रामा हरऽ ही साग चवराई
देखत नींक लागै ए हरी
सोने की थाली में जेवना परोसलों
आ हो रामा जेवें देवर भउजाई
देखत नींक लागे ए हरी
आ हो रामा हरऽ ही साग चवराई
देखत नींक लागऽ ए हरी
रीमझीम बरसेला हो सवनवाँ
बड़ा नींक लागे अँगनवाँ ना
फूले हजारी क सेज लगवलों
आ हो रामा सोवें देवर भउजाई
देखत नींक लागे ए हरी

आँगन में सावन का रिमझिम बरसना अच्छा लगता है। साग-चौराई हरे हों, तो देखने में अच्छा लगता है। सोने की थाली में खाना परोसा हुआ है, देवर-भौजाई मिलकर खाते हैं, यह देखने में अच्छा लगता है। गेढ़ुआ में पानी भरा है, देवर-भौजाई संग-संग पीते हैं, यह देखने में अच्छा लगता है। हजारी के फूल से सेज सजी हुई है, देवर-भौजार्ई संग-संग सोते हैं, यह देखने में अच्छा लगता है।

(50)

गोरी-गोरी बँहिया में धानी रंग चूड़िया
हथवाँ सोहै हो कितबिया
लोटवा क पानी लेइके ससुर अगवाँ गइनीं
ससुर नीरेखैं हो बदनिया
अइसन सूरतिया हमरे बहू जी की हईं
लइका हाकिम की नोकरिया
गोरी-गोरी बँहिया में हरी-हरी चूड़िया
हथवाँ सोहै हो कितबिया
लोटवा क पानी लेइके भसुर अगवाँ गइनी
भसुर नीरेखैं हो बदनिया
एइसन सूरतिया हमरे भयव्ह जी की हईं
भइया मोरे हाकिम की नोकरिया

बहू की गोरी बाँहों में धानी रंग की चूड़ी और हाथ में किताब शोभती है। अर्थात बहू गोरी, सुंदर और पढ़ी लिखी है। वह लोटा में पानी लेकर ससुर को देने गई। ससुर उसकी सुंदर देह को ललचाई नजरों से निहारते हुए सोचने लगे, 'ऐसी खूबसूरत बहू घर में है और बेटा नौकरी पर है।' बहू लोटा में पानी लेकर जेठ को देने गई। जेठ उसकी देह निहारते हुए सोचने लगे, 'इतनी सुंदर मेरी भयव्ह है और भाई नौकरी पर है।'

(51)

जेवही जे बइठैनँऽ ससुर से भसूरू
अरे राम, भसूरू हो जेवनवाँ कइसे टरबइ हो राम
मचियाँ ही बइसनीं सासू मोरि बढ़ईतीं
बहुअरि जउ तूहूँ गुनवाँ क आगरि हो ना
बहुअरि अँगुरी हो ईसरवाँ जेवना टरिहा न हो राम
जेवना ही टरतऽ क छूटनँऽ हो अँचरवा
अरे राम भसूरू हो बईठल मुरूझइलँइ हो राम
संगही क जेवना ससूरू जेई के हो अँचवलँऽ
अरे राम भसूरू हो जेवनवाँ लीहले बइठल हो राम
किया तोर भसुरू हो जेवना बीगरंगलँ
भसूर किया हो नूनवाँ परलँऽ बीसभोरवइ हो ना
नाहिं मोरी बहुअरि जेवना हो बीगरऽलऽ
अरे नाहीं नूनवाँ परलैं बीसभोरवइ हो राम
बहुअरि जेवनी हो सेजरिया भइया सोवलँइ हो
बहुअरि ओही सेजियाँ आज हम सोईबइ हो राम
एतनी बचनि रानी सूनही ना पवलीं
रानी लेइ हो लीहलीं तेलवा फूलेलवइ हो राम
अरे राम धई हो लीहलीं पतरी डहरियइ हो राम
अरे राम चली भईनीं नईहरि नगरीअँइ हो राम
चला न चलीं भइया सउजा हो खेलन के
एक बन गइलँ, दूसरे बनवाँ गइलँ
अरे राम तीसरे में मारैं सग भइयऽ न हो राम
किया तूहूँ मरला भसूरू हरीना हो सऊजा
सभकरी धोतिया देखों अमकति हो चमकति
भसूरू तूहरी धोतिया बाड़ीं खूनवाँ डूबलि हो राम
नाहीं हम मरनीं भयव्ह हरीना हो सऊजा
भयव्ह हमहीं त मरनीं सगऽ भइयइ हो राम
कहवाँ तू मरला भसूरू कहवाँ हो गीरवला
भसूरू केवने हो बीरीछिया ओठगहवला न हो राम
तूहके छोड़ाइ भसूरू आनि के ना होईबऽ
भसूरू राजा कऽ हो मूँहवा देखवता न हो राम
जाहूँ न भसूरू तूँ अगिनी हो लीअवता
जबले न भसूरू हो आगि आनइ गइलैं
रनिया आपनऽ राजा गोहरावइलीं हो राम
राजा जऊँ होबा हमार सग बीअहुता न हो
राजा अँचरा से धधकी अगिनिया न हो
राजा सती होबै दूनहुन परनियइ हो राम
जबले न भसूरू हो अगिया लेई अइलैं
अरे राम जरि हो गइलँऽ दुनहुन परनियइ हो राम
अरे राम भसूरू हो बईठल मुरूझाइ गइलँ हो राम
अरे राम काल्हि क हो बहुअवा बुधिया छोरलसि हो राम

ससुर और भसुर (जेठ) एक साथ खाने के लिए बैठे। बहू ने सोचा कि वह जेठ को कैसे खाना परोसेगी। सास ने कहा, 'अगर तुम शऊरदार हो, तो अंगुली के सहारे भसुर के आगे थाली सरका दोगी।' थाली सरकाते हुए बहू का आँचल जरा-सा ढरक गया। उसकी सुंदर देह की झलक भर दिखी और भसुर हतप्रभ-सा बैठा रह गया। उसी के संग खाने बैठे ससुर ने भोजन करके हाथ-मुँह धो लिया और वह (भसुर) थाली लिए बैठा रहा। बहू ने जेठ से न खाने का कारण पूछा, 'खाना खराब बना है या नमक ज्यादा हो गया है।' जेठ ने कहा, 'न खाना खराब है, न नमक ज्यादा है। ए बहू! जिस सेज पर मेरा भाई सोता है, मैं उसी सेज पर (तुम्हारे संग) सोना चाहता हूँ। इतना सुनते ही बहू ने अपने जरूरी सामान लिए और मायके चली गई। जेठ ने अपने छोटे भाई (यानी बहू के पति) से कहा, 'भाई, चलो, शिकार खेलने चलें।' जंगल में जाकर जेठ ने धोखे से अपने भाई को ही मार डाला। बहू ने जेठ से पूछा, 'आपकी धोती खून में डूबी हुई है। आपने हिरन का शिकार किया है क्या?' जेठ ने बताया, 'मैंने हिरन का शिकार नहीं किया। मैंने अपने सगे भाई को मार डाला।' बहू ने कहा, 'हे भसुर। आपने उन्हें कहाँ मारा और लाश किस ठिकाने लगाई। आपके सिवा अब किसी और की तो होऊँगी नहीं। बस एक बार मुझे पति का मुँह दिखा दीजिए!' पति की लाश के पास पहुँचकर वह अंतिम संस्कार के लिए जेठ से आग लाने के लिए कहती है। आग लाने के लिए जेठ के चले जाने पर वह अपने पति को गुहार लगाती है, 'ए राजा! यदि आप मेरे असल ब्याहता पति हैं, तो मेरे आँचल से आग धधकेगी और मैं आपके साथ सती हो जाऊँगी।' जेठ आग लेकर आया, तब तक पति-पत्नी दोनों जलकर राख हो गए। वह सिर पकड़कर बैठ गया और सोचने लगा, 'बहू को मैं कच्चा समझता था और वह मुझे छका गई।'

(52)

मोरी पिछुवरवाँ ए रामा
चंपा के बीरिछिया न रे जी
अरे चंपा के गमकवा ए राम
रहेलँ गरभवा न रे जी
अरे चंपा के गरभवा ए ननदो
अरे केकरे सिरवा ढारब रे जी
अरे चंपा के गरभवा ए रामा
ननदोइया सिरवा ढारब रे जी
रोवेलीं ननदो ए रामा
लट धूनि केसिया न रे जी
अरे पातर मोर बलमुवा ए भउजी
लीहलू भोराई न रे जी
अरे चंपा के गमकवा ए भउजी
रहेलँ गरभवा न रे जी
केतनो तूँ रोअबू ए ननदो
लट धुनि केसिया न रे जी
अरे पातर ननदोइया ए ननदो
अरे अब नाहीं छोड़ब रे जी

एक औरत के घर के पिछवाड़े चंपा का पेड़ था। चंपा की महक से (मतलब कि चंपा तले किसी के साथ संबंध बनाने से) औरत को गर्भ रह गया। उसने अपनी ननद से कहा, 'ए ननद! चंपा का गर्भ किसके सिर मढ़ूँगी?' (यानी कि चंपा तले उसने ननदोही से ही संबंध बनाए थे) यह सुनकर ननद अपना सिर धुनने और विलाप करने लगी, 'मेरे प्यारे पति को तुमने बहका लिया।' भाभी ने कहा, 'कितना भी रोओ-कलपो, अब मैं ननदोई को नहीं छोड़ूँगी।'

(53)

नदी नरवा में यार लगावैं कँटिया
सोने की थारी में जेवना परोसलीं
जेवना न जेवैं बिछावैं खटिया
नदी नरवा में यार लगावें कँटिया
झँझरे गढ़ुअवाँ गंगा जल पानी
पनियाँ न पीयैं बिछावैं खटिया
नदी नरवा में यार लगावैं कँटिया
लवंगा ही लाची क बिड़वा जोड़वलीं
बिड़वा न कूँचैं दसावैं खटिया
नदी नरवा में यार बिछावैं खटिया
फूले हजारी क सेज लगवलीं
सेजिया न सोवैं दसावैं खटिया
नदी नरवा में यार बिछावैं खटिया

नदी-नाले में मेरे यार ने मछली फँसाने वाली कँटिया लगाई। मैंने उसे सोने की थाली में भोजन परोसा, लेकिन खाने के बजाय उसने खटिया बिछा दी अर्थात वह मेरे साथ कामक्रीड़ा करने को आतुर हो उठा। मैंने उसे पीने के लिए पानी दिया, उसने पानी पीने के बजाय खटिया बिछा दी। मैंने अपने यार को लौंग-इलायची वाला (पान का) बीड़ा दिया, उसने बीड़ा कूँचने के बजाय खटिया बिछा दी। मैंने उसे सुलाने के लिए हजारी के फूल से सेज सजाई, सोने के बजाय उसने खटिया बिछा दी।

(54)

गोंड़वा पूछै गोंड़िनियाँ से
तोरे भरसइयाँ क कारबार कइसे चली
भरसइयाँ में दबिला हीलल करी
भरसाईं घरे दबिला मजा करी

गोंड़ अपनी गोंड़िन से पूछता है, 'तुम्हारी भरसाँय (भाड़) का कारोबार कैसे चलेगा?' फिर खुद ही कहता है, 'भाड़ में घुस कर दबिला (भाड़ का कलछुला) हिलेगा और मजा देगा।'

(55)

हबड़ा पुलवा पर खड़ी
पहिरैं आधा पेट क झुलवा
हबड़ा पुलवा पर खड़ी
मारैं गुंडन से नजरिया
हबड़ा पुलवा पर खड़ी
मारैं ऊखिया क गुलवा
हबड़ा पुलवा पर खड़ी

कोई शोख हसीना तंग कपड़ों में हबड़ा पुल पर खड़ी होकर मनचलों से नजर लड़ाती है। वह मनचलों को गन्ने के गुल्ले (पोर या गिल्ली) से मारकर इशारे करती है। (गन्ने के पोर से इशारे करने का मतलब कि पुरुष-यौनांग का आनंद पाने की इच्छा जाहिर करना।)

(56)

घाम के घमाइल जोगियवा एक आइल
जोगिया लाल हमरी ओसरवा जूड़ऽ छाँह
त घमवा गँवाइ रे लेहु ना
घमवा गँववलँ जोगी छलवा रे बिछवलैं
जोगिया लाल पूछे लगनँ घरवा के री भेद
तुम्हारे लोगवा कहाँ गइलँ ना
सासु गइलीं हटिया ननद पुरपटिया
जोगिया लाल लहुरा देवरवा दरबार
त सामी मोर बिदेसे गइलँ ना
घमवाँ गँववलँ जोगी छलवा रे बिछवलँ
जोगिया लाल भगबे त भागू
हमारे लोगवा नीयर अइलैं ना

धूप से बेकल एक जोगी आया। उसे देखकर औरत बोली, 'मेरे ओसारे (छप्पर) में ठंडी छाँह है, इसमें आकर अपनी गर्मी निवार लो।' ओसार में छँहाते-छँहाते जोगी ने औरत से उसके घर का पूरा भेद पूछ लिया। उसने पूछा कि तुम्हारे घर वाले कहाँ गए। औरत ने बताया कि उसकी सास हाट और ननद पूरब दिशा की ओर गई हैं, छोटा देवर अपने काम पर तथा पति परदेस गए हैं। जोगी ने गर्मी का निवारण तो किया ही, कामसुख का भी लाभ उठाया। इसके बाद औरत बोली, 'ए जोगी! यहाँ से जल्दी भाग निकलो, मेरे परिवार वाले आते ही होंगे।'

(57)

गहिरी लागे पिरीति अहीरन से
सइयाँ बिदेसवा गइनँ ना
अहीरा खियावे पूड़ी मिठाई
अहिरा खियावे ना
सइयाँ हमरे भऊरी के हो तरसवलऽ
तुहरे संगे नाहीं जइबै ना
गहिरी लागे पिरीति अहीरन से
सँइयाँ संगे ना हो जइबै ना
अहिरा पीयावै झारी गिलासी ना
सइयाँ हमरे भरूका के हो तरसवलऽ
तुहरे संगे नाहीं जइबै ना
गहिरी लागे पिरीति अहीरन से
सइयाँ संगे नाहीं जइबै ना
अहिरा कुँचावे लवंग लाची ना
सइयाँ हमरे सुरूती के हो तरसवलऽ
तुहरे संगे नाहीं जइबै ना
अहिरा सुतावे तोसक तकिया ना
सइयाँ हमरे झिलिगा के हो तरसवलऽ
तुहरे संगे नाहीं जइबै ना

नायिका कहती है कि किसी अहीर से उसका गहरा प्रेम संबंध कायम हो गया है और उसके पति विदेश चले गए हैं। वह अहीर उसे पूड़ी मिठाई खिलाता है, जबकि पति ने बाटी को भी तरसा दिया। अब वह पति संग नहीं जाना (रहना) चाहती। वह अहीर उसे बढ़िया गिलास में पिलाता है और पति ने तो कुल्हड़ को तरसा दिया। अहीर उसे लौंग-इलायची वाला बीड़ा कूचने को देता है, पति ने तो सुरती को तरसा दिया। अहीर उसे गद्दा बिछाकर, तकिया लगाकर सुलाता है। उसके पति ने टूटी खाट के लिए भी तरसा दिया। वह पति संग नहीं जाना चाहती।

(58)

माँजत रहलीं बरतन माँजऽ हो लगलीं बटुली
नचत आवे ना, एक कमकर छोकरवा
नचत आवे ना
मँचियाऽ ही बइठैलँऽ बाबा बढ़इता
कइ दा बाबा ना, कमकर संग बियहवा
तू कइ दा बाबा ना
बड़ संगे जइबू बेटी बड़ुई कहइबू
कमकर के संगवाँ ना, भरबू बखरी क पनिया
कमकर के संगवाँ ना
एक बने गइनीं दूसरा बने गइनीं तीसरे बनवाँ
लउकऽ कमकर क मँड़इया तीसरे बनवाँ ना
छोड़ा धन चूनरी पहीरा धन लूगरी
भरा हो धन ना
चला बखरी क पनिया
भरा हो धन ना

कोई युवती बरतन माँज रही थी, तभी कमकर जाति का एक युवक नाचते हुए आया। वह युवती उस कमकर के सौंदर्य और नृत्य पर ऐसे मोहित हो गई कि बेखयाली में केवल बटलोई ही माँजती रह गई। वह अपने पिता से बोली, 'पिताजी! इस कमकर के संग मेरा ब्याह कर दीजिए।' पिता ने समझाया, 'बड़ी (अपनी) जाति में शादी करोगी तो प्रतिष्ठित जीवन जीओगी। कमकर के संग जाओगी तो दूसरों के घरों में पानी भरना होगा।' युवती उस कमकर के संग प्रेम-विवाह करके चली गई। उसने देखा कि पति का आशियाना झोपड़ी है। वहाँ पहुँचने के बाद पति ने कहा, 'ए धनिया! चुनरी उतार दो, लुगरी पहन लो। चलो, घरों में पानी भरने चलें!'

(59)

बाजति आवैला भुड़ुका मजीरवा
नचत रे आवे ना एक कहरा छोकरवा
घर में से निकलैले पतरी बहूरिया
देखन रे लागै ना ओही कहरा क नचिया
देखन रे लागै ना
सभवाँ बइठल तोहूँ बाबा अरे बढ़इता
कि कइ हो देता ना ओही कहरा संग बियहवा
कि कइ हो देता ना
कहरा संगे जइबू बेटी कहरिन कहइबू बेटी
कि खोजि हो देबै ना तोह्के पढ़ल पंडितवा
कि खोजि हो देबै ना
एक बने गइलीं दूसर बने गइलीं तीसर रे बनवाँ ना
लगलीं भूखीया-पियसीया तीसर रे बनवाँ ना
हम तोसे कहीला कहरा क छोकरवा
बहङिया बेचि के ना हमके पनिया रे पीयवता
बहँगिया बेचि के ना
बहँगी त हईं छोकरी कान्हि क जे सोभवा
झुलनिया बेचि के ना हमके पनिया तू पीयवतू हो
झुलनिया बेचि के ना
झुलनी त हईं कहरा नाकि क सोभउवा
नाहक रे कइलीं ना एहि कहरा संग बियहवा
नाहक रे कइलीं ना

कहार जाति का एक लड़का ढोल-मजीरे की ताल पर नाचते हुए आया। मजीरे की आवाज सुनकर ब्राह्मण जाति की एक छरहरी नायिका घर में से निकली और मुग्ध होकर कहार का नाच देखने लगी। फिर सभा में बैठे अपने पिता से वह बोली, 'पिताजी! इस कहार के संग मेरा ब्याह कर दीजिए।' पिता ने कहा, 'बेटी! कहार के संग जाओगी, तो कहारिन कही जाओगी। मैं तुम्हारे लिए पढ़ा-लिखा ब्राह्मण लड़का ढूँढ़ दूँगा।' ब्राह्मण युवती उस कहार के संग प्रेम-विवाह रचाकर चली गई। रास्ते में उसे भूख-प्यास लगी। उसने अपने पति से कहा, 'अपनी बहँगी बेचकर मेरे खाने-पीने के लिए कुछ इंतजाम करो!' इस पर उसका पति बोला, 'बहँगी तो कंधे की शोभा (यानी आजीविका का साधन) है। तुम अपनी झुलनी बेच दो, हम दोनों के खाने-पीने का इंतजाम हो जाएगा।' यह सुनकर युवती ने कहा, 'झुलनी तो नाक की शोभा है।' वह अफसोस प्रकट करते हुए बोली, 'मैंने नाहक ही इस कहार के संग ब्याह कर लिया।'

(60)

आहो रामा बहे पवन पुरवइया झकोरि मारे सारी ए हरी
सोने के थारी हो राम जेवना आगे परोसलों हो रामा
आहो रामा कृस्न बने मनिहारी बेचन लागे सारी ए हरी
अपने महलिया से निकलें राधे ललिता हो रामा
आहो रामा मोहन संगवाँ करेलीं चिकरिया ए हरी
आहो मोहन साँझी बेर अइहऽ मोर नगरिया ए हरी
आहो राम बहे पवन पुरवइया झकोरि मारे सारी ए हरी
झंझर झारी हो राम पनियाँ आगे भरवलों हो राम
आहो राम कृस्न बने मनिहारी बेचन लागे सारी ए हरी
आहो राम केहू स्याम सरीया खरीदिहँ ए हरी
आहो राम बहे पवन पुरवइया झकोरि मारे सारी ए हरी
लवंग खिलीय खिली बिड़वा अरे जोड़वलों हो राम
आहो राम कृस्न बने चूड़ीहरवा बेचन लागे चूड़िया ए हरी
आहो राम केहू साँवरि चूड़िया पहीरिहँऽ ए हरी
नाहीं हम जानीं ए राधे घर तोरे दूअरवा हो राम
कइसे चूड़िया तुहके पहिरइब ए हरी
मोर घर के समने बाड़ँऽ एक्क हो पीपरवा
एक्क पाकवा हो ईनरवा
चूड़िया ओही जऽ ले अइहऽ मोरे दूअरवाँ ए हरी
आहो राम राधे बुधिया छोरले साम कन्हइया ए हरी
आहो राम बहे पवन पुरवइया झकोरि मारे सारी ए हरी
आहो राम कृस्न बने चूड़ीहरवा बेचन लागे चूड़िया ए हरी
अरे राम केहू साँवरि चूड़िया पहिरिहँऽ ए हरी

पुरवा हवा बहने से साड़ी झकोर मार रही है। ऐसे सुहाने मौसम में मैंने सोने की थाली में कृष्ण को खाना परोसा। पर कृष्ण तो मनिहारी का रूप धर कर साड़ी बेचने निकल पड़े। अपने घर से राधा और ललिता निकल कर आईं और मोहन के संग चुहलबाजी करने लगीं, साँझ के बखत अपने घर आने के लिए कहने लगीं।

मैंने कृष्ण को गेढुआ में भरकर पानी पीने के लिए दिया। लेकिन कृष्ण मनिहार का रूप धर कर आवाज देने लगें, 'कोई श्याम-सारी खरीदेगा?' खिले लौंग का बीड़ा मैंने कृष्ण को दिया। पर वह तो चूड़ीहार बनकर चूड़ी बेचने लगे, 'कोई साँवली चूड़ी पहनेगी?'

कृष्ण ने पूछा, 'राधे! मुझे तुम्हारे घर का पता नहीं मालूम है। मैं तुम्हें चूड़ी पहनाने कैसे आऊँगा?' राधा ने बताया, 'मेरे घर के आगे एक पीपल और एक पक्का कुआँ है। वहीं मेरे दरवाजे पर आ जाना।' साँवले कन्हैया ने जैसे राधा की बुद्धि ही छीन ली हो।

(61)

जइसे ही गेड़ुरी रे मारैले हीलोरवा हो
वोइसे बीहरऽ मोर करेजा हो मोहन जी
नदिया किनारे कृस्ना गउआ चरावलँऽ
बंसी बजावँऽ अनमोल हो मोहन जी
बंसी बजावलँऽ गउआ चरावलँऽ
बंसी सबदी मथुरा जी में गइलीं
अरे मोहनैं बीरीजवा क नारी हो मोहन जी
गोकुला क ग्वालिनि दधी बेचऽ अइलीं
अरे मिलीजूली बंसी छोरी लेलीं हो मोहन जी
रोवत कन्हइया घरे जालँऽ हो मोहन जी
अंगना बहोरलीं माता जसोदा हो
अरे झपसि के लीहलीं ऊठाइ हो मोहन जी
किया तोरा पूता रे गउआ खेत खइलँऽ
अरे किया तोरे बंसी छोरी लेनी हो मोहन जी
नाहीं मोरे माता हो गउआ खेत खइलँऽ
अरे नाहीं मोर बंसी छोरी लेलीं हो मोहन जी
गोकुला क ग्वालिनि दधी बेचऽ अइलीं
अरे मिलीजूली बंसी छोरी लेलीं हो मोहन जी
अगिया लगावा पूता बाँसे की बँसूड़िया
अरे सोनवा क बंसी मढ़वइबै हो मोहन जी
अगिया लगावों माता सोने की बँसूड़िया
अरे बँसवा में बसै मोर परान हो मोहन जी
बरिजा जसोदा अपने ललन जी के
राऊर पूता रढ़िया मचावैं हो मोहन जी
अबहीं त पूता मोरा लड़िका गदेलवा
अरे केसे-केसे रढ़िया मचावैं हो मोहन जी
कइ लेवँ जसोदा हो सोरहो सींगरवा
अरे कइ लेबँऽ दाँते क बत्तीसी हो मोहन जी
अरे तोर पूता नींदि ऊठि आवैं हो मोहन जी

जैसे भँवर के पानी में तरंगें बनती हैं, वैसे ही मेरे कलेजे में हूक उठती है। नदी किनारे गाय चराते हुए कृष्ण ने बहुत ही मधुर धुन में बंसी बजाई। बंसी की गूँज मथुरा तक जा पहुँची। बंसी की धुन से कृष्ण ने ब्रज की नारियों को मोह लिया। गोकुल की ग्वालिनें दही बेचने के बहाने निकलीं और कृष्ण के पास खिंची चली आईं। ग्वालिनों ने शरारतन कृष्ण की बंसी छीन ली। बेचारे कन्हैया रोते हुए घर गए। माँ यशोदा आँगन बुहार रही थीं। उन्होंने कृष्ण को लपक कर गोद में उठा लिया और पूछा, 'क्या तुम्हारी गौओं ने बेकाबू होकर किसी का खेत चर लिया अथवा किसी ने तुम्हारी बंसी छीन ली?' कृष्ण ने बताया कि ग्वालिनों ने उनकी बंसी छीन ली। यशोदा बोलीं, 'जाने दो उस बाँस की बंसी को। मैं तुम्हारे लिए सोने की बंसी बनवा दूँगी।' इस पर कृष्ण ने कहा, 'माँ! आग लगाओ सोने की बंसी को। बाँस की बंसी में मेरे प्राण बसते हैं।' तब तक शरारती गोपियाँ भी पहुँच गईं और यशोदा को उलाहना देने लगीं, 'यशोदा जी, अपने बेटे को बरजिए! आपके बेटे ने राढ़ (ऊधम) मचा रखा है।' यशोदा जी बोलीं, 'अभी तो मेरा बेटा नादान है। वह भला किसी से कैसे राढ़ मचाएगा।' इस पर गोपियों ने कहा, 'सोलह शृंगार कर लीजिए, मुँह-दाँत सब रंग लीजिए। आपको पता चल जाएगा कि आपका बेटा कितना नादान है। आपका बेटा सुबह उठते ही हम लोगों के घर की राह पकड़ता है।'

(62)

दधी बेचै चलैनीं गुवालीन
मथवाँ मटुक सोभै हो
ललना गले गजमोतियन हार त ओढ़ले पीतम्मर
केहू सखी लेनीं दूध त केहू सखी दधी लीहलीं हो
ललना राधे लीहलीं सुरही गाइ क दूधवा
दधीय बेचै चलैनीं
एक बन गइलीं दूसरे बन अवरू तीसरे बने हो
ललना तीसरे में कृस्न बटमर डगरिया ओनकर रोकैलँऽ
दूध त देईं कान्हा नाहीं लेलैं
दधीया त नाहीं लेलैं हो
कृस्न माँगेलँऽ हरी जी क रतिया धरम मोर छोड़ावैलँऽ
उहवाँ से चललीं राधे त कान्हा के अंगने जालीं हो
जसोदा बरिजा तूँ आपन हो ललनवाँ डगरिया हमरी रोकैलँऽ
दूध त देईं त नाहीं लेनँऽ दधी नाहीं लेलैं न हो
कृस्न माँगैलन हरी जी क रतिया धरमवा मोर छोड़ावैलँऽ
हथवा के लेलीं सीटुकुनिया त बचऊ के आगे जालीं हो
बचवा एही सीटुकुनिया सीटुकइबै जौ ग्वालिन ओरहन दीहैं
बाबा ही नंद क पग छूवैं माता से अरज करैं हो
माता सँवरे बरन होई जइबै जौ ग्वालिन ओरहन दीहैं न

माथे पर टीका लगाकर, गले में गजमोतियों की माला पहनकर और सिर पर पीतांबर (पीली साड़ी) ओढ़कर ग्वालिनें दूध-दही बेचने के लिए चलीं। किसी गोपी ने दूध लिया तो किसी ने दही, राधा ने कामधेनु का दूध लिया। आगे राह में छलिया कृष्ण ने उनका रास्ता रोक लिया। गोपियाँ उन्हें दूध-दही देने लगीं, लेकिन कृष्ण ने नहीं लिया। वह गोपियों से उनके पतियों की रात माँगने लगे, उनसे उनका धर्म छुड़ाने लगे। वहाँ से राधा सीधे कन्हैया के आँगन में पहुँचीं और यशोदा को उलाहना देते हुए बोलीं, 'यशोदा जी! आप अपने लाल को काबू में करिए! वह हम लोगों की राह छेकते हैं। हम लोग दूध-दही देती हैं तो नहीं लेते हैं, हमसे हमारे पतियों की रात माँगते हैं, हमारा धर्म छुड़ाते हैं।' माँ यशोदा सिटकुन (पतली छड़ी) लेकर कृष्ण के पास गईं और चेताते हुए बोलीं, 'अब अगर ग्वालिनें उलाहना देंगी तो इसी सिटकुन से पीटूँगी।' कृष्ण ने नंद बाबा के पाँव छूकर माफी माँगी और यशोदा के समक्ष कसम ली, 'माँ! अब अगर ग्वालिनें उलाहना दें तो मैं साँवले रंग का हो जाऊँ!


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