एक दिन चाय पीते हुए कौशल ने कहा था, जानती हो अपर्णा, इस बार कोलकाता में अपनी बेटी से मिलकर समझ पाया, वह मुझसे बहुत दूर चली गई है। नयन ने उसे मेरे खिलाफ कर दिया है। उसकी आँखों को देखकर मुझे डर लगा, मैं अंदर तक सिहर गया। उनमें अपनत्व नहीं, एक अपरिचित दृष्टि है, किसी अनजान व्यक्ति की-सी। एक किस्म की घृणा... अब तक यही लगता रहा था कि मेरी बेटी मुझसे थोड़ी दूर है, शारीरिक रूप से, और कुछ नहीं। जब भी जिंदगी मौका देगी, मैं हाथ बढ़ाऊँगा और उसे छू लूँगा... मगर इस बार बहुत अजीब लगा। शायद मैंने उसे खो ही दिया है, हमेशा के लिए। मन की कच्ची जमीन पर जितनी आसानी से दाग लगते हैं उतनी आसानी से मिट भी जाते हैं। बहुत अकेला हो गया अचानक - पूरी तरह से - वह नहीं, उसकी उम्मीद भी नहीं...
कहते हुए उसकी आवाज न जाने कैसी हो आई थी, अचानक से बुझ गई लौ की तरह-एकदम निष्प्रभ... देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा था, एक तरह के संकोच के साथ, जैसे अपना अपराध कबूल रहा हो -
नयन के पिता मुझसे बहुत स्नेह रखते हैं। उनकी हमेशा से कोशिश रही है कि मैं और नयन एक हो जाए फिर से। इस बार भी वह यही कह रहे थे। दीया के लिए मैं कुछ भी कर सकता था, मगर नयन के अहंकार... उसने हर बार मुझे खाली हाथ लौटा दिया। वह कभी भी नहीं बदलेगी!
सुनकर वह कहीं से उदास हो गई थी, तो इस बार भी कौशल अपनी पत्नी के पास आपस के तनाव और मनमुटाव दूर करने गया था... और वह यहाँ... कितना सूना हो गया था उसके बिना उसका जीवन! कौशल उसके सपाट चेहरे की ओर देखता रहा था -
मैंने कहा था, मैं दीया के लिए कुछ भी कर सकता हूँ, आई होप यु अंडरस्टैंड, व्हाट आई मीन...
- यस, आई डु... किसी तरह वह इतना ही कह पाई थी। इसके बाद दोनों के बीच एक बहुत आश्वस्तिकर चुप्पी घिर आई थी। फिर अपर्णा ने ही बात का सूत्र दुबारा सँभाला था, ठहरे हुए लहजे में, जैसे बयान दे रही हो - कौशल, मैं अमेरिका लौट रही हूँ...
- क्या!
कौशल एकदम से चौंक पड़ा था -
अपर्णा, क्या मैंने तुम्हें दुख पहुँचाया...? पूछते हुए उसने अनायास उसका हाथ पकड़ लिया था।
- ऑफकोर्स नॉट... मुझे कुछ काम है, जाना पड़ेगा।
- कब लौटोगी? लौटोगी न? इस बार पूछते हुए उसके हाथ का दबाव बढ़ गया था।
- अभी तक इस विषय में सोचा नहीं। मगर...
न जाने क्या कहते-कहते वह यकायक ठहर गई थी। कौशल एकटक उसकी तरफ देख रहा था, वह उन आँखों की तपिश बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। कुछ देर तक चुप रहने के बाद कौशल अचानक उठ खड़ा हुआ था -
अब चलूँगा, कुछ जरूरी काम याद आ गया है...
अपर्णा उसे रोक नहीं पाई थी। खड़ी रही थी पत्थर की तरह। कौशल की जीप धूल उड़ाती हुई कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गई थी। उसके जाते ही एक भयावह सन्नाटा आसपास व्याप गया था। अपर्णा को लगा था, वह इस गहरे मौन में आपाद-मस्तक ढँक गई है। एकदम से सहम गई थी वह। कौशल से परे होकर उसके पास सन्नाटे के सिवा और कुछ होता क्यों नहीं! क्या उसका अपना अब कुछ भी नहीं रहा...
दूसरे दिन के डाक से आशुतोष की एक चिट्ठी आई थी - बेहद लंबी-चौड़ी! ...वह चाहता था कि अब वह उसके जीवन में वापस चली आए। तापसी उसे छोड़कर किसी और के पास चली गई है और अब उसे भी अपनी गलती का अहसास हो गया है। उसे दिल का दौरा पड़ा है। वह अपनी सारी गलतियों को सुधारना चाहता है और उसके साथ नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करना चाहता है। बाकी की जिंदगी दोनों साथ-साथ गुजारें यह उसकी हार्दिक इच्छा है। उसने काजोल की समाधि को भी संमरमर से बँधवाने की इच्छा जाहिर की थी जो अब तक उससे हो नहीं पाया था।
चिट्ठी पढ़कर वह देर तक चुपचाप बैठी रह गई थी। अंदर कहीं कोई प्रतिकिया उत्पन्न नहीं हुई थी। कभी-कभी उसे स्वयं से ही डर लगता था कि कहीं वह पत्थर की तो नहीं हो गई है। कोई आघात अब पीड़ा क्यों नहीं पहुँचाता! क्यों अंदर की हरी-भरी जमीन एकदम से ऊसर हो गई है! कोई अकेला फूल, एक चेहरा भर हँसी या क्षण भर की जुगनू-सी जलती-बुझती उमंग - कुछ भी जिसे जीवन या उसका संकेत कहा जा सके... वह स्वयं को ही बार-बार किसी उम्मीद से टटोलती और फिर गहरे तक निराश हो जाती। मन का एक हिस्सा मरु में परिवर्तित हो गया है, शायद हमेशा के लिए ही!