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कविता

अवगुन गाथा

अशोक गुप्ता


नाव
जिस किनारे पर बँधी हुई है
उसी ठौर तो बनी है मगरमच्छ की मड़ैया
घड़ियाल के हाथ में
एक सुंदर सी डायरी है,
क्या हो सकता है उस डायरी में आँसुओं के सिवाय...

कल मैं सारा दिन
सोया रहा अलसा कर एक पेड़ के नीचे,
पेड़ के कोटर में
एक साँप का बसेरा था,
मैं सुनता रहा था निंदियाई मुद्रा में
प्रेम कविताएँ
साँप की आवाज तो मैंने जागने पर चीन्हीं।
अपनी बखरी से शहर तक
मैं साइकिल से जाता हूँ,
कल
जेठ की दुपहरिया में
जब मैं खींच रहा था हाँफते हुए

अपनी साइकिल,
मेरे कैरियर पर बैठा हुआ
कोई गुनगुना रहा था चरितमानस की चौपाई,
ठीहे पर पहुँच कर
जब मैंने अपनी साइकिल ठढियाई,
अपने कैरियर से सूँघी मैंने भेड़िए की गंध,
यह गंध तो पहचानता हूँ मैं,
सब कहीं तो है।

देखो, मेरे दोनों हाथ
अंगारों से जले हैं
फफोले उभरे हैं मेरे दोनों हाथों पर
बैद ने कहा था, 'खबरदार'
फफोले मत फोड़ना
इनमें गंगाजल है,
यह भूमि पर न गिरे...

मैं गिरा हूँ भूमि पर
पर,
मेरे गाँव की भूमि
मुझे चीन्हती कहाँ है,
मैं चीन्हता हूँ गाँव की माटी में
मरी गाय की गंध।

 


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