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द्वीप पर मैंने कुछ लिखा -
समुद्र की लहरें खेलते हुए उसे धो गईं
लेकिन, उसे मैं स्लेट पर फिर से लिखता हूँ
जिसके शब्द हरे और ताजे हैं
समुद्र ने जिसका प्यार से चुंबन लिया था
क्या मुझे कोई आपत्ति और हस्तक्षेप करना चाहिए
अपने शब्दों के प्रति उसके प्यार में
मैंने कहा - क्यों, तुम फिर से ऐसा करोगे
मैंने गहराई से जो रेत पर लिखा था -
शब्दों से बने चेहरे को मिटाओगे फिर से क्यों ?
अपनी हथेलियों से पोछा न जाने क्यों तुमने बारंबार
कि आवाज आई हल्की-सी
उन मिटते हुए ओंठों से
जिनकी माटी मेरी हथेली में थी
खेल-खेल में उसका ऐश्वर्य ध्वनित हुआ
मेरे हृदय के निकट की खाली जमीन पर
शब्दों के भीतर मेरे अंतरंग को किसने लिखा
कौन है जिसने रेत की रिक्तता के सार को
इतनी गहराई से लिखकर खोल दिया।
मेरे शब्द फुसफुसाहट में बोल पड़े
आत्मीय, अंतहीन और निरंतर शुभ सोचनेवाले समुद्र
तुम मेरे लिए कौन और क्यों हो ?
अपने रक्त में प्रवाहित होनेवाले
दो पंक्तियों के बीच का 'चुप' शब्द 'बोल' रहा हूँ मैं
पहली बार
मेरा एकाकी दोहरापन
आदमी और जानवर के बीच का
शब्दों में रचा हुआ खड़ा रखा है यहाँ
शब्दों की लौ को मैं जलाता हूँ
द्वीप की गीली रेत के भीतर
और समुद्र तुम तुम उसे निचोड़ते रहते हो
अपने कोमल लेकिन क्रूर हाथों से
नहीं जानते हो कि मैं तुम्हारे रहस्यों को
जानने की कोशिश में लगा हूँ
समुद्र ने प्यार से भरकर कहा -
कौन है जो, केवल नमक नहीं चाहता
लेकिन मैं, शुद्ध मीठा जल हूँ
जो अपने प्रभाव में सारी माया से परे है।
समुद्र ! सघन मित्रवत
डूबकर गहराई से
मेरे रहस्य को अपने में गुप्त रखता है
रेतीले ढूह से मेरा रिश्ता फिर भी जुड़ा रहता है
और वह गुलदस्ता,
लहरों के उफान का सफेद महकता गुलदस्ता
समुद्र सौंपता है मुझे
उसके अपने पहाड़ी किनारों पर
लहरें बार-बार लिखती हैं आकर
मेरी पुकार में
कुछ आत्मीय शब्द
लगातार-बिना थके
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