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कविता

दिन गिनती के

बुद्धिनाथ मिश्र


जिन पेड़ों पर बैठे बगुले
उन पेड़ों के दिन गिनती के।

कैसे-कैसे लोग पालते
कैसी-कैसी आकांक्षाएँ
एक-एक कर टूट रही हैं
इंद्रधनुष की प्रत्यंचाएँ
जिन नातों के नेह अचीन्हे
उन नातों के दिन गिनती के।

फसलें उजड़ गईं खेतों की
घर-आँगन छाया सन्नाटा
गाय बेच,गिरवी जमीन रख
हरखू तीर्थाटन से लौटा
जिस बामी के साँप पहरुए
उस बामी के दिन गिनती के।

प्रतिभा को दरसाए जबतक
लोकतंत्र फाँसी के फंदे
ढाबे पर बर्तन माँजेंगे
तबतक सूर्यवंश के बंदे
जिस कुर्सी पर दीमक रीझे
उस कुर्सी के दिन गिनती के।

 


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