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कविता

यह तपन

बुद्धिनाथ मिश्र


चिलचिलाहट धूप की
पछवा हवा की मार
यह तपन हमने सही सौ बार।

सूर्य खुद अन्याय पर
होता उतारू जब
चाँद तक से आग की लपटें
निकल पड़तीं
चिनगियों का डर
समूचे गाँव को डँसता
खौलते जल में
बिचारी मछलियाँ मरतीं
हर तरफ है साँप-बिच्छू के
जहर का ज्वार
यह जलन हमने सही सौ बार।

मुँह धरे अंडे खड़ी हैं
चींटियाँ गुमसुम
एक टुकड़ा मेघ का
दिखता किसी कोने
आज जबसे हुई
दुबराई नदी की मौत
क्यों अचानक फूटकर
धरती लगी रोने?
दागती जलते तवे-सी
पीठ को दीवार
यह छुअन हमने सही सौ बार।

तलहटी के गर्भ में है
वरुण का जीवाश्म
इंद्र की आत्मा स्वयं
बन गई दावानल
गुहाचित्रों-सा नगर का रंग
धुँधला है
गंध मेहँदी की पसारे
नींद का आँचल
चौधरी का हुआ
बरगद-छाँव पर अधिकार
यह घुटन हमने सही सौ बार।

 


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