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कविता

जाड़े में पहाड़

बुद्धिनाथ मिश्र


फिर हिमालय की अटारी पर
उतर आए हैं परेबा मेघ
हंस जैसे श्वेत
भींगे पंखवाले।

दूर पर्वत पार से मुझको
है बुलाता-सा पहाड़ी राग
गर्म रखने के लिए बाकी
है बची बस काँगड़ी की आग
ओढ़कर बैठे सभी ऊँचे शिखर
बहुत महँगी
धूप के ऊनी दुशाले।

मौत का आतंक फैलाती हवा
दे गई दस्तक किवाड़ों पर
वे जिन्हें था प्यार झरनों से
अब नहीं दिखते पहाड़ों पर
रात कैसी सर्द बीती है
कह रहे किस्से सभी सूने शिवाले।

कभी दावानल, कभी हिमपात
पड़ गया नीला वनों का रंग
दब गए उन लड़कियों के गीत
चिप्पियोंवाली छतों के संग
लोकरंगों में खिले सब फूल
बन गए खूँखार पशुओं के हवाले।

 


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