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कविता

समय का फेर-कुंडलियाँ

मुंशी रहमान खान


अब देखहु कलि काल में कैसी बिगरी रीति।
ब्‍याही तिरिया छोड़कर करें हबशिन से प्रीति।।
करें हबशिन से प्रीति खुशी ह्वै करें बड़ाई।
मिली अप्‍सरा नारि देय यह स्‍वर्ग पठाई।।
कहें रहमान कुलीन नारि वह तरिहै पुरखा सब।
कुल मर्यादा लाज धर्म धन नाश कीन्‍ह उन अब।। 1
बालक जन्‍में धर्मयुत नाम धरे विपरीत।
वेलम, एदी, पिकिनबा, योहन, कैशर, पीत।।
योहन, कैशर, पीत, रीति यह कैसी चल गई।
कीन्‍ह धर्म का नाश बास भारत की उड़ गई।।
कहें रहमान धर्म नहिं मानें न‍हीं मातु पितु पालक।
अब से साल पचास में नहिं रहिहें हिंद बालक।। 2
जब तक थोड़ा धन रहै तब तक सूझै धर्म।
हो सहाय करतार जब तज दें आपन कर्म।।
तज दें आपन कर्म मांस मदिरा धर बेचें।
बोले भाषा आन की चाल चलें अति पोचें।।
कहें रहमान शरन नहिं पैहें ईश्‍वर के घर तब तक।
तज अधर्म सत से नहिं रहिहें व्रत चंद्रायन जब तक।। 3

 


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