अज्ञेय का पत्र राजेन्द्र मिश्र के लिए
1 दिसम्बर, 1986
प्रियवर,
आप का पत्र पाकर एक सुखद आश्चर्य हुआ। आप को और अर्चना जी को याद करता रहता हूँ और ध्यान आता रहता है कि वर्षों से भेंट नहीं हुई है। अब 1987 में भेंट होने की सम्भावना कर रहा हूँ लेकिन अभी कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं बना है। इस बीच एक बार झाँसी चिरगाँव जाने की आशा करता हूँ पर उसका भी कोई पक्का कार्यक्रम अभी नहीं बना है। छतरपुर में दद्दा की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की बात हो रही है, उस अवसर पर जाना सम्भव हुआ तो वहाँ जाऊँगा।
आप की पुस्तक की योजना से थोड़ा कौतूहल हुआ। यों पुस्तकों में जो छपा हुआ है, विशेषकर उन पुस्तकों में जो अभी उपलब्ध हैं और जिनके लेखक अभी स्वयं अप्रासंगिक नहीं करार दे दिये गये हैं (जैसा कि मध्य प्रदेश में मैं) उसी को फिर से संग्रहीत कर देना विशेष उपयोगी तो नहीं जान पड़ता थोड़ी सी सुविधा उस शोधकर्ता को ज़रूर हो जाएगी जो अधिक पढऩा नहीं चाहता। शायद ज़्यादा अच्छा यही हो कि आपने जिन लेखकों के नाम लिये हैं उन से नये लेख माँगे जायें। चाहे फिर यही हो कि पुराने लेखों को आलोच्य लेखक की बाद की रचनाओं के आधार पर संशोधित संवर्धित कर दिया जाये।
पुस्तकाकार छप चुके लेखों की बात ही हो तो दो-एक नाम और जोड़े जा सकते हैं। और अगर पुस्तक का बन्धन न हो, पत्र-पत्रिकाओं की बात भी सोची जा सकती हो तो कुछ नाम और भी जोड़ सकते हैं। आप की सूची के अलावा जिन लेखकों की आलोचनाएँ मुझे सविवेकपूर्ण लगी हैं उन में पं. विष्णुकान्त शास्त्री, डॉ. नन्द किशोर आचार्य, डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल, श्रीमती राजी सेठ, डॉ. महेन्द्र मधुकर, डॉ. निर्मला शर्मा, डॉ. महाराज कृष्ण वोहरा के नाम ले सकते हैं। यों तो हरिशंकर परसाई, नागार्जुन, नवल, कमलेश्वर आदि की भी आलोचनात्मक दृष्टियाँ हैं जिन की बानगी आलोचना ग्रन्थ के पाठकों को मिलनी चाहिए। लेकिन मैं शायद अधिक कुछ कह गया- आपने जितनी राय माँगी थी उससे आगे चला गया। ऐसा हुआ हो तो उतनी बात को भुला दें।
आशा है आप सपरिवार प्रसन्न हैं। अर्चना जी को मेरा सादर नमस्कार दें।
आपका
(सच्चिदानन्द वात्स्यायन)
डॉ. राजेन्द्र मिश्र,
रायपुर (म.प्र.)