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घर गगनचुंबी हैं आकाश झुका है
धुएँ से घिरे देश के करीब
खुशहाल पेरिस के दिल में बसती है
गहरी घोर निराशा
शाम को सड़कों पर कोलाहल है
डूब गई है सूरज की अंतिम किरण
सब तरफ भटक रहे प्रेमी युगल
लरजते होठ बेखौफ आँखें
मैं यहाँ निपट अकेली अखरोट पेड़ के पास
सुखद है उसके तने पर झुकना
पीछे रह गये मास्को की तरह मन में बिलखते रोस्तेंद के गीत
रात को पेरिस लगता उदास और पराया सा
मन का उन्माद खत्म होता
घर लौट रही हूँ मन में टीस लिए
किसी की सौम्य तस्वीर टँगी है
किसी की उदास आँखें देखती हैं अपनेपन से
सुंदर तस्वीर लगी है दीवार पर
रोस्तेंद और शहीद रेस्ताद्शियन
और सेरा सपने में आते बारी बारी से
भव्य खुशहाल पेरिस में
मैं सपने देखती हूँ घास, बादलों और बरसात के
दूर से आते कहकहों के और पास की छायाओं के
मन में गहरा बसा है कहीं दर्द पहले की तरह
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