1972 की ग्रीष्म ऋतु। भारत लौटे दो ही दिन हुए थे। इंद्रप्रस्थ कॉलेज के लेक्चरर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू पर जाना था। उस वर्ष अंग्रेजी में पी-एच.डी. केवल दो आवेदकों के पास थी, डॉ.माला श्री लाल और मेरे। माला श्री लाला जीसस एंड मेरी कॉलेज में काम करने को हाँ कर चुकी थीं। मैं इंद्रप्रस्थ कॉलेज पहुँची। अंग्रेजी विभाग के मिस खन्ना इंटरव्यू ले रही थीं। नहीं के बाराबर पड़ताल करने के बाद वे बोलीं, 'डॉ. जैन, आपने और कहाँ आवेदन दिया है?'
'परसों लेडी श्री राम में इंटरव्यू के लिए जाना है,' मैंने बताया।
वे बोलीं, 'आप इस वर्ष नंबर एक कैंडीडेट हैं। जहाँ भी आप जाएँगी मुझे सिलेक्ट करना होगा। इससे हमारी कठिनाई बढ़ेगी। तो आप जहाँ काम करना चाहती हैं, उसका निर्णय कर लीजिए, मैं वहीं के लिए आपका सिलेक्शन कर देती हूँ।'
इससे पहले कि मैं कुछ कहूँ कॉलेज की प्राचार्या मिस राम बोलीं, 'ये कहीं नहीं जाएगी। यहीं काम करेंगी, क्योंकि ये हमारी छात्रा रही हैं। हमें इन पर गर्व है।' मिस राम के दिए इस मान के आगे मुझसे कुछ कहते न बना। उन्होंने मुझे रुकने को कहा और नियुक्ति-पत्र पर हस्ताक्षर करवाने के बाद ही जाने दिया। कौन छात्रा इस स्वागत से पुलकित न होती। नियुक्ति तो हो गई पर वहीं से आरंभ हुई मेरे कामकाजी जीवन के कई उपहास। पहला तो घर पर। जब पति को बताया कि मैं हस्ताक्षर कर आई हूँ तो बहुत बिगड़े। 'पूछा तो होता', बोले, 'इतनी दूर जोओगी तो बच्चों का क्या होगा?' मुझे ध्यान ही न रहा था कि हमारा बनवाया घर कॉलेज से 18 मील दूर है। पहले तो दिल्ली इतनी बड़ी न थी। यह उपहास होता रहा कि ये जितने की नौकरी करती है, उतने से अधिक ड्राइवर, गाड़ी पर खर्च।
दूसरा उपहास कॉलेज में। मुझसे पहले पढ़ा रही अंग्रेजी की प्राध्यापिकाओं के समवेत यत्न से मुझे कोई भी अंग्रेजी ऑनर्स की क्लास पढ़ाने को न दी गई। न ही एम.ए. के कोई छात्र। मुझे हिंदी ऑनर्स की 'सबसीडियरी' कक्षा पढ़ाने को दी गई। मुझे तो कुछ आपत्ति न थी।
किंतु तीसरा उपहास कुछ अधिक ही दारुण था। मेरी नियुक्ति बेसिक (400 रुपए) और तीन इन्क्रीमेंट (40×3=120) यानी 520 रुपए मासिक पर हुई थी। कुछ महीने पढ़ाने के पश्चात पत्र मिला कि मेरा वेतन मात्र 440 रुपए होगा। जो अधिक पैसा अब तक मिला वह वापस करना होगा। मैं आवक थी कि मुझसे 520 पर हस्ताक्षर करवा कोई 440 पर कैसे नियुक्त कर सकता है। मिस राम रिटायर हो चुकी थीं, नई प्राचार्या ने बताया कि वेतन विश्वविद्यालय की स्वीकृति से तय (Subject to approval) होता है और यूनिवर्सिटी इसका फैसला करती है। मेरा वेतन उन्हीं ने निर्धारित किया है। बात 80 रुपए की नहीं थी, मैं हजारों डॉलर की नौकरी की अवहेलना कर भारत आई, तो पैसे के लिए नहीं आई थी। मुझसे कहा गया, मैं यूनिवर्सिटी पर केस कर दूँ। मुझे यह सब करना कभी भी नहीं रुचता। पर मन तिक्त हो गया - इस बात और भी की संस्कृत वालों ने वाइस चांसलर के यहाँ धरना दिया था कि संस्कृत के पी-एच.डी. की नियुक्ति उस वर्ष 400 रुपए पर हुई और अंग्रेजी के पी-एच.डी. की 520 पर। जो भी हो, समझ बस यही आया कि नौकरी की जिस दुनिया में मै भूल से चली आई थी वहाँ नौकरी मिलना सहज था, सहकर्मियों के साथ चलना सहज नहीं।
फिलहाल सूचना मिली कि जिन छात्रा को कहीं दाखिला नहीं मिलता, उन सबके लिए नया कॉलेज खुला है, जो हमारे घर के ठीक पीछे था। जहाँ चाहती तो पैदल ही चली जाती। इंद्रप्रस्त से मोह भंग हो चुका था। यदि कोई थोड़ा-सा सहृदय वहाँ था, तो डॉ. अरुणा सितेश जो मेरी तरह ही दिल्ली यूनिवर्सिटी की एम.ए. या पी-एच.डी. नहीं थी इलाहाबाद से थीं।
कॉलेज से स्थानांतर करवा अगले वर्ष मैं उस नए कॉलेज, श्री अरविंद, में चली आई। चलते समय मधुर मालती सिंह से मिली। प्रसन्न न थीं। बोलीं, इतने स्तर के कॉलेज को छोड़ तुम कहाँ ऐसी रद्दी जगह जा रही हो, जहाँ ऑनर्स आते अभी वर्षों लगेंगे।'
न सही, मन ने कहा। यहाँ ही कौन ऑनर्स पढ़ा रही थी। फिर बच्चों के लिए कुछ समय बचेगा, गाड़ी का खर्च भी।
नहीं जानती थी आकाश का गिरा खजूर में ही अटकता है। रहा-सहा जो था वह खजूर के काँटों की कथा था।
नए कॉलेज में नया उपहास, 'यार, यह अमरीका की पी-एच.डी. होती तो क्या यहाँ पढ़ाने आती। हो ही नहीं सकता। कोई ऐरी-गैरी डिग्री होगी।'
छात्र और भी माशाअल्लाह। गाड़ी मैंने स्वयं चलानी आरंभ कर दी थी। कभी चार-चार लड़के उस अकेली गाड़ी पर बैठे मिलते, कभी टायर से हवा निकाल देते। मेरा अंग्रेजी का एक वाक्य भी क्लास में बोलना उन्हें बर्दाश्त न था। कहते, 'समझ नहीं आया।' तो पासकोर्स की उस मरियल-सी पाठ्य-पुस्तक का केवल हिंदी अनुवाद उन्हें सुनाना होता था। अंग्रेजी तो मैं स्वयं ही जैसे भूलने लगी थी। किंतु नियति ने ही यहाँ लाकर खड़ा किया था मुझे - उसे अपनी चाल मालूम थी - मुझे न सही। वय में मुझसे कुछ बड़ी मेरी एक सहकर्मी, मिसेज शोरी एक दिन मेरे पास आकर बैठी। बोलीं, 'तुम्हारे पास पी-एच.डी. है। तुम पी-एच.डी. गाइड कर सकती हों। और मैं पी-एच.डी. करना चाहती हूँ। यदि तुम आई.आई.टी. में नियुक्ति ले लो तो मैं वहाँ पी-एच.डी. में एडमिशन ले लूँगी तुम्हारे सुपरविजन में...।' मेरी समझ में न आया यह आई.आई.टी. क्या है और वहाँ अंग्रेजी क्योंकर है।
उन्होंने समझाया। जब हम अमरीका थे, तब हमारे पीछे 1988 में यह स्थापित हुई। इसमें बी.ए. या एम.ए. की अंग्रेजी में उपाधि तो नहीं दी जा सकती, पर वहाँ अंग्रेजी पढ़ाने वाले, पी-एच.डी. छात्रों से शोध करवा सकें, ऐसा प्रावधान था। और पी-एच.डी. की उपाधि दी जा सकती थी अंग्रेजी में।
मिसेज शोरी के पति आई.आई.टी. के ही किसी विभाग में प्रोफेसर थे। उन्होंने मुझे आवेदन-पत्र ला दिया। मेरे पति को भी यह बात अच्छी लगी। बोलें, 'काम वहीं करना चाहिए जहाँ शोध-कार्य होता हो नहीं तो पढ़ाने वाला स्वयं अपनी विद्या भूल जाता है।'
आवेदन-पत्र भेज दिया। इंटरव्यू काल भी आ गई। मेरे पति वैज्ञानिक हैं। भौतिक विभाग में उनके कई पुराने सहपाठी आई.आई.टी. में थे। हमारे हितचिंतककों ने सुझाया कि सिफारिश के बिना इस देश में कुछ नहीं होता। करवानी चाहिए। मैंने कहा, 'नहीं, कोई नहीं जानेगा मैं किसकी पत्नी हूँ। मुझे भिक्षा में मिले वेतन पर घर नहीं चलाना।' मानती हूँ, एक खास तरह से सिरफिरी महिला हूँ। पर यह अपना भीतरी अंदाज था - इसे बदला भी तो नहीं जा सकता था। न अपने विश्वास को, न अपनी मान्यताओं को।
इंटरव्यू के लिए लगभग 11-12 प्रत्याशी थे। अधिकतर दिल्ली यूनिवर्सिटी के लेक्चरर। मैंने पूछा - आप क्यों आना चाहते हैं यहाँ। उन्होंने बताया कि आई.आई.टी. में बढ़िया बंगला मिलने की सुविधा है। यह भी सूचना मेरे काम की न थी। मेरा घर पास ही में था। इंटरव्यू में मेरा नाम एकदम अंत में था, शायद आवेदन-पत्र देर से भेजने के कारण।
दोपहर से होते-होते शाम के 6 बजने को आए। मन ऊब गया। अंत में एक प्रत्याशी जब इंटरव्यू- देकर बाहर आए और अपनी पुस्तकें उठाकर जाने लगे तो मैंने पूछा, 'अंत तक नहीं रुकोगे?' बोले, 'कुछ लाभ नहीं होगा। आपको शायद नहीं पता कि जो एक्सपर्ट अंदर है उसकी ही एक छात्रा के लिए यह स्थान रखा गया है। उसी की नियुक्ति होगी। आप भी जाइए...।'
विश्वास न हुआ। पूछा, 'इंटरव्यू क्यों दिया तुमने?'
'मुझे वेटिंग लिस्ट में नाम की उम्मीद हैं।'
वह चला गया और मैं सन्नाटे में आई बैठी रही। क्या इस देश में ऐसा होता है? क्या ऐसा होना संभव है कि क्षमता नहीं, सिफारिश से शिक्षक नियुक्त होता है? मैं नौकरी की दुनिया में दूसरी बार ही तो निकली थी दिल्ली में। पास बैठे किसी और न कहा, 'इसीलिए तो बाकी के प्रत्याशियों को बस खाना पूर्ति करके भगाया जा रहा है जल्दी-जल्दी... ऐसा तो होता रहता है - आपको नहीं पता क्या?'
'नहीं, न जानना चाहती हूँ। और यदि ऐसा है भी तो भी,' मैंने प्रण किया कि मैं कमेटी के मनोरंजन-मात्र को इंटरव्यू नहीं दूँगी, नहीं तो पति ही मेरे सात बजे घर लौटने पर कभी विश्वास न करेंगे कि मैंने इंटरव्यू नहीं दिया। यही कहेंगे, 'सिलेक्ट नहीं हुई न?'
अंतिम बुलावा मेरा आया। गई। बेहद हेकड़ी में।
एक नौकरी तो मेरे पास थी ही। तो हों दो-दो हाथ। भीतर जो दो-तीन जन थे, उनमें एक नाटे से थे, वे मेरी लाई पुस्तकें इत्यादि पलटने लगे। मुझसे उदासीन। दूसरे किसी ने (डायरेक्टर आई.आई.टी.) प्रश्न पूछा, 'आप दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेज में पढ़ा रही हैं।'
'जी'
'वहाँ आपको जो वेतन मिल रहा है, आप आवेदन-पत्र में उससे अधिक क्यों चाह रही हैं?'
'जो वेतन मुझे मिल रहा है, क्या वह मेरी योग्यता के अनुरूप है?'
वे ठगे से रह गए। प्रत्याशी उत्तर न दे प्रश्न करे और वह भी खनकता-सा।
इससे पहले कि वे उबरें, उस नाटे से व्यक्ति ने एकाएक कहा, (हमसे नहीं, स्वयं से) 'अद्भुत!' और फिर मेरी और देखा, जैसे पहले-पहले गौर से और बोले, 'जो इतनी सुंदर भाषा लिख सकता है, वह निस्संदेह एक अच्छा शिक्षक होगा...'
और उन्होंने सबको मेरी लिखी, 'प्रेयरीस्कूनर' में छपी कहानी की कुछ पंक्तियों पढ़कर सुनाई। नियुक्ति हुई। वह वेतन भी मिला जिसकी मैंने मांग की थी और जो दिल्ली यूनिवर्सिटी से मिल रहे वेतन से कहीं अधिक था। मेरी नियुक्ति के काफी बाद मुझे उस दिन के एक्सपर्ट से मिलने का अवसर मिला। तब तक मैं जान गई थी कि ये वी वी जॉन थे, उन दिनों कहीं के वाइसचांसलर। मैंने अपनी नियुक्ति के लिए उन्हें 'धन्यवाद' जैसा कुछ कहा तो बोले, 'क्यों? तुम सबसे योग्य थी, (You were the best) मैं तो केवल अपना काम भर कर रहा था। (I was only doing my job.)'
यह सच था कि उनकी एक छात्रा, मिसेज चड्ढ़ा उस दिन प्रत्याशी थीं; यह सच है कि उनकी नियुक्ति के लिए अनौपचारिक रूप से सर्वसम्मति हो चुकी थी; यह सच है कि हम आखिर के प्रत्याशियों को नियमों के तहत बुलाया गया था, न कि नियुक्ति की नीयत से, किंतु यह भी सच है कि वी वी जॉन अपने कर्तव्य-बोध और न्यायप्रियता से बँधे व्यक्ति अभी इस देश में थे - और हैं।
नियुक्ति तो उतने ही सहज रूप से हो गई, जितनी सहज इंद्रप्रस्थ कॉलेज में हुई थी; उतने ही मान से। किंतु यहाँ भी उसी दारुण स्थिति का नया रूप उजागर होना था, जिसे दो वर्ष की अपनी अब तक की कार्यवधि में देख चुकी थी। बस पात्र-भर बदले थे। वहाँ महिलाओं की क्षुद्रता थी महिला सहकर्मियों के प्रति। छोटे-छोटे छिपाव व छल थे। शरारतें थीं। यहाँ पैंतरे कुछ अधिक संगीन थे - इसलिए कि मर्दों के थे एक महिला सहकर्मी के प्रति - ऐसे मर्द जो योग्यता में हर तरह कम होने की खीज और मर्द के दर्प सबब, स्वयं 7-8 घंटे पढ़ाते और नई नियुक्ति पाई मुझे 14 घंटे पढ़ाने को देते।
उन दिनों आई.आई.टी. में 98% पुरुष प्राध्यापक के और 99% पुरुष छात्र। अपने विभाग में उस वर्ष मैं अकेली महिला थी। तिस पर किस्मत की मार कि पी-एच.डी., वह भी अमरीका से। ऊपर से कभी टीवी पर दिख जाती, कभी अखबारों में। आई.आई.टी. में मैं जैसे गर्म तवे पर पैर रखकर चल रही थी।
किंतु वी वी जॉन को भूली नहीं थी, न जैक लडविग को, न एल्फ्रेड केजिन को, न दिल्ली यूनिवर्सिटी की डॉ. उर्मिला खन्ना को। अपने छोटे से कार्य-काल में मैंने जान लिया था कि यह एक धर्मयुद्ध है, जो लड़ना ही होगा। सच से अर्जित नैतिक मूल्यों और निरंतर कर्मनिष्ठा से। अन्यथा एक ही विकल्प रह जाता, जो मेरे पति ने लिया था - यह सौगंध कि भारत या भारत सरकार के लिए कभी काम न करने की। वे सरकार से जिस पद के आश्वासन पर भारत बुलाए गए थे, और जिस पर विश्वास कर उन्होंने अमरीका में अपनी (और मेरी) बनी-बनाई नौकरियाँ और घर-गृहस्थी उठा दी, वही पद उनके यहाँ पहुँचने से पहले किसी अन्य को दे दिया गया था।
उन्हें ऐसे प्रोजेक्ट पर रखा गया, जो देश की सुरक्षा से संबधित था। इस कारण उनका पासपोर्ट भी 'फ्रीज'-सा था। सुरक्षा नियमों के कारण वे अपनी मर्जी से विदेश-यात्रा भी न कर सकते थे और इसी में हमारे ग्रीन कार्ड की अवधि समाप्त हो जाने से ग्रीन कार्ड स्थगित हो गए। पक्की नियुक्ति भी किसी-न-किसी बहाने जब टालने लगी, तो उन्होंने जाना, यह नौकरी छोड़ने में ही उनका कल्याण है अन्यथा वे भी अन्य कई वैज्ञानिकों की तरह भारत सरकार से मुकदमा लड़ रहे होंगे, आधे विक्षिप्त हो जाएँगे; 'एक डॉक्टर की मौत' के नायक जैसे।
सच उन्होंने फिर कभी भारत में नौकरी नहीं की और अंत में विदेश चले गए। मैं अपने 'सिरफिरे' होने के कारण यह मानने को तैयार न थी कि देश को छोड़ देना एक विकल्प है। तो यहाँ कौन काम करेगा? इसी लड़ाई को यहीं लड़ना है, मैदान छोड़ना नहीं।
नहीं छोड़ा। 28 वर्ष आई.आई.टी. को दिए। अंग्रेजी में सबसे अधिक शोध-छात्रों को पी-एच.डी. करवाई, सबसे अधिक पुस्तकें लिखी। पर तवा वहीं रहा, पैर जलते रहे। किंतु काम अपना प्रमाण स्वयं होता है, उसे झुठलाया नहीं जा सकता उसे मानना होता है, माना गया।
फिर भी भारत में 30 वर्ष की यह नौकरी एक ऐसी नौकरी-संस्कृति में रहना हुआ, जिससे पिछले वर्ष मिली मुक्ति एक बड़ा त्राण है, बड़ी राहत कि कुछ समय बचा रह गया - कुछ स्थायी और मूल्यवान, काम को।
वह बात और है कि आज भी किसी अमरीकी हवाई अड्डे पर जब कोई अपरिचित-सा पास आकर रुकता है और कहता है, 'आप सुनीता जैन हैं न,?' तो विस्मय और आनंद होता है। जानती हूँ वह कहेगा, 'मैं आपका छात्र था आई.आई.टी. में,' फिर पास खड़ी अपनी पत्नी से मिलवाएगा या दोस्त से; उनसे कहेगा या मुझसे ही, 'आपके कोर्स को बहुत एज्नॉय किया। उसी से मैंने साहित्य का मर्म सीखा...'
तब एक कहानी, एक सत्य कथा याद आती है उस यात्री की, जो रेल के सफर में मुट्ठी भर-भरकर खिड़की के बाहर सूरजमुखी के बीज बिखेरता जाता था। किसी ने जब पूछा, 'क्यों?' बोला, 'देखो कितना वीराना है। अगली बार जब यहाँ से गुजरूँ, तो क्या पता कोई फूल खिला हो पटरी के आसपास।'
जो वीराना एक-एक कर पति, बेटी और बेटे के अमरीका बस जाने के बाद जीवन में रहा है, पूरे बरस से, उसमें कुछ तो फूल सूरजमुखी के खिले होंगे ही मेरे इस प्रिय देश की इतनी ऊसरता में।