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आत्मकथा

शब्दकाया

सुनीता जैन


शायद 1994 का ग्रीष्म था। अजमेर से एक निमंत्रण मिला कविता पाठ का। विस्मय में डालने वाली बात यह थी कि यह निमंत्रण अजमेर के जैन समाज की और से था। सुनीता के साथ 'जैन' होने से यह मेरी पहली पहचान थी। कवि गोष्ठी, मुनिश्री के चातुर्मास की समाप्ति के उपलक्ष्य में था। सूचना थी कि मुनि स्वयं कवि हैं और दिल्ली से बुलाए गए कवियों में श्रीमती कुंथा जैन और इंदु जैन भी थीं।

मैंने अजमेर कभी देखा न था। जाने का मन हो आया। कुन्थां दीदी को फोन किया। वे काफी अस्वस्थ थीं।जा नहीं सकती थीं। मैंने कहा, 'इंदु तो जाएगी।' वह बोलीं, 'इंदु शायद ही जाए ऐसी गोष्ठी में, पर पूछकर देखो।' इंदु को मैंने फोन किया कि साथ चलेंगे यदि वह चलें तो। वे बोलीं, 'सवाल ही नहीं उठता।' उन्होंने कोई सफाई देना जरूरी न समझा। मैंने भी बात वहीं नहीं खत्म की।

भीतर ही भीतर बुरा लगा। जैन हैं तो हैं - इसमें क्या हर्ज है? दिल्ली से कोई क्यों नहीं जाएगा? पत्र में लिखा था, 'जैन समाज जैन कवियों का सम्मान भी करेगा...' न जाना कैसे भी उचित न लगा।



मुझे जानने वाले जानते हैं कि मैं बस या हवाई जहाज के सफर से नहीं घबराती। पर जाने क्यों रेलगाड़ी के नाम से मुझे बहुत धुकधुकाहट होती है। कभी अकेले गाड़ी में बैठना पड़े, तो हालत बयान के बाहर होती है। खैर, मेरे अनुरोध एक परिचित साथ चलने को तैयार हुए। उन्हें वहाँ कुछ काम था। उन्होंने टिकट मँगवाए और सराय रोहिल स्टेशन से सुबह-सुबह हमने गाड़ी पकड़ी। अजमेर ठहरने का प्रबंध नसियां जी के पास के ही किसी होटल में था। होटल के बाहर खुली नालियाँ, उनमें बेशुमार मच्छर, खिड़कियाँ खोलें तो सड़क का शोर। एयरकंडीशन न होने से बंद करना मुश्किल। जो साथ आए थे मुझे होटल पहुँचा अपने काम से चले गए। अगले दिन सुबह आने को कहकर। अनजाना शहर। मेरा कोई भी परिचित नहीं।

कविता पाठ शाम को था। उससे पहले 'नसियां जी' का मंदिर देखा। मुनिश्री के पास तो अपार श्रद्धालु थे ही। मुनि विद्यानंद जी को छोड़ मेरा कभी किसी जैन मुनि से परिचय न हुआ था। मुनि को ठीक से नमन तक करने के सलीके से अनभिज्ञ मैं अपनी झेंप में अलग-थलग-सी रही। वहाँ कोई और महिला कवि आई हो ऐसा याद नहीं पड़ता।

याद है कि शाम को कविता पाठ हुआ। कुछ आमंत्रित कवियों ने फिल्मी धुनों पर जैन कविताएँ सुनाई। कुछ मुनिश्री की स्तुति, कुछ जैन धर्म की आज-भरी कविताएँ। मेरे पास ऐसा कुछ था नहीं। जीवन के प्रति आस्था वाली जो दो-तीन कविता थीं वे सुनाईं। याद है कि उनमें एक कविता उन्हीं दिनों लिखी गई थी -

वह दिन , दिन नहीं होता
जिस दिन फूलों का जन्म नहीं होता...

इस भी सुनाया। सुनाते समय लगा 'यहाँ किसने सुनी होंगी ये कविताएँ' और यों भी तो सुनने वाले श्रद्धालुओं को, हँसों के बीच मैं कौआ ही लगी होंगी। पाठ के बाद सकुचाई-सी मैं श्रोताओं में एक ओर खड़ी हो गई। कुछ देर बाद मेरे पास एक भले व्यक्ति आकर खड़े हो हुए। लंबे बाल। मृदुभाषी। बाले 'आप यहाँ कहाँ फँस गई, सुनीता जी?' या ऐसा ही कुछ। मैंने आश्चर्य से उनकी और देखा, इन्हें कैसे पता मेरी मनोदशा? बोले, 'मैं सरोजकुमार हूँ इंदौर से। अपनी कविताएँ मुझे देंगी क्या? मैं नई दुनिया में छापना चाहता हूँ। मैंने कविताएँ जो हाथ में थी उन्हें दे दी। इस बीच स्टेज से उनका नाम पुकारा गया और वे चले गए।



छपने पर सरोज जी ने कविताएँ भेजीं। 'दीपावली अंक' के लिए कुछ मँगवाया। और यों पत्र-व्यवहार चला। मैंने उन्हें अपनी उन्हीं दिनों छपी कुछ कविता-पुस्तकें समीक्षा को भेजीं। इस बीच सरोज जी दिल्ली आए। घर पर भी। बात-बात में उन्होंने कहा, 'सुनीता जी, आपकी कविता तो आज की कविता नहीं है। आपने आज के कवियों को नहीं पढ़ा क्या?'

'पढ़ा हे। मेरी कविता बस मेरे साथ है।' वे दुखी-से हुए मेरे लिए। मेरे 'सिरफिरेपन' ने मेरे लिए उन्हें चिंतित किया शायद। इंदौर से उन्होंने सूचित किया कि मेरी पुस्तकें वे अपने एक मित्र को दे देंगे। यह मित्र, प्रमोद त्रिवेदी, कविता के मर्मज्ञ हैं और शीघ्र ही मुझे अपनी प्रतिक्रिया भजेंगें। ... चाहूँ तो कुछ अन्य पुस्तकें मैं भी उन्हें भेज दूँ।

उसके बाद सरोज जी से कुछ संपर्क टूट-सा गया, कुछ मैं अध्यक्ष होकर व्यस्त हो गई किंतु जैसा उन्होंने कहा था, बहुत शीघ्र ही डॉ. प्रमोद त्रिवेदी की मेरी कविताओं पर टिप्पणी मिली। जाहिर था उन्होंने मुझे धैर्य से पढ़ा है। टिप्पणी से लगा कि उन्हें भी कविता में कविता के धुरंधरों से मेरी पिटाई की काफी आशंका थी। किंतु मेरी कविता से हटकर प्रमोद जी पत्रों में एक ऐसी सदाशयता थी, कविता के प्रति ऐसा समर्पण कि पत्र-व्यवहार होता रहा। उनके जैसा पत्र लिखने वाला लेखक मैंने केवल एक जाना था - बंबई के वीरेंद्र कुमार जैन को। गर्मियों फिर आ गई थीं। प्रमोद जी ने एक पत्र में लिखा कि उन्हें हरिद्वार जाना है एक जैन मुनि की गोष्ठी में मुनिश्री की कविता पुस्तक, शिवशाला पर परचा पढ़ने। क्या मैं भी जा रही हूँ?

मैंने लिखा - मुझे तो निमंत्रण नहीं है।

वे हैरान हुए। लिखा - 'मैं जैन नहीं, पर जा रहा हूँ, आप जैन होकर भी नहीं जा रहीं। निमंत्रण की चिंता न करें, चलना चाहें तो चलें। लिखा यह भी था कि वे यात्रा से कितना डरते हैं। उन्हें तो दिल्ली से हरिद्वार कैसे जाना होगा, यह भी ठीक-ठीक पता नहीं।

मैंने लिखा, 'आप दिल्ली आ जाइए। हरिद्वार तक पहुँचा दूँगी। मैंने अभी-अभी 'सूमो' खरीदी है। उसकी भी सैर हो जाएगी। आप परचा पढ़ें, हम हरिद्वार घूम लेंगे।' डॉ. कमल कुमार से उन्हीं दिनों परिचय हुआ था, उनसे बात हुई तो वे भी चलने को तैयार हुईं। जैंनेद्र जी के बेटे प्रदीप भी बोले कि चलेंगे; साथ ही मेरी एक मित्र का बेटा, जो उन्हीं दिनों अमरीका से लौटा था और दिल्ली की गर्मी से दुखी था।



जिस दिन जाना था उस सुबह प्रमोद त्रिवेदी को लेने निजामुद्दीन स्टेशन पर सुबह 6 बजे पहुँची। किंतु हम एक-दूसरे को पहचानेंगे कैसे? ड्राइवर को उनके नाम की तख्ती थमाई। आधा घंटा इधर-उधर ढूँढ़ते रहे। सब यात्री चले गए। प्लेटफॉर्म पर कोई ऐसा न दिखा जो दिल्ली से डरा, सुनीता जैन की प्रतीक्षा कर रहा हो। पसीने में भीगे, झल्लाए से घर पहुँचे।

देखा कि प्रमोद जी स्तब्ध-से नीचे के खंड में बैठे हैं। नहा चुके हैं। घर में उन दिनों काम कर रही महिला ने उनको चाय इत्यादि को भी पूछ लिया था। उलहाने और सफाइयाँ जब समाप्त हुई, तो वे कुछ स्वस्थ होकर बैठे और हमने नाश्ता समाप्त होते ही हरिद्वार के लिए गाड़ी छोड़ दी। नियत समय और स्थानों से बाकी सहयात्रियों को बैठा लिया गया।



हरिद्वार में शिवशाला पर विचार-गोष्ठी गुरुकुल काँगड़ी के परिसर में आयोजित थी। हमारे ठहरने का प्रबंध भी वहीं था। हम जब पहुँचे तो मुनि गुप्तिसागर तभी आहार से निवृत हो बाहर बगीचे की बेंच पर बैठे थे। प्रमोद जी को देख प्रसन्न हुए। प्रमोद जी ने हमारा परिचय करवाया। मैंने कल्पना नहीं की थी कि एक जैन मुनि इतना सरल दिख सकता है और इतनी अल्पव्यय में मुनि की पदवी पा सकता है। हम भोजन कर लें, ऐसा उनका आग्रह था।

भोजन के बाद सभा आरंभ हुई। मुनि जी के संकेत पर सभी आमंत्रित वक्ताओं के सम्मान के समय मेरा और कमल कुमार का सम्मान भी किया गया। हम इस बात से भी चकित हुए कि वे हर आए-गए के प्रति कितने सजग हैं। अपार श्रद्धालुओं की भिड़ थी। मंच से, जैसा कि ऐसी सभाओं में अक्सर होता है मुनिश्री की वंदना का अतिरेक था। कुछ 'मेरा यहाँ क्या काम' वश, कुछ धरती पर अधिक देर बैठने में अक्षम मै धीरे-धीरे सभागार से बाहर आ खुले में बैठ गई, वहीं बगीचे के पास। अंत में मुनिश्री का प्रवचन आरंभ हुआ। उनकी वाणी में अद्भुत ओज था साथ ही मधु। एकाएक चौंक। वे कह रहे थे, 'आप कहते हैं कि आपकी माँ आपके साथ रहती है। वह कोई पालतू जंतु है? कुत्ता बिल्ली है? क्या आप यह नहीं कह सकते, मेरा सौभाग्य है कि मैं अपनी माँ के साथ रहता हूँ... ?'

एक मुनि जिसने कब का गृहस्थ त्याग दिया उसे हमारे समाज में वृद्ध महिलाओं की दुर्दशा का ऐसा आभास! उसकी भ‌र्त्सना में ऐसी लौह टंकार!! शायद उस क्षण मैंने अपने भीतर मुनि महिमा को पहचाना।

शाम में उनसे फिर भेंट हुई। पर मैं बोलने में कभी आगे रही नहीं। उस भिड़ में दूर से ही देखा, यद्यपि वे बार-बार हम लेखक लोगों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते रहे।



मुनिश्री से अगली भेंट भी एक घटना थी अपने-आप में। सर्दियों की शुरुआत थी। मैं घिटोरनी और याया नगर के निकट एक नर्सरी से कुछ गमले क्रय कर जैसी ही बाहर आई सड़क पर जुलूस दिखाई दिया। कारों में जैन पताका देख मैं पढ़ना चाह रही थी कि कैसा या किसका जुलूस है कि तभी सामने से एक गोल घेराबंदी कर चल रहा जन समूह पास आया। मैंने किसी से कहा, 'कोई मुनि हैं क्या?'

'हाँ, गुप्तिसागर जी!'

'सच!' मैं हजूम की तरफ बढ़ी। उन्होंने घेरे को मेरी ओर से ढीला किया। मुनि को मैंने नमन किया। वही बाल सुलभ प्रसन्नता मुनिश्री के मुख पर मुझे दिखी। बोले, 'आप यही रहती हैं।' 'जी, पास में ही।' अधिक बोला न गया। पीछे से उनका आशीर्वाद मिला। हजूम चलता गया। वे सब कासन जा रहे थे। कासन के किसी घर में खुदाई के समय 700 वर्ष पुरानी जैन मूर्तियाँ मिली थीं एक घड़े में। उसी को लेकर जैन समाज में बड़ी उत्तेजना थी। कासन में बड़ा अतिशय क्षेत्र बनने की योजना थी। गुप्तिसागर जी के इस अकस्मात दर्शन पर मेरा पुलकित होता रहा।



इस घटना के लगभग 6 महीने बाद आई.आई.टी. के किसी दूसरे विभाग से डॉ. वी.के.जैन का फोन आया कि वे मिलना चाहते हैं। मुझे तो कमरे की कैद थी ही अध्यक्ष के नाते, सो कहा, 'आ जाइए, यही हूँ।' वे आए हाथ में बड़ा-सा लिफाफा था। बोले, 'यह एक जैन मुनि की पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद है। किसी ने एडिटिंग के लिए भेजा है। मैंने उनसे कहा मैं तो अंग्रेजी का हूँ नहीं, पर हमारे यहाँ एक जैन महिला अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं...'

'जैन साहब, मुझे क्यों फँसा रहे हैं। मैं इस काम के नितांत अयोग्य हूँ। 1975 में मुनि विद्यानंद जी ने भी कहलवाया था कि कुछ जैन ग्रंथों का अनुवाद करूँ तब भी क्षमा माँगनी पड़ी थी।...'

'आप इसे एक नजर देख तो लें। मैं बहुत कठिनाई में हूँ...' उन्होंने लिफाफा मेरी और बढ़ाया। खोलकर देखा। मुनि गुप्तिसागर की पुस्तक का अनुवाद था। अरे! इन्हें तो मैं जानती हूँ। क्यों मुनिश्री से लगातार यों निकटता का सुयोग बन रहा था, अपने-आप सलसिलेवार।

घर लाकर मैंने अनुवाद देखा। कई बार। अगले दिन वी.के. जैन से कहा, 'डॉ. जैन यह अनुवाद तो मुझसे ठीक न हो पाएगा। बड़े श्रम से किया गया है, पर इसमें अंग्रेजी का 'इंडियम' कहीं नहीं...'

'कोशिश तो कीजिए।'

'हो नहीं सकता, जहाँ से भी छुआ यह ताश के महल-सा गिरा पड़ेगा सारे का सारा।'

कुछ सोचकर वे बोले, 'मिसेज जैन, मैं ये सब मुनि जी को समझा न पाऊँगा। आप साथ चलें, प्लीज...'

कोई चारा न था। मुनिश्री रोहतक रोड़ के मंदिर के निकट ठहरे थे। उन्हें सूचना दी गई थी कि आई.आई.टी. से कोई अंग्रेजी की प्रोफेसर उनसे मिलने आ रही हैं। जब मैंने नमन किया तो वे मेरे पीछे उस प्रोफेसर को न पा विस्मित से बोले, 'आप ही अंग्रेजी की प्रोफेसर है क्या?'

बहुत झेंपकर मैंने कहा, 'जी, महाराज।'



यह तीसरी भेंट थी और पहचान का पहला अवसर। मुनिश्री की तीक्ष्ण दृष्टि से छुपा न था कि यह महिला अपने विषय में कभी बताती ही नहीं, यदि यह अनुवाद की बात न चलती।

उन्हें मैंने अपनी कठिनाई बतलाई।

वे बोले, 'पुस्तक तो आवश्य छपनी है। पैसे जी भी लगें...' मैंने कानों को छू, उनके आगे हाथ जोड़ दिए।

'नहीं महाराज, यह पैसे की बात नहीं। इसे ठीक नहीं किया जा सकता।' उनकी छवि एकाएक म्लान हुई देख, मैंने वह कहा जिसके लिए मैं स्वयं कभी तैयार न होती, 'यदि आप आज्ञा दें तो मैं इसे नए सिरे से अनुवाद करने का प्रयत्न करूँ।' उन्होंने आज्ञा दी। लगभग एक वर्ष के श्रम से उनकी पुस्तक किसने मेरे खयाल में दीपक जला दिया का अंग्रेजी रूपानंतरन इनर लाइट (Inner Light) के नाम से मेरे सुझाव पर पाँच खंड में छपा। संध्या टाइम्स के वीरेंद्र जैन उन दिनों वाणी प्रकाशन के लिए मेरे कविता समग्र यही कहीं पर को व्यवस्थित कर रहे थे। मेरे अनुरोध पर उन्होंने इनर लाइट के छपने में सहायता की।

इस पुस्तक के अनुवाद और उसके बाद मुनि‍श्री की जीवनी, महायोगी गुप्तिसागर के अंग्रेजी रूपांतर ने मुझे मुनिश्री के जीवन को पग-पग जानने-समझने का अवसर दिया। जैन धर्म के इस आलोक में मुझे अपने ही व्यक्तित्व और अंतस की कई संगति-विसंगतियों के मूल कारण समझ में आए। मेरा झूठ न बोल पाना, बहुत कलात्मकता होने के बाद भी वस्तुओं से मोह न होना, राग और विराग का व्यवहार में एक साथ होना, कभी हाथ न फैला पाना, अपना अक्खड़पन अपनी न्यायप्रियता, स्वच्छता के प्रति असीम आग्रह और जो वांछित नहीं उसके प्रतिपक्ष में खड़े होने की क्षमता का धैर्य - यह सब कहीं से तो मिले होंगे। अपनी इस विरासत का वैभव अब तक मुझे ज्ञात न था। जब हुआ तो उसके दिगंबरत्व में एक अनूठा मौन था। - ज्यों भीतर कुछ समाधि में चला गया हो।

गुप्तिसागर जी से मैंने कहा था कि जब तक मैं हूँ जैन पुस्तकों का अनुवाद करती रहूँगी। उसमें मेरा निजी स्वार्थ है। हर पुस्तक के साथ हर पल जीना होता है। उसकी साँस में साँस लेनी होती है, तभी उसके भीतर के कल्याणकारी तत्व का आत्मसात संभव होता है। अनुवाद के छपने जाने पर मैंने हर बार मुनिश्री से अनुनय की है कि इस पर केवल उनका नाम रहे। वहाँ मेरे नाम का कोई औचित्य नहीं। उन्होंने यह कहकर मुझे निरुत्तर कर दिया, 'किंतु यह भाषा तो मेरा नहीं।'



गुप्तिसागर जी से वय के इस पड़ाव पर यों अकस्मात भेंट होना अकस्मात भी तो नहीं - ऐसा जब भी होता है, तो किसी पुराने गणित के फलस्वरूप होता है। और उसका समय भी समय से पहले आता नहीं।

फिर मुनि होना, गुरु का गुरु होना, सज्जन का सज्जन होना ऐसा ही तो है जैसा सूरज का धूप होना। और यह धूप ही है जो मणि को अपने मणि होने का पता देती है। मुझे कभी-न-कभी जैन होना ही था।



सुनीता से जैन होने की मेरी इस यात्रा में जो भूमिका प्रिय सरोजकुमार और प्रमोद त्रिवेदी ने निभाई वह भी मात्र संयोग तो न थी। आज से तीस वर्ष पूर्व जब अमरीका से मैं आई थी, मुनि विद्यानंद के दर्शन का सौभाग्य कई बार हुआ। कुंद कुंद भारती तब बन रहा था। मुनिश्री हौजखास के किसी घर में थे। मैं जैसे ही कमरे में आई और नमन किया, आशीर्वाद में हाथ उठ उन्होंने कहा, 'सुनीता, तू साध्वी हो जा।' मुनि के ये वचन मुझे स्तंभित कर गए। मेरी वय 33 वर्ष की थी, मेरे तीन छोटे बच्चे थे, मैं आई.आई.टी. में पढ़ा रही थी.... तो? इन तीस वर्ष में मुनि विद्यानंद का वह आशीर्वाद या आदेश मुझे कभी न भूला। किंतु इसके अर्थ मुझ पर आज ही खुले हैं। मुनि जिस साध्वी को मुझमें देख रहे थे, या जिस साध्वी के होने की अनुमति दे रहे थे, मेरा सारा रचना-जगत उसी साध्वी की शब्द,काया ही तो है। मुनिश्री ने मेरे भीतर की इस शब्दकाया को, साध्वी हो ही तो सुबोधा होगा, जिसके उकेरने में ये तीस वर्ष बीत गए।


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