यहाँ कई दिन से हिलेरी क्लिंटन की पुस्तक का शोर है। कल शाम टेलिविजन पर खबरों में था कि पहले दिन दोपहर तक चालीस हजार प्रतियाँ विक्रय हो गईं। पुस्तक के लिए 'बार्न्स एंड नोबल' की दुकान खुलने से पहले ही लोगों का क्यू सड़क पर था और दिन-भर लोग घंटों क्यू में रहे अपनी प्रति क्रय करने और हिलेरी का हस्ताक्षर लेने। यह अपने आप में बिक्री का नया कीर्तिमान था 'बार्न्स एंड नोबल' के लिए। और ये कीर्तिमान बनते ही रहते हैं। पुस्तक की, बताया गया, 10 लाख प्रतियाँ छपी हैं पहले संस्करण में और प्रकाशक ने एक लाख प्रतियाँ अतिरिक्त तुरंत छपने को दी हैं।
यह सूचना पढ़ और पुस्तक के लिए यहाँ के लोगों का यह उत्साह मन को जाने कितना उदास कर जाता है। इस यात्रा में मेरे साथ एक भारतीय मूल के सज्जन बैठे थे, जो कई दशक से यहाँ बसे हैं। सारी यात्रा में वे भी एक मोटी पुस्तक पढ़ते रहे। यात्रा का अंत होने से पहले बोले, 'चलिए मेरी पुस्तक भी समाप्त हुई।' उन पर मेरा ध्यान इसलिए गया था कि वे भारतीय थे। हर यात्रा में अनेक यात्री अमरीकी या अन्य पश्चिमी देशों के, कुछ-न-कुछ पढ़ते ही रहते हैं। तो? तो हमें क्या हो गया है? क्यों पुस्तक लिखने के बाद बड़े-से-बड़े लेखक को भी यह लगता है कि पुस्तकें कहीं शून्य में विसर्जित हो रही हैं जहाँ न उनको समेटने को हाथ है, न पढ़ने को उत्सुक आँख।
अब तो लेखक को भी इस बात की चिंता नहीं होती कि पुस्तक पाठक तक पहुँची कि नहीं। उसकी चिंता मात्र इतनी होती है कि उसके कुछ मित्रों ने आउट लुक या इंडिया टुडे में उस पुस्तक की यथोचित स्तुति की है कि नहीं। मुझे याद है कि आज से छह सात वर्ष पहले अशोक वाजपेयी की पुस्तक तिनका तिनका दो खंड में छपी थी। यह उनके तब तक लिखे पाँच-छह कविता संग्रहों का समग्र था। अशोक वाजपेयी भले ही 'कॉन्ट्रो वर्शियल' हों किसी के लिए किन्हीं कारणों से उनकी कविता की सहज ऊर्जा मुझे अच्छी लगती हे। उनके दिए हिंदी कविता को नए बिंब भी। और प्रेम कविता में प्रेमजनित वासना का ऐसा नैसर्गिक उच्छाह अशोक के ही बूते की बात है। वे हिंदी के समकालीन उन बहुत कम कवियों में से हैं, जिनकी कविता दूसरी बार भी पढ़ी जा सकती है - एक पाठ में चूक नहीं जाती। यहाँ यह कहना असंगत शायद न हो कि इस यात्रा में दिल्ली से वियना तक मैं और अशोक विमान में साथ थे। किंतु अभिवादन से अधिक कोई बात हमारी नहीं हुई - नौ घंटे सफर में अशोक स्वयं यदि कतराते हैं, तो मैं इस मामले में उनसे भी तीन गुना आगे हूँ। जिनको साहित्यकार के रूप में पसंद करती हूँ, उनको व्यक्ति के रूप में जानना नहीं चाहती - डर लगता है कि जाने क्या ऐसा सामने आए, जो उनके लिखे को पढ़ने में बाधा बन बैठे। तो भी यह अद्भुत बात तो है कि हिंदी के दो कवि विदेश में साथ हों और इस तरह एक-दूसरे से पूर्णत: उदासीन - और वह भी ऊपर से ओढ़ी उदासीनता जिसका व्यक्ति से कम, व्यक्ति के 'एटिच्यूड' से अधिक सरोकार हो जिसमें... एक सहज व्यक्तिगत सदाशयता का नितांत अभाव हो।
खैर! तिनका तिनका मैंने जब प्रकाशक से मँगवाई और उसे पुस्तक की पूरी कीमत, 500 रुपए भी दीए तो वे बहुत चौंके। उन्हें या तो पैसा मिलने की उम्मीद न थी या यह ताकीद सुनने की थी कि 'मेरी किसी पुस्तक के रॉयल्टी अकाउंट में से ले लेना।' जब मैंने रुपए दिए तो वे बोले, 'मैंने यह पुस्तक काफी बेच ली है, किंतु केवल पुस्तकालयों को। आप पहली खरीदार हैं, जिसने व्यक्तिगत प्रति खरीदी है।' यह सुनकर कष्ट हुआ था। अशोक वाजपेयी की पुस्तक की भी यदि एक ही पाठक तक पुस्तक-खरीद होनी है (उसी वर्ष अशोक को ढाई लाख का मोदी शिखर सम्मान और साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था) तो पुस्तकों का भाग्य इस देश में क्या होने को है! विस्मय नहीं कि प्रकाशकों का व्यवहार इतना अपमानजनक रहता है लेखकों के प्रति। नए लेखकों की ओर तो पूछिए नहीं। और बिकने पर भी वे 'नहीं बिका कुछ' कहकर रहा-सहा उत्साह भी तोड़ देते हैं। इस बीच वे लेखक से जो सहयोग राशि लेकर गटक लेते हैं, वह अपनी अलग कहानी आप है।
मात्र 300-400 प्रति का एक संस्करण छपवा पाने की लेखकों की यातना मैंने देखी है। सोचती हूँ, यदि वे छप भी गए तो इस विशाल भारत के हिंदी जबड़े में ये तीन सौ पुस्तक की किस कोटि का चबेना होंगी? क्या अर्थ होगा पुस्तकों के छपने का?
अक्सर छोटे शहरों की यात्राओं में जो लेखक मिलते हैं - विशेषकर महिलाएँ, वे निकट आने का उपक्रम इसलिए करते हैं कि शायद किसी प्रकाशक को उनको किसी पुस्तक के लिए, दिल्ली में रहने-छपने वाला लेखक, मुहैया करवा सके। कितनों ने मुझसे नहीं कहा होगा कि उनके पास पाँच-छह या इससे भी अधिक अप्रकाशित पांडुलिपियों पड़ी हैं। पाँच-सात वर्ष बाद जब कभी वे मिले, तो उनमें से अधिकतर लिखना बंद कर चुके थे। कटु हो गए थे या आसपास के किसी प्रकाशकीय ढाबे में अपने पैसे से बुरी-सी दिखने पुस्तक छपवाकर अपने लेखकीय जीवन का अंतिम संस्कार जैसा कर चूक थे। कुछ पुस्तक छपवाने के बाद, बड़े लेखकों से मिले, अपमान या अवहेलना की पीड़ा में लगभग मानसिक रूप से रुग्ण हो गए थे। जब भी ऐसे लेखक को देखा तो प्रकाश मनु का उपन्यास पापा के जाने के बाद याद हो आया। पुस्तक का नायक-कलाकार अंत तक खिड़की में बैठा किसी पत्र के आने की प्रतीक्षा करता रहता - ऐसा पत्र जो कभी नहीं आया, उसकी मृत्यु तक। पुस्तक जब पढ़ थी तो इस बिंब के पूरे अर्थ नहीं खुले थे मुझ पर उस दिन खुले जब दिल्ली के पास एक छोटे-से शहर से एक अस्सी वर्ष से ऊपर के वयोवृद्ध लेखक का फोन आया - लंबा फोन था। कह रहे थे - किसी भी तरह क्या मैं उनका नाम फलाँ पुरस्कार के लिए भेज सकती हूँ - यानी पुरस्कार दिलवा सकती हूँ?
दिल बैठ-सा गया था उस दिन। बेहद ग्लानि हुई उनकी अनुनय सुन। पुरस्कार दिलवाना-न दिलवाना मेरे वश की बात थी भी कहाँ! केवल दो बातें उस दिन स्पष्ट हुईं - मनु के उपन्यास का वह बिंब - कलाकार का अवहेलित होकर भी इस उम्मीद में जिए जाना कि शायद कभी, शायद किसी गुणी की दृष्टि उसके काम पर पड़ेगी और उसे उसका यथोचित मान और स्थान प्राप्त होगा। कितना कोसता होगा, ऐसा व्यक्ति उस दिन को जब वह कलाकार हुआ। दूसरी बात यह स्पष्ट हुई कि मेरे ये हाथ जो कभी पहचाने जाने के लिए किसी के आगे फैले नहीं, ये कितने मूल्यवान हैं, इसीलिए जब वे जुड़ते हैं तो केवल वहाँ जुड़ने के लिए हाथों का होना होता है।
प्रश्न यहाँ किसी को नसीहत या व्यक्तिगत नैतिक मूल्यों का नहीं है। प्रश्न है कि वह भाषा - यह हिंदी - इतनी दीन कैसे हो गई? कि इसका साहित्यकार मात्र याचक में क्यों परिवर्तित होने लगा? इस भाषा के साहित्य जगत में इस कदर राजनीति कैसे उतर आई कि रणनीति बनने लगी नित नई। यहाँ तक कि आपसी बोल भी, मेल-मिलाप भी उसी से तय होने लगा। प्रश्न यह नहीं कि विदेश यात्रा में क्यों दो कवि एक-दूसरे से बोले नहीं, प्रश्न यह कि क्यों उन्होंने एक-दूसरे से बोलना चाहा भी नहीं। और प्रश्न यह कि पुस्तकें क्या मात्र सत्ता से जुड़े या आई.ए.एस. वालों की छपा करेंगी या फिर अंग्रेजी लेखकों के अनुवाद! लगता तो कुछ ऐसा ही है। जो मात्र अपनी रचना की उत्कृष्टता के बल पर छप रहे हों, छपते रहे हों - ऐसे लेखकों की गिनती के लिए अब दो हाथ की दस उँगलियाँ-भर काफी हैं। बाकी तो नाम लेते ही सब एक-दूसरे के लिए कहने को तत्पर रहते हैं कि फलाँ के छपने में तो इसका-उसका हाथ है, यह कारण है... राज है...। और यह कहकर जब कोई आनंद भी लेता है, सोचता है कि उसने कितने पते की बात कहीं, तो जाने क्यों सिर झुक जाता है - उनके कहने के सबब से अधिक लेखक को संदेह की चौहद्दी में छोड़ देता है। यह संदेह साहित्य की क्षति तो करता ही है, पाठक की उससे अधिक करता है। उसे न पढ़ने का अवसर और बहाना दोनों मिल जाते हैं।
कई वर्ष पूर्व हम कुछ लेखक वत्सल निधि की ओर से आयोजित लेखक शिविर में कुशीनगर आमंत्रित थे। कुशीनगर पहुँचने से पहले, गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से एक विचार-गोष्ठी आयोजित थी। गोष्ठी में श्रीलाल शुक्ल का सम्मान था और अशोक वाजपेयी को बोलना था। अशोक को सुनने का मेरा यह पहला अवसर था। उससे पहले हमारे रास्ते कभी टकराए नहीं। अशोक की वाक्-क्षमता कुछ कम नहीं। बात-बात में 'ससुराने' के बाद भी हिंदी के थोड़े से अच्छा बोलने वालों में वे हैं। किंतु उन्होंने जो उस दिन कहा उसे भूलना संभव नहीं। अपने दोनों बाजू दोनों ओर हवा में फैलाते हुए वे अपने चिर-परिचित मद में बोले, 'कुछ लेखकों को तो हम चलते-चलते यूँ ही निपटा देते...'
यह बात महत्व नहीं रखती कि किन लेखकों की ओर उनका इशारा था या किन्हें वे निपटा चुके या निपटाने जा रहे थे। बात महत्व की यह है कि पूरे सभागार में किसी को उनकी बात पर आपत्ति होती जान नहीं पड़ी। सब आनंद जैसा ले रहे थे उनकी इस साहित्यिक मुँहजोरी का। यदि किसी को आपत्ति नहीं ऐसा ओछी बात पर तो फिर ठीक ही है कि हिंदी के साहित्यकार निपटा दिए जाते रहें, बिन पढ़े, बिन छपे। और एक दिन न साहित्य रहे, न निपटाने वालों की आवश्यकता। उस सभागार में बैठे-बैठे और उसके भी वर्षों बाद तक मुझे कॉस्टनलर (Koestler) के उपन्यास डार्कनेस एक्ट नून की याद हो आई, उपन्यास के अंतिम दृश्य की, जब मृत्युदंड को ले जाए जा रहे नायक के सामने जेल की हर कोठरी के संकरे सींखचे में एक कृश हाथ बाहर था दुहाई या करुणा 'pieta' की मुद्रा में और कनपटी पर पिस्तौल रखने वाले सैनिक की वर्दी से नायक मन ही मन पूछ रहा था - 'किसके नाम में उठाई इसने पिस्तौल की यह काली नली...' (...in whose name did it raise the dark pistol barrel?)
बात केवल साहित्यकारों, उनके मद या उससे उपजी साहित्यिक हिंसा तक होती तो भी ठीक था। बात उससे भी कहीं गहरी है, और गहरे जाकर चुभती है। पिछली गर्मी मेरे कुछ परिजनों ने जैनों के तीर्थस्थल श्रीमहावीर जी जाने का कार्यक्रम बनाया। मुझसे पूछा गया, चलोगी क्या? महावीर जी से माँ की, मेरे बचपन की बहुत-सी स्मृतियाँ जुड़ी हैं... पर अक्सर किसी का साथ न होने से मैं जा नहीं पाती। सौ तैयार हुई। एक एयरकंडीशंड सूमों में हम सब भरकर चले। रास्ते-भर उनके परिवार के छोटे-बड़े बच्चे नए-नए फिल्मी गानों की टेप बजाते रहे या फिर स्वयं अंताक्षरी जैसा कुछ खेल रचा, स्वयं गाते रहे। कुछ देर तो अच्छा लगा। बच्चों की यह नई पौध, उनकी ये रुचियाँ देख एहसास हुआ कि इस नई 'कल्चर' को जानने का अभी तक कोई अवसर मुझे नहीं मिला था, क्योंकि मेरे बच्चे कब बड़े हो विदेश जा चुके थे और उनके बच्चों से इतनी निकटता संभव नहीं थी मेरे कभी-कभार के मिलने में। कुछ देर को गाने जब बंद हुए और भोजन आरंभ, तो मैंने पास बैठे बच्चों से पूछा, 'गर्मी की छुट्टियों में क्या-क्या पढ़ोगे?' बच्चों की आँखे बाहर निकलने को हो गईं। बोले, 'पढ़ाई तो खत्म हो गई। रिजल्ट भी निकल आए!' 'जानती हूँ पर गर्मियों इतनी लंबी होती हैं, कुछ किताबें तो पढ़ोगे?' उनमें से जो सबसे चुलबुला और नटखट था, दस वर्ष का, बोला, 'क्यों अम्मा जी, अब क्यों पढ़ेंगे? हमने तो कल ही सारी किताबें कूड़े में फेंकी हैं... '
'कूड़े में?'
'हाँ, जैसे ही रिजल्ट निकलता है और पास हो जाते हैं, हम सब किताबों को कूड़ेदान में फेंक आते हैं। छुट्टियों में तो अब मौज करेंगे न...'
फिर मेरे मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। इतनी वितृष्णा! पुस्तकों से! उत्तर भारत में, विशेषकर दिल्ली के मध्यम वर्ग परिवारों के बच्चों में!! इतनी लालसा नाचने की - रात-रात भर फिल्मी गानों पर। जो जितना नाचा उतना स्मार्ट।
मुझे माँ याद आई। परीक्षा समाप्त होते ही कहती, 'पुस्तकों को सँभाल कर रख दो। इनके कवर बदली कर दो, (हम पुस्तकें खरीदते ही ब्राउन पेपर के कवर उन्हें पहनाते थे) रिजल्ट निकलने पर पता करना कौन बच्चे ऐसे हैं, जो पुस्तकें खरीद नहीं सकते। जाकर उनको दे आना।' पुस्तक कभी हाथ से छूट धरती पर गिरती तो उसे उठाकर सिर पर रखते थे। कभी पैरे से छू गई तो तड़पकर उन्हें माथे से छुआते थे। यह सब हमने माँ से सीखा था, जो बहुत पढ़ी-लिखी तो नहीं थी, पर पुस्तकों को 'विद्या' कहती थीं। 'विद्या का आदर नहीं करोगे, तो वह तुम्हें आएगी कैसे? अनपढ़, गँवार रह जाओगे...' अक्सर डपटती थीं इन शब्दों में। आज माँएँ शायद डरती हैं बच्चों को कुछ भी कहते। बच्चे जिस चीज से खुश हों उसी में वे खुश रहती हैं। अब पुस्तकें विद्या हैं भी कि नहीं, कौन जाने!
नहीं याद कि मेरी वय क्या थी, शायद सात-आठ वर्ष की रही होगी, जब बाऊ जी का एक अर्दली मुझे लुधियाने की एक लाइब्रेरी में ले गया था। मैं उससे, कोचवान से, मालियों से, सेवकों से, सबसे - कहानी सुनाने का आग्रह किया करती। कब तक सुनाते रहते वे बेचारे। तो एक दिन वह अर्दली बोला, 'मुन्नी बेटी, जहाँ कहानी की पुस्तक मिलती है वहीं चलो न...।' 'ऐसी भी कोई जगह होती है क्या? 'होती है - लाइब्रेरी।' वह पेशे से मात्र सेवक मुझे वहीं ले गया था। मैं भूतनाथ, चंद्रकांता संतति, तिलस्मी पंजा और जाने क्या-क्या लाने लगी। पुस्तक इसलिए निकलवाती कि वह खूब मोटी थी। समाप्त हो गई तो फिर कोई लायब्रेरी लेकर जाए-न जाए जल्दी से। एक अर्दली जैसे अदना व्यक्ति को भी कैसे पता था उन दिनों पुस्तकों का महत्व किसी बढ़ते बच्चे के खाली दिनों में? उसके एक-आध वर्ष बाद तो मुझे हमारे घर रह रहे एक संबंधी के बेटी की पुस्तकों में मानस-रोवर भी मिल गया। तब मैं मानसरोवर को मानसरोवर पढ़ सकूँ इतनी भाषा नहीं जानती थी। किंतु जितनी जानती थी उतनी से ही मैंने प्रेमचंद को बिना जाने कि वे प्रेमचंद हैं, पूरा पढ़ डाला।
एक बार फिर कहूँ कि प्रश्न यहाँ व्यक्तिगत क्षमता या अवसर या रुचि का नहीं है। प्रश्न है उपलब्धि का। यदि पुस्तक घर में होगी ही नहीं, कोई उसे क्रय करेगा नहीं, सँभालकर चुनकर अलमारी में रखेगा नहीं, कभी-कभी धूल झाड़कर पढ़ने नहीं बैठेगा या उनकी चर्चा नहीं करेगा तो आठ-नौ वर्ष के बच्चों को पुस्तक की उपस्थिति का भान या महिमा का ज्ञान भी क्यों कर होगा। क्यों बड़े होकर वे पुस्तकों को खरीदेंगे, उनकी बाट जोहेंगे और पढ़ेंगे - भले ही वह उनके समय और उनकी भाषा के सबसे ऊर्जावान कवि, अशोक वाजपेयी, की ही कविता पुस्तक क्यों न हों।
लुधियाना आने से पहले मेरे न्यायाधीश पिता अंबाला शहर में थे, जहाँ हमारी स्कूली शिक्षा प्रारंभ हुई। पैदल चलकर मैं आर्या कन्या पाठशाला तक जाती थी, तख्ती-बस्ता लिए। आते समय अन्य बच्चों के साथ आती थी। रास्ते में पड़ने वाले एक तालाब से सिंघाड़े की बेले खींचकर सिंघाड़े तोड़ने से हम न चुकते। जब किसी ने मेरी आवारगी देख बाऊ जी से (हम पिता जी को बाऊ जी ही कहते थे) कहा कि आप बच्ची को अंग्रेजी स्कूल में क्यों नहीं भेजते? तो वे बोले, 'जज मैं हूँ। यह नहीं। बच्चों को सभी के साथ हिलना-मिलना आना चाहिए।' स्कूल में दो छेक वाले पैसे फीस थी और लाल रंग के टाट पर बैठकर हम पढ़ते थे।
यह बात लुधियाना आने से पहले की है। लुधियाना में जो स्कूल हमारी कोठी (सिविल लाइंस) के पास में था, वह अंग्रेजी माध्यम का 'न्यू मॉडल स्कूल' था। तब तक मेरी एक छोटी बहन भी आ गई थी, जिसके बाल अंग्रेजी ढंग से कटते और जो मेरे तरह देसी फ्राक न पहन स्लेक्स पहनती। शायद माँ भी अब जान गई थी कि लड़कियों को स्मार्ट होना जरूरी है। छोटी बहन के सुंदर होने के गर्व में या अन्य कोई स्कूल पास न होने के कारण माँ ने उसे 'न्यू मॉडल स्कूल' अंग्रेजी मीडियम में डाला। मैं भी इसी स्कूल में चौथी कक्षा में भर्ती हुई। किंतु मैंने तो अब तक ए बी सी डी तक सीखा नहीं था। और यहाँ तो बच्चे के.जी. जैसी किसी कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाते थे। बाऊ जी के रोब में मुझे प्रिंसिपल ने स्कूल में तो रखा, किंतु अंग्रेजी के घंटे में मुझे पढ़ने लिए फर्स्ट स्टैंडर्ड के बच्चों की कक्षा में जाना होता था। यह स्थिति किसी के लिए इतनी भी हास्यास्पद रही हो, (हो सकता है बच्चे ही मुझ पर हँसे हों) किंतु मुझे इसमें कुछ बुरा न लगा। बस किसी तरह तीन साल का पाठ एक वर्ष में फलाँगना था। उस वर्ष मुझे अपनी देर से सीखी अंग्रेजी के बाद भी 'डबल प्रमोशन' मिली और मैं चौथी कक्षा से सीधे छठी में भेज दी गई।
याद नहीं कि इतनी अंग्रेजी कैसे सीख ली होगी - घर में कोई बताने वाला भी नहीं था। बाऊ जी से तो हमें भय लगता, माँ पढ़ी-लिखी न थीं, भाई इंजीनियरिंग कॉलेज के होस्टल में थे, बहन का विवाह हो चुका था। मैं थी और मेरा झगड़ालू भाई मुझसे एक वर्ष बड़ा। उससे तो वैसे भी बचना जरूरी था, क्योंकि पढ़ाई में उसे सब फिसड्डी कहते थे, छोटी बहन के मुकाबले। तो वह क्या सहायता करता। मारने की ही युक्ति खोजता रहता। मुझे याद यह है कि एक दिन एक पुस्तक ब्लैक ब्यूटी मेरे हाथ आ गई। गर्मी की वह छुट्टी हम दिल्ली में बाबू जी के अपने नए बने मकान में बिताने आए थे। सामने के घर में एक डॉक्टर परिवार तभी इंग्लैंड से लौटा था। उनकी अति स्मार्ट लड़कियों में एक थोड़ी-सी सीधी थी। उसी ने मुझे कुछ पुस्तकें पढ़ने को दी। ब्लैक ब्यूटी भी मुझे वैसे ही पढ़नी पड़ी, रुक-रुक कर, हिज्जे कर, जैसे 'मानस-रोवर' किंतु उस गर्मी के बाद अंग्रेजी मेरी अपनी भाषा-सी हो गई थी। हिंदी और अंग्रेजी एक-दूसरे का हाथ पकड़े बहनें-सी मेरी अभिन्न, मेरी सखियाँ... और दोनों ही गर्मी की छुट्टियों की देन!
इसीलिए जाने क्यों गर्मी की छुट्टियाँ आरंभ होते ही हर बच्चे से पूछने को मन होता है - 'अच्छा यह बताओ, इस गर्मी तुम कौन-कौन-सी पुस्तक पढ़ोगे?
(जून 2003 सिल्वर स्प्रिंग, अमरीका)