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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम मंडपगमन खंड पीछे     आगे

राजा बाउर बिरह बियोगी । चेला सहस तीस सँग जोगी॥

पदमावति के दरसन आसा । दँडवत कीन्ह मँडप चहुँ पासा॥

पुरुष बार होइ कै सिर नावा । नावत सीस देव पहँ आवा॥

नमो नमो नारायन देवा । का मैं जोग करौं तोरि सेवा॥

तूँ दयाल सबके उपराहीं । सेवा केरि आस तोहि नाहीं॥

ना मोहि गुन, न जीभ रस बाता । तूँ दयाल, गुन निरगुन दाता॥

पुरवहु मोरि दरस कै आसा । हौं मारग जोवौं धारि साँसा॥

तेहि विधिा विनै न जानौं, जेहि विधिा अस्तुति तोरि।

करहु सुदिस्टि मोहिं पर, हींछा पूजै मोरि॥1॥

कै अस्तुति जब बहुत मनावा । सबद अकूत मँडप महँ आवा॥

मानुष पेम भयउ बैकुंठी । नाहिं त काह, छार भरि मूठी॥

पेमहिं माँह बिरह रस रसा । मैन के घर मधाु अमृत बसा॥

निसत धााइ जौं मरै त काहा । सत जौं करै बैठि तेहि लाहा॥

एक बार जौं मन देइ सेवा । सेवहि फल प्रसन्न होइ सेवा॥

सुनि कै सबद मँडप झनकारा । बैठा आइ पुरुष के बारा॥

पिंड चढ़ाइ छार जति ऑंटी । माटी भयउ अंत जो माटी॥

माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल।

दिस्टि जौं माटी सौं करे, माटी होइ अमोल॥2॥

बैठ सिंघछाला होइ तपा । 'पदमावति पदमावति' जपा॥

दीठि समाधिा ओही सौं लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी॥

किंगरी गहे बजावै झूरै । भोर साँझ सिंगी निति पूरै॥

कंथा जरै, आगि जनु लाई । विरह धाँधाार जरत न बुझाई॥

नैन रात निसि मारग जागे । चढ़े चकोर जानि ससि लागे॥

कुंडल गहे सीस भुइँ लावा । पाँवरि होउँ जहाँ ओहि पावा॥

जटा छोरि कै बार बहारौं । जेहि पथ आव सीस तहँ वारौं॥

चारिहु चक्र फिरौं मैं, डँड न रहौं थिर मार।

होइ कै भसम पौन संग, (धाावौं) जहाँ परान अधाार॥3॥

(1) निरगुन=बिना गुणवाले का।

(2) अकूत=आपसे आप, अकस्मात्। मैन=मोम। लाह=लाभ। पिंड=शरीर। जेति=जितनी। ऑंटी=ऍंटी, हाथ में समाई। माटी सौ दिस्टि करै=सब कुछ मिट्टी समझे या शरीर मिट्टी में मिलाए। माटी=शरीर।

(3) तपा=तपस्वी। झूरै=व्यर्थ। धाँधाार=लपट। रात=लाल। पाँवरि=जूती। पावा=पैर। बहारौं=झाड़ू लगाऊँ। थिर मार=स्थिर होकर।


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