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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम पदमावती-सुआ-भेंट-खंड पीछे     आगे

तेहि बियोग हीरामन आवा । पदमावति जानहुँ जिउ पावा॥

कंठ लाइ सूआ सौं रोई । अधिाक मोह जौं मिलैं बिछोई॥

आगि उठे दुख हिये गँभीरू । नैनहिं आइ चुवा होइ नीरू॥

रही रोइ जब पदमिनि रानी । हँसि पूछहिं सब सखी सयानी॥

मिले रहस भा चाहिय दूना । कित रोइय जौं मिलै बिछूना?॥

तेहि क उतर पदमावति कहा । बिछुरन दु:ख जो हिए भरि रहा॥

मिलत हिये आयउ सुख भरा । वह दु:ख नैन नीर होइ ढरा॥

बिछुरंता जब भेंटै, सो जानै जेहि नेह।

सुक्ख सुहेला उग्गवै, दु:ख झरै जिमि मेह॥1॥

पुनि रानी हँसि कूसल पूछा । कित गवनेहु पींजर कै छूँछा॥

रानी! तुम्ह जुग जुग सुख पाटू । छाज न पंखिहि पींजर ठाटू॥

जब भा पंख कहाँ थिर रहना । चाहै उड़ा पंखि जौं डहना॥

पींजर महँ जो परेवा घेरा । आइ मजारि कीन्ह तहँ फेरा॥

दिन एक आइ हाथ पै मेला । तेहि उर बनोबास कहँ खेला॥

तहाँ बियाधा आइ नर साधाा । छूटि न पाव मीचु कर बाँधाा॥

वै धारि बेचा बाम्हन हाथा । जँबूदीप गयउँ तेहि साथा॥

तहाँ चित्रा चितउरगढ़, चित्रासेन कर राज।

टीका दीन्ह पुत्रा कहँ, आपु लीन्ह सर साज॥2॥

बैठ जो राज पिता के ठाऊँ । राजा रतनसेन ओहि नाऊँ॥

बरनौं काह देस मनियारा । जहँ अस नग उपना उजियारा॥

धानि माता औ पिता बखाना । जेहि के बंस अंस अस आना॥

लछन बतीसौ कुल निरमला । बरनि न जाइ रूप औ कला॥

वै हौं लीन्ह, अहा अस भागू । चाहै सोने मिला सोहागू॥

वै सो नग देखि हींछा भइ मोरी । है यह रतन पदारथ जोरी॥

है ससि जोग इहै पै भानू । तहाँ तुम्हार मैं कीन्ह बखानू॥

कहाँ रतन रतनागर, कंचन कहाँ सुमेरु।

दैव जो जोरी दुहुँ लिखी, मिलै सो कौनहु फेरु॥3॥

सुनत बिरह चिनगी ओहि परी । रतन पाव जौं कंचन करी॥

कठिन पेम बिरहा दुख भारी । राज छाँड़ि भा जोगि भिखारी॥

मालति लागि भौंर जस होई । होइ बाउर निसरा बुधिा खोई॥

कहेसि पतंग होइ धानि लेऊँ । सिंघलदीप जाइ जिउ देऊँ॥

पुनि ओहि कोउ न छाँड़ अकेला । सोरह सहस कुँवर भए चेला॥

और गनै को संग सहाई? । महादेव मढ़ मेला जाई॥

सूरुज पुरुष दरस के ताईं । चितवै चंद चकोर कै नाईं॥

तुम्ह बारी रस जोग जेहि, कँवलहि जस अरघानि।

तस सूरज परगास कै, भौंर मिलाएउँ आनि॥4॥

हीरामन जो कही यह बाता । सुनिकै रतन पदारथ राता॥

जस सूरुज देखे होइ ओपा । तस भा बिरह कामदल कोपा॥

सुनि कै जोगा केर बखानू । पदमावति मन भा अभिमानू॥

कंचन करा न काँचहि लोभा । जौं नग होइ पाव तब सोभा॥

कंचन जौं कसिए कै ताता । तब जानिय दहुँ पीत कि राता॥

नग कर मरम सो जड़िया जाना । उड़ै जो अस नग देखि बखाना॥

को अब हाथ सिंघ मुख घालै । को यह बात पिता सौं चालै॥

सरग इँद्र डरि काँपै, बासुकि डरै पतार।

कहाँ सो अस बर प्रिथिमी, मोहि जोग संसार॥5॥

तू रानी ससि कंचन करा । वह नग रतन सूर निरमरा॥

बिरह बजागि बीच का कोई । आगि जो छुवै जाइ जरि सोई।

आगि बुझाइ परे जल गाढ़ै । वह न बुझाइ आपु ही बाढ़ै॥

बिरह के आगि सूर जरि काँपा । रातिहि दिवस जरै ओहि तापा॥

खिनहिं सरग, खिन जाइ पतारा । थिर न रहै एहि आगि अपारा॥

धानि सो जोउ दगधा इमि सहै । अकसर जरै, न दूसर कहै॥

सुलगि सुलगि भीतर होइ सावाँ । परगट होइ न कहै दुख नावाँ॥

काह कहौं हौं ओहि सौं, जेइ दुख कीन्ह निमेट।

तेहि दिन आगि करै बह, (बाहर) जेहि दिन होइ सो भेंट॥6॥

सुनि कै धानि 'जारी अस कया' । मन भा मयन, हिये भै मया॥

देखौं जाइ जरै कस भानू । कंचन जरै अधिाक होइ बानू॥

अब जो मरै व पेम बियोगी । हत्या मोहि, जेहि कारन जोगी॥

सुनि कै रतन पदारथ राता । हीरामन सौं कह यह बाता॥

जौ वह जोग सँभारै छाला । पाइहि भुगुति, देहुँ जयमाला॥

आय बसंत कुसल जौं पावौं । पूजा मिस मंडप कहँ आवौं॥

गुरु के बैन फूल हौं गाँथे । देखौं नैन, चढ़ावौं माथे॥

कँवल भवर तुम्ह बरना, मैं माना पुनि सोइ॥

चाँद सूर कहँ चाहिए, जौं रे सूर वह होइ॥7॥

हीरामन जो सुना रस बाता । पावा पान भयउ मुख राता॥

चला सुआ, रानी तब कहा । भा जो परावा कैसे रहा॥

जो निति चलै सँवारै पाँखा । आजु जो रहा, काल्हि को राखा॥

न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ । आएहु मिलै, चलेहु मिलि, सूआ॥

मिलि कै बिछुरि मरन कै आना । किस आएहु जौं चलेहु निदाना॥

सुनु रानी हौं रहतेऊँ राँधाा । कैसे रहौं वचन कर बाँधाा॥

ताकर दिस्टि ऐसि तुम्ह सेवा । जैसे कुंज मन रहै परेवा॥

बसै मीन जल धारती, अंबा बसै अकास।

जौ पिरीत पै दुवौ महँ, अंत होहिं एक पास॥8॥

आवा सुआ बैठ जहँ जोगी । मारग नैन, बियोग बियोगी॥

आइ पेम रस कहा सँदेसा । गोरख मिला, मिला उपदेसा॥

तुम्ह कहँ गुरु मया बहु कीन्हा । कीन्ह अदेस, आदि कहि दीन्हा॥

सबद, एक उन्ह कहा अकेला । गुरु जस भिंग फनिंग जस चेला॥

भिंगी ओहि पाँखि पै लेई । एकहि बार छीनि जिउ देई॥

ताकहँ गुरू करै असि माया । नव औतार देइ, नव काया॥

होइ अमर जो मरि के जीया । भौंर कवँल मिल कै मधाु पीया॥

आवै ऋतु बसंत जब, तब मधाुकर तब बासु।

जोगी जोग जो इमि करैं, सिध्दि समापत तासु॥9॥

(1) बिछोई=बिछुड़ा हुआ। रहस=आनद। विछूना=बिछुड़ा हुआ। सुहेला=सुहेल या अगस्त तारा। झरै=छँट जाता है, दूर हो जाता है। मेह=मेघ, बादल।

(2) छाज न=नहीं अच्छा लगता। पींजर ठाटू=पिंजरे का ढाँचा। दिन एक...मेला= किसी दिन अवश्य हाथ डालेगी। नर=नरसल जिसमेंलासा लगाकर बहेलिए चिड़िया फँसाते हैं। चित्रा=विचित्रा। सर साज लीन्ह=चिता पर चढ़ा, मर गया।

(3) मनियारा=रौनक, सुहावना। अंस=अवतार। रतनागर=रत्नाकर, समुद्र।

(4) चिनगी=चिनगारी। कंचन करी=स्वर्णकलिका। लागि=लिये, निमित्ता। मेला=पहुँचा। दरस के ताईं=दर्शन के लिए। (5) राता=अनुरक्त हुआ। ओपदमक। ताता=गरम। पोत कि राता=पीला कि लाल, पीला सोना मधयम और लाल चोखा माना जाता है।

(6) करा=कला, किरन। बजागि=बज्राग्नि। अकसर=अकेला। सावाँ=श्याम, साँवला। काह कहौं हौं‑‑‑निमेट सुआ रानी से पूछता है कि मैं उस राजा के पास जाकर क्या संदेसा (उत्तार) कहूँ जिसने इतना न मिटने वाला दु:ख उठाया है। (7) बानू=वर्ण, रंगत। छाला=मृगचर्म पर। फूल हौं गाथे=तुम्हारे (गुरु से) कहने से उसके लिए प्रेम की माला मैंने गूँथ ली।

(8) पावा पान= विदा होने का बीड़ा पाया। चलै=चलने के लिए। राँधाा=पास, समीप। ताकरि=रतनसेन की। तुम्ह सेवा=तुम्हारी सेवा में। अंबा=आम का फल। बसै मीन...पास=जब मछली पकाई जाती है तब आम की खटाई पड़ जाती है; इस प्रकार आम और मछली का संयोग हो जाता है। जिस प्रकार आम और मछली दोनों का प्रेम एक जल के साथ होने से दोनों में संबंधा होता है उसी प्रकार मेरा और रतनसेन दोनों का प्रेम तुम पर है इससे जब दोनों विवाह के द्वारा एक साथ हो जाएँगे तब मैं भी वहीं रहूँगा। मारग=मार्ग में (लगे हुए)। आदि=प्रेम का मूल मंत्रा। (9) फनिंग=फनगा, फतिंगा। समापत=पूर्ण।



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