दैउ दैउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी पंचमी पहुँची आई॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धाूप औ छाँहा॥
पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंहलदीप कै बारी॥
आजु बसंत नवल ऋतु राजा । पंचमि होइ जगत जब साजा॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधो चहुँ पासा॥
पियर पात दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते॥
अवधिा आइ सो पूजी, जौं हींछा मन कीन्ह।
चलहु देवगढ़ गोहने, चहहु सो पूजा दीन्ह॥1॥
फिरी आन ऋतु बाजन बाजे । औ सिंगार बारिन्ह सब साजे॥
कवँल कली पदमावती रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी॥
तारामँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला॥
सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंधा चढ़ाए अंगा॥
सब राजा रायन्ह कै...बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल, सेंदुर सब राती॥
करहिं किलोल सुरंग रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली॥
चहुँ दिसि रही सो बासना, फुलवारी अस फूलि।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि॥2॥
भै आहा पदमावति चली । छत्तिास कुरि भइँ गोहन भली॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस ऍंग मोरा॥
अगरवारि गज गान करेई । बैसिनि पाँव हंसगति देई॥
चंदेलिनि ठमकहिं पगु भारा । चली चौहानि, होइ झनकारा॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम मधाु माती॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चलीं समाइ न ऑंगा॥
पटइनि पहिरि सुरँग तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला॥
चलीं पउनि सब गोहने, फूल डार लेइ हाथ।
बिस्वनाथ कै पूजा, पदमावति के साथ॥3॥
कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धामारी॥
आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिबहारू॥
चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई॥
फागु खेलि पुनि दाहद होरी । सैंतब खेह उड़ाउब झोरी॥
आजु साज पुनि दिवस न पूजा । खेलि बसंत लेहू कै पूजा॥
भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी॥
पुनि रे चलब घर आपने, पूजि बिसेसर देव।
जेहि काहुहि होइ खेलना, आजु खैलि हँसि लेव॥4॥
काहू गही ऑंब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा॥
कोइ नारँग कोइ झाड़ चिरौंजी । कोइ कटहर, बड़हर, कोइ न्यौजी॥
कोइ दारिउँ कोई दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरंज जँभीरी॥
कोइ जाइफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी॥
कोइ बिजौंर, करौंदा जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ ऍंवरा, कोइ राय करौंदा॥
काहु गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी॥
काहू पाई नीयरे, कोउ गए किछु दूरि।
काहू खेल भएउ विष, काहू अमृत मूरि॥5॥
पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली॥
कोइ केवड़ा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी॥
कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागसेर बरना॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी॥
कोइ सिंगारहार तेहि पाँहा । कोइ सेवती, कदम के छाँहा॥
कोई चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली॥
(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो ऑंट।
(कोइ) हार चीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट॥6॥
फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई । झूँड बाँधिा के पंचम गाई॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी॥
सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी महुअर सुर सँग साजे॥
और कहिय जो बाअन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले॥
रथहिं चढ़ी सब रूप सोहाई । लेइ बसंत मठ मँडप सिधााई॥
नवल बसंत नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धामारी॥
खिनहिं चलहिं खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई॥
सेंदुर खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात।
राती सगरिउ धारती, राते बिरिछन्ह पात॥7॥
एहि बिधिा खेलति सिंघलरानी । महादेव मढ़ जाइ तुलानी॥
सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागे॥
एइ कविलास इंद्र कै अछरी । को कहुँ तें आईं परमेसरी॥
कोई कहै पदमावति आई । कोइ कहै ससि नखत तराई॥
कोइ कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी॥
एक सुरूप औ सुंक्षरि सारी । जानहु दिया सकल महि बारी॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै॥
कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप।
कोई पतंग भा दीपक, कोई अधाजर तन काँप॥8॥
पदमावति ठौ देव दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा॥
देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा । सिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा॥
फल फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा॥
लेइ सेंदुर आगे भैं खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी॥
'और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा॥
बर सौं जोग मोहिं मेरवहु, कलस जाति हौं मानि।
जेहि दिन हीछा पूजै, बेगि चढ़ावहुँ आनि'॥9॥
हींछि हींछि बिनवा जस बानी । पुनि कर जोरि ठाढ़ि भइ रानी॥
उतरु का देह, देव मरि गएउ । सबद अकूत मँडप महँ भएउ॥
काटि पवारा जैस परेवा । सोएउ ईस, और को देवा॥
भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । विष भइ पूरि काला भा गोझा॥
जो देखै जनु बिसहर डसा । देखि चरित पदमावति हँसा॥
भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोह, को मानै सेवा?॥
को हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा॥
जेहि धारि सखी उठावहिं, सीस बिकल नहिं डोल।
धार कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल॥10॥
ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी॥
पुरुब द्वार मढ़ जोगी छाए । न जनो कौन देस ते आए॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिध्द होइ निसर सब चेला॥
उन्ह महँ एक गुरु जो कहावा । जनु गुड़ दइ काहु बोरावा॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँं लछन कहत एक बाता॥
जनौं आहि गोपीचंद जोगी । का सो आहि भरथरी बियोगी॥
वै पिंगला गए कजरी आरन । ए सिंघल आए कहि कारन?॥
यह मूरति यह मुद्रा, हम न देख अवधाूत।
जानौं होहिं न जोगी, कोइ राजा कर पूत॥11॥
सुनि सो बात रानी रथ चढ़ी । कहँ अस जोगी देखौं मढ़ी॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जागिन्ह आहि अपछरन्ह घेरा॥
नयन चकोर पेममद भरे । भइ सुदिस्ट जोगा सहुँ ढरे॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रापि नैनहिं जिउ दीन्हा॥
जेहि मद चढ़ा परा तेहि पाल । सुधिा न रहा आहि एक सियाल॥
परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँड़ सरग कहँ खेला॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागा । मरतिहुँ बार उहै धाुनि लागा॥
जेहि धांधाा जाकर मन लागै, सपनेहु सूझ सा धांधा।
तेहि कारन तपसी तप साधाहिं, करहिं पेम मन बंधा॥12॥
पदमावति जस सुना बखानू । सहस करा देखेसि तस भानू॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिाकौ सूत, सोर तन लागा॥
तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे॥
घरी आइ तब गा तू सोई । कैसे भुगुति परापति होई॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही॥
परगट होहुँ त होइ अस भंगू । जगत दिया कर होइ पतंगू॥
जा सहुँ हौं चख हेरौं, सोइ ठाँव जिउ देइ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ?॥13॥
कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परवत छाड़ि सिंघलगढ़ ताका॥
बलि भए सबै देवता बली । हत्यारिन हत्या लेइ चली॥
को अस हितू मुए गह बाहीं । जो पै जिउ अपने घट नाहीं॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई॥
भाइ बंधाु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावे सो हित पूरा॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा॥
परी कया भुइ लोटै, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ।
को उठाइ बैठारै, बाज पियारे जीउ॥14॥
पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हकारी॥
देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखेउँ आली॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा। औरबिउदयपछिउँदिसिकीन्हा॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा। चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा॥
दिन औ राति भए जनु एका। राम आइ रावन गढ़ छेंका॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधाा। अरजुन बान राहु गा बेधाा॥
जनहुँ लंक सब लूटी, हनुव बिधांसी बारि।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कछु सपन बिचारि ॥15॥
सखी सो बोली सपन बिचारू । काल्हि जो गइहु देव के बारू॥
पूजि मनाइहु बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती॥
सूरज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी॥
पच्छिउँ ख्रड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई॥
किछु पुनि जूझ लागि तुम रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा॥
चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधासब बेधाब राहू॥
जस ऊषा कहँ अनिरुधा मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला॥
सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ, पान फूल रस भोग।
आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग॥ 16॥
(1) दैउ दैउ कै=किसी किसी प्रकार से, आसरा देखते-देखते। हँकारी=बुलाया। बारी=कुमारियाँ। गोहने=साथ में, सेवा में।
(2) आन=राजा की आज्ञा, डौंडी। होइ मालति=श्वेत हास द्वारा मालती के समान होकर। तारा मंडल=एक वस्त्रा का नाम, चाँदातारा। कुमोद=कुमुदिनी।
(3) आहा=वाह वाह, धान्य धान्य। छत्तिास कुरि=क्षत्रिायों के छत्ताीसों कुलों की। बैंसिनि=बैस क्षत्रिायों की स्त्रिायाँ। बानिनि=बनियाइन। पउनि=पानेवाली, आश्रित, पौनी=परजा। डार=डला।
(4) धामारि=होली की क्रीड़ा। जोहार=प्रण्ााम आदि। मनोरा झूमक=एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रिायाँ झुंड बाँधाकर गाती हैं; इसके प्रत्येक पद में 'मनोरा झूमक हो' यह वाक्य आता है। सैतब=समेटकर इकट्ठा करेंगी।
(5) जाँबु...झारा=जामुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी दिखाई देती है। न्यौजी=चिलगोजा। खीरी=खिरनी। गुवा=गुवांक, दक्खिनी सुपारी।
(6) कूजा=कुब्जक, सफेद जंगली गुलाब। गोरी=श्वेत मल्लिका। अजानबीरो=एक बड़ा पेड़ जिसके संबंधा में कहा जाता है कि उसके नीचे जाने से आदमी की सुधा बुधा भूल जाती है।
(7) पंचम=पंचम स्वर में। मादर=मर्दल, एक प्रकार का मृदंग।
(8) जाइ तुलानी=जा पहुँची। दियारा=लुक जो गीले कछारों में दिखाई पड़ता है; अथवा मृगतृष्णा। चाँप=चंपा, चंपे की महक भौंरा नहीं सह सकता।
(9) एक...दूजा=दो बार प्रणाम किया।
(10) हींछि=इच्छा करके। अकूत=परोक्ष, आकाशवाणी। ओझा=उपाधयाय, पुजारी (प्रा. उवज्झाओ)। पूरि=पूरी। गोझा=एक पकवान, पिराक। खोवा=खोब, खोवे। धार=शरीर।
(11) तंत=तत्तव। दसएँ लछन=योगियों के बत्ताीस लक्षणों में दसवाँ लक्षण 'सत्य' है। पिंगला=पिंगला नाड़ी साधने के लिए अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण। कजरी आरन=कदलीवन।
(12) कवार=कटारा। जोगी सहुँ=जोगी के सामने, जोगी की ओर। नैन रोपि...दीन्हा=ऑंखों में ही पदमावती के नेत्राों के मद को लेकर बेसुधा हो गया।
(13) मकु=कदाचित्। सूत=सोया। सीर=शीतल, ठंढा (प्रा. सीयड, सीयर)। आखर=अक्षर। ठाँव=अवसर, मौका। बारति रही=बचाती रही। भंग=रंग में भंग, उपद्रव।
(14) ताका=उस ओर बढ़ा। मरि भा=मर गया, मर चुका। बलि भीउँ=बलि और भीम कहलानेवाले। बाज=बिना, बगैर, छोड़कर।
(15) बिहार=विहार या सैर की। मेरावा=मिलन। निखेधाा=वह ऐसी निषिध्द या बुरी बात है। राहु=रोहू मछली। राहु गा बेधाा=मत्स्यबेधा हुआ।
(16) जूझ....रामा=हे बाला! तुम्हारे लिए राम कुछ लड़ेंगे (राम=रत्नसेन, रावण=गंधार्वसेन)। बारि बिधांसव=संभोग के समय शृंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत। बगीचा। पुरबिला=पूर्व जन्म का। संजोग=फल या व्यवस्था।