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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम पार्वती-महेश खंड पीछे     आगे

ततखन पहुँचे आइ महेसू । बाहन बैल, कुस्टि कर भेसू॥

काथरि कया हड़ावरि बाँधो । मुंड माल और हत्या काँधो॥

सेसनाग जागे कँठमाला । तनु भभूति, हस्ती करछाला॥

पहुँची रुद्रकँवल के गटा । ससि माथे औ सुरसरि जटा॥

चँवर घंट औ डँवरू हाथा । गौरा पारवती धानि साथा॥

औ हनुवंत वीर सँग आवा । धारे भेस बाँदर जस छावा॥

अवतहि कहेन्हि न लावहु आगी । तेहि कै सपथ जरहु जेहि लागी॥

की तप करै न पारेहु, की रे नसाएहु जोग?

जियत जीउ कस काढ़हु? कहहु सो मोहि बियोग॥1॥

कहेसि मोहि बातन्ह बिलमावा । हत्या केरि न डर तोहि आवा॥

जरै देहु, दुख जरौं अपारा । निस्तर पाइ जाउँ एक बारा॥

जस भरथरी लागि पिंगला । मो कहँ पदमावति सिंघला॥

मैं पुनि तजा राज औ भोगू । सुनि सो नावँ लीन्ह तप जोगू॥

एहि मढ़ सोएहुँ आइ निरासा । गइ सो पूजि, मन पूजिन आसा॥

मैं यह जिउ डाढ़े पर दाधाा । आधाा निकसि रहा, घट आधाा॥

जो अधाजर सौ बिलंब न लावा । करत बिलंब बहुत दुख पावा॥

एतना बोल कहत मुख, उठी बिरह कै आगि।

जौं महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि॥2॥

पारबती मन उपना चाऊ । देखौं कुँवर केर सत भाऊ॥

ओहि ऐहि बीच कि पेमहि पूजा । तन मन एक कि मारग दूजा॥

भइ सुरूप जानहुँ अपछरा । बिहँसि कुँवर कर ऑंचर धारा॥

सुनहु कुँवर मौसौं एक बाता । जस मोहि रंग न औरहि राता॥

 

औ बिधिा रूप दीन्ह है तोकाँ । उठा सो सबद जाइ सिवलोका॥

तब हौं तोपहँ इंद्र पठाई । गइ पदमिनि, तैं अछरी पाई॥

अब तजु जरन मरन, तप जोगू । मोसौं मानु जनम भरि भोगू॥

हौं अछरी कबिलास कै, जेहि सर पूजि न कोइ।

मोहि तजि सँवरि न ओहि मरसि, कौन लाभ तेहि होइ?॥3॥

भलेहि रंग अछरी तोर राता । मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता॥

मोहिं ओहि सँवरि मुए तम लाहा । नैन जो देखसि पूछसि काहा॥

अबहिं ताहिं जिउ देइ न पावा । तोहि अस अछरी ठाढ़ि मनावा॥

जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा । न जनौं काह होइ कविलासा॥

हौं कबिलास काह लै करऊँ । सोइ कबिलास लागि जेहि मरऊँ॥

ओहि के बार जीउ नहिं बारौं । सिर उतारि नेवछावरि सारौं॥

ताकर चाह कहै जो आई । दोउ जगत तेहि देहुँ बड़ाई॥

ओहि न मोर किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ।

तेहि निरास पीतम कहँ, जिउ न देउँ का देउँ ॥4॥

गौरइ हँसि महेस सौं कहा । निहचै एहिं बिरहानल दहा॥

निहचै यह ओहि कारन तपा । परिमल पेम न आछै छपा॥

निहचै पेम पीर यह जागा । कसे कसौटी कंचन लागा॥

बदन पियर जल डभकहि नैना । परगट दुवौ पेम के बैना॥

यह एहि जनम लागि ओहि सीझा । चहै न औरहि ओही रीझा॥

महादेव देवन्ह के पीता । तुम्हरी सरन राम रन जीता॥

एहू कहँ तस मया करेहू । पुरवहु आस कि हत्या लेहू॥

हत्या दुइ के चढ़ाए, काँधो बहु अपराधा।

तीसर यह लेउ माथे, जो लेवै कै साधा॥5॥

सुनि कै महादेव के भाखा । सिध्दि पुरुष राजै मन लाखा॥

सिध्दहि अंग न बैठे माखी । सिध्द पलक नहिं लावै ऑंखी॥

सिध्दहिं संग होइ नहिं छाया । सिध्दहिं होइ भूख नहिं माया॥

जेहि जग सिध्द गोसाईं कीन्हा । परगट गुपुत रहै को चीन्हा?॥

बैल चढ़ा कुस्टी कर भेसू । गिरजापति सत आइ महेसू॥

 

चीन्है सोइ रहै जो खोजा । जस विक्रम औ राजा भोजा॥

जो ओहि तंत सत्ता सौं हेरा । गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा॥

बिन गुरु पंथ न पाइय, भूलै सो जो मेट।

जोगी सिध्द होइ तब, जब गोरख सौं भेंट॥6॥

ततखन रतनसेन गहबरा । रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा॥

मातै पितै जनम कित पाला । जो अस फाँद पेम गिउ घाला?॥

धारती सरग मिले हुत दोऊ । केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ!॥

पदिक पदारथ कर हुँत खोवा । टूटहिं रतन, रतन तस रोवा॥

गगन मेघ जस बरसै भला । पुहुपी पूरि सलिल बहि चला॥

सायर टूट, सिखर गा पाटा । सूझ न बार पार कहुँ घाटा॥

पौन पान होइ होइ सब गिरई । पेम के फंद कोइ जनि परई॥

तस रोवै जस जिउ जरै, गिरै रक्त औ माँसु।

रोवँ रोवँ सब रोवँही, सूत सूत भरि ऑंसु॥7॥

रोवत बूड़ि उठा संसारू । महादेव तब भएउ भयारू॥

कहेन्हि न रोव, बहुत तै रोवा । अब ईसर भा, दारिद खोवा॥

जो दुख सहै होइ दुख ओकाँ । दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका॥

अब तैं सिध्द भएसि सिधिा पाई । दरपन कया छूटि गइ काई॥

कहौं बात अब हौं उपदेसी । लागु पंथ, भूले परदेसी॥

जौ लगि चोर सेंधा नहिं देई । राजा केरि न मूसै पेई॥

चढ़े न जाइ बार ओहि खूँदी । परैं त सेंधिा सीस बल मूँदी॥

कहौं सो तेहि सिंघलगढ़, है ख्रड सात चढ़ाव।

फिरा न कोई जियत जिउ, सरग पंथ देइ पाव॥8॥

गढ़ तस बाँक जैसि तेरि काया । पुरुष देखु ओही कै छाया॥

पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हें । जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हें॥

नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा । औ तहँ फिरहि पाँच कोटवारा॥

दसवँ दुआर गुपुत एक ताका । अगम चढ़ाव, बाट सुठि बाँका॥

भेदै जाइ सोइ वह घाटी । जो लहि भेद, चढ़ै होइ चाँटी॥

गढ़ तर कुंड, सुरँग तेहि माहाँ । तहँ बह पंथ कहौं तोहि पाहाँ॥

चोर बैठ जस सेंधिा सँवारी । जुआ पैंत जस लाव जुआरी॥

 

जस मरजिया समुद धाँस, हाथ आव तब सीप।

ढूँढ़ि लेइ जा सरग दुआरी, चढ़ै सो सिंघलदीप॥9॥

दसवँ दुआर ताल कै लेखा । उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा॥

जाइ सो तहाँ साँस मन बँधाी । जस धाँसि लीन्ह कान्ह कालिंदी॥

तू मन नाथु मारि कै साँसा । जो पै मरहि अबहिं करु नासा॥

परगट लोकचार कहु बाता । गुपुत लाउ मन जासौं राता॥

'हौं हौं' कहत सबैं मति खोई । जौं तू नाहिं आहि सब कोई॥

जियतहिं जुरै मरै एक बारा । पुनि का मीचु, को मारै पारा॥

आपुहि गुरु सो आपुहिं चेला । आपुहिं सब औ आपु अकेला॥

आपुहि मीच जियन पुनि, आपुहि तन मन सोइ।

अपुहि आपु करै जो चाहै, कहाँ सो दूसर कोइ?।10॥

(1) कुस्टि=कुष्टी, कोढ़ी। हड़ावरि=अस्थि की माला। हत्या=मृत्यु, काल? रुद्रकँवल=रुद्राक्ष। गटा=गट्टा, गोल दाना।

(2) निस्तर=निस्तार, छुटकारा।

(3) ओहि एहि बीच...दूजा=उसमें (पदमावती में) और इसमें कुछ और अंतर रह गया है कि वह अंतर प्रेम से भर गया है और दोनों अभिन्न हो गए हैं।

(4) राता=ललित, सुंदर। तोकाँ=तुमको, (=तो कहँ)। तस=ऐसा (इस अर्थ में प्राय: प्रयोग मिलता है)। कविलास स्वर्ग। वारौं बचाऊँ। सारौं करूँ। चाह=खबर। निरास=जिसे किसी की आशा न हो, जो किसी के आसरे का न हो।

(5) आछे=रहता है। कसे=कसने पर। लागा=प्रतीत हुआ। डभकहिं=डबडबाते हैं, आर्द्र होते हैं। परगट...बैना=दोनों (पीले मुख और गीले नेत्रा) प्रेम के वचन या बात प्रकट करते हैं। हत्या दुइ=दोनों कंधाों पर एक एक (कवि ने शिव के कंधो पर हत्या की कल्पना क्यों की है, यह नहीं स्पष्ट होता)।

(6) लाख=लखा, पहचाना। मेरा=मेल, भेंट। जो इस सिध्दांत को नहीं मानता।

(7) गहबरा=घबराया। घाला=डाला। पदिक=ताबीज, जंतर। गा पाटा=(पानीसे) पट गया।

(8) मयारु=मया करनेवाला, दयार्द्र। ईसर=ऐश्वर्य। आकाँ=उसको (ओकाँ=ओकहँ)। मूसै पेई=मूसने पाता है। चढ़ै न खूँदी=कूदकर चढने से उस व्दार तक नहीं जा सकता।

(9) ताका=उसका। जो लहि... चाँटी=जो गुरु से भेद पाकर चींटी के समान धीरे-धीरे (योगियों के पिपीलिका मार्ग से) चढ़ता है। पैंत=दाँव।

(10) ताल कै लेखा=ताड़ के समान (ऊँचा)। लोकचार=लोकाचार की। जुरै=जुट जाय।


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